Friday, June 22, 2012

सरकारी बैंक भी सूदखोरों और सामंतों की तरह पेश आते हैं किसानों के साथ ----सुनील अमर




किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहॉं जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत पखवारे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बॉंदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गई। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरू की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया! यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गई। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगाई कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया। न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाए जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टैªक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुद्ध करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्राविधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्राविधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जाएं।
नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहां का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बांदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती, तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फंसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाएं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बांटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए- बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्रायः किसान इतना महंगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम टैªक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद टैªक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहां किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल टैªक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्रायः हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाए। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता।


कृषि-ऋण वसूली के नियम और स्पष्ट हों


सुनील अमर
                किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहाँ जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
               सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बाँदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गयी। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरु की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया!यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गयी। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगायी कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया?न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाये जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
                 देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टै्रक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुध्द करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्रावधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्रावधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जॉय।
               नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहाँ का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बॉदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
               सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फॅसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाऐं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बॉटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए-बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्राय: किसान इतना मॅहगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम ट्रैक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद ट्रैक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहॉ किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल ट्रैक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्राय:हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाये। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाऐं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ॅंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता। 0 0