Thursday, December 23, 2010
''नया मिजाज़, नया रंग ,नया तेवर है...... '' --- सुनील अमर
अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि इससे यानी विकिलिकियाई से लाभ किसका होगा? जनता जनार्दन का या फिर उनका, जिनका कि किसी प्रकार से सूचना-स्रोतों पर अधिकार रहेगा ! अभी तक जो कुछ सामने आया है, वह चूँकि पहली बार है, इसलिए हम बहुत आह्लादित से हैं और यह जानना अभी शेष है कि जो दिखाया गया है वह, शो-रूम है कि गोदाम ! अभी तो हम यही मानकर चल रहे हैं कि जुलियन असान्जे ने, जो कुछ भी पाया है वो सब खोल कर रख दिया है! और यह सही भी हो सकता है, अगर उनकी प्रतिबद्धता कोई वैचारिक न होकर सिर्फ़ रहस्योद्घाटन की ही हो ! वैचारिक प्रतिबद्धता होने पर तो सिर्फ़ वही और उतना ही बताया जाता है, जिससे कि अपने विचारों का प्रचार-प्रसार हो. यही कारण है कि वैचारिक प्रतिबद्धता वालों की बातों पर तुरंत या आँख मूंद कर भरोसा नहीं किया जाता!
दूसरों को आईना दिखाने वाला मीडिया इन दिनों खुद आईने के सामने है. अपने को चाँद समझने के मुग़ालते में रहने वाले को अब पता चल रहा है कि उसके ख़ूबसूरत कहे जाने वाले चेहरे पर भी कई बदसूरत दाग और धब्बे हैं! अपने को मीडिया का बड़ा ख़ुदाई फ़ौजदार मानने वाले, इन दाग-धब्बों को क्रमशः छिपाने, मिटाने या चमकाने में लगे हुए हैं! एकाध फ़ौजदार तो इस आधार पर इन दाग-धब्बों को माफ़ कर देने की वक़ालत कर रहे हैं कि अतीत में मीडिया ने बड़े-बड़े घोटालों-भ्रष्टाचारों को उजागर किया है, इसलिए उसकी इस पहली(!) गलती को माफ़ कर दिया जाना चाहिए ! कमाल है! भाई, यही सहूलियत आप और अपराधियों के बारे में क्यों नहीं चाहते ? आखिर वे भी तो अदालतों में कसम खाते हैं कि दुबारा अपराध नहीं करेंगें! या आपने बिल्कुल तय ही कर लिया है कि मीडिया वाले Super -Duper चीज़ हैं! अब तो आप रहम करिए देश की जनता पर और ये फ़ैसला उसे ही करने दीजिये प्लीज़.
WikiLeaks का दिखाया रास्ता बहुत सस्ता, सुलभ, आसान और बेहद असरदार है.लेकिन यह ऐसा ही बना रहने पायेगा, इसमें संदेह है, क्योंकि यह सारी दुनिया के स्थापित तंत्रों के खिलाफ है.और दुनिया भर के शासन-तंत्र और बड़े मीडिया समूह इसका गला घोटने का मंसूबा सरे-आम पाले हुए हैं.फिर भी इस विकिलिकियाई से अगर हमें काफ़ी उम्मीदें हैं तो महज़ इस कारण कि इसका उत्स हम-आप ही हैं.हम-आप अगर चाहेंगें तो यह इस WikiLeaks नहीं तो दूसरे WikiLeaks , तीसरे
WikiLeaks या फिर चौथे WikiLeaks के रूप में सामने आता ही रहेगा ! जाहिर है कि यह '' हल्दी लगे न फिटकरी और रंग चोखा'' टाइप का मामला है! 00
Tuesday, December 21, 2010
उप्र भाजपा और उमा भारती की वापसी -- सुनील अमर
उमा भारती की भाजपा-वापसी के प्रयास और चर्चाऐं लगभग डेढ़ साल से चल रही हैं। दरअसल, जब एक वक्त के भाजपा के नायक कल्याण सिंह, अपने लम्बे राजनीतिक अनुभव को मिथ्या करार देते हुए अपनी धार विरोधी समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिये तो भाजपा को लगा कि अब पिछड़े वोट सपा के साथ जुड़ जायेंगें। लगभग तभी यह भूमिका बन गई थी कि अब उमा भारती को भाजपा में वापस लाया जाना चाहिए। कल्याण और उमा, ये दोनों भाजपा के पिछड़े वर्ग के दिग्गज नेता रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि पार्टी को इनकी कमी खटकती। हालाँकि कल्याण को पार्टी में वापस लाने का प्रयोग एक राजनीतिक भूल ही साबित हुई थी। लेकिन राजनीति, सिर्फ अच्छाइयों और सच्चाइयों पर चलने की चीज तो होती नहीं। इसमें तो बहुत बार जानबूझ कर पिछली भूलों और गल्तियों पर पुन: सवार हुआ जाता है!
उमा भारती को जब भाजपा से निकाला गया था, उस वक्त पार्टी अगर उ.प्र. में ढ़लान पर थी, तो आज वह गिर चुकी है। इस दौरान जितने भी चुनाव और उप-चुनाव हुए, उनमें लगातार इस पार्टी की हालत खराब होती गई, और प्रत्याषियों की जमानत जब्त होने का रिकार्ड बनता गया। आज तो उ.प्र. में स्थिति यह है कि अभी नयी-नयी गठित और नामालूम सी पीस पार्टी के मुकाबले भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी कहीं टिक नहीं पा रही है। अभी गत सप्ताह सम्पन्न जिला पंचायत अधयक्षों के चुनाव में 72 जिलों मे से सिर्फ एक जिले में भाजपा जीत पाई है! पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्र्षित करने के लिए सपा, बसपा और काँग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं रख रही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उ.प्र. में भाजपा के स्वर्णिम दिनों में (वर्श 1992 से लेकर 1999 तक) पिछडे, ख़ासकर कुर्मी और लोधा, इसके प्रमुख वोट बैंक हुआ करते थे। इस वोट बैंक को आकर्शित करने में प्रदेष के कल्याण सिंह, उमा भारती, ओमप्रकाश सिंह, विनय कटियार और गंगाचरण सिंह आदि नेताओं का बहुत योगदान था। लेकिन एक तो राम मंदिर निर्माण के सम्बन्ध में बार-बार की लफाजी और दूसरे उक्त बड़े नेताओं के सत्ता में कई बार रहने के बावजूद पिछड़ों के लिए कोई सार्थक कार्य न किये जाने के कारण यह वोट बैंक भी इससे उदासीन होकर दूसरी तरफ खिसक गया। इसी दौरान भाजपा के षीर्श पुरुश अटल बिहारी वाजपेयी से अपनी मत-भिन्नता के चलते कल्याण सिंह का तथा अन्यान्य कारणों से उमा भारती का जो उत्पीड़न पार्टी द्वारा शुरु हुआ तो इसका भी काफी गलत संदेश पिछड़े वर्ग में गया। भाजपा को इन सबका काफी नुकसान उठाना पड़ा।
भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन कर भाजपा को नेस्तनाबूद कर देने की बार-बार की धमकी और भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी सुश्री उमा भारती, एक लम्बे समय से भाजपा में आने के जुगाड़ मे लगी थीं। वे अगर सफल नहीं हो पा रही थीं तो इसका साफ मतलब यह था कि पार्टी के भीतर एक बड़ा और प्रभावी तबका इसका विरोध कर रहा था। यह विरोध कितना ताकतवर था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौह-पुरुष आडवाणी के खुलकर चाहने के बावजूद उमा की वापसी नहीं हो पा रही थी। अब अगर उनकी वापसी हो रही है तो यह सिर्फ आडवाणी के चाहने से नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों के चलते हो रही है जिनमें एक तो, संघ के खुले दख़ल से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की नियुक्ति, दूसरी, भाजपा को एक बार फिर से 1992 की राजनीतिक-धार्मिक कट्टरता के हिसाब से चलाने का संकल्प और तीसरी, अभी-अभी बिहार में सम्पन्न विधान सभा चुनाव के नतीजों की वह व्याख्या कि बैकवर्ड और मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण ने जद-यू और भाजपा गठबंधन को हैरतअंगेज सफलता दिला दी, आदि शामिल हैं। अब भाजपा को लग रहा है कि बिहार की तरह उ.प्र. में भी बैकवर्ड कार्ड खेलकर और 1992 की तरह धार्मिक भावनाओं को उभार कर चुनावी लाभ लिया जा सकता है। हालांकि भाजपा यह भूल रही है कि बिहार का ताजा चुनाव, जाति नहीं विकास के बूते और लालू-राज की वापसी के भय को आधार बना कर लड़ा और जीत गया।
बिहार के जिस ताजा प्रयोग की चर्चा आजकल मीडिया में खूब की जा रही है, उ.प्र. में वर्ष 2007 में वही प्रयोग और वैसी ही हैरतअंगेज सफलता बसपा प्राप्त कर चुकी है। आज भी बसपा अपने उसी स्टैण्ड पर कायम है और आगामी चुनाव भी उसी तरह लड़ने की अपनी मंशा वह जाहिर कर चुकी है। ऐसे में सुश्री उमा भारती के पास वह कौन सा फार्मूला है जिससे वह न सिर्फ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को आकर्शित कर लेंगीं बल्कि राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं में धार्मिक भावनाओं का उफान लाकर वे वोटों से भाजपा की झोली को भर देंगी? और यह सब, हो सकता है वे कर भी ले जातीं, लेकिन उन्हें उ.प्र. में जो भाजपा संगठन मिल रहा है, वह भी गौर करने लायक है कि क्या वह इतना सक्षम भी है? उ.प्र. में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही हैं, जो लगभग उसी तरह से अक्षम हैं, जैसे पिछले दो-तीन अध्यक्ष होते रहे हैं। निवर्तमान अघ्यक्ष डा. रमापतिराम त्रिपाठी का कार्यकाल तो बहुत ही लचर रहा। संगठन की तमाम बैठके और अधिवेशनं तक में मंच पर ही तू-तू, मैं-मैं का नजारा दिखाई पड़ता रहा। आज भी कमोवेश वही स्थिति बनी हुई है। और तो और, राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर नितिन गड़करी की ताजपोशी को ही लेकर आज तक उ.प्र. भाजपा सहज नहीं हो पाई है। यही वजह है कि देष के सभी राज्यों से अधिक ध्यान उ.प्र. पर देने के बावजूद श्री गड़करी यहॉ कोई भी सुधार कर नहीं पाए हैं।
कल्याण सिंह, साधवी ऋतम्भरा और उमा भारती सरीखे नेता भाजपा के लिए तभी तक मुफीद थे, जब तक वह कट्टर हिन्दुत्व की राह पर चल रही थी। इन सभी नेताओं ने अपने आज तक के राजनीतिक जीवन में 'जय श्री राम' और 'मंदिर वहीं बनायेंगें' के अलावा और कुछ किया नहीं। साधवी तो भाजपा के शासनकाल में काफी जमीन आदि का जुगाड़ बनाकर अब आश्रम व्यवस्था तक ही सीमित रह गई हैं। कल्याण और उमा, भाजपा से निकाले जाने के बाद अपने-अपने राजनीतिक संगठन बनाकर अपनी सामर्थ्य को ऑंक चुके हैं। दरअसल भाजपा को अयोध्या विवाद के फैसले से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन जब फैसला आया तो उसने सारी उम्मीदों की हवा ही निकाल दी। फिर भाजपा को मुसलमानों से उम्मीद बंधी कि शायद मुसलमान ही फैसले पर प्रतिक्रिया करनी शुरु कर दें लेकिन मुसलमानों ने न्यायिक लड़ाई लड़ने की घोशणा करके अपनी प्रतिक्रिया बेहद संतुलित कर दी। इससे भाजपा और संघ को अपने भविष्य के मंसूबों को धार देने में बहुत निराशा महसूस हो रही हैं। (Published in Hum Samvet Features on 20 December 2010)
Monday, December 13, 2010
भयादोहन करती विज्ञापनों की भाषा -- सुनील अमर
भूमंडलीकरण ने जिस उपभोक्ता-संस्कृति या उपभोगवाद को जन्म दिया है, यह विज्ञापनी कुचक्र उसी का प्रतिफलन है। दरअसल डर को बेचना बहुत आसान होता है, बशर्ते ग्राहक को ठीक से डरा दिया जाय। डरा हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि उसके विवेक पर डर हाबी हुआ रहता है। ऐसे में उसे डर से मुक्ति का जो उपाय बताया जाता है वह सहज ही उसे अपना लेता है। वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विवेकहीन ग्राहक से अच्छा और क्या हो सकता है! सो येन-केन-प्रकारेण ग्राहकों को डराने का यह गैर-कानूनी कार्य सरे-आम और निर्बाध रुप से चल रहा है। अब ऐसा नहीं है कि डराने का यह खेल सिर्फ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ही किया जा रहा है, बल्कि इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है। इसमें पहले भूत-प्रेत की कपोल-कल्पित कहानियों पर आधारित धारावाहिकों को दिखाकर भयभीत ग्राहक तैयार किये जाते हैं, तत्पश्चात उनके उपचारार्थ ढ़ोंगी बाबाओं, तांत्रिकों और तथाकथित धर्मगुरुओं को टी.वी. चैनलों पर पेशकर उनकी दुकान चलवाई जाती है। यह ध्यान दिला देना उचित ही होगा कि भयादोहन के इस व्यापार में सिर्फ उपदेश ही नहीं बिकता बल्कि करोड़ों-अरबों रुपये की पूजा सामग्रियों और चढ़ावे का भी वारा-न्यारा होता है। इस प्रकार यह एक सुनियोजित व्यापार है।
टी.वी. पर आने वाले विज्ञापनों पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि इनका सहज निशाना मुख्य तौर पर महिलाऐं और बच्चे होते हैं। इन्हीं को लक्ष्य कर विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है। इसके पीछे का मनोविज्ञान भी बिल्कुल साफ है-घर चलाने और उसके लिए सामान खरीदने की जिम्मेदारी गृहणी की होती है तथा प्रत्येक बच्चा अपने माँ-बाप की कमजोरी होता है। बच्चे की सलामती और उसके खुशहाल भविष्य के लिये मॉ-बाप कुछ भी करने के लिए हमेशा ही हो जाते हैं, और इसीलिए वे धंधोबाजों के निशाने पर आ जाते हैं। धंधा करने के लिए पहले भ्रान्तियाँ पैदा की जाती हैं, तत्पश्चात उसके निवारण के सामान उपलब्ध कराये जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक स्त्री दूसरी से कहती थी कि- साफ तो है लेकिन स्वच्छ नहीं। अब जब तक आम दर्शक इस व्याकरण में पड़े कि साफ और स्वच्छ का फर्क क्या हुआ तब तक उसे बता दिया जाता था कि साफ तो किसी भी उत्पाद से किया जा सकता है लेकिन स्वच्छता तो सिर्फ उसी कम्पनी के उत्पाद से आ सकती है! एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपने साबुन के प्रचार के लिए एक समय तो एक नया शब्द ही गढ़ लिया था-चमकार! अब आप शब्दकोश में तलाशते रहिये यह शब्द और इसका मतलब! दिक्कत किसी वस्तु के प्रचार में नहीं बल्कि उसे जबरन बेचने में है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दृष्य या श्रव्य माध्यमों पर ही ऐसा हो रहा है। प्रिन्ट माध्यम मे भी यह खेल उसी रफ्तार से हो रहा है जैसे दृष्य-श्रव्य में। यहाँ न सिर्फ शब्दों की बाजीगरी है बल्कि कानूनी शिकन्जे से अपनी गर्दन बचाये रखने के लिए अपठनीय बारीक अक्षरों में हिदायतें छापने की चालाकी भी रहती है। यह सभी जानते हैं कि सफाई अच्छी बात है लेकिन सफाई का आतंक पैदाकर कोई वस्तु विशेष बेचने का प्रयास करना तो गैर कानूनी ही कहा जाएगा। बच्चों के लिए एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि गर्मी के दिनों में सूर्य देवता बाकायदा एक पाइप उनके सिर पर लगाकर सारी ताकत चूस लेते हैं। धूप में लड़खड़ाता हुआ एक बच्चा और उसके सिर पर चिपकी एक पाइप से शरीर की सारी ताकत खींचती कोई आसमानी शक्ति! और फिर यह आदेशात्मक सुझाव कि सिर्फ उनकी कम्पनी का फलां पेय पदार्थ ही इससे बच्चे की सुरक्षा कर सकता है। अब बच्चे तो बच्चे, बड़ों को भी यह विज्ञापन ऐसा विचलित करता है कि वे भी अपने नन्हें-मुन्नों की सलामती के लिए चिन्तित हो जायँ। और वास्तव में यही चिन्ता पैदा कर देना ही तो करोड़ों में बनने वाले इन विज्ञापनों की सफलता है! जब आप चिन्तित हो जायेंगें तभी तो चिन्ता दूर करने का उपाय करेंगें!
दुनिया में धन केन्द्रित व्यवस्था और 'इस्तेमाल करो और फेंको' की पनपती संस्कृति ने निश्चित ही पुराने आदर्शों और मान्यताओं को ढहाया है। यही कारण है कि आज के समाज में तमाम ऐसे भी व्यवसाय हो गये हैं जो लोगों की भावनाओं को क्षति पहुँचाकर ही किये जाते हैं। इसके प्रतिफलन में भावनाऐं और संवेदनाऐं भी धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही हैं। यह सहज ही सोचने वाली बात है कि जिस तरह से विज्ञापनों में बताया जाता है कि काम करने से हाथों में कीटाणु, सांस लेने से शरीर के भीतर कीटाणु, कपड़ों में कीटाणु, दॉतों में कीटाणु, हर प्रकार के खाद्य पदार्थों में कीटाणु और गरज़ यह कि चारों तरफ कीटाणु ही कीटाणु भरे पड़े हैं, ऐसे में तो दुनिया के हर आदमी का जीवन ही दुश्वार हो जाना चाहिए था! लेकिन ऐसा नहीं है, लोग जी रहे है बल्कि हो यह रहा है कि आज अमीरों द्वारा संक्रमण और बीमारियॉ ज्यादा फैलायी जा रही हैं। बीते दिनों में हमने देखा कि वैश्वीकरण के चलते 'मैड काउ डिजीज','बर्ड फ्लू' और 'स्वाइन फ्लू', जैसी घातक संक्रामक बीमारियाँ गरीबों की देन नहीं थीं बल्कि जो सम्पन्न वर्ग है और जो खान-पान और रहन-सहन के सारे विज्ञापनी एहतियात बरत सकता है, वही पहले-पहल इन सबकी चपेट में आया और फिर बाकी लोगों को आना ही था। ये विज्ञापनी सावधानियॉ जाहिर है कि धंधेबाज हैं और इनका मकसद सिर्फ लोगों की जेब से पैसा खींचना भर ही हैं। फिर भी यह सवाल अपनी जगह रह ही जाता है कि लोगों को बहला-फुसला कर, दिग्भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करना कहाँ तक उचित है?
--- सुनील अमर ( Published in HumSamvet Features 13December2010)
Friday, December 10, 2010
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी --- सुनील अमर
ये बड़े पत्रकार क्या होते हैं भला ? जाहिर है कि यहाँ लम्बाई तो नापी नहीं जा रही है. उन्हें मिले ईनामों-इकरामों को भी नहीं गिना जा रहा है. जो मिले या अपने गढ़े किन्हीं बड़े पदों पर आसीन हैं, उन्हें ही रवायत के लिहाज़ से बड़ा कहा जाता है,वरना बड़प्पन नापने के लिए अगर आदर्श पैमानों का इस्तेमाल किया जाता तो लिस्ट ऊपर से नीचे को पलट सकती है.अब निश्चिंतता इसी बात को लेकर है कि ऐसा होना ही नहीं है ! दरअसल जो लोग रोना रो रहे हैं, वो कोई 50 साल पुराना एक आईना लिए हैं, उसी में वो अपना भी मुंह देखते रहते हैं और दूसरों को भी वही दिखाने की कोशिश करते रहते हैं! इस सच्चाई को जान-बूझ कर भूलते हुए कि आज के बड़ी कुर्सी पर बैठे हुए पत्रकार, ऐसे आईने को देखना ही नहीं चाहते,क्योंकि इसकी उन्हें जरुरत भी नहीं है और यह उन्हें डराता भी है!
जिन बड़े पत्रकारों की नैतिक और आर्थिक फिसलन पर इतना स्यापा किया जा रहा है, अब तो उनका लगभग समूचा परिवेश ही जानकारी में है ! वे किसी मिशनरी के प्रोडक्ट नहीं हैं, और न ही वे किसी प्रकार का गणवेश धारण कर कोई समाज-सेवा करने की घोषणा करके इस मैदान में उतरे ही थे.वे जिस खेत के उत्पाद हैं वहाँ यही सब जोता-बोया जाता है, जिसकी फसल उन्होंने काटी है !
ये विलाप माने रख सकता था, असर डाल सकता था, अगर हम ज्यादा नहीं सिर्फ़ 20 साल पहले के समय में होते . जब एक स्वाभाविक लगन,एक स्वतः स्फूर्त समाज बदलने की ललक और समाज के महाजनों द्वारा स्थापित आदर्शों को अपनाने का एक दृढ निश्चय लेकर कोई युवा (प्रायः मध्यम वर्ग से) पत्रकारिता के विकट जंगल में उतरता था.एक समय में तो ऐसा आह्वान किया जाता था कि (पत्रकारिता के लिए ) ऐसे नवजवानों कि आवश्यकता है जिन्हें खाने के लिए दो सूखी रोटियां और रहने के लिए जेल उपलब्ध रहेगी. और यह भी सुखद इतिहास रहा है कि नवजवानों की कभी कमी नहीं पड़ी.
लेकिन आज ? कस्बाई स्तर पर भी किसी अख़बार का संवाददाता बनने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं और क्या-क्या लेन-देन करना पड़ता है, इसे सिर्फ़ कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है.और जिन्हें आज मीडिया घराना कहा जाता है, उनमें प्रवेश पाने के लिए तो पत्रकारिता या प्रबंधन या फिर दोनों की वो डिग्रियां होनी चाहिए जो लाखों रूपये फीस देने के बाद मिलती है.और एक गलाकाट प्रतियोगिता अलग से पार करनी पड़ती है. जिन महापुरुषों के भ्रष्ट हो जाने का स्यापा हो रहा है, वे दो सूखी रोटी का इश्तहार देख कर पत्रकारिता में नहीं कूद पड़े थे! वे सब एक योजनाबद्ध ढंग से इसकी तैयारी और इसके नफ़े-नुकसान का गुणा-भाग कर के आये थे. आज अरबों रुपयों से तैयार बड़े और भारी-भरकम पत्रकारिता संस्थानों से 'दीक्षित' होकर जो फ़ौज निकल रही है, ज़रा वहाँ के माहौल का भी जायजा लेना चाहिए कि हमारे भविष्य के कर्णधार किस मानसिकता के साथ तैयार किये जा रहे हैं! जब पत्रकारिता को हमने कैरियर बना दिया है, तो जो ऐब-ओ-हुनर कैरियर वालों में होते हैं, वो सब अपने विकृत रूप में इनमें भी आयेंगें ही.
पत्रकारों को काबू में रखने के लिए, अनुशासित करने के लिए और मर्यादित रहने के लिए नियम-कानूनों की बातें की जा रही हैं, जैसे यह देश में कोई नया प्रयोग होगा! आखिर पत्रकारों को छोड़ कर शेष सभी के लिए तो बने ही हैं तमाम नियम-कानून. कौन सा नतीजा दे रही हैं ये बंदिशें? हद तो यह है कि हम पहले तो एक काजल की कोठरी तैयार करते हैं फिर कुछ लोगों से अपेक्षा रखते हैं कि वे किसी मदारी के करतब को दिखाकर बेदाग उसमें आया-जाया करें! आज पत्रकारिता का समूचा तंत्र ही क्या विशाल पूंजी के नियोजन से नहीं चल रहा है ?बड़ी-बड़ी सेलरी, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ और बड़ी-बड़ी कोठियां, जिन पत्रकारों के पास हैं (और जिन्हें हमीं स्यापा करने वाले लोग हर छोटे-बड़े कार्यक्रमों में आज तक देवता समझ कर बुलाने की जुगत करते रहे हैं ) ये सब क्या गंगाजल से रोज आचमन करने से आ जाती हैं? आखिर किसको मूर्ख बनाने के लिए यह प्रलाप किये जा रहे हैं?एक महापुरुष ने तो प्रायश्चित के तौर पर अपना कालम कुछ दिनों के लिए बंद करने की घोषणा कर दी है, मानों कह रहे हों कि-लो,अब जब कालम के बिना तुम सब चिल्लाओगे तब तुम्हारी समझ में आयेगी मेरी अहमियत! दूसरी ओर एक महास्त्री हैं जो घूम-घूम कर प्रतिप्रश्न कर रही हैं कि जब ऐसा-ऐसा और ऐसा हुआ था तो क्यों नहीं स्यापा किये थे आप सब?
बिडम्बना देखिये कि जो महा-जन कभी दबे-कुचलों की बात करने के लिए विचारधारा-विशेष की ध्वजा उठाये फिरते थे, वे साफ-साफ और सरे-आम बिके और रातों-रात नौकर( संपादक) से मालिक बन गए,लेकिन हम उन्हें देवता ही मानते रहे! आज उन्हीं देवताओं की जूठन को प्रसाद के बजाय बिष्टा कह रहे हैं! क्यों भाई?
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी. अब इसे जो भोले-बलम लोग नहीं मानना चाहते, वो कृपया कुछ दिनों के लिए किसी पहाड़ी की गुफा में चले जांय और वहाँ अपने मन को साध कर कोई फार्मूला ले आयें जो पैसे के खेल में भी चाल-चरित्र और चेहरा आदर्श बना कर रख सकता हो! पत्रकार तो आज भी दो सूखी रोटी के ऐलान पर तमाम मिल जायेंगें लेकिन ऐसा ऐलान करने वाला कोई मालिक भी तो निकले! और अगर नहीं , तो आगे तमाम संघवी और तमाम बरखायें आपको कीचड़ में लथपथ दिखाई पड़ेंगें क्योंकि सत्ता-तंत्र राडियाओं से अटा पड़ा है.
मालिक-विहीन अख़बार यानी सहकारी समितियों द्वारा अख़बार चलाने की अवधारणा की गयी थी, कई विफल प्रयोग भी किये गए देश में. उ.प्र. के फ़ैजाबाद जिले से जनमोर्चा नामक एक हिंदी दैनिक सहकारिता के ही आधार पर पिछले 53 वर्षों से नियमित चल भी रहा है, लेकिन कर्मचारी बताते हैं कि वहाँ भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. तो असल चीज नीयत है और जब नीयत में खोट आ जाय तो लोकतंत्र से बढ़िया चरागाह और कहाँ मिल सकता है?
लेकिन इतिहास गवाह है कि आदर्शों और मूल्यों की बुझी हुई राख से ही बहुत बार ऐसी चिंगारियां निकली हैं कि सोने की बड़ी-बड़ी लंकाएं जल कर खाक़ हो गयी हैं. जब आप चिंता कर रहे हैं, हम चिंता कर रहे हैं, हम-सब चिंता कर रहे हैं, तो इस लंका को तो जलना ही है एक दिन!
कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म ऐसे माहौल में बड़ी राहत दे रही है -- '' आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, ..... तुम उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो.तुम भी उठो , इसी दीवार में इक राह निकल आयेगी .......''
राह जरूर निकलेगी दोस्तों ! और वो हमें ही निकालनी होगी,
आमीन !
Wednesday, November 24, 2010
''शर्म हमको मगर नहीं आती '' -- सुनील अमर
इंदिरा गाँधी और हिलेरी क्लिंटन की भला क्या तुलना हो सकती है ? नेट पर तो बहुत से भाई विदेश मामलों के जानकर भी होंगे, उनसे मेरी गुज़ारिश है कि अगर हिलेरी, इंदिरा गाँधी से 20 ठहरती हों तो कृपया मेरा भी ज्ञानवर्धन करें! हिलेरी छठे स्थान पर और इंदिरा गाँधी 9वें स्थान पर ! बेशर्मी की भी हद होनी चाहिए या नहीं? जिस सदी की चर्चा की गयी है, उसमें क्या थीं हिलेरी ? याद है किसी को ? हाँ, उनकी एक बात ज़रूर याद है कि उन्होंने किस तरह चेहरे पर भारी शर्मिंदगी का भाव लिए हुए अमेरिकन टीवी पर अपने लम्पट पति (और तब राष्ट्रपति भी ) की लम्पटता को माफ़ कर अपने परिवार को टूटने से बचा लिया था !
लेकिन काहे की बेशर्मी ,जब अभी कुछ महीनों पहले इससे भी ज्यादा बेशर्मी करके नोबल वाले हटे हैं ! इराक,अफ़गानिस्तान को ठंडा करने, पाकिस्तान को उजाड़ने,भारत को अस्थिर करने और इरान तथा कोरिया आदि को लगातार हड्काने के कारण अमेरिका के राष्ट्रपति को उन्होंने विश्व शांति का नोबल दे दिया है ! अब इसके बाद भी शर्म नाम की चीज के लिए क्या कोई जगह बचनी चाहिए? ज़रा गौर करिए , मदर टेरेसा अगर भारत की न होकर किसी पश्चिमी देश में पैदा हुई होतीं तो क्या वे 22वें स्थान पर रखी गयी होतीं? यकीन मानिये,वे जेन अडम्स के स्थान यानि पहले नंबर पर होतीं, लेकिन क्या करें ये times वाले, कहाँ से लायें वह आँख जो सही देख सके !
और उनको ज़रूरत भी क्या है ऎसी परवाह करने की ? पाँव तक सर झुका कर उनके हर काम पर कोर्निश करने के लिए हम हमेशा तैयार जो रहते हैं!
शर्म तो, वास्तव में हमें आनी चाहिए, लेकिन आती ही नहीं ! शायद शरमाती है भारत आने में ! 00
Monday, November 22, 2010
किसी को भी बोलने से नहीं रोका जाना चाहिए ---- सुनील अमर
इस देश में सुश्री अरुंधती रॉय को किसी भी विषय पर बोलने का उतना ही अधिकार है,जितना देश के किसी भी नागरिक को, और रॉय उतनी ही अपने क्रिया-कलापों के लिए स्वतंत्र हैं, जितना संघ प्रमुख मोहन भागवत अपने को समझते हैं. भागवत की मर्जी , वे चाहें तो अपने को कम स्वतंत्र समझें, लेकिन अरुंधती रॉय या जो कोई भी भारतीय अपने विचार प्रकट करना चाहे, उसे देश के संविधान ने यह आज़ादी दे रखी है, और वह ऐसी आज़ादी के लिए किन्हीं भागवतों का मोहताज नहीं है!
बुद्धि का जवाब बुद्धि से दिया जाना चाहिए, लेकिन जब बुद्धि ख़त्म हो जाती है तो स्वाभाविक ही हाथ-लात और डंडा-गोली चलने लगती है. सुश्री अरुंधती की बहुत सी बातों से बहुत से लोग सहमत नहीं हैं ( मैं खुद भी ) लेकिन संघ या कहीं के गुंडे अपने डंडे के बल पर किसी का बोलना या देश में कहीं आना-जाना रोक दें, यह प्रशासन के मुंह पर तमाचा है,और यह अगर शासन की मर्जी नहीं है तो बार-बार ऐसी वारदातें क्यों हो रही हैं देश भर में? जितना सुश्री अरुंधती बोलती हैं, उसका हज़ार गुना तो स्वयं संघ बोलता रहता है, और ऐसा नहीं है कि संघ को देशवासियों ने कोई अलग से अधिकार दे रखा है! संघ की स्थिति भी देश में वैसी ही है, जैसी कि सुश्री रॉय या देश के अन्य निवासियों की.
संघ को अगर गलत फ़हमी है कि वह एक बड़ा संगठन है, तो उसे जानना चाहिए कि देश और संविधान सबसे बड़े संगठन है. बोलने का हक़ ही तो लोकतंत्र है !
Wednesday, November 17, 2010
मोहल्ला ब्लॉग-- पुलिस की साजिश को आप साफ साफ देख सकते हैं
♦ विनीता पांडे
(मेरे बचपन के साथी हेम चंद्र पांडे की हत्या को सरकार सही ठहराने की कोशिश कर रही है। खुफिया एजेंसियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये पत्रकार अपने काम में जुटे हैं। इसलिए हेम की पत्नी बबीता के बयानों को ज्यादा अखबारों में जगह नहीं मिल पायी। सभी दोस्तों से अपील है कि नीचे दिये गये बबीता के इस बयान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। अगर आप पत्रकार हैं, तो इसे जगह-जगह प्रकाशित करने की कोशिश भी करें : भूपेन)
आंध्रप्रदेश पुलिस मेरे पति हेम चंद्र पांडे के बारे में दुष्प्रचार कर फर्जी मुठभेड़ में की गयी उनकी हत्या पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस मामले में न्यायिक जांच किये जाने के बजाय लगातार मुझे परेशान करने की कोशिश की जा रही है। पुलिस ने शास्त्रीनगर स्थित हमारे किराये के घर में बिना मुझे बताये छापा मारा है और वहां से कई तरह की आपत्तिजनक चीजों की बरामदगी दिखायी है। आंध्रप्रदेश पुलिस का ये दावा बिल्कुल झूठा है कि मैंने उन्हें अपने घर का पता नहीं बताया। पुलिस के पास मेरे घर का पता भी था और मेरा फोन नंबर भी लेकिन उन्होंने छापा मारने से पहले मुझे सूचित करना जरूरी नहीं समझा।
मैं अपने पति हेमचंद्र पाडे के साथ A- 96, शास्त्री नगर में रहती थी। हेम एक प्रगतिशील पत्रकार थे। साहित्य और राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उनके पास मक्सिम गोर्की के उपन्यास और उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा जैसे रचनाकारों की ढेर सारी रचनाएं थीं। इसके अलावा मार्क्सवादी राजनीति की कई किताबें भी हमारे घर में थीं। मैं पूछना चाहती हूं कि क्या मार्क्सवाद का अध्ययन करना कोई अपराध है? पुलिस जिन आपत्तिजनक दस्तावेजों की बात कर रही है, उनके हमारे घर में होने की कोई जानकारी मुझे नहीं है। मेरे पति का एक डेस्कटॉप कंप्यूटर था लेकिन उनके पास कोई लैपटॉप नहीं था। उनके पास फैक्स मशीन जैसी भी कोई चीज नहीं थी। वहां गोपनीय दस्तावेज होने की बात पूरी तरह मनगढ़ंत है। मुझे लगता है कि पुलिस मेरे पति की हत्या की न्यायिक जांच की मांग को भटकाने के लिए इस तरह के काम कर रही है। मैं पूछना चाहती हूं कि सरकार क्यों नहीं न्यायिक जांच के लिए तैयार हो रही है?
मैं अपने पति की हत्या के बाद काफी दुखी थी, इस वजह से मैं शास्त्रीनगर के अपने किराये के घर में नहीं गयी। मैं कुछ दिन अपनी सास के साथ उत्तराखंड के हलद्वानी और अपनी मां के पास पिथौरागढ़ में थी। मकान मालकिन का फोन आने पर मैंने उन्हें बताया था कि मैं वापस आने पर उनका सारा किराया चुका दूंगी। अगर उन्हें जल्द घर खाली कराना है तो मेरा सामान निकालकर अपने पास रख लें। मैं बाद में उनसे अपना सामान ले लूंगी। अगर हमारे घर में कोई भी आपत्तिजनक सामान होता, तो मैं उनसे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहती।
मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि पुलिस इस तरह की अफवाह फैलाकर क्या साबित करना चाह रही है। मुझे शक है कि वो मेरे पति की हत्या को सही ठहराने के लिए ही ये सारे हथकंडे अपना रही है। मैं मीडिया से अपील करना चाहती हूं कि वो आंध्रप्रदेश पुलिस के दुष्प्रचार में न आएं और मेरे पति के हत्यारों को सजा दिलाने में मेरी मदद करे..
Monday, November 15, 2010
:- इसी बहाने -: आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस
आज़ादी एक बहु आयामी शब्द है, लेकिन कुल मिला कर आज़ादी तो आज़ादी ही है और इसका कोई विकल्प नहीं होता!
इसी तरह ये भी समझ लेना जरूरी है कि आज़ादी दी नहीं जा सकती, हमेशा उसे लेना ही पड़ता है, बना कर रखना पड़ता है ! जहाँ तक प्रेस का सवाल है,तो अगर आप प्रेस के मालिक हैं,तो अलग चीज हैं, अगर मालिक नहीं हैं तो आपको भी अपनी आज़ादी लेनी पड़ेगी. मालिक आज़ादी दे ही नहीं सकता. आज़ादी ही देनी हो तो काहे का मालिक !
पाठक और पत्रकार, यही प्रेस की आज़ादी के पहलू हैं और ये खुद को आज़ाद कर लें तो फिर सभी मालिक बेचारे ही हो जाएँ. मालिक की अपनी आज़ादी बनी रहे, इसके लिए वह पाठक और पत्रकार के बीच तमाम तरह की दुरभिसंधियां करता रहता है. सरकारें भी मालिक ही होती हैं, और मालिक, मालिक का साथ देगा ही ! लेकिन इसके उलट प्राय: पत्रकार और पाठक का साथ बन नहीं पाता. और यही प्रेस की आज़ादी का वास्तविक संकट है !
पाठक जब तक पत्रकार की आज़ादी की रक्षा करता रहेगा, पत्रकार भी स्वाभाविक रूप से उसकी रक्षा करता रहेगा. लेकिन इसके लिए जागरूक पाठक होना जरूरी है, पाठकों को जागरूक करने के प्रयास चलते ही रहने चाहिए. और यही प्रेस की आज़ादी की वास्तविक चौकीदारी है ! इसमें अगर गफ़लत हुई तो कभी कुछ और भी सोचना पड़ सकता है .........
इस शे'र के साथ अपनी बात पूरी करना चाहूँगा-- '' वो धूप ही अच्छी थी इस छांव सुहानी से , वह जिस्म जलाती थी, यह रूह जलाती है !! आमीन !
---- सुनील अमर 09235728753
बेचारे अमर सिंह ! ---- -- सुनील अमर
कल इलाहाबाद में अमर सिंह ने जया भादुड़ी बच्चन की जम कर खिंचाई की और उन्हें बिगडैल बताया. उन्होंने क्रोध पूर्वक आश्चर्य व्यक्त किया कि उनके सपा छोड़ने (?) के बाद जया (अमिताभ वाली) ने भी सपा क्यों नहीं छोड़ दी? उन्होंने फैसला भी सुनाया कि इस जया का समर्पण रिश्तों में नहीं बल्कि राजनीति में है! बेचारे अमर सिंह! उनके सामान्य ज्ञान में शायद यह होगा कि जया नाम की सारी स्त्रियाँ एक जैसी ही होती हैं!
लोग कई तरह से अमर सिंह की आलोचना करते हैं, लेकिन उनकी एक खासियत को बिलकुल ही भूल जाते हैं कि वे सूरदास की काली कम्बली हैं जिस पर दूजा रंग नहीं चढ़ता ! 15 साल राजनीति में रहने के बाद भी वे राजनीतिक नहीं हो पाए ! क्या लड़कपन है उनके अन्दर! हालाँकि इसका रहस्य भी वे एक बार बता चुके हैं कि अभी पिछले दिनों उन्होंने एक 16 साल के लड़के का गुर्दा जो लगवा लिया है!
बेचारे अमर सिंह ! जितना श्रम-समय और साधन वे लगभग साल भर से मुलायम सिंह को गरियाने में लगा रहे हैं, उससे अब तक तो वे कोई Political - Outfit खड़ा कर रहे होते. पार्टी से निकाले गए हर नेता के साथ लोगों की सहानुभूति कुछ दिन रहती ही है, चतुर नेता इस समय का लाभ उठा कर अपना राजनीतिक आधार बनाते हैं, लेकिन अमर सिंह जैसे नेता इसका इस्तेमाल सौतिया -डाह निकलने में करते हैं, और जब तक वे इससे छुट्टी पाते हैं , जनता उनकी छुट्टी कर चुकी होती है ! 00
Sunday, November 14, 2010
अथ श्री सुदर्शन जी !! ----- सुनील अमर
ऐसा नहीं है कि सुदर्शन ने किसी सनक में बयान जारी कर दिया है! बयान जारी करते ही उनकी उम्र बीती है.कैसा असर पाने के लिए कैसा बयान जारी करना चाहिए,ये उनसे बेहतर तो भागवत भी नहीं जानते होंगे! और बात जब सोनिया जैसी महिला की हो, तो सुदर्शन का बयान तो संघ का स्टैंड ही माना जाना चाहिए ! आखिर इससे पहले सुब्रमण्यम स्वामी औए सुषमा स्वराज आदि यही सब तो कह कर हटे हैं !सुषमा तो अपनी सुन्दरता और अपने धर्म की परवाह किये बगैर ही सर घुटाने तक की शर्त लगा चुकी थीं !
एक मुद्दत हो गयी थी सुदर्शन को लाईम-लाईट से लापता हुए.आखिर कब तक वे गुमनामी बाबा बनकर रहते? अब उनके लाइट में आने से संघ को तकलीफ होती है तो उनकी बला से ! सुदर्शन अगर कभी दुष्यंत को पढ़े होंगें तो मन ही मन गुनगुना रहे होंगें -- '' हर तरफ ऐतराज होता है, जब भी मैं रौशनी में आता हूँ !''
Wednesday, November 10, 2010
जानिए इन रंगे सियारों की हकीकत ! -- सुनील अमर
सब जानते हैं कि कश्मीर की समस्या भारत की वजह से नहीं, पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्तों की वजह से है. कश्मीर का विलय भारत में कैसे और किन परिस्थितियों में हुआ, इस पर काफी श्रम-समय और साधन (यानि मीडिया ) खर्च किये जा चुके हैं. अब जिसे विलय का इतिहास पढ़ने का शौक हो , उसके लिए पर्याप्त load पुस्तकालयों में उपलब्ध है .विलय का इतिहास गिलानी और अरुंधती जैसों से पढ़ना तो ''नानी के आगे ननिहाल के बखान '' वाले मुहावरे जैसा ही है.
दुनिया में 200 के करीब देश हैं. आपको याद आता है कि कोई देश ऐसा हो जहाँ पूरी तरह से सुख-शांति और अमन-चैन हो? हिंदुस्तान के एकाध जिले जितने बड़े देश भी इस दुनिया में है,लेकिन वे भी अशांति और खूंरेजी से ग्रस्त हैं ! कश्मीर को आज़ाद करा कर जिनकी गोंद में उपहार स्वरुप डालने की कोशिश चंद '' नील: श्रंगाल:'' कर रहे हैं, उससे बदतर हालात अगर दुनिया में कहीं हो, तो ये सियार लोग ज़रा हुआं करके ही बताएं ! राष्ट्र विरोधी आन्दोलन चलाने के लिए ये जिन लोकतान्त्रिक देशों का हवाला देकर वहाँ से ऑक्सीजन प्राप्त कर रहे हैं,वहाँ भी शक के आधार पर गोली मार देने तथा जार्ज फर्नांडीज जैसे रक्षा मंत्री और शाहरुख़ खान जैसे सुपर स्टार की नंगी-तलाशी लेने का कार्यक्रम बाकायदा चलता रहता है, अब ये हो सकता है कि हुँवाने वालों को वहाँ कुछ छूट मिली हुई हो !
एक नया शिगूफा छोड़ा जा रहा है कि इस देश में अभी ''राष्ट्र'' की समझ विकसित नहीं हो पाई है! इनका मतलब है कि कश्मीर में जो सेना-पुलिस द्वारा हिंसा की जा रही है, वह एक राष्ट्र का परिचायक नहीं है, हम पूछते हैं कि ब्रिटेन, अमेरिका, श्रीलंका, नेपाल और खुद पाकिस्तान में क्या हो रहा है, दुनिया के और देशों की बात छोड़ ही दीजिये ! राष्ट्र तो है ही हिंसा का पर्याय ! जब आप राज्य की कल्पना करते हैं तो क्या वह हिंसा के बिना संभव है? जब आप किसी भी राष्ट्र-राज्य में रहने का निर्णय करते हैं, तो आप उसकी न्यूनतम-अधिकतम हिंसा को भी कबूल करते हैं, जिसे वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयोग करता है. परिवार को एक रखने के लिए घर का मुखिया भी तमाम यत्न करता ही है. और अगर कश्मीर की जनता अलग होने पर उतर ही आयेगी तो एक नहीं सौ हिंदुस्तान भी अपनी फ़ौज-फाटा लेकर उसे रोक नहीं पाएंगे ! जिनके राज में सूरज नहीं डूबता था, उंनसे लड़ कर एक नंगे फकीर ने हिंदुस्तान को आजाद करा लिया था, क्योंकि जनता भी ऐसा चाहने लगी थी ! लेकिन ये सब क्रांतिकारियों के बल पर होता है, khadyantrakariyon के बल पर पर नहीं !
किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि परिवर्तन करना हो, तो जनता-जनार्दन से अनुमति लेकर आप सही जगह पहुँचिए और फिर अपने विजन का इस्तेमाल करिए. लेकिन यह पैर का पसीना सर चढ़ाने वाला काम है, इतना आसान नहीं की कहीं से फंडिंग होती रहे और हवाई दौरे होते रहें. बीच-बीच में हुँवाने का काम भी होता रहे !
कई बार शक होता है कि कहीं यह भगवा ब्रिगेड की माया से तो नहीं हुंवा रहे हैं ? जिन लोगों ने राम को बेंच लिया, राम-मंदिर को बेंच लिया और अपने वर्तमान को भी बेंच खाए, उन्हें अब कश्मीर ही शायद बढ़िया दुकान दिख रही हो ! किसी तरह तो मुसलमान बरगलाये जाएँ ! कोर्ट के फैसले से तो मुसलमान लड़े नहीं, कश्मीर अलग कराने के नाम पर ही शायद लड़ पड़ें ! तीनों का भला हो जाये-- सपा,भाजपा और पाकिस्तान का ! '' नील: श्रंगाल:'' की तो पांचो घी में औए सर कढ़ाई में है ही ! और सबसे बड़ा मदारी तो कांग्रेस है , जिसने चादर फैला दी है और अब निगाह लगाये खामोश बैठी है कि देखें अपने हिस्से में कितना आता है !!
Tuesday, November 09, 2010
अमीरी बढ़ रही तो गरीबी क्यों नहीं घटती -- Sunil Amar in Rashtriya Sahara 10 Nov.2010
सरकारें शायद ही कभी इस तरह के तर्को को संज्ञान में लेती हों कि आखिर जिस रफ्तार से अमीरों की अमीरी बढ़ रही है उसी रफ्तार से गरीबों की गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है। एक तरफ अजरुन सेनगुप्ता आयोग की रपट कहती है कि लगभग 85 करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी 20 रुपये से भी कम है, तो दूसरी तरफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया कहते है कि गांवों में अमीरी बढ़ रही है, इसलिए महंगाई पर काबू नहीं पाया जा रहा है! ऐसे में चाहिए तो यह कि या तो राहुल गांधी मोंटेक सिंह से जानकारी प्राप्त करने के बाद ही गांव और गरीबों के अभियान पर निकलें या फिर अहलुवालिया ही राहुल गांधी द्वारा गरीबों के बीच रहकर हासिल किये गये तजुब से कोई सबक लेकर अपना मंतव्य जाहिर किया करें। साधन होने भर से ही साध्य हासिल नहीं हो जाता। साधन के साथ-साथ सलाहियत भी होनी चाहिए
गरीबों की गरीबी दूर करने के तमाम प्रयास सरकारें करती हैं, लेकिन लाभ वे लोग उठा लेते हैं जिनके पास संसाधन होते हैं. इसे ऐसे समझा जा सकता है की देश में लम्बे समय से जातिगत आरक्षण व्यवस्था लागू है लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ वे लोग ही उठा रहे हैं जिनके पास ऐसे संसाधन यानि क्षमता मौजूद हैं. आखिर यही कारण तो है की सरकार इनमे से हमेशा क्रीमी लेएर छांटने की बात करती रहती है. सरकार गरीबों की एक पक्षीय मदद करती है, यही कारण है कि गरीबी ख़त्म नहीं होती.मसलन गरीबों को छोटे-छोटे कर्ज काम ब्याज पर देकर ही सरकार आपने कर्तब्यों कि इतिश्री समझ लेती है. उनके उत्पादों के लिए बाज़ार और वहाँ कि गलाकाट प्रतियोगिता के लिए संरक्षण भी चाहिए, इससे वह कोई मतलब ही नहीं रखती! किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं? सरकार कि मेहरबानी से पहले तो बाजार में हाईब्रिड बीज आ जायेंगें, और जब किसान उनसे अधिक मात्र में पैदावार कर लेगा, तो बाजार भाव ईतना गिर जायेगा कि उसका न बेचना भला! आखिर बाजार पर नियंत्रण रखना किसकी जिम्मेदारी है? हो सकता ही कि किसी दिन मोंटेक सिंह यह भी कह दें कि भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में जो 7000 टन अनाज सडा है (जैसा कि भारत के अतीरिक्त सालिसिटर जनरल मोहन परसन ने गत दिनों सर्वोच्च न्यायलय में बयान दिया ) वह भी किसानों के ज्यादा अनाज पैदा कर देने के कारण सडा है !
दुनिया के हर देश में गरीब हैं, लेकिन जो बिसंगति भारतीय ग़रीबों के साथ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है! पाकिस्तान बगल में ही है लेकिन उसकी गरीबी और दुर्व्यवस्था पर किसे हैरत होती है? किन्तु भारत में, जहाँ आमिर लोग साल भर में 2 लाख 50 हजार करोड़ रुपया भगवानों कि पूजा पर खर्च करते हों ( ध्यान रहे कि मनरेगा का पूरे देश का साल भर का बजट सिर्फ़ एक लाख करोड़ का ही है!), जहाँ 25 करोड़ लोग रोज भूखे सो जाते हों लेकिन 7000 टन अनाज यूँ ही सड़ जाता हो, जहाँ 78000 करोड़ रुपया एक झटके में ही कामनबेल्थ खेलों पर लुटा दिया जाता हो,और जहाँ 45000 करोड़ रुपया इंडियन एयर लाईन्स को घटे से उबरने के लिए दे दिया जाता हो ताकि आमिर लोग सस्ती हवाई यात्रायें कर सकें, वहां जब ऐसी रपटें आती हैं कि गरीब और गरीब ही नहीं बल्कि भुखमरी के कारण भी मर रहे हैं तो व्यवस्था पर अचरज नहीं क्रोध आता है, और क्रोध राहुल, वरुण और अहलुवालिया सरीखे मुन्गेरिलालों पर भी आता है ..
(Sunil Amar in Rashtriya Sahara Delhi on 10 Nov. 2010)
अब मीडिया पर स्यापा क्यों !--- Sunil Amar
Sunday, November 07, 2010
आखिर चाहती क्या हैं अरुंधती राय ? sunil amar
लेकिन ये सब बड़ी धीमी गति से प्रतिफल देने वाली क्रियाएं हैं ! उन्हें तो रातों-रात शोहरत की बलंदी चाहिए ,जिसकी कि उन्हें बुकर ने आदत डाल दी थी ! अब बुकर जैसे शाहाकार तो रोज हो नहीं सकते , उसके लिए खून - पसीना जो एक करना पड़ता है , वो तो है ही, उससे भी ज्यादा खून- पसीना उस जुगाड़ में लगाना पड़ता है , जो बुकर दिलाता है .और बुकर की भी तो एक सीमा है. भारत जैसे देश में बुकर और मैग्सेसे को जानने वाले कितने हज़ार लोग होंगे भला ! इससे वह प्यास नहीं मिटती जो बुकर और अंग्रेजी मीडिया ने जगा दी ! वो जैसा अभिनय करती हैं , उसका भी दायरा बुकर जैसा ही है. यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में कैसी हीरोइनों को लोकप्रियता मिलती है !
तो फिर लोकप्रियता कि भूख मिटे कैसे ? जाहिर है उलटवांसी करके ! बहुत से लोग चर्चा में आने के लिए ऐसा ऊट-पटांग करते ही रहते हैं- पढ़े - लिखे भी और मूर्ख भी . अभी पिछले ही साल तो हमने देखा , कि जसवंत सिंह ने नरसिम्हाराव के कार्यकाल में पीएमओ में सीआईए का जासूस होने की बात कही थी और प्रमाण देने को भी कहा था . जब उनकी खासी चर्चा हो गयी , तो वे प्रमाण देने से साफ मुकर गए .ऐसी कई कथाएं हैं इस देश में ! अरुंधती को भी ऐसा ही शार्ट-कट चाहिए ! पहले वे नक्सलियों पर लगीं , लेकिन नक्सलियों और भुक्खड़ आदिवासियों को समाज का वह तबका कोई भाव ही नहीं देता , जिस सोसायटी को वे बिलोंग करती हैं.आप सबमे से कोई बताये कि नक्सलियों - आदिवासियों पर काम करने से आज तक किसे और कौन सा पुरस्कार मिला है ?गोली के अलावा ! तो फिर ऐसा कोई मुद्दा होना चाहिए जिस पर समाज का प्रभु - वर्ग अस -अस कह उठे ! यह मुद्दा हो सकता है -- शासन -सत्ता -संविधान और भगवान को गरियाने का .
अरुंधती राय तो कश्मीर को इस देश का हिस्सा नहीं मान रही हैं ( कुछ दिन पूर्व उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक में भी सबसे बड़ा लेख ऐसा ही लिखा था , जैसा अभी वे बोली हैं , लेकिन उनकी वो कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी .) कश्मीर को अलग कराने के उनके अभियान का यह ताज़ा प्रयास है . इस तरह के अभियान का एक फायदा उन्हें यह भी मिल जाता है कि पाकिस्तान और अमेरिका तथा अमेरिका के कुछ पिछलग्गू देशों में भी वे चर्चा में आ जाती हैं ! लेकिन अरुंधती जैसी सोच रखने वाले अन्य लोगों को भी एक बात समझ लेनी चाहिए कि उन्ही की सोच वाले कई भाई - बन्धु ऐसे भी हैं जो इस देश का ही अस्तित्व मिटाने की कसम खाए बैठे हैं,और कामयाब नहीं हो रहे हैं ! किसी भी लोकतान्त्रिक देश में संसद से बड़ी जगह और क्या हो सकती है ? अलगाववादियों और आतंकवादियों ने उस पर भी हमला करके देख लिया . क्या बिगाड़ लिए वो भारत नामक इस देश का ?
अरुंधती की योजना एक बार गिरफ्तार होने की है , ऐसा मंतव्य वे कई बार प्रकट भी कर चुकी हैं .नक्सलियों के मुद्दे पर उन्होंने कहा ही था कि चाहे पुलिस उन्हें गिरफ्तार ही कर ले ! दरअसल वे नेताओं की जुबान बोलती हैं , वैसे ही जैसे कि मुलायम सिंह , मुख्यमंत्री मायावती से कहते हैं या मायावती मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से कहती हैं ! वे सब जानते हैं कि गिरफ्तार तो होना ही नही है ,और अगर हो भी गए तो बे-शुमार फायदा मिलेगा ! अरुंधती भारत के प्रभु-वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं , ये लोग जल्दी गिरफ्तार नहीं होते , होते भी हैं तो सोच-समझ कर , नफा- नुकसान का गुणा - भाग करके ! इनकी बातों को वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसे विभूति राय जैसे छिनरों को .कुछ दिन में ये अपनी गति को पहुँच ही जाते हैं !
Tuesday, November 02, 2010
विहिप और उसके संतों की संवैधानिकता ? सुनील अमर
विहिप के उक्त प्रकार के बयानो को लेकर एक शंका प्राय: व्यक्त की जाती है कि क्या वह और उसके संतों की तथाकथित उच्चाधिकार प्राप्त समिति कोई संविधानेत्तर संस्था हैं या आतंकवादियों का संगठन, जिस पर इस संप्रभु राष्ट्र का नियम-कानून नहीं चलता? विहिप और भाजपा के कुछ नेता जब यह कहते हैं कि वे अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के अपने अभियान को बंद नहीं करेंगें तथा मुसलमानों को, जिन्हें की उक्त स्थल पर एक तिहाई जमीन मस्जिद निर्माण के लिए उच्च न्यायालय के फैसले ने दे रखी है, अयोध्या की शास्त्रीय सीमा के भीतर मस्जिद नहीं बनाने देगें, तो ऐसा वे किस संवैधानिक अधिकार से कहते हैं और क्या देश के एक समुदाय के प्रति इस तरह की भयकारी घोषणा करना कानून सम्मत है? अयोध्या की शास्त्रीय सीमा क्या है, इसे वे जान बूझकर स्पष्ट नहीं करते। यहाँ यह जान लेना जरुरी है कि अयोध्या की तीन शास्त्रीय सीमाऐं हिन्दू ग्रंथों में वर्णित हैं- एक, पंच कोसी दूसरी, चौदह कोसी तथा तीसरी चौरासी कोसी। पंच कोसी यानी लगभग 15 किलोमीटर की चौहद्दी ही इतनी अधिक है कि उसमें अयोध्या व मंडल मुख्यालय फैजाबाद के अलावा समस्त उपनगरीय क्षेत्र आ जाता है। और अगर चौरासी कोसी की सीमा की अवधारणा को माना जाय तब तो उसमें जनपद अम्बेडकर नगर, सुलतानपुर तथा बाराबंकी भी समाहित हो जाते हैं। विहिप के अतीत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर पांच कोसी पर बात करने को कोई तैयार होने लगेगा तो वह पलटी मारकर कह सकती है कि उसका शास्त्रीय सीमा से अभिप्राय तो चौरासी कोसी से है। अब बात विहिप के उस उच्चाधिकार प्राप्त समिति की जिसे वह बार-बार मंदिर निर्माण के लिए फैसला करने को अधिकृत बताती है। यह समिति है क्या बला और यह कहाँ से ऐसे कार्यों को करने का अधिकार प्राप्त करती है? क्या यह कोई निर्वाचित या संविधान के प्रारुपों के तहत गठित संस्था है? और अयोध्या या देश में कहीं और अगर कोई मंदिर बनना है तो क्या वह इन्हीं कथित संतों या उच्चाधिकार प्राप्त समिति की जिम्मेदारी है! क्या इस देष में हिन्दुओं का कोई जनमत संग्रह कभी कराया गया था कि सभी हिन्दू इन्हीं संतों को अपना प्रतिनिधि मानते हैं और धर्म सम्बन्धी अपने समस्त अधिकारों को इन्हें हस्तान्तरित कर चुके हैं? धर्म का प्रचार-प्रसार करना और बात है, लेकिन एक अत्यंत संवेदनशील धार्मिक मुद्दे पर सरकार और संविधान से परे जाकर मनमानी करना निश्चित ही संज्ञेय अपराधा है।
विहिप और भाजपा बार-बार अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर बनाने की घोशणा करते हैं और इस मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी ये दोनों संगठन लगातार हिन्दु श्रध्दालुओं को धोखा देने का काम कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि भाजपा और विहिप दोनों को अयोध्या में मंदिर बनाने का कोई अधिकार कहीं से भी नहीं है। अभी जो फैसला आया है उसने तो और स्पश्ट कर दिया है कि उक्त जमीन किन-किन लोगों की है। सच्चाई यह है कि अयोध्या के विवादित स्थल की कुल लगभग 70 एकड़ जमीन, जिसमें न सिर्फ कई मंदिर बल्कि तमाम गृहस्थ हिन्दुओं व मुसलमानों की आवासीय जमीन भी हैं, जनवरी 1993 से ही केन्द्र सरकार द्वारा अधिग्रहीत है, और संसद द्वारा पारित एक कानून के अनुसार वहाँ मंदिर-मस्जिद व सार्वजनिक उपयोग के स्थल आदि का निर्माण करना केन्द्र सरकार के ही जिम्मे है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब उक्त समस्त जमीन केन्द्र सरकार की सम्पत्ति है, तो उच्च न्यायालय से मालिकाना हक़ पाये पक्षकार हों या विहिप और भाजपा जैसे गाल बजाने वाली संस्थाऐं, कोई भी वहाँ जाने का अधिकार कैसे रखता है? और जो भी इस संवेदनशील मामले में झूठा प्रचार कर देशवासियों को गुमराह कर रहा है, क्या वह किसी विधिक कार्यवाही का पात्र नहीं है?
भारतीय जनता पार्टी छह साल से अधिक समय तक केन्द्रीय सत्ता में रही है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसे या विश्व हिन्दू परिषद को यह नहीं पता है कि अयोध्या के विवादित स्थल की वैधानिक स्थिति क्या है। जिस जमीन के टुकड़े के मालिकाना हक़ का फैसला न्यायालय ने किया है उसका कुल क्षेत्रफल सिर्फ 9 बिस्वा 15 धुर ही है। इसमें से एक-एक पक्षकार के हिस्से में 3 बिस्वा 5 धुर ही आता है! क्या इसी टुकड़े पर विहिप इतना भव्य और विशाल मंदिर बनाने की घोषणा आज तक करती आ रही है? क्या उसे या भाजपा को यह नहीं पता है कि यह हिस्सा भी अधिगृहीत है और केन्द्र सरकार की मिल्कियत है? केंद्र सरकार भी अगर वहाँ कोई निर्माण करना चाहे तो उसे कैबिनेट या सहयोगी दलों को विश्वास में लेना पड़ेगा।
वास्तव में विहिप और भाजपा का असल मंतव्य इस मुद्दे को गर्म कर इसके बहाने वोटों की फसल काटना है। उसे लगता है कि येन-केन-प्रकारेण वह एक बार फिर सन् 1992 के पहले वाले हालात पैदा कर सकती है। इसके लिए वह देश भर में हनुमान चालीसा का अनवरत पाठ तथा इसी तरह के हस्ताक्षर अभियान जैसे अन्य हवा-हवाई कार्यक्रम चलाने का प्रयास करती रहती है। वह धर्मभीरु हिन्दू जनता को यह समझाना चाहती है कि हिन्दू धर्म की असली ठेकेदार वही है और वह संविधान और न्यायालय से भी उपर है। अब उसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसे उसके हेड आफिस यानी अयोध्या में ही कोई भाव देने को तैयार नहीं है और अयोध्या में उठी आवाज ही इस प्रकरण में पूरे देश में सुनी और समझी जाती है। अयोध्या शांत तो पूरा देश शांत! और अयोध्या की चौथाई संत आबादी भी विहिप को सुनने को तैयार नहीं। विहिप का तो पूरा तबेला ही बाहरी है, उसमें स्थानीय तो कोई है ही नहीं! यही कारण है कि अगर एक हजार की भीड़ भी बटोरनी हो तो विहिप अयोध्या के किसी मेले-ठेले का अवसर ही अपने कार्यक्रम के लिए चुनती है ताकि कुछ भीड़ आसानी से मिल जाय।
विहिप अब संसद में कानून बना कर इस विवाद को सुलझाने की मांग कर रही है, क्योंकि वह जानती है कि ऐसा होना बेहद कठिन काम है। जो तरीका बेहद आसान है यानी बातचीत द्वारा हल का, उसे वह न सिर्फ सिरे से नकारती है बल्कि उसकी राह में यह कहकर रोड़े भी अटकाती है कि अयोध्या की शास्त्रीय सीमा में मंदिर ही नहीं बनने देगी। यही विहिप और भाजपा का असली चाल-चरित्र और चेहरा है।
Sunday, October 31, 2010
ये 'शाही' क्या होता है?
इसी बहाने कुछ और बातें भी; भारतीय मीडिया अरसे से बिना सोचे-समझे इमाम बुखारी के नाम के आगे 'शाही' शब्द का इस्तेमाल करता आ रहा है. भारत एक लोकतंत्र है, यहाँ जो भी 'शाही' या 'रजा-महाराजा' था वो अपनी सारी वैधानिकता दशकों पहले खो चुका है. आज़ाद भारत में किसी को 'शाही' या 'राजा' या 'महाराजा' कहना-मानना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है. अगर अहमद बुखारी ने कोई महान काम किया भी होता तब भी 'शाही' शब्द के वे हकदार नहीं इस आज़ाद भारत में. और पिता से पुत्र को मस्जिद की सत्ता हस्तांतरण का ये सार्वजनिक नाटक जिसे वे (पिता द्वारा पुत्र की) 'दस्तारबंदी' कहते हैं, भी भारतीय लोकतंत्र को सीधा-सीधा चैलेंज है.
रही बात बुख़ारी बंधुओं के आचरण की तो याद कीजिये की क्या इस शख्स से जुड़ी कोई अच्छी ख़बर-घटना या बात आपने कभी सुनी? इस पूरे परिवार की ख्याति मुसलमानों के वोट का सौदा करने के अलावा और क्या है? अच्छी बात ये है की जिस किसी पार्टी या प्रत्याशी को वोट देने की अपील इन बुख़ारी-बंधुओं ने की, उन्हें ही मुस्लिम वोटर ने हरा दिया. मुस्लिम मानस एक परिपक्व समूह है. हमारे लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत है.लेकिन पता नहीं ये बात भाजपा जैसी पार्टियों को क्यों समझ में नहीं आती ? वे समझती हैं की 'गुजरात का पाप' वो 'बुख़ारी से डील' कर के धो सकती हैं.
एक बड़ी त्रासदी ये है की दिल्ली की जामा मस्जिद जो भारत की सांस्कृतिक धरोहर है और एक ज़िन्दा इमारत जो अपने मक़सद को आज भी अंजाम दे रही है. इसे हर हालत में भारतीय पुरातत्व विभाग के ज़ेरे-एहतेमाम काम करना चाहिए था, जैसे सफदरजंग का मकबरा है जहाँ नमाज़ भी होती है. क्यूंकि एक प्राचीन निर्माण के तौर पर जामा मस्जिद इस देश के अवाम की धरोहर है, ना की सिर्फ़ मुसलमानों की. मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने इसे केवल मुसलमानों के चंदे से नहीं बनाया था बल्कि देश का राजकीय धन इसमें लगा था और इसके निर्माण में हिन्दू-मुस्लिम दोनों मज़दूरों का पसीना बहा है और श्रम दान हुआ है. इसलिए इसका रख-रखाव, सुरक्षा और इससे होनेवाली आमदनी पर सरकारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए. ना की एक व्यक्तिगत परिवार की? लेकिन पार्टियां ख़ुद भी चाहती हैं की चुनावों के दौरान बिना किसी बड़े विकासोन्मुख आश्वासन के, केवल एक तथाकथित परिवार को साध कर वे पूरा मुस्लिम वोट अपनी झोली में डाल लें. एक पुरानी मस्जिद से ज़्यादा बड़ी क़ीमत है 'मुस्लिम वोट' की, इसलिए वे बुख़ारी जैसों के प्रति उदार हैं ना की गुजरात हिंसा पीड़ितों के रेफ़ुजी केम्पों से घर वापसी पर या बाटला-हाउज़ जैसे फ़र्ज़ी मुठभेढ़ की न्यायिक जांच में!
ये हमारी सरकारों की ही कमी है की वह एक राष्ट्रीय धरोहर को एक सामंतवादी, लालची और शोषक परिवार के अधीन रहने दे रहे हैं. एक प्राचीन शानदार इमारत और उसके संपूर्ण परिसर को इस परिवार ने अपनी निजी मिलकियत बना रखा है और धृष्टता ये की उस परिसर में अपने निजी आलिशान मकान भी बना डाले और उसके बाग़ और विशाल सहेन को भी अपने निजी मकान की चहार-दिवारी के अन्दर ले कर उसे निजी गार्डेन की शक्ल दे दी. यही नहीं परिसर के अन्दर मौजूद DDA/MCD पार्कों को भी हथिया लिया जिस पर इलाक़े के बच्चों का हक़ था. लेकिन प्रशासन/जामा मस्जिद थाने की नाक के नीचे ये सब होता रहा और सरकार ख़ामोश रही. जिसके चलते ये एक अतिरिक्त-सत्ता चलाने में कामयाब हो रहे हैं. इससे मुस्लिम समाज का ही नुक्सान होता है की एक तरफ़ वो स्थानीय स्तर पर इनकी भू-माफिया वा आपराधिक गतिविधियों का शिकार हैं, तो दूसरी तरफ़ इनकी गुंडा-गर्दी को बर्दाश्त करने पर, पूरे मुस्लिम समाज के तुष्टिकरण से जोड़ कर दूसरा पक्ष मुस्लिम कौम को ताने मारने को आज़ाद हो जाता है.
बुख़ारी परिवार किसी भी तरह की ऐसी गतिविधि, संस्थान, कार्यक्रम, आयोजन, या कार्य से नहीं जुड़ा है जिससे मुसलामानों का या समाज के किसी भी हिस्से का कोई भला हो. ना तालीम से, ना सशक्तिकरण से, ना हिन्दू-मुस्लिम समरसता से, ना और किसी भलाई के काम से इन बेचारों का कोई मतलब-वास्ता.... तो ये काहे के मुस्लिम नेता?
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शीबा असलम फ़हमी (columnist-writer)
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली में शोध छात्रा हैं और, महिलाओं एवं आम आदमी के मसलों पर खूब लिखती हैं.
Sunday, October 10, 2010
अयोध्या विवाद पर न्याय हुआ या फैसला ?
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Friday, October 01, 2010
न्याय और फैसले में फर्क
Monday, September 13, 2010
भले दिनों की बात है ......
भली- सी एक शक्ल थी
न ये के हुस्न- ए- ताम हो
न देखने में आम-सी
ना ये के वो चले तो
कहकशां सी रह - गुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला-भला सफ़र लगे
कोई भी रुत् हो उसकि झाप
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाओं थी
वो सर्दियों कि धूप थी
ना मुददतों जुदा रहे
ना साथ सुभ-ओ-शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये के अज़्न-ए-आम हो
ना ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
ना ऐसी बेतक्ल्लु.फी
कि आईना हया करे
ना इख्तेलात में वो रम
के बद-मज़ा हों .ख्वाहिशें
ना इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़िच करें नवाज़िशैं
ना आशिक़ी जुनून की
कि ज़िन्दिगी ख़राब हो
ना इस क़दर कठोरपन
कि दोस्ती ख़राब हो
कभी तो बात भी खफ़ि
कभी सकूत भी सुख़न
कभी तो काश्त-ए-.जा.फरान
कभी उदासियों का बन
सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल कि भी
विसाल-ए-जां-फ़िज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए -जां गुसाल की भी
सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई
मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को कफ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज हवस कहे
'शजर- हजर नहीं कि हम
हमेशा पा- बा- गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तक़िल रहें
मुहब्बतों कि वुस्सतैं
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगन-ए-बा वफ़ा में हैं
मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि एक फ्रेम में रहूँ
वोही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं इस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
येः बात आज की नहीं ..'
ना उस को मुझ पे मान था
ना मुझ को उस पे ज़ौम ही
जो एहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी
सो अपना-अपना रास्ता
हंसी-ख़ुशी बदल लिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली-सी एक शक्ल थी
भली-सी उसकि दोस्ती
अब उसकि याद रात-दिन
नहीं, मगर कभी - कभी ... ।'' (साभार)
Sunday, September 12, 2010
...कहाँ पहले जैसे ज़माने रहे अब ......!
तुम्हारी तरह कोई दुनिया बसाऊँ,
तुम्हारी तरह ही हँसूं, खिलखिलाऊँ,
मैं खुश हूँ,बहुत खुश हूँ,सबको दिखाऊँ.
मगर दिल है अब भी तुम्हें चाहता है.....
तुम्हें चाहता है ,
तुम्हें चाहता है ..........''( नज्म - 'कहाँ पहले जैसे ज़माने रहे अब ..' =द्वारा - सुनील अमर )
Friday, September 10, 2010
Monday, August 23, 2010
Tasleema Ke Bahane Ek Sawal ..........
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Saturday, August 21, 2010
छुआछूत के यह नाटक क्यों ?
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Tuesday, August 17, 2010
बी .एन .राय प्रकरण
Saturday, August 14, 2010
BOL KI LAB AZAD HAIN TERE.......
Thursday, August 12, 2010
Tasleema Ji
Dharm Aur Stri
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Wednesday, August 04, 2010
ऐसा होता hai मदद का ज़ज्बा........
मैं कई दिन तक अपने पर शर्म करता रहा ! सोच लेता हूँ तो आज भी ।
मैं लड़ा बहुत इस दुनिया से .......शायर - सुनील अमर
सह गया बहुत कड़वे ठोकर ,
तुम साथ रहे , मैं जीत गया ,
पर हार गया , तुमको खोकर... । । '
फ़रेब-ए-आज़ादी --शायर -हाफिज़ जालंधरी
जिसको चाहें चीरें -फाड़ें , खाए, पियें आनंद रहें।
साँपों को आज़ादी है हर बसते घर में बसने की,
इनके सर में जहर भी है और आदत भी है डसने की ।
पानी में आज़ादी है घड़ियालों और नहंगों को ,
जैसे चाहें पालें ,पोसें ,अपनी तुंद उमंगों को ।
इंसानों में सांप बहुत हैं कातिल भी जहरीले भी ,
इनसे बचना मुश्किल है, आज़ाद भी हैं फुर्तीले भी ।
इन्सां भी कुछ शेर हैं बाकी भेन्डों की आबादी है,
भेंडें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है ।
भेंडें लतादाद हैं लेकिन सबको जान के लाले हैं,
इनको ए तालीम मिली है भेंडिया ताकत वाले हैं ।
शेर हैं दावेदार किहम से अमन है इस आबादी का ,
भेंडें जब तक शेर न बन लें नाम न लें आज़ादी का ।
पेट फटे पड़ते हैं , इनके ए मुंह फाड़े बैठे हैं ,
हर बाज़ार में हर मंडी में झंडे गाड़े बैठे हैं।
खा जाने का कौन सा गुर है जो इन सबको याद नहीं ,
जब तक इनको आज़ादी है कोई भी आज़ाद नहीं ।
इसकी आज़ादी कि बातें सारी झूठी बातें हैं,
खा जाने की तरकीबें हैं पी जाने की घातें हैं।
जब तक ऐसे जानवरों का डर दुनिया पर ग़ालिब है ,
पहले मुझसे बात करे जो आज़ादी का तालिब है । ।
Monday, August 02, 2010
Friday, April 02, 2010
welcome message
समाज में व्याप्त असमानता ,अज्ञानता ,कुरीतियों तथा अन्धविश्वाश के खिलाफ यह एक नयी जंग है , एक नया मोर्चा है .आप जहाँ भी हैं वहीँ से यह लडाई शुरू कर सकते हैं। लोगों के बीच बैठ कर , बात कर , लिख कर , काम कर आप जंग लड़ सकते हैं । यह सोचने में कठिन लगता है करने में बिलकुल नहीं । आज ही बल्कि अभी से इसे शुरू करके देखें । अच्छा लगेगा । बहुत सुकून मिलेगा आपको । दुष्यंत ने यही तो कहा है -" ......एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ।" बहरहाल ....मिलते रहिये सुनील अमर से --पढ़ते रहिये नयामोर्चा ।