सुश्री शीबा फ़हमी
दिल्ली में कक्षा दो में पढ़ने वाले आठ वर्षीय एक बालक ने गत सप्ताह माँ द्वारा खेलने से मना किये जाने पर फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। बीते एक पखवारे में ही देश के कई शहरों से बच्चों द्वारा आत्महत्या कर लेने की कई घटनायें प्रकाश में आई हैं। ज्यादा चिंतनीय यह है कि ये बच्चे दस साल से भी कम उम्र के थे। एक ऐसी उम्र, जिसमें माना जाता है कि बच्चा खाने और खेलने के अलावा कुछ जानता ही नहीं, और इसी उम्र में ही जिन्दगी के खिलाफ इतना बड़ा फैसला! देश में लगभग एक दशक पहले जब टी.वी. चैनलों पर धारावाहिकों का तूफानी दौर जारी हुआ, ऐसे तमाम विज्ञापन और कथाऐं आईं, जिनकी नकल में बहुत से मासूम बच्चे अपनी जान गवाँ बैठे। ऐसे कार्यक्रमों पर उस वक्त रोक लगाने की माँग भी देश में उठी और उनमें परिवर्तन भी हुए। वे घटनायें नकल में थीं इसलिए चिंताऐं भी हल्की थीं कि नकल के स्रोत जब बंद कर दिये जाऐंगें तो बच्चों की यह प्रवृत्ति भी रुक जायेगी। आगे चलकर कुछ हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन माँ-बाप के डॉटने या रोक लगाने से आहत होकर मासूम बच्चे गले में फंदा डालने जैसे हौलनाक काम को अंजाम देने लगें तो यह किसी भी जागरुकऔर सामाजिक व्यक्ति की नींद उड़ा देने वाली घटनाऐं हैं! ये घटनाऐं यह सवाल उठा रही हैं कि जिस समाज में हम जी रहे हैं और जिस समाज का निर्माण हम कर रहे हैं, क्या वह यही समाज है?
यह कहा जा सकता है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति पूरी दुनिया में लगातार बढ़ी है और न सिर्फ साधारण, बल्कि अपनी काबलियत, सफलता और समझ-बूझ की धाक जमा चुके लोगों द्वारा भी खुदकुशी की जा रही है। लेकिन इसके कारण और निवारण दूसरी तरह के हैं जबकि नन्हें-मुन्नों में पनप रही इस प्रवृत्ति के सर्वथा दूसरी तरह के और ज्यादा चिन्तनीय भी। आत्महत्याओं पर हुए मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन बताते हैं कि जिन्दगी जीने के सारे रास्तों के बंद हो जाने का विश्वास ही किसी व्यक्ति को खुदकुशी के मुकाम तक ले जाता है। लेकिन इस तरह का विश्वास किसी छह साल, आठ साल के बच्चे में आने लगे, जिसे अभी यही नहीं पता कि जिन्दगी क्या है और जिन्दगी जीने के तरीके और रास्ते क्या होते हैं तो किसी भी देश-समाज के लिए इससे ज्यादा चिंतनीय बात और क्या हो सकती है?
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की फेलो, पत्रकार और समाजशास्त्री सुश्री शीबा फ़हमी कहती हैं कि इस उम्र के बच्चों में 'सेल्फ रेस्पेक्ट' यानी आत्म-आदर की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा होती है। होता यह है कि कई बार माँ-बाप अपने बच्चों को सबके सामने विशेषकर उनके दोस्तों के सामने बुरी तरह झिड़क, डॉट या मार देते हैं, इससे बच्चा आहत हो जाता है और बाद में उसके ऐसे ही दोस्त उसको चिढ़ाने या मजाक बनाने लगते हैं तो खिसियाहट के फलस्वरुप बच्चे में आत्मघाती सोच बनने लगती है और आगे की कोई ऐसी ही झिड़क या डाँट बच्चे को जीने-मरने के मुकाम पर ला खड़ा कर देती है। शीबा कहती हैं कि हममें यानी समाज में एक बच्चे की 'इन्डिविजुअल्टी'(वैयक्तिता) स्वीकारने की आदत ही नहीं है। हम यह मानते ही नहीं कि बच्चे का भी कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है। हम अपने बड़े होने, माँ-बाप होने के घमंड में ही चूर रहते हैं। जब तक औलाद मुंह बंद कर देने लायक कमाई न करने लगे, हम उसकी हैसियत ही नहीं समझते।
संयुक्त परिवारों के विघटन ने इस बीमारी को और घातक कर दिया। सुश्री शीबा कहती हैं कि आज हममें निजता बहुत ज्यादा आ गई है। पहले बच्चे एक तरह से कम्युनिटी में पलते थे और सब एक-दूसरे के बारे में जानते रहते थे। आज जब परिवार का तात्पर्य सिर्फ माँ-बाप और बच्चों से ही रह गया है तो ऐसे में बच्चों में भी एकांतता और निजता घर करती जा रही है। उनमें असुरक्षा की घातक भावना पैदा हो रही है। ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चे बहुत जल्द ही मायूस हो जाते हैं।
अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब यह कहा जाता था कि संयुक्त परिवार या यों कहें कि परिवार में दादी-दादा का होना बहुत ही आवश्यक होता है, खासकर बच्चों के संदर्भ में, लेकिन समाजशास्त्री शीबा कहती हैं कि यह कुछ हद तक ही सही और उपयोगी है। वे कहती हैं कि दादी-दादा से सुकुन और छाया मिलने वाली स्थितियों में इसलिए बदलाव आ गया है कि अब खुद दादी-दादा ही पहले जैसे नहीं रह गये हैं, क्योंकि आज की युवा कुंठित और भटकी कही जाने वाली पीढ़ी ही तो आगे चलकर दादी-दादा की भूमिका में आ रही है! शीबा कहती हैं - इसका दूसरा पहलू यह है कि यही दादी-दादा तो घर में सास-ससुर की भूमिका में भी रहते हैं और बच्चे की माँ का तमाम प्रकार से जानलेवा उत्पीड़न करते रहते हैं! घर का मासूम बच्चा विस्फारित नेत्रों से यह सब कुछ भी तो देखता रहता है। उसके लिये ये दादी-दादा कितना आश्वासनकारी हो सकते हैं? इस चिन्ता का एक दूसरा कारक स्कूल और वहाँ दी जाने वाली शिक्षा का मौजूदा तौर-तरीका भी है। घर से भी ज्यादा तनावपूर्ण माहौल आजकल बच्चों को स्कूल में मिलता है। प्राय: ऐसा होता है कि घर से राजी-खुशी स्कूल गया हुआ बच्चा रोनी सूरत बनाये हुये घर लौटता है। कई बार तो वह ऐसा गुमसुम होता है कि अपने में ही मशगूल रहने वाले मॉ-बाप उसे साधारण तौर से बीमार मानकर उसका इलाज कराने लगते हैं, जबकि उसकी बीमारी की जड़ और दवा वास्तव में वे खुद ही होते हैं! लेकिन बीमारी में सबसे आसान काम तो डाक्टर के पास जाना होता है, बाकी सारे काम कठिन ही होते हैं! इधर के दो दशक में हमारे समाज की संरचना और उसकी जरुरत जिस तरह और जिस तेजी से बदली है, ऐसा पहले कभी नहीं था। समाज में आ रहे आमूल-चूल बदलाव के लिहाज़ से जीवन के जो क्षेत्र अपने को साध नहीं पा रहे हैं, मातृत्व-पितृत्व भी उन्हीं में से एक है। सुश्री शीबा कहती हैं कि खाना, कपड़ा, छत और स्कूल मुहैया करा देना ही माँ-बाप के मायने नहीं हैं। यह काम तो यतीमखाने भी कमो-बेश करते ही हैं। असल चीज है यह जानना कि बच्चों का लालन-पालन कैसे किया जाय। इसके लिए जरुरी है कि युवा जब शादी करने की स्टेज में हों तो उन्हें 'पैरेन्टिंग' यानी मातृत्व-पितृत्व के बारे में जानकारियॉ दी जॉय। यह चाहे पढ़ाई के दौरान हो या विशेष अभियानों द्वारा। वे कहती हैं कि समाज में जो तबका गरीब है वहाँ इस तरह की वारदातें न के बराबर हैं, क्योंकि एक तो वहाँ धुल-मिलकर रहने की परिस्थितियाँ ज्यादा हैं और निजता नाम की चीज़ प्राय: होती ही नहीं, दूसरे ऐसे समाज के बच्चों में 'सेल्फ रेस्पेक्ट' और 'सेल्फ इस्टीम' यानी आत्म सम्मान और आत्म मुग्धाता जैसी किसी भावना की कोई गुंजाइश शुरु से ही नहीं होती। इसलिए वहॉ आत्महत्या की हद तक जाने जैसी हताशा और निराशा भी कभी नहीं होती।
ओशो ने कभी कहा था कि आज के समाज में बच्चा पैदा होना एक दुर्घटना सरीखा है। वास्तव में आज की तैयार हो रही नयी पीढ़ी के मिजाज में बच्चे सर्वाधिक 'एब्यूज्ड' हैं। कारण जो भी हों लेकिन सुखद यह है कि ग्रामीण भारत में अभी यह बीमारी नहीं पहुची है। संयुक्त परिवार भी जो कुछ बचे हैं, गॉवों में ही हैं। शहरों की पारिवारिक सेहत सुधारने के लिए गॉवों का अध्ययन किया जाना चाहिए। (Also published by feature agency humsamvet.org.in on 24 January 2011)
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