Friday, April 26, 2013

महत्त्वाकांक्षा की फिसलन और आडवाणी --- सुनील अमर


भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी उम्र के सबसे परिपक्व दौर में हैं। इस उम्र में सार्वजनिक जीवन जी रहे किसी व्यक्ति से वैचारिक स्थिरता की उम्मीद की जाती है, फिसलन की नहीं लेकिन बीते सात-आठ वर्षों में श्री आडवाणी ने कई तरह के परस्पर विरोधी बयान देकर अपनी राजनीतिक स्थिति और भविष्य मजबूत करने की कोशिश की है। ये और बात है कि उनके ऐसे प्रयास उनकी वर्षों से संचित और अर्जित राजनीतिक हैसियत को लगातार छीज रहे हैं। राजनीति दाॅव-पेंच का खेल है। बहुत बार ऐसा होता है कि पुराने महारथियों के भी दाॅव उल्टे पड़ते रहते हैं। श्री आडवाणी के दाॅव उल्टे भले ही पड़ रहे हों लेकिन एक बात तो स्पष्ट ही है कि उनके अंदर महत्त्वाकांक्षा कूट-कूट कर भरी है। भाजपा में इस समय जबकि पुराने हो चले नेताओं को सायास या अनायास नेपथ्य में करने का अभियान सा चल पड़ा ह,ै आडवाणी की लिप्सा बताती है कि राजनीति में कोई कभी रिटायर नहीं होता।
गत सप्ताह श्री आडवाणी ने पार्टी नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि अयोध्या आंदोलन पर शर्म नहीं गर्व करने की जरुरत है। उनका तात्पर्य वर्ष 1992 में अयोध्या में किये गये बाबरी मस्जिद विध्वंस से था। भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण मिले जिसमें किसी राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेताओं ने अपने किसी कृत्य पर कई-कई बार बयान बदला हो। आज श्री आडवाणी जिस बात पर गर्व करने की सलाह अपने नेताओं को दे रहे हैं, वर्ष 2005 में पाकिस्तान स्थित अपने जन्म स्थान के दौरे पर जाने पर वहाॅ उन्होंने इस घटना को शर्मनाक बताया था और ऐसा उन्होंने पाकिस्तान के पितृ पुरुष कायदे आजम जिन्ना की समाधि  पर जाकर कहा था। वर्ष 1992 में बाबरी विध्वंस के समय भाजपा नेता कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने अदालत को बाबरी मस्जिद की रक्षा का वचन दे रखा था लेकिन जब उन्हीं के नेतृत्व में मस्जिद गिरा दी गयी तो उन्होंने तथा उनकी पार्टी ने गर्वोक्ति की थी कि ‘जो कहा, सो किया’। इसके लिए वे जेल भी गये। ये और बात है बाद के दिनों में जब कल्याण सिंह भाजपा से निकाल दिये गये तो उन्होंने सार्वजनिक रुप से कई बार कहा कि उन्हें तो अंधेरे में रखकर बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया गया। समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से गलबहियाॅ करते समय तो उन्होंने इसे और भी विस्तार से कई बार बताया था लेकिन राजनीति का तकाजा देखिए कि वही कल्याण सिंह आज फिर से भाजपा में हैं। आडवाणी आज गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी से मात खाते दिख रहे हैं लेकिन यही आडवाणी हैं जिनकी सार्वजनिक तौर पर की गई मदद के कारण ही नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिके रह सके थे। 2002 के गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी राजधर्म का पालन न कर सकने के कारण मोदी सरकार को ही बर्खास्त करना चाह रहे थे लेकिन उस वक्त श्री आडवाणी ही थे जिनके जिद पकड़ लेने के कारण वाजपेयी को पीछे हटना पड़ा था। तब आडवाणी की निगाह में नरेन्द्र मोदी से बड़ा कोई सूरमा नहीं था। श्री आडवाणी का तब का वैचारिक प्रेत आज वास्तविक आकार ले चुका है। क्या यह कहना अप्रासंगिक होगा कि मोदी आडवाणी के लिए राजनीतिक भस्मासुर साबित हो रहे हैं?
श्री आडवाणी एक लम्बे अरसे से प्रधानमंत्री पद के इच्छुक हैं। आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही कोई व्यक्ति इस तरह से इस पद के लिए प्रतीक्षारत रहा हो। समाचार माध्यम उन्हें लगातार प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री या पी.एम. इन वेटिंग लिखते आ रहे हैं लेकिन याद नहीं पड़ता कि श्री आडवाणी ने कभी इस पर कोई आपत्ति या खंडन किया हो। महज एक दशक पहले की बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा को साथ लेकर तो चलता था लेकिन वह आॅखें नहीं तरेर सकता था क्योंकि तब भाजपा अपने राजनीतिक  उफान पर थी लेकिन आज वही संघ भाजपा की बाहें मरोड़ रहा है। भाजपा के तपे-तपाये नेताओं को बर्खास्त कर रहा या उन्हें गुमनामी के गर्त में ढ़केल रहा है। के. गोविंदाचार्य, साध्वी ऋतम्भरा, मुरली मनोहर जोशी, बंगारु लक्ष्मण, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह, संजय जोशी, विनय कटियार आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद संघ ने इनका बस्ता बाॅध दिया। जिन्ना की समाधि पर उनकी तारीफ के कसीदे पढ़ने के बाद से श्री लालकृष्ण आडवाणी संघ में अपनी पुरानी हैसियत खो बैठे हैं और लगभग तभी से जैसे संघ ने तय कर लिया हो कि अब उसे इनकी जरुरत नहीं रही। संघ ने उन्हें कदम-कदम पर अपमानित किया। कुछ माह पूर्व मुम्बई में हुई पार्टी की बैठक आड़वाणी और सुषमा स्वराज ने क्षुब्ध होकर छोड़ दी थी। इसी बैठक में मोदी का इकबाल बुलंद किया गया था और उनकी जिद पर संजय जोशी को पार्टी से निकाला गया था।
मोदी पर संघ का पूरा आशीर्वाद है। उसी का बिल्कुल उल्टा आडवाणी के साथ है। बावजूद इसके आडवाणी अगर मैदान में डटे हैं तो यह उनका राजनीतिक तजुर्बा है जो उन्हें बताता है कि भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव है। मोदी अगर मैदान से हट जाॅय तो स्वाभाविक है कि आडवाणी फिर से अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। मोदी को इस दौड़ से हटाने के लिए आडवाणी के कूटनीतिक प्रयास जारी हैं। मोदी अगर किसी भी तरह इस दौड़ से हट जाॅय तो संघ उन्हें आगे कर सके, इसकेे लिए वे संघ को खुश करने और उसकी नजर में गुड ब्वाय बनने के तमाम प्रयास कर रहे हैं। अयोध्या संध का प्रिय मुद्दा है तो अब श्री आडवाणी अयोध्या कांड पर गर्व कर रहे हैं जबकि इस कांड की जाॅच के लिए नियुक्त आयोग और अदालत के समक्ष वे बार-बार कह चुके हैं कि उन्होंने अपनी तरफ से अयोध्या में इकठ्ठा और उग्र कारसेवकों को रोकने की पूरी कोशिश की थी। किसी पद की लिप्सा किस तरह वयोवृद्ध लोगों को भी हास्यास्पद ढ़ॅग से पलटी मारने को विवश कर देती है, श्री आडवाणी इसके उदाहरण हैं। अनुकूलित किये गये समाचार माध्यम चाहे जो प्रचार करें, सच ये है कि मोदी को इस तरह सबके उपर थोपे जाने से भाजपा में एक बड़ा वर्ग काफी नाखुश है। आडवाणी ने भाजपा में एक काफी लम्बी पारी बहुत सफलतापूूर्वक और दबंगई से खेली है और इस नाते उनके पास नेता व कार्यकर्ता दोनों हैं। ये लोग मानते हैं कि संघ का मोदी कार्ड कहीं नितिन गड़करी की गति को न प्राप्त हो जाय। जदयू का दबाव अपनी जगह पर है। जिस तरह से शरद यादव अपने दल के सिद्धांतों की बातें कर मोदी प्रकरण पर भाजपा को अर्दब में लेने की कोशिश कर रहे हैं और कह रहे हैं कि सिद्धांत भी कोई चीज होती है उससे यही माना जाना चाहिए कि अगर चुनाव पूर्व उनका भाजपा से तालमेल बिगड़ा तो वह चुनाव बाद भी वैसा ही रहेगा क्योंकि पार्टी के यही सिद्धांत तो तब भी रहंेगें। राजनीति में संयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण कारक होता है। वर्ष 1889 में चैधरी देवीलाल सबसे बडे़ दल के नेता चुने गये थे लेकिन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह बन गये थे। स्व. चरण सिंह और स्व. चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनते हम देख ही चुके हैं। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को हटाने के बाद श्री वाजपेयी की पसंद के जिस शख्स राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया था उनके बारे में पार्टी के अधिकांश नेता जानते ही नहीं थे। ऐसे विकट संभावनाओं के बियाबान में आडवाणी अगर पलटीमार चरित्र बना रहे हैं तो आश्चर्य कैसा ! 0 0  ( Published in daily DNA on edit page no. 9 on 26 Apr 2013 Link is ---http://www.dailynewsactivist.com )

Thursday, April 25, 2013

इस साहस का समर्थन करे समाज ---- सुनील अमर


खाप पंचायतों की प्रतिगामी हरकतों से त्रस्त देश के नारी समाज में एक स्त्री ने अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत दिखाई है। घर-परिवार और समाज के तमाम एतराज को दरकिनार कर एक फौजी की नि:संतान विधवा ने वीर्य बैंक में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भधारण किया है। इस दंपत्ति का एक अस्पताल में संतानोत्पत्ति हेतु इलाज चल रहा था लेकिन फौजी पति को बार-बार छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण चिकित्सकों ने उसका वीर्य सुरक्षित रख लिया था। लगभग साढ़े तीन साल पहले पति की मौत हो गई। 35 वर्षीया पत्नी ने न सिर्फ दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया बल्कि उसने अपने परिजनों के समक्ष अपनी इच्छा रखी कि वह स्थानीय अस्पताल में रखे अपने पति के वीर्य से गर्भवती होना चाहती है। जैसा कि फौजियों की नि:संतान विधवाओं के साथ अकसर होता है, यहां भी परिजन व समाज इस स्त्री के विरुद्ध हो गए। ताजा स्थिति तक पहुंचने में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की इस साहसी महिला को तीन साल लंबी लड़ाई लड़कर अपने दृढ़ मनोबल का परिचय देना पड़ा और वह इस सामाजिक लड़ाई को जीत गई। हमारे भारतीय समाज की बड़ी विचित्र स्थिति है। हमारे नागर समाज के विरोध का अंतर्विरोध यह है कि वह स्त्री अधिकारों के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरकार के खिलाफ तो खूब प्रदर्शन कर सकता है लेकिन वहां से 20-30 किमी के दायरे में औरतों के खिलाफ जहर उगल रही खाप पंचायतों तक जाने की हिम्मत नहीं करता! ऊपर वर्णित घटना तो ऐसे घटनाक्रमों की एक कड़ी भर है जहां परिवार के लोग अपनी ही विधवा बहू को महज इसलिए मार देते या मरने को विवश कर देते हैं ताकि उसका हिस्सा और उसी सम्पत्ति को कब्जाया जा सके। सती प्रथा इसी षड्यंत्र और कुकर्म का एक हिस्सा रही है। हम प्राय: देखते-सुनते हैं कि देश की रक्षा में शहीद हो जाने वाले सैनिकों की विधवाओं के साथ उनके ही सास-ससुर और जेठ-देवर कैसे न सिर्फ उस स्त्री का पारिवारिक हक बल्कि सरकार द्वारा दी गई सहायता को भी हड़प जाने का कुचक्र करते रहते हैं। कई मामलों में तो ऐसी विधवाओं को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ता है। उपरोक्त मामले में तो वह स्त्री अपने ही पति के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करके अपने ही सास-ससुर के वंश को आगे बढ़ाना चाहती है, लेकिन यह भी उन सबको अगर कबूल नहीं तो इसका मतलब यही है कि वे अपनी संपत्ति का एक और हिस्सेदार नहीं चाहते!
ऐसी विचारधारा वाले परिवारों में ऐसी स्त्रियों के जीवन को भी खतरे से मुक्त नहीं माना जा सकता। लेकिन ऐसी सोच कम पढ़े-लिखे या अपढ़ लोगों की ही हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। समाज के सुशिक्षित तबके का भी कमोबेश यही हाल है। हमारे देश के तथाकथित संत- महात्मा, राजनेता, बड़े नौकरशाह तथा कुछेक न्यायाधीशों के विचार भी उक्त महिला के परिजनों जैसे ही हैं। देश में बलात्कार के बढ़ते अपराधों पर संतों, सामाजिक-सियासी नेताओं के कुविचार हम जान ही चुके हैं कि बलात्कार के मामलों में सारा दोष औरत का ही होता है। हमारी पढ़ाईिलखाई, शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान-विज्ञान की सारी तरक्की का हासिल महज यही है कि जिन परिवारों में सिर्फ लड़की ही है वहां भी मां-बाप का अंतिम संस्कार करने का हक उसे नहीं है, भले ही दूर के किसी रिश्तेदार पुरुष से यह करवाया जाए!
गत वर्ष जयपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र व न्यायाधीश नरेंद्र कुमार जैन की खंडपीठ ने राजस्थान सरकार से पूछा था कि मां-बाप के अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की कोई प्रोत्साहन योजना क्यों नहीं बनती। ध्यान रहे कि राजस्थान खास तौर पर सती प्रथा से ग्रस्त राज्य है। असल में तो ऐसी योजनाओं को केंद्र सरकार द्वारा तैयार कर पूरे देश में लागू कराया जाना चाहिए। लेकिन इसके उलट स्त्रियों से संबंधित बहुत से ऐसे मामले हैं जहां अदालतों का रवैया भी हमारे पुरुष समाज की मानसिकता का ही विस्तार होता लगता है। अभी इसी साल की शुरुआत में सर्वोच्च अदालत ने कर्नाटक के एक सत्र न्यायालय के खिलाफ बहुत सख्त टिप्पणी की। एक मामले में पति दहेज के लिए अक्सर अपनी पत्नी की बेरहमी से पीटा करता था जिससे उसकी एक आंख में गंभीर चोट आई और वह हमेशा के लिए खराब हो गई। बाद में पत्नी ने तंग आकर जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मुकदमा चलने पर ट्रायल न्यायालय ने मारपीट की घटना को विवाहित जीवन का हिस्सा बताया और सभी तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया। जबकि इसी मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने महिला के पति को सजा दी। सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई करते न्यायाधीशद्वय आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने ट्रायल कोर्ट की कड़े शब्दों में र्भत्सना की और कहा कि किसी महिला की पिटाई या उससे गाली-गलौज उसके आत्मसम्मान पर हमला है और इसे साधारण तौर पर नहीं लिया जा सकता। न्यायाधीशों ने कहा कि अब समय आ गया है कि अदालतें महिलाओं के प्रति किए जा रहे अत्याचारों के प्रति अपना नजरिया बदलें। यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सिर्फ यौन हिंसा से संबंधित एक लाख से अधिक मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। आगरा की इस महिला ने जिस साहस का परिचय दिया है वह एक मिसाल है। एक स्त्री अपने शरीर की उसी तरह मालिक होती है जैसे एक पुरुष। वह अगर अपने दिवंगत पति के बच्चे की मां बनना चाहती है तो इसे किस आधार पर उसका घर और समाज नकार सकता है? कारण साफ है कि अगर वह अपने पति के बच्चे का मां बन जाएगी तो वह भी पारिवारिक संपत्ति का हिस्सेदार हो जाएगा, लेकिन अगर वह विधवा किसी और से शादी कर ले तो परिवार के लोग उसके हिस्से की संपत्ति के भी स्वामी हो जाएंगे। दुर्भाग्य से समाज के हर तबके में ऐसी सोच के लोग अब भी मौजूद हैं। बहरहाल, इस महिला के साहस का समर्थन किया जाना जरूरी है।