Thursday, January 20, 2011

...हम जैसे बहुत लोग डार से बिछड़े ही हैं --- सुनील अमर

अरसा पहले अमृता प्रीतम का उपन्यास पढ़ा था -- डार से बिछड़ी . डार यानी डेरा यानी घर ! इधर संयोगवश अपने गाँव में थोड़ा लम्बा वक़्त गुजारना पड़ा तो लगा कि मैं भी डार से बिछड़ा ही हूँ .
मेरी माँ श्रीमती सुशीला त्रिपाठी (84 ) कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थीं और तमाम इलाज के बाद डाक्टरों ने कह दिया कि अब इन्हें घर ले जाकर इनकी सेवा करिए. इस तरह की ''सेवा'' का अर्थ लगभग सभी लोग समझते हैं, सो मैं भी समझ गया. इकलौता पुत्र और आज की भाषा में single होने के कारण लगभग तीन महीना मैं उनकी सेवा में ही दिन-रात लगा रहा.इसी बहाने गाँव को थोड़ा ताज़ा-ताज़ा जाना भी . माँ गाँव में ही रहती थी.बीते महीने उनका देहावसान हो गया.
वैश्वीकरण और संचार-विस्फोट के बावजूद गाँव अभी कमोबेश गाँव बने हुए हैं,रहन-सहन में जिस तरह अमीरी-गरीबी पहले दिखती थी, उसी तरह आज भी दिखती है. गाँव में जो लोग अमीर हो गए हैं, उन्होंने अपने सामाजिक सरोकार दूसरी तरह के कर लिए हैं लेकिन जो अमीर नहीं हैं उनका जीवन-यापन का तौर-तरीका अभी ज्यादा स्वाभाविक और प्राकृतिक है. एक-दूसरे के सुख-दुःख में उनकी सहभागिता अभी भी ज्यादा सहज है.और हम जैसे लोग तो घर-परिवार वहीं रहने के बावजूद NRV यानी '' non resident villager '' सरीखे हो गए हैं! एक-दो घटनाओं ने बहुत आहत किया --
१- शाम का समय था और मैं टहलते हुए खेतों की तरफ काफ़ी दूर चला गया था. ठंढक की वजह से कपड़ों से लदा-फदा मैं मोबाइल पर दिल्ली अपनी एक दोस्त से बातें करने में मशगूल था.कुछ देर बाद लगा कि जैसे कोई पुकार रहा है. धुंधलका सा हो चला था फिर भी देखा कि थोड़ी दूर पर एक बृद्ध महिला कांख में कुछ सामान दबाये आ रही थी और वही मेरी दिशा में मुखातिब थीं.दूरी और धुंधलका होने के कारण पहचान नहीं पा रही थीं, इसीलिए स्थानीय अवधी बोली में वे '' के होय? तनी सुना तौ? '' की हांक अधिकारपूर्वक लगा रही थीं. फोन बंद करके मैं उनके पास गया .''पायलागी'' किया और पूछा कि क्या है.
मुझे नजदीक से देखने और पहचानने के बाद उन वृद्धा के चेहरे का भाव ही बदल गया.जैसे कोई अपराध उनसे अनजाने में हो गया हो, बहुत कातर स्वर में उन्होंने कहा कि ,'' अरे बचवा तू ह्वा ! चीनेह्न नाय ( पहचाने नहीं ) बच्चा! ''
मैं ख़ुद ही झेंप गया और बोला कि '' का बात है माई बतावा तौ ?''
'' नाही बच्चा, कुछ नाय , तू जा टहरा ( घूमो-टहलो ), हम चिनेह्न नाय तुहैं बच्चा!''
मेरे कई बार पूछने पर भी उन्होंने काम नही बताया तो मैं खिसियाकर चला आया. मैं जानता था कि किसी काम से ही उन्होंने पुकारा था.
लगभग उसी वक़्त गाँव के ही मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े एक सज्जन वहां से गुजरे तो उन वृद्धा ने उन्हें जोर से पुकार कर अपनी कांख में से गिर रहे सामान को पकड़ाकर कहा कि इसे उनके घर तक पहुंचा दें .
वे दोनों चले गए और मैं बड़ी देर तक वहीँ खिसियाया सा बैठा रहा.जो अधिकार, जो लगाव और जिस विश्वास से वृद्धा ने उनसे अपने काम के लिए कहा, मुझसे नही कहा, जबकि मैं भी उसी गाँव का रहने वाला और उन वृद्धा का घर-परिवार से उतना ही नजदीकी हूँ जितना कि वे सज्जन, लेकिन समीकरण रिश्ता बना सकते हैं, लगाव नहीं ! मै बाहरी आदमी हो चुका हूँ अब!
२ -- इधर मौसम बहुत ख़राब था. दिन भर कुहरा और बदली! मौसम का मिजाज़ बेहद ठंढा! टहलने निकला था तो देखा कि गाँव के बाहर लड़के वालीबाल खेल रहे थे! देखते ही गरमी का एहसास हुआ! 25 साल पहले के दिन याद आ गए जब हम भी खेला करते थे! मन में खेलने की तीब्र इच्छा जग रही थी लेकिन कहने में संकोच हो रहा था तभी एक लड़के ने कह ही दिया कि आइये चाचाजी आप भी खेलिए. खेलने का अभ्यास तो न जाने कब का छूट चुका था ही बस शौक बुझाने लगा. बार-बार गलतियाँ हो रही थीं . लड़कों के खेल में भी बाधा पड़ रही थी लेकिन वे मुझे झेल रहे थे! उनमें से एकाध लड़के आँखों ही आँखों में मेरी तरफ कटाक्ष भी कर रहे थे फिर भी मुझे मेहमान समझकर वे तमाम लड़के खेलाते रहे. आपस की ज़रा सी गलती पर वे लोग खूब चाँव-चाँव करते लेकिन मुझसे एक सम्मानजनक दूरी वे सब बनाये रखे.यह सम्मान जब थोड़ी देर बाद असह्य होने लगा तो मैं ख़ुद ही वहाँ से खिसक आया !
कभी-कभी सम्मान भी कितना खलने लगता है, यह बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने!
अपना ही गाँव और अपना ही घर फिर भी यह बेगानापन !
घर लौट कर माँ के पास बैठे-बैठे मै सोचता रहा कि अब मेरे लिए अपनापन किस जगह बचा हुआ है? लखनऊ में जहाँ कि मैं रहता हूँ या दिल्ली,मुंबई,अहमदाबाद , उत्तराखंड और ऐसी वे तमाम जगहें जहाँ मैं आता-जाता रहता हूँ ? कहीं तो नहीं! जैसे आपस में घुल-मिलकर गाँव वाले रह रहे हैं, क्या दुनिया के किसी कोने में वो आत्मीयता मेरे लिए मौजूद है ? शायद नहीं ! और शायद क्या बिल्कुल नहीं.
न गाँव के रहे और न बाहर के ! न घर के और न घाट के !!
यह भी सोचा कि अगर मैं यहीं गाँव आकर रहने लगूँ तो क्या कुछ समय बाद मैं भी उन सबमें घुल-मिल जाऊंगा? उनका लगाव हासिल कर लूँगा?
काफ़ी देर बाद मेरे मन ने कहा नहीं, बहुत मुश्किल है अब. एक लेखक-पत्रकार होने की जो खोल इतने वर्षों से मैंने ओढ़ रखी है,शहर में रहने की एक आदत, जो मुझमें बन गयी है, उसे उतार फेंकना और इन सब में समाहित हो जाना इतना आसान नही!
नगरीय-संस्कृति का भी तो नही हो पाया मैं ठीक से!
तो कहाँ से जुड़ा हूँ मैं ?
और कहाँ का होकर रह गया हूँ ?
शायद कहीं का नहीं !
जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, यह एहसास शायद और कचोटने लगेगा मुझे.

2 comments:

  1. Ab Patrakarita chhodkar aap pahle ki tarah fir se Kavita-kahani likhne men lagiye Sunil Ji! Aap likhte badhiya hain ! mann ko kured dete hain. Idhar koyi nayi Ghazal ya kavita nahi likhi kya ?
    Na likhi ho to likhiye pls.!

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  2. शुक्रिया सुनिधि, लगता है वो दिन फिर आ ही गए हैं अब ! लिखा ज़रूर है कुछ लेकिन पूरा नही हो पाया है एक भी ! ज़िन्दगी की तरह ही सब कुछ अधूरा ....! कभी पूरा कर सका तो आपको मेल कर दूंगा.

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