Friday, July 01, 2016

बाजार के निशाने पर अब गाॅंव — सुनील अमर

देश के गाँव इन दिनों कई तरह से बाजार के फोकस पर हैं! घरेलू उपयोग की वस्तुऐं बनाने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाॅं को अगर वहाॅं अपनी बाजारु संभावनाऐं दिख रही हैं, तो बिल्कुल शहरी व्यवसाय माने जाने वाले बी.पी.ओ. क्षेत्र ने भी अब गाँवों की तरफ रुख कर लिया है। सरकार अगर देश के प्रत्येक गाँव में बैंक शाखाऐं खोलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है तो आई.टी. सेक्टर ने भी घोषणा की है कि गाँवों के इलेक्ट्रानिकीकरण बगैर देश का त्वरित विकास संभव नहीं है!
पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि यह पत्थर से भी पानी निचोड़ने की कला जानती है और किसी क्षेत्र को अगर इसने उपेक्षित कर रखा है तो यह मान लेना चाहिए कि वहाॅं किसी भी तरह के आर्थिक-दोहन की संभावनाऐं बची ही नहीं है। इस व्यवस्था की नजर-ए-इनायत अगर गाॅवों पर हुई है तो इसका अर्थ है कि अब यह बालू से तेल निकालने का खेल शुरु करेगी। पिछले कुछ वर्षों में हुई सरकारी घोषणाओं से ही यह शक़ होने लगा था कि सरकार को गाँवों की एकायक हुई चिन्ता अनायास नहीं हो सकती। जैसे जब देश के प्रत्येक गाँव में एक अदद डाकखाना होने के बावजूद अगर सरकार को वहाॅ बैंकांे की जरुरत बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी तो इसका अर्थ यही है कि वहाॅ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चरण पड़ने ही वाले हैं, जिनका काम कोर बैंकिंग सर्विस यानी सी.बी.एस. सुविधा के बगैर हो नहीं सकता। और यह जरुरत सरकार को इस तथ्य के बावजूद हो रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही सरकारी बैंकों की शाखाओं में आधे से भी अधिक खाते निष्क्रिय ही पड़े रहते है!
इस सच्चाई के बावजूद कि गाँवों में विकट बेकारी और गरीबी है, बड़ी-बड़ी कम्पनियों का मानना है कि जीवन यापन तो वहाॅं भी हो ही रहा है। यही वह दर्शन है जो इन कम्पनियों को उन गाँवों की तरफ ले जा रहा है जहाॅ भारत की तीन-चैथाई आबादी अभी भी बसती है। दैनिक उपभोग की वस्तुऐं बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के बड़े अधिकारी बताते हैं कि सिर्फ उ.प्र. के गाँवों से होने वाला व्यवसाय लगभग तीन लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष से अधिक का है! वे यह भी बताते हैं कि जब से वस्तुओं का पाउच और शैसे संस्करण आने लगा, बिक्री में जबर्दस्त उछाल आ गया और उन वस्तुओं की बिक्री भी होने लगी है जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था कि ये भी गाँवों में बिक सकती हैं! शैम्पू, मैगी, हेयर डाई, मेंहदी, ब्यूटी क्रीम, काॅफी, चाय पत्ती, नमकीन, नूडल्स, पान मसाला, वाॅशिंग पावडर, पिसा मसाला, गरज ये कि घरेलू उपभोग से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन तक की तमाम सामाग्रियाॅं आज एक रुपये से लेकर चार-पांच रुपये के अत्यन्त आकर्षक पैकेटों में गली-गली की दुकानों पर उपलब्ध हैं और इनकी अच्छी खासी बिक्री हो रही है। कभी सोचा गया था कि टूथ पेस्ट भी पाउच में मिल सकता है?
जरुरत के सामानांें की बिक्री हो रही है तो इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है लेकिन असल मायाजाल तो इसके पीछे छिपा हुआ है, जब गैर जरुरत की वस्तुऐं भी बच्चों से लेकर बड़ों तक को ललचाकर उन्हें अपना स्थायी ग्राहक बना लेती हैं। दो-चार रुपये में उपलब्ध होने के कारण लोग अपनी अन्य जरुरतों में कटौती करके इनकी खरीददारी करते हैं, जिससे उनका अत्यन्त सीमित दैनिक बजट उल्टा-पुल्टा हो जाता है। इसका सबसे बुरा असर तो बच्चों पर पड़ रहा है जो प्रायः ही पटरी-पेन्सिल या कापी खरीदने के लिए मिले पैसे में से कटौती करके तमाम तरह के चूरन-चटनी, च्यूइंगगम आदि खरीद लेते हैं। यह वैसे ही है जैसे स्व-रोजगार करने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को मिले सरकारी सहायता के धन को अन्य कार्यों पर खर्च कर देना। वास्तव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गाँव की तरफ रुख करने का मन्तव्य भी यही है। हम देख ही रहे है कि गाँवों में खुले शराब के ठेके पर किस तरह लोग दवा के पैसे तक खर्च कर देते हैं और इसका प्रतिरोध करने वाली घर की औरत को कितने प्रकार के जुल्मों को सहना पड़ता है। गाँव की दुकानों पर लटके सामान के पाउचों को एक निगाह देखकर ही जाना जा सकता है कि सिर्फ 70 रुपये दैनिक पारिवारिक आय (यह आॅकलन भी सरकार का ही है) वालों के लिए इसकी खरीददारी करना परिवार को किस संकट पर खड़ा कर देता होगा!
लेकिन यह बिक्री जोर-शोर से होती रहे इसके लिए गाँव वालों के पास क्रय शक्ति भी होनी चाहिए। अब बी.पी.ओ. यानी बिजनेस प्राॅसेस आउटसोर्स जैसे निहायत शहरी धंधे को गाँव का रुख कराया जा रहा है। देश के अग्रणी उद्यमी संगठन ‘नास्काॅम’ ने कुछ वर्ष पहले एक रिपोर्ट जारी की थी। ‘स्ट्रैटेजिक रिव्यू 2011’ नामक इस रिपोर्ट में कहा गया था कि शहरों में बी.पी.ओ. का काम कराना बहुत खर्चीला होता जा रहा है, जबकि इसके विपरीत अगर गाँव के पढ़े-लिखे युवाओं से यही काम कराया जाय तो लागत काफी कम हो जाएगी। कई बी.पी.ओ. कम्पनियों ने देश के दक्षिणी राज्यों में ऐसे कार्यों को शुरु किया है जिसमें फाइनेंस, एकाउन्टिंग, काॅल सेन्टर, इंजीनियरिंग, डाटा मैनेजमेंट तथा मेडिकल सर्विस आदि कार्य शामिल हैं। कर्नाटक में इस तरह के प्रयोगों का सार्थक असर दिखा है। नास्काॅम का कहना है कि सरकारी योजनाओं केे क्रियान्वयन, यूटीलिटी, हेल्थकेयर व रिटेल सेक्टर आदि कार्याे में गाँवों में काफी संभावनाऐं हैं और इनके मार्फत ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया कराये जा सकते हैं। निश्चित ही यह कार्य प्रशंसनीय है और यह अगर सलीके और संतुलित ढ़ंग से किया गया तो गांवो की तस्वीर बदल सकता है लेकिन यहाॅ सवाल सरकार की नीयत का आता है कि वह पहले गाँव का विकास चाहती है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भला?
देश के गाँवों में सस्ता और पर्याप्त श्रम आज भी मौजूद है। इसमें पढ़े लिखे युवा भी हैं। पूंजी के धंधेबाज यह जानते हैं कि उन्हें फायदा कहाॅ से हो सकता है। इस प्रकार अगर यह बाजारी व्यवस्था की माॅग है कि अब गाँव चला जाय तो वह वहाॅं पहॅंुचेगी ही। अब यहाॅ जिम्मेदारी सरकार की आ जाती है कि गाँव में वही रोजगार पहॅंुचे जो वहाॅ असंतुलन न पैदा करें। मसलन रिटेल चेन और माॅल कल्चर गाँवों के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे वे करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर आ जायेंगें जो छोटी-मोटी दुकान, ठेला-रेहड़ी या फुटपाथ पर बैठकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करते हैं। नास्काॅम ने गाँवों में अपनी संभावनाओं में रिटेल सेक्टर को भी रखा है, इसे भूलना नहीं चाहिए। हो सकता है कि यह उपर गिनाए गये रोजगार की तमाम संभावनाओं के पीछे छिपता हुआ आये! आखिर सरकार पर भी तो लम्बे अरसे से रिटेल सेक्टर को मंजूरी देने का अंतरराष्ट्रीय दबाव है।
(http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=3828)

Saturday, April 09, 2016

लोहियावाद को नए सिरे से समझने की कोशिश -----सुनील अमर

लोहिया की सारी चिन्ता सामाजिक असमानता को लेकर थी। यह वह केन्द्र बिन्दु था जिसके चारो तरफ डाॅ. लोहिया के विचार घूमते थे। साठ के दशक में, जो कि लोहिया की सक्रियता का सबसे उर्वर कालखन्ड था, वे इस बात पर मनन करते थे कि देश में अगर समाजवादी सरकार बनी तो वे हाशिए पर पड़े लोगों की आमदनी को तीन गुना जरुर बढ़ाऐंगें। वे मानते थे कि समाज में असमानता रहने से शोषण और दमन बढ़ता है। यही कारण था कि वे वस्तुओं के दाम बाॅंधने और कर्मचारी तथा अधिकारी के वेतन में सिर्फ तीन गुने का फर्क रखने पर जोर देते थे। लोहिया असमय काल के शिकार हो गए। देश में तो नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे विशाल प्रदेशों में लोहियावादियों की सरकारें सत्ता में हैं और अपने हिसाब से हाशिए के लोगों के लिए कार्यक्रम चला रही हैं।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में समाजवादी पार्टी से जुड़े युवा डाॅं. आशीष पाण्डेय दीपू ने हाशिए के लोगों तक पहुॅंचने और उन्हें समझने का एक लोहियावादी प्रयोग दो वर्षों से शुरु किया है- समाज के दबे-कुचले और भूखे-बिलखते वर्ग को सेवा के माध्यम से सामने लाने का। समाजवादी पार्टी से जुड़ने के बाद डाॅ. आशीष को लगा कि लोहिया का सच्चा अनुगमन तो तभी हो सकता है जब समाज के दमित वर्ग को उठाने की कोशिश की जाय। बिना किसी संसाधन के उन्होंने एक बड़े आयोजन की शुरुआत कर डाली। समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर उनकी उम्र जितने दिनों तक गरीबों को लगातार भोजन, वस्त्र तथा जीवनोपयोगी सामग्रियों का वितरण कर उन्हें मुख्यधारा में ले आने का। इस सामाजिक समरसता के आयोजन को उन्होंने अयोध्या में शुरु किया और उनकी कोशिश रही कि इससे सर्वधर्म समभाव का सन्देश भी फैले। गतवर्ष 76 दिनों तक तथा इस वर्ष 77 दिनों तक लगातार गरीबों के लिए लंगर, रात्रि निवास, वस्त्र तथा जीविकोपार्जन की मदद का कार्यक्रम उन्होंने किया। डाॅ. आशीष का कहना है कि ऐसा करके उन्होंने समाज के इस वर्ग को नजदीक से देखा और समझा। उनकी जरुरतों को महसूस किया और उन्हें लगा कि जो भी सरकारी योजनाऐं बनती हैं, उनमें व्यावहारिकता की इसी कमी की वजह से इस वर्ग को वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अपने आयोजनों का चित्र, ध्वनि और वीडियो माध्यम में वृहद संकलन कर उन्होंने नेतृत्व और शासन को अवगत कराया है। उनके इस अद्भुत प्रयास को मीडिया ने भी काफी उत्साह से प्रचारित किया। आशीष बताते हैं कि शासन ने उनकी योजनाओं का संज्ञान लेते हुए उन्हें सूचित किया है कि इन पर यथोचित अमल किया जाएगा। लोहियावादी विचारक और विधानसभा अध्यक्ष माताप्रसाद पाण्डेय कहते हैं कि लोहिया को समझने और उन पर अमल करने का यह एक व्यावहारिक तरीका है।
डाॅ. आशीष पाण्डेय द्वारा किया गया यह प्रयोग सामाजिक समरसता का एक दूसरा मायने भी रखता है। बीते दिनों अयोध्या में भाजपा और विहिप द्वारा एक बार नये सिरे से मन्दिर मुद्दे को गरमाने का प्रयास किया गया। वर्षों से बन्द पड़ी मन्दिर निर्माणशाला को झाड़-पोंछकर और एकाध ट्रक पत्थर मॅंगाकर यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि केन्द्र की भाजपा सरकार मन्दिर निर्माण पर गम्भीर है। नेताओं की बयानबाजी तथा मीडिया रिपोर्टों से अयोध्या-फैजाबाद का अल्पसंख्यक वर्ग चिन्तित होने लगा था। ऐसे समय में समाज के सभी धर्मों-वर्गो को एकसाथ लेकर अयोध्या के भीतर सामूहिक भोजन, पूजा-उपासना तथा चर्चा आदि के इस कार्यक्रम ने निश्चित तौर पर संतुलन बनाया। न्यूज चैनलों पर जब इस कार्यक्रम की खबर चली तो एकाध कट्टरपन्थी हिन्दू नेताओं ने इसे मुलायम सिंह का अयोध्या प्रकरण पर किया जा रहा प्रायश्चित भी बताया। डाॅ. आशीष पाण्डेय को लोहियावाद विरासत में मिला है। वे लोहियावादी-समाजवादी विचारक और पूर्व विधायक जयशंकर पाण्डेय के पुत्र हैं।
डाॅ. लोहिया का जोर मुख्यतया दो बातों पर रहता था- वे मानते थे कि समाज में असमानता बढ़ने से गुलामी और दमन का रास्ता साफ होता है और बाद में उससे युद्ध की स्थितियाॅं बनती हैं। इसीलिए वे दाम और काम को निश्चित करने की बात करते थे। वे मानते थे कि आर्थिक असमानता एकदम से मिटाई नहीं जा सकती लेकिन आम आदमी को जीने की सम्माननीय परिस्थितियाॅं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों की ही है। दशकों पहले की लोहिया की आशंका आज अपने क्रूरतम रुप में सामने आ रही है जब सरकारें पूॅंजीपतियों से खुलेआम गलबहियाॅं कर रही हैंे। फ्रान्स के युवा अर्थशास्त्री थाॅमस पिकेटी ने अपनी ताजा पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वेन्टी फसर््ट सेन्चुरी’ में लोहिया की आशंका को विस्तारित करते हुए बताया है कि धन का भन्डार जितनी तेजी से बढ़ता है, उतनी तेजी से काम करने वालों की आय नहीं बढ़ती इसलिए दुनिया में आज जो ढ़ाॅंचा चल रहा है उसमें असमानता बढ़नी ही है। लोहिया की इन्हीं आशंकाओं का वर्णन प्रसिद्ध लेखक अमत्र्यसेन और ज्याॅं द्रेज अपनी पुस्तक ‘द अनसर्टेन ग्लोरी’ में करते हैं। लेकिन अफसोस यह है कि महात्मा गाॅंधी और लोहिया से लेकर ज्याॅं द्रेज तक की चिन्ता के बावजूद यह असमानता सारी दुनिया में तेजी से बढ़ती ही जा रही है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या एक-दो महीने भोजन करा देने, वस्त्र देने या भौतिक जीवन की कुछ जरुरतें पूरी कर देने से मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर हो जाएगी? डाॅं. आशीष पाण्डेय कहते हैं कि बड़े पैमाने पर और सतत् ऐसे कार्यक्रम चलाए जाने की जरुरत है जिसे अंगीकार करके सरकारें बेहतर काम कर सकती हैं। वे कहते हैं कि अगर आज के युवा राजनीतिक ऐसे सामाजिक कार्यक्रम अपने-अपने क्षेत्रों में शुरु करें तो साधन समपन्न लोग भी उनकी मदद को आगे आयेंगें और समाज में बदलाव आ सकता है। डाॅ. पाण्डेय अपना संकल्प बताते हैं कि वे इस तरह के कार्यक्रमों को सतत् चलायेंगें और अपने साथियों को भी ऐसा करने को प्रेरित कर रहे हैं। यह सच है कि सरकारी योजनाऐं तो बहुत सारी हैं, इतनी कि अधिकारियों को उनका नाम तक याद नहीं रहता लेकिन जागरुकता और पहुॅंच के अभाव में जरुरतमन्द लोग उसका लाभ नहीं ले पाते। ऐसे आयोजनों से अगर जनता को जागरुक किया जा सके तो निश्चित ही यह एक बड़ी समाजसेवा और लोहिया को वास्तविक श्रृद्धांजलि होगी। 0 0 

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