Wednesday, January 26, 2011

बच्चों में बढ़ती क्रोध और आत्महत्या की प्रवृत्ति --- सुनील अमर

सुश्री शीबा फ़हमी
दिल्ली में कक्षा दो में पढ़ने वाले आठ वर्षीय एक बालक ने गत सप्ताह माँ द्वारा खेलने से मना किये जाने पर फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। बीते एक पखवारे में ही देश के कई शहरों से बच्चों द्वारा आत्महत्या कर लेने की कई घटनायें प्रकाश में आई हैं। ज्यादा चिंतनीय यह है कि ये बच्चे दस साल से भी कम उम्र के थे। एक ऐसी उम्र, जिसमें माना जाता है कि बच्चा खाने और खेलने के अलावा कुछ जानता ही नहीं, और इसी उम्र में ही जिन्दगी के खिलाफ इतना बड़ा फैसला! देश में लगभग एक दशक पहले जब टी.वी. चैनलों पर धारावाहिकों का तूफानी दौर जारी हुआ, ऐसे तमाम विज्ञापन और कथाऐं आईं, जिनकी नकल में बहुत से मासूम बच्चे अपनी जान गवाँ बैठे। ऐसे कार्यक्रमों पर उस वक्त रोक लगाने की माँग भी देश में उठी और उनमें परिवर्तन भी हुए। वे घटनायें नकल में थीं इसलिए चिंताऐं भी हल्की थीं कि नकल के स्रोत जब बंद कर दिये जाऐंगें तो बच्चों की यह प्रवृत्ति भी रुक जायेगी। आगे चलकर कुछ हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन माँ-बाप के डॉटने या रोक लगाने से आहत होकर मासूम बच्चे गले में फंदा डालने जैसे हौलनाक काम को अंजाम देने लगें तो यह किसी भी जागरुकऔर सामाजिक व्यक्ति की नींद उड़ा देने वाली घटनाऐं हैं! ये घटनाऐं यह सवाल उठा रही हैं कि जिस समाज में हम जी रहे हैं और जिस समाज का निर्माण हम कर रहे हैं, क्या वह यही समाज है?

यह कहा जा सकता है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति पूरी दुनिया में लगातार बढ़ी है और न सिर्फ साधारण, बल्कि अपनी काबलियत, सफलता और समझ-बूझ की धाक जमा चुके लोगों द्वारा भी खुदकुशी की जा रही है। लेकिन इसके कारण और निवारण दूसरी तरह के हैं जबकि नन्हें-मुन्नों में पनप रही इस प्रवृत्ति के सर्वथा दूसरी तरह के और ज्यादा चिन्तनीय भी। आत्महत्याओं पर हुए मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन बताते हैं कि जिन्दगी जीने के सारे रास्तों के बंद हो जाने का विश्वास ही किसी व्यक्ति को खुदकुशी के मुकाम तक ले जाता है। लेकिन इस तरह का विश्वास किसी छह साल, आठ साल के बच्चे में आने लगे, जिसे अभी यही नहीं पता कि जिन्दगी क्या है और जिन्दगी जीने के तरीके और रास्ते क्या होते हैं तो किसी भी देश-समाज के लिए इससे ज्यादा चिंतनीय बात और क्या हो सकती है?

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की फेलो, पत्रकार और समाजशास्त्री सुश्री शीबा फ़हमी कहती हैं कि इस उम्र के बच्चों में 'सेल्फ रेस्पेक्ट' यानी आत्म-आदर की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा होती है। होता यह है कि कई बार माँ-बाप अपने बच्चों को सबके सामने विशेषकर उनके दोस्तों के सामने बुरी तरह झिड़क, डॉट या मार देते हैं, इससे बच्चा आहत हो जाता है और बाद में उसके ऐसे ही दोस्त उसको चिढ़ाने या मजाक बनाने लगते हैं तो खिसियाहट के फलस्वरुप बच्चे में आत्मघाती सोच बनने लगती है और आगे की कोई ऐसी ही झिड़क या डाँट बच्चे को जीने-मरने के मुकाम पर ला खड़ा कर देती है। शीबा कहती हैं कि हममें यानी समाज में एक बच्चे की 'इन्डिविजुअल्टी'(वैयक्तिता) स्वीकारने की आदत ही नहीं है। हम यह मानते ही नहीं कि बच्चे का भी कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है। हम अपने बड़े होने, माँ-बाप होने के घमंड में ही चूर रहते हैं। जब तक औलाद मुंह बंद कर देने लायक कमाई न करने लगे, हम उसकी हैसियत ही नहीं समझते।

संयुक्त परिवारों के विघटन ने इस बीमारी को और घातक कर दिया। सुश्री शीबा कहती हैं कि आज हममें निजता बहुत ज्यादा आ गई है। पहले बच्चे एक तरह से कम्युनिटी में पलते थे और सब एक-दूसरे के बारे में जानते रहते थे। आज जब परिवार का तात्पर्य सिर्फ माँ-बाप और बच्चों से ही रह गया है तो ऐसे में बच्चों में भी एकांतता और निजता घर करती जा रही है। उनमें असुरक्षा की घातक भावना पैदा हो रही है। ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चे बहुत जल्द ही मायूस हो जाते हैं।

अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब यह कहा जाता था कि संयुक्त परिवार या यों कहें कि परिवार में दादी-दादा का होना बहुत ही आवश्यक होता है, खासकर बच्चों के संदर्भ में, लेकिन समाजशास्त्री शीबा कहती हैं कि यह कुछ हद तक ही सही और उपयोगी है। वे कहती हैं कि दादी-दादा से सुकुन और छाया मिलने वाली स्थितियों में इसलिए बदलाव आ गया है कि अब खुद दादी-दादा ही पहले जैसे नहीं रह गये हैं, क्योंकि आज की युवा कुंठित और भटकी कही जाने वाली पीढ़ी ही तो आगे चलकर दादी-दादा की भूमिका में आ रही है! शीबा कहती हैं - इसका दूसरा पहलू यह है कि यही दादी-दादा तो घर में सास-ससुर की भूमिका में भी रहते हैं और बच्चे की माँ का तमाम प्रकार से जानलेवा उत्पीड़न करते रहते हैं! घर का मासूम बच्चा विस्फारित नेत्रों से यह सब कुछ भी तो देखता रहता है। उसके लिये ये दादी-दादा कितना आश्वासनकारी हो सकते हैं? इस चिन्ता का एक दूसरा कारक स्कूल और वहाँ दी जाने वाली शिक्षा का मौजूदा तौर-तरीका भी है। घर से भी ज्यादा तनावपूर्ण माहौल आजकल बच्चों को स्कूल में मिलता है। प्राय: ऐसा होता है कि घर से राजी-खुशी स्कूल गया हुआ बच्चा रोनी सूरत बनाये हुये घर लौटता है। कई बार तो वह ऐसा गुमसुम होता है कि अपने में ही मशगूल रहने वाले मॉ-बाप उसे साधारण तौर से बीमार मानकर उसका इलाज कराने लगते हैं, जबकि उसकी बीमारी की जड़ और दवा वास्तव में वे खुद ही होते हैं! लेकिन बीमारी में सबसे आसान काम तो डाक्टर के पास जाना होता है, बाकी सारे काम कठिन ही होते हैं! इधर के दो दशक में हमारे समाज की संरचना और उसकी जरुरत जिस तरह और जिस तेजी से बदली है, ऐसा पहले कभी नहीं था। समाज में आ रहे आमूल-चूल बदलाव के लिहाज़ से जीवन के जो क्षेत्र अपने को साध नहीं पा रहे हैं, मातृत्व-पितृत्व भी उन्हीं में से एक है। सुश्री शीबा कहती हैं कि खाना, कपड़ा, छत और स्कूल मुहैया करा देना ही माँ-बाप के मायने नहीं हैं। यह काम तो यतीमखाने भी कमो-बेश करते ही हैं। असल चीज है यह जानना कि बच्चों का लालन-पालन कैसे किया जाय। इसके लिए जरुरी है कि युवा जब शादी करने की स्टेज में हों तो उन्हें 'पैरेन्टिंग' यानी मातृत्व-पितृत्व के बारे में जानकारियॉ दी जॉय। यह चाहे पढ़ाई के दौरान हो या विशेष अभियानों द्वारा। वे कहती हैं कि समाज में जो तबका गरीब है वहाँ इस तरह की वारदातें न के बराबर हैं, क्योंकि एक तो वहाँ धुल-मिलकर रहने की परिस्थितियाँ ज्यादा हैं और निजता नाम की चीज़ प्राय: होती ही नहीं, दूसरे ऐसे समाज के बच्चों में 'सेल्फ रेस्पेक्ट' और 'सेल्फ इस्टीम' यानी आत्म सम्मान और आत्म मुग्धाता जैसी किसी भावना की कोई गुंजाइश शुरु से ही नहीं होती। इसलिए वहॉ आत्महत्या की हद तक जाने जैसी हताशा और निराशा भी कभी नहीं होती।

ओशो ने कभी कहा था कि आज के समाज में बच्चा पैदा होना एक दुर्घटना सरीखा है। वास्तव में आज की तैयार हो रही नयी पीढ़ी के मिजाज में बच्चे सर्वाधिक 'एब्यूज्ड' हैं। कारण जो भी हों लेकिन सुखद यह है कि ग्रामीण भारत में अभी यह बीमारी नहीं पहुची है। संयुक्त परिवार भी जो कुछ बचे हैं, गॉवों में ही हैं। शहरों की पारिवारिक सेहत सुधारने के लिए गॉवों का अध्ययन किया जाना चाहिए। (Also published by feature agency humsamvet.org.in on 24 January 2011)

Thursday, January 20, 2011

...हम जैसे बहुत लोग डार से बिछड़े ही हैं --- सुनील अमर

अरसा पहले अमृता प्रीतम का उपन्यास पढ़ा था -- डार से बिछड़ी . डार यानी डेरा यानी घर ! इधर संयोगवश अपने गाँव में थोड़ा लम्बा वक़्त गुजारना पड़ा तो लगा कि मैं भी डार से बिछड़ा ही हूँ .
मेरी माँ श्रीमती सुशीला त्रिपाठी (84 ) कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थीं और तमाम इलाज के बाद डाक्टरों ने कह दिया कि अब इन्हें घर ले जाकर इनकी सेवा करिए. इस तरह की ''सेवा'' का अर्थ लगभग सभी लोग समझते हैं, सो मैं भी समझ गया. इकलौता पुत्र और आज की भाषा में single होने के कारण लगभग तीन महीना मैं उनकी सेवा में ही दिन-रात लगा रहा.इसी बहाने गाँव को थोड़ा ताज़ा-ताज़ा जाना भी . माँ गाँव में ही रहती थी.बीते महीने उनका देहावसान हो गया.
वैश्वीकरण और संचार-विस्फोट के बावजूद गाँव अभी कमोबेश गाँव बने हुए हैं,रहन-सहन में जिस तरह अमीरी-गरीबी पहले दिखती थी, उसी तरह आज भी दिखती है. गाँव में जो लोग अमीर हो गए हैं, उन्होंने अपने सामाजिक सरोकार दूसरी तरह के कर लिए हैं लेकिन जो अमीर नहीं हैं उनका जीवन-यापन का तौर-तरीका अभी ज्यादा स्वाभाविक और प्राकृतिक है. एक-दूसरे के सुख-दुःख में उनकी सहभागिता अभी भी ज्यादा सहज है.और हम जैसे लोग तो घर-परिवार वहीं रहने के बावजूद NRV यानी '' non resident villager '' सरीखे हो गए हैं! एक-दो घटनाओं ने बहुत आहत किया --
१- शाम का समय था और मैं टहलते हुए खेतों की तरफ काफ़ी दूर चला गया था. ठंढक की वजह से कपड़ों से लदा-फदा मैं मोबाइल पर दिल्ली अपनी एक दोस्त से बातें करने में मशगूल था.कुछ देर बाद लगा कि जैसे कोई पुकार रहा है. धुंधलका सा हो चला था फिर भी देखा कि थोड़ी दूर पर एक बृद्ध महिला कांख में कुछ सामान दबाये आ रही थी और वही मेरी दिशा में मुखातिब थीं.दूरी और धुंधलका होने के कारण पहचान नहीं पा रही थीं, इसीलिए स्थानीय अवधी बोली में वे '' के होय? तनी सुना तौ? '' की हांक अधिकारपूर्वक लगा रही थीं. फोन बंद करके मैं उनके पास गया .''पायलागी'' किया और पूछा कि क्या है.
मुझे नजदीक से देखने और पहचानने के बाद उन वृद्धा के चेहरे का भाव ही बदल गया.जैसे कोई अपराध उनसे अनजाने में हो गया हो, बहुत कातर स्वर में उन्होंने कहा कि ,'' अरे बचवा तू ह्वा ! चीनेह्न नाय ( पहचाने नहीं ) बच्चा! ''
मैं ख़ुद ही झेंप गया और बोला कि '' का बात है माई बतावा तौ ?''
'' नाही बच्चा, कुछ नाय , तू जा टहरा ( घूमो-टहलो ), हम चिनेह्न नाय तुहैं बच्चा!''
मेरे कई बार पूछने पर भी उन्होंने काम नही बताया तो मैं खिसियाकर चला आया. मैं जानता था कि किसी काम से ही उन्होंने पुकारा था.
लगभग उसी वक़्त गाँव के ही मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े एक सज्जन वहां से गुजरे तो उन वृद्धा ने उन्हें जोर से पुकार कर अपनी कांख में से गिर रहे सामान को पकड़ाकर कहा कि इसे उनके घर तक पहुंचा दें .
वे दोनों चले गए और मैं बड़ी देर तक वहीँ खिसियाया सा बैठा रहा.जो अधिकार, जो लगाव और जिस विश्वास से वृद्धा ने उनसे अपने काम के लिए कहा, मुझसे नही कहा, जबकि मैं भी उसी गाँव का रहने वाला और उन वृद्धा का घर-परिवार से उतना ही नजदीकी हूँ जितना कि वे सज्जन, लेकिन समीकरण रिश्ता बना सकते हैं, लगाव नहीं ! मै बाहरी आदमी हो चुका हूँ अब!
२ -- इधर मौसम बहुत ख़राब था. दिन भर कुहरा और बदली! मौसम का मिजाज़ बेहद ठंढा! टहलने निकला था तो देखा कि गाँव के बाहर लड़के वालीबाल खेल रहे थे! देखते ही गरमी का एहसास हुआ! 25 साल पहले के दिन याद आ गए जब हम भी खेला करते थे! मन में खेलने की तीब्र इच्छा जग रही थी लेकिन कहने में संकोच हो रहा था तभी एक लड़के ने कह ही दिया कि आइये चाचाजी आप भी खेलिए. खेलने का अभ्यास तो न जाने कब का छूट चुका था ही बस शौक बुझाने लगा. बार-बार गलतियाँ हो रही थीं . लड़कों के खेल में भी बाधा पड़ रही थी लेकिन वे मुझे झेल रहे थे! उनमें से एकाध लड़के आँखों ही आँखों में मेरी तरफ कटाक्ष भी कर रहे थे फिर भी मुझे मेहमान समझकर वे तमाम लड़के खेलाते रहे. आपस की ज़रा सी गलती पर वे लोग खूब चाँव-चाँव करते लेकिन मुझसे एक सम्मानजनक दूरी वे सब बनाये रखे.यह सम्मान जब थोड़ी देर बाद असह्य होने लगा तो मैं ख़ुद ही वहाँ से खिसक आया !
कभी-कभी सम्मान भी कितना खलने लगता है, यह बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने!
अपना ही गाँव और अपना ही घर फिर भी यह बेगानापन !
घर लौट कर माँ के पास बैठे-बैठे मै सोचता रहा कि अब मेरे लिए अपनापन किस जगह बचा हुआ है? लखनऊ में जहाँ कि मैं रहता हूँ या दिल्ली,मुंबई,अहमदाबाद , उत्तराखंड और ऐसी वे तमाम जगहें जहाँ मैं आता-जाता रहता हूँ ? कहीं तो नहीं! जैसे आपस में घुल-मिलकर गाँव वाले रह रहे हैं, क्या दुनिया के किसी कोने में वो आत्मीयता मेरे लिए मौजूद है ? शायद नहीं ! और शायद क्या बिल्कुल नहीं.
न गाँव के रहे और न बाहर के ! न घर के और न घाट के !!
यह भी सोचा कि अगर मैं यहीं गाँव आकर रहने लगूँ तो क्या कुछ समय बाद मैं भी उन सबमें घुल-मिल जाऊंगा? उनका लगाव हासिल कर लूँगा?
काफ़ी देर बाद मेरे मन ने कहा नहीं, बहुत मुश्किल है अब. एक लेखक-पत्रकार होने की जो खोल इतने वर्षों से मैंने ओढ़ रखी है,शहर में रहने की एक आदत, जो मुझमें बन गयी है, उसे उतार फेंकना और इन सब में समाहित हो जाना इतना आसान नही!
नगरीय-संस्कृति का भी तो नही हो पाया मैं ठीक से!
तो कहाँ से जुड़ा हूँ मैं ?
और कहाँ का होकर रह गया हूँ ?
शायद कहीं का नहीं !
जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, यह एहसास शायद और कचोटने लगेगा मुझे.

Tuesday, January 18, 2011

“जेंडर जेहाद” के हक़ में ''--''शीबा असलम फहमी”

हफ्ते की मुलाकात में इस बार हमारे बीच हैं स्त्री अधिकारों के मामलों में बिलकुल अलग ढंग की सोच रखने वाली शीबा |शीबा असलम फहमी के लिए धर्म की अपनी परिभाषाएं हैं ,शीबा असलम फहमी को हम देश की उन चंद महिलाओं में गिन सकते हैं जो न सिर्फ मुस्लिम बल्कि हर तबके की महिलाओं के लिए अपनी कलम और अपनी जबान से संघर्ष कर रही हैं न सिर्फ संघर्ष कर रही हैं बल्कि स्त्री विरोधी ताकतों को पराजित भी कर रही हैं |आइये बात करते हैं शीबा से |इस पूरी बातचीत को आप आडियो फार्मेट में हमारी वेबसाईट में “हफ्ते की मुलाकात” कालम में सुन भी सकते हैं--आवेश तिवारी


आवेश तिवारी -शीबा आप क्या मानती हैं तीसरी दुनिया के देशों में ” जेंडर जेहाद “कितना सफल रहा है |और इनके सफल या असफल होने की वजह क्या है ?
शीबा असलम फहमी – तीसरी दुनिया के देशों में जेंडर जेहाद यानि नारीवादी आन्दोलन बहुत अच्छा चल रहा है ,जब हम तीसरी दुनिया के देशों की बात करते हैं तो ये वो देश हैं जो निजी विषमताओं से अनवरत गुजर रहे हैं ,जब हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं तो ये अमेरिका की पश्चिमी देशों की गोरी महिलाओं का स्त्री विमर्श नहीं होता ,ये हमारा, हमारी मिटटी से उपजा स्त्री विमर्श है ,हमारे हालात के हिस्साब से जो स्त्रियों की मूलभूत समस्याएं हो सकती हैं हल हो सकते हैं उनमे से हल ढूंढ़ता हुआ स्त्री विमर्श है ,और निश्चित तौर पर ये सफल हो रही है अगर कोई दीवार २०१ हथौड़ों में टूटती है तो पहले के २०० हथौड़ों के वार को नाकाम नहीं कहा जा सकता |,उन २०० हथौड़ों की मार की वजह से २०१ वा हथौड़ा कामयाब हुआ है |कोई भी समस्या हो इस धरती पर हम सबका योगदान समस्या और समाधान के बीच की दूरी के गप को थोडा कम करने का हो सकता है ,हमारे पास या किसी के पास इन समस्याओं का पूरा हल नहीं होता


आवेश तिवारी -आपको क्या लगता है इस्लाम मुल्लाओं और हिंदुत्व पंडितों के चंगुल से कब तक मुक्त हो पायेगा ,क्या इस स्थिति से आप कभी निराश होती हैं
शीबा असलम फहमी - मै फिर कहूँगी मै बिलकुल निराश नहीं होती.पिछले जमानों में जब हम सोच नहीं सकते थे हमारे पास भाषा नहीं थी अधिकारों की ,मगर आज समय बदल रहा है ,मुझे आपके शब्द पर आपत्ति है जो आपने पंडितवाद कहा ,मुझे ब्राम्हणवाद ज्यादा उपयुक्त शब्द लगता है कई पंडित ऐसे हैं जो खुद ब्राम्हणवाद से पीड़ित हैं ,बहुत से पंडित हैं जो खुद ब्राम्हणवाद के खिलाफ हैं ,इत्फकान हम जिस किसी परिवार में पैदा हुए उसकी वजह से हम उसे कुछ नहीं कह सकते ,यही बात मौलानाओं के सम्बंध में भी मै कहना चाहूंगी कि ये पहचान करनी चाहिए की प्रगतिशील मौलाना कौन हैं ? और वो इसी समाज में हैं ,और बहुत सारे हैं ,अभी जनवरी की बात है अब तक कहा जाता था कि मुसलमान लड़कियां गैर – मुस्लिम लड़कों से शादी नहीं कर सकती ,लेकिन जर्मनी के एक मौलाना ने फतवा दिया की नहीं मुस्लिम लड़कियां अगर किसी ऐसे लड़के से मोहब्बत करती हैं जो इस्लाम से बाहर का है तो वो उससे शादी कर सकती हैं |अगर आप देखें तो ये आज के समय में क्रांतिकारी बात है |मुझे लगता है खासकर औरतें ,समाज का गैर ब्राम्हणवादी तबका जिनमे ब्राह्मण भी हों और मौलाना मिल बैठे तो कई समस्याओं का समाधान संभव है |मुझे लगता है कि इन समस्याओं और इन सस्याओं के हल के जर्नलाइजेशन से परहेज करना चाहिए

आवेश तिवारी -आज देश में मुस्लिम महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत बेहद कम है ,आपको क्या लगता है ऐसा क्यूँ है इसके पीछे कौन सी वजहें हैं
शीबा असलम फहमी -देखिये देश में जो मुस्लिम महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत था वो पहले से बेहतर है ,जब उनको कम्पेयर करते हैं तो हाँ कम हैं ,लेकिन जब हम इनकी पहले कि अपेक्षा बेहतरी को देख रहे हैं तो हमें उन कारणों को चिन्हित करके जिनकी वजह से वो बेहतर हुआ है ,उन पर और काम करना चाहिए ,दूसरी बात ये है कि तमाम पुरुष सत्तात्मक समाज में जहाँ पर अधिकतर सत्ता ख़ास तौर से धार्मिक सत्ता मर्दों के हाँथ में होती है ,औरतों की उपयोगिता इतनी संकुचित कर दी जाती है कि आज भी हमारे मौलाना कह देते हैं कि औरतों को पार्लियामेंट में न जाकर ,पार्लियामेंट में जाने लायक लड़के पैदा करने चाहिए,ये तो प्लूटोनिक तर्क है| प्लूटो ने एक जमाने में कहा था कि औरतों को चाहिए की बलशाली और समाज उपयोगी मर्द पैदा करें |,ये इस्लाम पूर्व की एक धारणा है ,आज मौलाना इसी तरह सोचते हैं ,बात करते हैं, और मीडिया उनको कवर कर रहा है |लेकिन हाँ ,हम बहुत मजबूती के साथ उनका जवाब दे रहे हैं ,उनको मुंहतोड़ जवाब दे रहे हैं, उनको चैलेन्ज कर रहे हैं और उनकी खिल्ली उडा रहे हैं ,ये सच है आज हम जिस स्थिति में हैं उससे बहुत अधिक आशान्वित हैं |

आवेश तिवारी -शीबा अगर हम हिंदुस्तान की बात करें तो आपको क्या लगता है महिलाओं में जो विचारधारा से जुडी गुलामी है वो कब तक ख़त्म हो पायेगी ,इसके लिए किस किस्म के संघर्ष किये जाने की जरुरत है |
शीबा असलम फहमी – मैंने अभी हाल में लिखा है ,समाज जिन हथियारों से लैस करके बेटों को, लड़कों को दुनिया का सामना करने के लिए उतारता है जब उन हथियारों से बेटियों को भी लैस करने लगेंगे तो वो भी उसी मजबूती से दुनिया का सामना करेंगी |जब कोई पुरुष अपने घर ,बाहर या समाज में किसी भी स्तर पर किसी उलझन में फंस जाता है तो वो जिस साहस के साथ और जिस आत्मविश्वास के साथ उन परिस्थितियों का सामना करता है उस साहस और आत्मविश्वास के पीछे जो कारण काम करते हैं अगर औरत के लिए भी उन वजहों से जुडी ताकत होगी तो वो कभी भी अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं करेंगी ,चाहे वो पति के साथ हो ,ससुराल में हो ,सास के साथ हो,काम करने की जगह हो या समाज में कहीं पर भी हो |आप देखिये कि आप लड़कियों को हाथ- पैर तोड़कर लंगड़ा और लूला बनाकर समाज में झोंक देते है कि जाओ समाज का सामना करो ,चाहे उन्हें आप ससुराल भेजते हों या काम करने की जगह पर भेजते हों |आप उसे शिक्षा तो दे देते हैं क्यूंकि सरकारी तौर पर शिक्षा मिल रही हैं आप उसे संपत्ति में हिस्सा क्यूँ नहीं देते ,उसे मजबूत बनाइये उसके पास इतने साधन हों कि कल को अगर उन्हें अपने पति से अलग होना पड़े उन्हें अपना काम छोड़ना पड़े तो कम से कम उनके पास पेट भरने को तो हो ,जब ऐसा हुआ तो वो मजबूती से समाज में उतरेंगे और वो भी मजबूती से अपने से फैसले करेंगी |

आवेश तिवारी -शीबा आज हम अल्पसंख्यक महिलाओं की बात करते हैं शहरों कस्बों की महिलाओं की बात करते हैं उनके सरोकारों उनकी समस्याओं की बात करते हैं ,लेकिन गाँवों में ,टोलों में रहने वाली महिलाएं हैं ,आदिवासी महिलायें हैं उनकी चर्चा बहुत कम होती है आपको क्या लगता है इसकी वजहें क्या हैं ?

शीबा असलम फहमी -देखिये ,नारीवादी आन्दोलन देश की ग्रामीण आबादी में लीडरशिप डेवलपमेंट प्रोग्राम का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन कर रहा है| दूर दराज के क्षेत्रों में जाकर वहां की औरतों को उनके अधिकारों को बता रहा है कि जिन विषमताओं से आप गुजर रही हैं वो विषमतायें आपकी किस्मत नहीं हैं,संसाधनों का आप तक नहीं पहुंचना भगवान की परीक्षा नहीं है इसकी वजह सरकार और दुनिया भर के कार्पोरेट्स हैं, इसमें सिर्फ समाज ही शामिल नहीं है |आज राजस्थान में जो पानी की समस्या है वो औरतों से सीधी जुडी समस्या है ,जिसमे कार्पोरेट्स भी शामिल है ,जिस तरह से जंगल ख़त्म हो रहे हैं उनका सीधा असर गाँव की महिलाओं पर पड़ रहा है उनकी रसोई से है |जरुरत इस बात की है कि इन आदिवासी महिलाओं ,गाँव की महिलाओं में नेतृत्व क्षमता विकसित की जाए ,उनका नेता दिल्ली से क्यूँ आएगा, सिविल सोसायटीज को इसके लिए आगे आना होगा |

आवेश तिवारी – शीबा आपको लगता है कि नहीं मीडिया भी महिलाओं को लेकर दोहरे मापदंड अपना रहा है ,नोयडा में किसी देर रात की पार्टी से घर लौट रही महिला के साथ होने वाली छेड़खानी शुर्खियाँ बन जाती हैं लेकिन दूर –दराज के गाँवों कस्बों में रोज बरोज होने वाली महिला उत्पीडन से जुडी गंभीर ख़बरें अन्दर के पेजों पर भी जगह नहीं पाती |आपको क्या लगता है इसकी वजहें क्या हैं और ऐसा है की नहीं ?

शीबा असलम फहमी – मै इसको सिर्फ महिलाओं से जोड़कर नहीं देखती मैं इसको मीडिया के काम करने के तरीके से जोड़ कर देखती हूँ ,मईसको मीडिया की काहिली से भी जोड़कर देखती हूँ ,दिल्ली क्यूँ छाया रहता है ख़बरों में ?दिल्ली इस लिए छाया रहता है क्यूंकि आपको भाग दौड़ नही करनी पड़ती ,आठ दस किलोमीटर जाकर ख़बरें और सुर्खियाँ ले आई जाती हैं ,अब आप देखिये दिल्ली की सर्दी को ही कितना ग्लेमराइस्द किया जाता है जबकि बांदा ,कानपुर ,लखनऊ में पड़ने वाली ठण्ड दिल्ली से कहीं बहुत ज्यादा होती है मीडिया सुविधाभोगी है ,कभी वो संसाधनों का रोना रोता है तो कभी किसी अट्टालिका पर खड़ा होकर तेज हवा को दिखलाता हुआ सर्दी का आतंक बयां करता है जबकि असल शरद जहाँ होती है वहां मौतें भी होती है पर अफ़सोस ख़बरें नहीं होती ,आप किसी उत्पीडित महिला को उनके स्टूडियो पंहुचा दीजिये ,फिर देखिये क्या खबर पैदा होती है .. Read this interview on www.network6.in (Also in Audio)

Sunday, January 09, 2011

अगली बार जब स्त्री-विमर्श सूझे ! -- शीबा असलम फ़हमी (पत्रकार, स्तंभकार, व समाजशास्त्री )

याद कीजिये, क्या अपने कभी आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को किसी बड़े आन्दोलन या सामाजिक बदलाव का नेतृत्व करते देखा है? राजा राम मोहन राय,बाल गंगाधर तिलक, सर सैयद अहमद खान, भीमराव अम्बेडकर,छत्रपति शाहूजी महाराज,ज्योतिबा फुले, मोहनदास करमचंद गाँधी, कांशीराम या महिलाओं में रज़िया सुल्तान,लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी, सावित्रीबाई फुले,पंडिता रामाबाई,रकमाबाई, बेगम भोपाल, ज़ीनत महल - कौन थे ये लोग ? ग़रीब-गुरबा? नहीं!
सीधी सी बात है, समाज से भिड़ने के लिए और उसके दबाव को झेलने के लिए जो आर्थिक मज़बूती चाहिए, अगर वह नहीं है तो आपकी सारी 'क्रांति' जिंदा रहने की जुगत के हवाले हो जाती है.खुद को संभाल न पाने वाला इन्सान कैसे किसी आर्थिक-सामाजिक विरोध और असहयोग को झेलकर समाज से टकराएगा ? एक निराश्रित, भूखे, कमजोर से यह उम्मीद कि वह क्रांति की अलख जगाकर परिस्थितियां बदल दे, निहायत मासूमाना मुतालबा है. लेकिन इस मामले को अगर आप स्त्री-विमर्श के हवाले से समझें तो परत-दर-परत एक गहरी होशियारी और आत्मलोभ का कच्चा चिठ्ठा खुलने लगता है.
कौन नहीं जनता कि संपत्ति में बंटवारे को लेकर समाज कितना पुरुषवादी है. बेटियों को हिस्सा देने के नाम पर क़ानूनी बारीकियों के जरिये ख़ुद को फायदे में रखने की ख़ातिर कितने वकीलों-जजों को रोजगार मुहैया कराया जा रहा है और बेटी का 'हिस्सा' तिल-तिल कर दबाया जा रहा है.
इसके बरक्स अगर आप पुरुषों के विमर्श और साहित्य की दुनिया पर नज़र डालें तो शायद ही कोई हो जो यह न मानता हो कि महिलाओं को सशक्तिकरण की ज़रूरत है. जो महिलावादी विमर्श-लेखन में नहीं हैं वे भी और जो बाज़ाब्ता झंडा उठाये हैं वे तो ख़ैर मानते ही हैं कि समाज में औरतों की हालत पतली है.
आजकल तो पुरुषों द्वारा कविता-कहानी के ज़रिये भी स्त्रियों की दयनीयता को महसूसने की कवायद शुरू हो चुकी है.ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि इनसे कहा जाय कि ज़रा आत्मावलोकन करें.अब इस लेखन और स्त्री आन्दोलन में पुरुष सहयोग की भागीदारी उस स्तर पर है कि जिम्मेदारी भी डाली जाय. पिछले तीन-चार सालों से जब से महिला विषयक लेखन से जुड़ी हूँ, तब से ही कुछ ख़ास तरह के साहित्य और विमर्श से दो-चार हूँ. अक्सर तो लेखक-प्रकाशक टिप्पड़ी-समीक्षा के लिए किताबें भेज देते हैं. कुछ इन्टरनेट लिंक और साफ्ट कापी आदि भी आती रही है,जिनमें अक्सर कविताएँ मिलीं जो स्त्री और स्त्री-चरित्रों का आह्वान करती हैं. पिछले लगभग एक साल से ऐसे निजी और सामुदायिक ब्लॉगों की भी भरमार हैजिनमें स्त्री-केन्द्रित कविता-कहानी-विमर्श छाया हुआ है. कुछ कविताएँ अपपनी माँ, नानी, दादी वगैरह को मुखातिब हैं उनकी ज़िन्दगी के उन पहलुओं और हादसों को याद करती हैं जब उन्हें सिर्फ़ बेटी, बहू, माँ, बहन समझा गया, लेकिन इन्सान नहीं. जो ख़ानदान में तयशुदा किरदारों में ढल गयीं और भूल गयीं कि वे अपने आप में एक इन्सान भी हैं. जिनके होने से परिवार-खानदान की कई जिंदगियां तो संवर गईं लेकिन खुद उनका वज़ूद मिट गया. कुछ और इसी तरह के स्त्री-विमर्श पर नज़र डालूं तो,पुरुष-लेखकों का एक और वर्ग है जो अनुभूति के स्तर पर 'स्त्री-मन' में प्रवेश कर, वहाँ उतर जाता है जहाँ से वे खुद औरत बनकर दुनिया देख रहे हैं. उनके भीतर की स्त्री के नजरियों को लेखनी में उतरना और फिर उन बारीकियों को आत्मसात करना.
एक और मिज़ाज है स्त्री-केन्द्रित लेखनी का,जो विमर्श-विश्लेषण द्वारा महिलाओं को बराबरी-इंसाफ़ और हक़ हासिल करने के लिए हांक लगाता है. वहाँ आह्वान के साथ-साथ धिक्कार भी है जो औरत के संकोच, बुज़दिली,धर्मभीरुता,संस्कारी और शुशील बर्ताव को छोड़, आग-ज्वाला बनने का आह्वान करता है, और इसके अभाव को स्त्री की 'गुलामी की मनोदशा' का प्रतीक मानता है.
साहित्य बिरादरी में तो स्त्री-देह को लेकर जो कुछ चल रहा है उस पर सिर्फ़ यही कह कर बात ख़त्म करुँगी कि दैहिक मुक्ति मात्र से सारी दुनिया में स्त्रीवादी क्रांति का सपना देखना अजीब लगता है. और बात जब वेशभूषा, पर्दा-प्रथा या संस्कृति पर आकर टिक जाती है तो और भी सतही हो जाती है. पुरुषों द्वारा इस तरह के स्त्री-विमर्श में भाषणबाजी के तौर पर वह सब कुछ है जो कि हम किसी प्रतिक्रियावादी विमर्श में देखते हैं.और जिसे अंग्रेजी में 'लिप-सर्विस' कहा जाता है, बस.
लेकिन इस हमदर्दी-भरे लेखन-विमर्श और विश्लेषण में ईमानदारी की बेहद कमी है जो किसी से ढंकी-छुपी नहीं है.और जिन पर पुरुष-समाज की मौन स्वीकृति जारी है और जो महिला-सबलीकरण में सबसे बड़ी बाधा है.
महिलाओं की दुर्दशा पर द्रवित साहित्य रचने वालों से लेकर,ठोस, विचारोत्तेजक और रेडिकल विमर्श करने वालों से भी यह पूछा जाना ज़रूरी हो गया है कि वह साहित्य कब रचा जायेगा जिसमें पति,पिता,भाई,पुत्र,पौत्र के असली किरदार उतरेंगें कि कैसे उनके पिता उनकी माँ के साथ खुलकर वह सब करते रहे जिससे वे दया की निरीह पात्र बनती गईं? कैसे उनके दादा-नाना-ताया का रौब-दाब कायम होता रहा? कैसे वे खुद पति के रूप में अपने पूर्वजों का अगला संस्करण बने हुए हैं? आज समाज में जिन स्रोतों से ताकत, सम्मान, आत्मविश्वास हासिल किया जाता है,स्त्री को भी ज़रूरत उन्हीं की है न की दैहिक चिंतन के चक्रव्यूह में फंसकर असली मुद्दों से भटकने की.
जो पुरुष-समाज स्त्री-मुक्ति-विमर्श में शामिल है, उनसे दो टूक सवाल है कि पिता-भाई के रूप में क्या आपने अपनी बेटी और बहन को परिवार की जायदाद में हिस्सा दिया या कन्नी काट गए? अगर पिता-भाई के रूप में पुरुष ईमानदार और न्यायप्रिय नहीं है तो उनकी बेटियां-बहनें अबलायें ही बनी रहेंगीं. पति-ससुराल और समाज में हैसियत-हीन बनने की प्रक्रिया मायके से ही शुरू होती है जब--
(1) विवेकशील होने के लिए शिक्षा नहीं मिलती.
(2) आत्मविश्वासी होने के लिए आज़ादी नहीं मिलती.
(3) आत्मनिर्भर होने के लिए परिवार-पिता की जायदाद में हक़ बराबर हिस्सा नहीं मिलता.
ये तीनों धन बेटियों को पीहर में मिलने चाहिए. अगर औरत इनसे लैस है तो ससुराल-पति क्या पूरे समाज के आगे ससम्मान ज़िन्दगी तय है लेकिन अगर पिता ही ने उसे इनके अभाव में अपाहिज बना दिया है तो क्या मायका, क्या ससुराल और क्या बाहर की दुनिया- सभी जगह उसे समझौते ही करने हैं और आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता पर कितने ही प्रवचन उसका कोई भला नहीं कर सकते.
साहित्य-जगत में स्त्री-सबलीकरण पर आप अगली बार जब भी सोचें, कृपया यहीं से सोचें कि खुद आपने अपनी बेटी-बहन-पत्नी को परिवार की संपत्ति में 'हक़ बराबर' हिस्सा दिया क्या? क्योंकि मध्यवर्ग में स्त्री-शिक्षा पर चेतना तो कमोबेश आ गयी है, दूसरी तरफ सरकारी नीतियों की वजह से भी लड़कियों की शिक्षा आगे बढ़ी है लेकिन मर्द की जहाँ अपनी ताक़त-हैसियत में निजी स्तर पर भागीदारी की बात आती है, वह सरासर मुजरिम की भूमिका में है. तब वह दहेज़,भात, नेग आदि कुरीतियों की आड़ में छुपकर मिमियाता है कि हम बहन-बेटी को ज़िन्दगी भर देते ही हैं. बेटी को दहेज़-भात-नेग में टरकाने वाले यह सब खुद रख लें अपने लिए और जो अपने लिए जायदाद दबा रखी है वह बेटियों-बहनों को दे दें तो चलेगा? क्या वे इस अदला-बदली को तैयार होंगें?
एक और पलायनवादी तर्क यह आता है कि बेटी-बहन को तो ससुराल से भी मिलता है. यह सबसे कुटिल तर्क देते समय वे यह नहीं सोचते कि जब तुम खुद अपने खून, अपनी औलाद को नहीं दे रहे हो तो पराये लोग जो दहेज के बदले उसे ले गए, वह उसके नाम अपनी जायदाद लिखवायेंगें ? या ऐसे पिता-भाई खुद अपनी पत्नियों के नाम जायदाद का कितना हिस्सा चढ़वाते हैं कागज़ों पर?
जिस दिन बेटी के पास पलटकर वापस आने का संबल अपना 'घर' होगा जिस दिन डोली-अर्थी के चक्रव्यूह से वह मुक्त होगी, जिस दिन बुरे वक़्त में संबल बनने के लिए रिश्ते और संसाधन होंगे, उसी दिन से बहुएं-पत्नियाँ आत्मसम्मानी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर होंगी.
सवाल यह है कि अपने इस वाजिब हक़ को लेने के लिए प्रेरित करनेवाला न साहित्य है कहीं,न विमर्श, क्योंकि यह किसी सरकारी नीति में हिस्सेदारी का मामला नहीं है, न ही किसी दूसरे की बहन-बेटी को ' स्त्री-देह' की मानसिक जकड़न से मुक्त करवाकर स्वान्तः सुखाय भोग का मामला, इसमें तो खुद अपनी अंटी ढ़ीली करनी पड़ती है, और बैठे-बिठाये बाप की जायदाद से मिलने वाले सुख-संतोष-सुरक्षा से हाथ धोना पड़ता है.
लिहाज़ा इस पर सर्वत्र मौन सधा हुआ है और बहस इस पर जारी है की किस तरह स्त्रियाँ ख्वामख्वाह अपने शारीर के प्रति अत्यधिक सतर्क होकर गुलामी में जकड़ी हुई हैं, कैसे वे शुचितावादी धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं को धोकर जीवन-सुख से खुद को वंचित कर रही हैं. कैसे वे समाज की तयशुदा भूमिकाओं में फंसकर रह गयी हैं और एक स्वछंद स्त्री होने के सुख से वंचित हैं.कुल मिलकर वह सारा स्त्री-विमर्श जारी है जिससे खुद मर्द किसी तरह के घाटे में नहीं हैं. वह परिवार की संपत्ति पर, सारे अधिकारों पर और सत्ता पर एकछत्र राजा बना बैठा है. उसकी सत्ता पर कहीं से आंच नहीं आ रही है. वह कमजोर,अधिकारहीन, विवेकहीन, आत्मविश्वासहीन, सम्पत्तिहीन महिलाओं (बेटी, बहन,पत्नी, माँ,रखैल) से घिरा हुआ, खुद को निर्विघ्न सत्ता में बनाये हुए है. और समाज में न्यायप्रिय, आधुनिक प्रगतिशील, स्त्रीवादी दिखने के लिए वह सभी फैशनेबल सिद्धांतों-वादों को अपनी वाणी में आत्मसात कर समय-सम्मत उवाच करता है.
ऐसी सूरत में सिमोन द बाउवार से लेकर प्रभा खेतान तक, और तसलीमा नसरीन से मैत्रेयी पुष्पा तक जो भी समर्थन स्त्री-विमर्श के नाम पर आप दे रहे हैं वह गल-थोथरी से ज्यादा क्या है? और आप ख़ुद जो द्रवित, सूक्ष्म, संवेदनशील साहित्य रच रहे हैं, वह समय को देखते हुए भाषा व शब्दकोष की होशियारी दिखाने से ज्यादा क्या है?
यक़ीन मानिये, इस वक़्त मुझे सामाजिक-साहित्यिक दुनिया के कई चेहरे याद आ रहे हैं जो निजी ज़िन्दगी में पैतृक संपत्ति पर ठाठ के चलते आज सामाजिक जीवन में भी स्त्री-दलित विमर्श पर क्रांतिकारी तजवीजें दे रहे हैं, वे तसलीमा नसरीन को सुरक्षा न दे पाने के लिए भारत सरकार को भी खरी-खरी सुनाते हैं और दलितों के उत्थान के बजाय पार्कों के निर्माण के लिए मायावती को भी आड़े हाथों लेते हैं. पर उनके निजी जीवन में झांकते ही पता चल जायेगा कि जनाब बहनों को केवल दहेज-भात-नेग में टरकाने में यक़ीन रखते हैं. ऐसे सामाजिक चिंतकों के जीवन में न्याय और बराबरी के आदर्शों की जाँच-पड़ताल का समय आ गया है.
महिला-सबलीकरण की मुहिम को संसद के साथ-साथ पीहर में स्थापित करने की ज़रूरत है. और निश्चित रूप से इसमें पुरुष ही कुछ कर सकते हैं. औरतें तो बस उनके ज़मीर को जगाने की कोशिश ही कर सकती हैं. इसलिए महिला-सशक्तिकरण पर अगली बार जब विमर्श करें तो यहीं से शुरू करें कि ख़ुद अपने परिवार-ख़ानदान में सबसे पहले जायदाद में भागीदारी के कागज़ तैयार करवाएं, फिर इस मुहिम को रिश्ते-नाते, पड़ोस-मुहल्ले तक पहुंचाएं.
जिस दिन बेटियां भी बेटों की तरह मजबूत ज़मीन पर खड़ी होंगी, दुनिया हिला देंगी. ( प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ' हँस' के जनवरी २०११ अंक से साभार )

Friday, January 07, 2011

कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का नतीजा--सुनील अमर

कुछ ताजा खबरों से पता चलता है कि देश के भीतर सब कुछ कैसे गड्मड चल रहा है। कहा जाता है कि सरकार ने अनाज ज्यादा खरीद लिया और उसे रखने की जगह नहीं है, इसलिए वह सड़ रहा है और देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सरकार से कैफियत तलब करती है कि जब रखने की जगह नहीं है और तमाम देशवासी भूखों मर रहे हैं तो उसे गरीबों और जरूरतमंदों में क्यों नहीं बांट देते? सरकारी विभागों ने ही दो महीने पहले बता दिया था कि प्याज की पैदावार इस साल भारी बरसात के कारण 60 प्रतिशत कम हुई है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री एक-दूसरे से पूछ और बता रहे हैं कि प्याज की कीमतें आसमान कैसे छूने लगी हैं!

यह भी गौर करने की बात है कि प्याज की कीमतें लगभग साल भर से बढ़ ही रही हैं। अब इधर जब बिचौलिये अपनी तिजोरी भरने में और उजड़े हुए किसान अपनी जान गंवाने में लगे हैं तो सरकार ने ब्रह्मास्त्र चलाते हुए महाराष्ट्र के प्याज-किसानों को 400 करोड़ रुपयों का एक राहत पैकेज देने की घोषणा कर दी है। दूसरी तरफ मंहगी दर पर प्याज खरीद कर उसे सस्ती दर पर जनता को उपलब्ध कराने का खेल भी दिल्ली में शुरू हुआ है। इन सबके साथ-साथ खबर है कि पाकिस्तान से प्याज का आयात हो रहा है और (रोक के बावजूद) देश से प्याज का निर्यात भी बदस्तूर जारी है!

देश की सत्ता को जब संप्रग ने अपनी पहली पारी के रूप में 2004 में संभाला था, तब यह बात बहुत जोर-शोर से प्रचारित की गई थी कि पहली बार ऐसा स्र्वणिम अवसर आया है जब दुनिया के चार वरिष्ठ अर्थशास्त्री भारत सरकार में मौजूद हैं-वे हैं- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणव मुर्खजी, गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया। उस वक्त यह भी याद दिलाया गया था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए देश में पहली बार नये आर्थिक सुधारो का एजेंडा लागू किया था। तब से अब तक दिल्ली की यमुना में बहुत पानी बह चुका है और देश की गरीब जनता का बहुत सा खून और पसीना भी। सरकार के अपने ही आंकड़ें बताते हैं कि देश की तीन चौथाई आबादी घोर बदहाली में जी रही है और एक दशक में दो लाख से अधिक अन्नदाता हताशा के कारण कीटनाशक पीकर अपनी जान दे चुके हैं। इतने किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद हमारे दूरअंदेशी अर्थशास्त्री अहलूवालिया जी का निष्र्कष है कि देश में महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि गांवाें में अमीरी आ गई है!

सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 र्वष पूरे होने का जश्न हाल ही में अपने 83वें अधिवेशन के रूप में मनाया। अधिवेशन में कृषि संबंधी जो प्रस्ताव पेश किया गया, उसमें बताया गया कि देश में 52 प्रतिशत लोगों को कृषि से रोजगार मिल रहा है, लेकिन इसके विपरीत पिछले महीने ही केन्द्र सरकार के श्रम मंत्रालय ने एक सव्रे रपट जारी की है जिसमें बताया गया है कि कृषि से रोजगार हासिल करने वालों की संख्या घटकर अब सिर्फ 45.5 प्रतिशत रह गयी है तथा बड़ी संख्या में लोग खेती छोड़ रहे हैं! उधर बीते 12 नवम्बर को दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में आयोजित जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में विश्व नेताओं को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि देश की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत है और शीघ्र ही यह नौ प्रतिशत की विकास दर को छूने वाली है। संयोग देखिए कि उसी के सिर्फ एक दिन पहले श्रम मंत्रालय ने एक सव्रे रपट जारी कर बताया कि राष्ट्रीय सैम्पल सव्रे ने 2007-08 में देश में बेरोजगारों की जो संख्या एक करोड़ बतायी थी, वह अब बढ़कर चार करोड़ से अधिक हो गयी है! इसका क्या मतलब माना जाए कि अपनी ही सरकार की रपट का पता कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री को नहीं है या वह सच्ची रिपोर्ट पेश नहीं करना चाहती ? सचाई यह है कि देश में जब भी इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी आधारभूत ढांचे की बात की जाती है तो उसमें कृषि को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता। जब कृषि पर निर्भरता 75 प्रतिशत थी तब भी और अब जबकि सरकार 52 प्रतिशत बता रही है तब भी। यही कारण है कि देश के इस सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की हमेशा उपेक्षा की गई। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में कृषि पर पेश प्रस्ताव में भले ही पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का यह र्चचित उद्धरण पेश किया कि ‘..और सभी क्षेत्र प्रतीक्षा कर सकते हैं लेकिन कृषि नहीं।’ लेकिन वास्तविकता यह है कि सिर्फ छंटी-छटाई सैद्धान्तिक बातों के अलावा कृषि की बेहतरी के लिए सरकार के पास न तो कोई विचार हैं और न कोई योजना। केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट ने जरूर कृषि क्षेत्र को लेकर अपनी चिंता और सुझावों से अधिवेशन को अवगत कराया लेकिन इस पर अमल कर पाना उनकी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के वश की बात नहीं लगती। श्री पायलट का सुझाव था कि उर्वरक अनुदान (सब्सिडी) के रूप में प्रतिर्वष जो एक लाख करोड़ से ऊपर की धनराशि उर्वरक निर्माताओं को दी जाती है वह सीधे किसानों को दी जाए। इस मुद्दे पर कुछ र्चचा की जा सकती है। दरअसल संप्रग प्रथम ने ही यह तय किया था कि उर्वरकों पर छूट की व्यवस्था में परिर्वतन की आवश्यकता है और छूट की धनराशि के कूपन तैयार कर किसानों को दे दिये जाएं ताकि किसान बाजार भाव पर उर्वरक खरीद कर तथा दुकानदार को छूट का कूपन देकर उसका लाभ प्राप्त कर लें। अभी कुछ माह पहले यह भी तय किया गया था कि छूट के कूपन बैंकों के माध्यम से किसानों को दिये जाएं, लेकिन यह व्यवस्था आज तक लागू नहीं हो पाई है क्योेंकि उर्वरक निर्माताओं की लॉबी बहुत प्रभावशाली है। वहां से लेकर सरकार तक इसमें प्रतिर्वष अरबों रुपयों का खेल होता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि पूर्व केन्द्रीय उर्वरक और पेट्रोलियम मंत्री रामविलास पासवान के कार्यकाल में र्वष 2004-05 में जो उर्वरक अनुदान 15,779 करोड़ रुपये का था वह एक साल बाद 2006-07 में बढ़कर 40,338 करोड़ रुपये तथा 2008-09 में तो 1,19772 करोड़ रुपये का हो गया!

आखिर देश में उर्वरकों की खपत कितनी है जो मात्र यूरिया और डीएपी पर ही एक साल में सवा लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दे दी गई? क्या देश के किसान इतनी खाद इस्तेमाल करने भर के लिए अमीर हो गये हैं? किसानों की बदहाली की दैनिक र्चचाओं के बीच उर्वरक निर्माताओं के इस दुष्प्रचार पर आंख मूंदकर कैसे यकीन कर लिया जाए कि किसान उर्वरको का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं। दरअसल अनुदान लेने के लिए र्फजी उत्पादन दिखाने का जो खेल होता है, वह किसी से छिपा नहीं है। श्री पायलट ने यह भी कहा कि कृषि ऋणों पर ब्याज अब भी बहुत ज्यादा है और इसे कम किया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष और प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन ने चार र्वष पूर्व ही सरकार को सुझाव दिया था कि कृषि ऋण पर ब्याज चार प्रतिशत से भी कम रखा जाए लेकिन संप्रग सरकार आज तक इसे क्रियान्वित नहीं कर पाई। महाराष्ट्र के किसानों को बार-बार हजारों करोड़ रुपयों का राहत पैकेज केन्द्र सरकार दे रही है लेकिन क्या किसानों की हालत और आत्महत्याओं के आंकड़ों में कोई सुधार हो रहा है? फिर इस तरह के शोशे छोड़ कर सरकार किसे बहलाना चाह रही है?oo in Rashtriya Sahara on edit page 07-01-2011

Monday, January 03, 2011

बिनायक को सजा दिलाने के लिए भाजपा ने की पैरोकारी ---- शीतला सिंह

छत्तीसगढ़ में रायपुर की एक अदालत ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के उपाध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता बिनायक सेन सहित नक्सल विचारक नारायण सान्याल और कोलकाता के कारोबारी पीयूष गुहा को भारतीय दंड विधान की धारा 124 ए (राजद्रोह) और 120 बी (षडयंत्र) के तहत उम्रकैद की सजा सुनायी है। श्री सेन को 14 मई 2007 को बिलासपुर में गिरफ्तार किया गया था। बिनायक सेन को देश में समाज सेवा के लिए कई सम्मान मिले हैं। कई अन्य देशों में भी विश्व स्वास्थ्य मिशन आदि के लिए उन्हें कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनकी वैचारिक विरोधी रही भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें गंभीर सजा देने के लिए विशेष पैरोकारी की थी।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्य और सरकार दोनों को एक ही नहीं माना जा सकता। राज्य तो स्थायी व्यवस्था है, लेकिन सरकारें देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप आती-जाती रहती हैं। व्यवस्था चलाने के लिए इन सरकारों का विधायी अंग कानून भी बनाता है और जिसके अनुरक्षण का दायित्व स्थायी तत्व के रूप में कार्यरत कार्यपालिका के पास होता है। न्यायपालिका को भी राज्य का अंग ही माना जाता है, क्योंकि उसकी सत्ता अलग से नहीं है।

भारतीय संविधान में नागरिकों को मूल अधिकार दिये गये हैं। उसी के अनुच्छेद 19 (1) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्रम में ही राजनीतिक संगठनों के बनाने और चलाने का भी अधिकार है। इस अधिकार में प्रतिबंध केवल उपक्रम के लिए ही लगाया जा सकता है। लोक व्यवस्था कानून व्यवस्था का पर्यायवाची नहीं माना जा सकता, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत 1951 में जो परिवर्तन किये गये थे, वे ही सरकारों को सार्वजनिक व्यवस्था के क्रम में कदम उठाने का भी अधिकार देते हैं, पर यह मूल अधिकारों को समाप्त करके नहीं। अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी भारतीय दंड विधि की धारा 124 ए में राजद्रोह को यूं परिभाषित किया गया है- ‘जो कोई व्यक्ति लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों या दृष्टिगत निरूपण या किसी भी तरह से नफरत या घृणा फैलाता है या फैलाने की कोशिश करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ विद्रोह भड़काता है या भड़काने की कोशिश करता है, उसे आजीवन कारावास या उससे कुछ कम समय की सजा दी जायेगी, जिसमें जुर्माना भी लगाया जा सकता है या जुर्माना किया जा सकता है।

इसके साथ ही तीन व्याख्याएं भी दी गयी हैं (1) विद्रोह की अभिव्यक्ति में शत्रुता की भावनाएं और अनिष्ठा शामिल है। (2) बिना नफरत फैलाए या नफरत फैलाने की कोशिश किये, अवज्ञा या विद्रोह भड़काए बिना सरकार के कार्यों की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना जिसमें कानूनी रूप से उन्हें सुधारने की बात हो, तो यह इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना जायेगा। (3) बिना नफरत फैलाये या नफरत फैलाने की कोशिश किये, अवज्ञा या विद्रोह भड़काए बिना प्रशासन या सरकार के किसी अन्य विभाग की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना जायेगा। इसलिए लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण आंदोलन को राजद्रोह की परिभाषा में नहीं रखा जा सकता। यदि ऐसा करने का अधिकार न होगा तब तो लोकतंत्र जो एक दल या विचारक या कार्यक्रम वाले दल द्वारा चलाया जा रहा हो, उसे फिर कैसे हटाया जायेगा। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति के प्रतिबंध के संबंध में भी कुछ मानक बनाये हैं- यानी जहां दबाना आवश्यक है, कोई सामुदायिक हित खतरे में है, लेकिन यह खतरा अटकलों पर नहीं होगा बल्कि पब्लिक आर्डर के लिए आंतरिक रूप से खतरनाक होना जरूरी है। इसी प्रकार 124 ए के अंतर्गत विराग (डिसअफेक्शन) कहा जा सकता है। वह भी इससे सीधा सम्बद्ध है।

इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर इस संबंध में जो निर्णय दिये हैं उसे ‘विराग’ को स्नेह या बुरी भावना से अलग किया गया, व्यवस्था या अव्यवस्थाओं में अन्तर किया गया है। विद्रोह उकसाने के लिए किसी व्यक्ति को आरोपित करने हेतु अभिव्यक्ति और सरकार के बीच सीधा संबंध होना जरूरी है। गड़बड़ी की आशंका से विद्रोह को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए सरकार के प्रति अनास्था और उसे बदलने का प्रयत्न दोनों अलग-अलग तत्व हैं। अनास्था को अराजकतावाद कहा जा सकता है, जिसमें तर्क यह है कि सरकार व्यक्ति के मूल और स्वाभाविक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाती है और उसके लिए निरंकुशतापूर्ण हो जाती है। जब यह निरंकुशता प्रतीक बन जाये तब इससे कैसे लड़ा जाये? क्योंकि सारे संहारक अस्त्र तथा उनका संगठित प्रयास सरकार के हाथ में ही होते हैं। इस अराजकतावाद में भी व्यक्ति के सामान्य जीवन व स्थापना का सिद्धान्त अस्वीकार्य नहीं किया गया है।

जब सरकारें होंगी, तब उनके खिलाफ असंतोष भी होगा और वह विभिन्न स्वरूप ग्रहण करेगा। इसके लिए आंदोलन भी होंगे, लेकिन उन्हें कुचलने के लिए राज्य तभी कोई कदम उठा सकता है जब हिंसा को प्रोत्साहित करने के कोई कदम उठाये गये हों। यह केवल भावनाओं पर आधारित नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक और निर्वाचित सरकारों के खिलाफ आंदोलन या अभिव्यक्ति को राजद्रोह का कारण मान लिया जायेगा तब तो यह सरकारों की निरंकुशता ही सुदृढ़ करेगा। उनकी असंवेदनशीलता के परिणामों से ग्रस्त होने से बचने के लिए प्रतिरोध ही तो विकल्प होगा। लेकिन बारीक धारा यही है कि वह हिंसक नहीं होना चाहिए।

इसीलिए जब 124 ए की परिभाषाएं की गयी हैं और कहा गया है कि ‘कानून द्वारा स्थापित सरकारों को उन लोगों से अलग होकर देखना चाहिए जो कुछ समय के लिए कार्य कर रहे हों। इसलिए यह प्रश्न किसी एक व्यक्ति और उसकी सजा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजद्रोह की सीमाएं निर्धारित करता है कि इसका प्रयोग जनता के मूल अधिकारों को समाप्त करने के लिए नहीं हो सकता। इसी प्रकार सरकार का काम विचारों पर प्रतिबंध लगाना नहीं है। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज के विभिन्न अंगों व समुदायों को प्रदान की गयी है। केवल समाचार-पत्रों को ही नहीं है। वे भी आम जन समुदाय की श्रेणी में आते हैं।

इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्रम में ही संगठन बनाने और चलाने की आजादी को भी देखा जाना चाहिए। उनकी निष्ठा सरकार के प्रति हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। इसलिए इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर अंतिम निर्णय तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही होना है। कुल मिलाकर यह निर्णय न केवल भावनाओं, अटकलों और उनके कल्पित परिणामों पर आधारित है, बल्कि अव्यवस्था को साधारण परिभाषा में ही मूल अधिकारों से अलग करके लिया गया है.
(श्री शीतला सिंह जनपद फ़ैजाबाद, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित हो रहे सहकारी समाचार पत्र दैनिक जनमोर्चा के मुख्य संपादक हैं और पिछले कई बार से वे भारतीय प्रेस परिषद् के सदस्य हैं! श्री सिंह ने अयोध्या विवाद के समाधान के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कार्य किया है)