Friday, July 01, 2016

बाजार के निशाने पर अब गाॅंव — सुनील अमर

देश के गाँव इन दिनों कई तरह से बाजार के फोकस पर हैं! घरेलू उपयोग की वस्तुऐं बनाने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाॅं को अगर वहाॅं अपनी बाजारु संभावनाऐं दिख रही हैं, तो बिल्कुल शहरी व्यवसाय माने जाने वाले बी.पी.ओ. क्षेत्र ने भी अब गाँवों की तरफ रुख कर लिया है। सरकार अगर देश के प्रत्येक गाँव में बैंक शाखाऐं खोलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है तो आई.टी. सेक्टर ने भी घोषणा की है कि गाँवों के इलेक्ट्रानिकीकरण बगैर देश का त्वरित विकास संभव नहीं है!
पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि यह पत्थर से भी पानी निचोड़ने की कला जानती है और किसी क्षेत्र को अगर इसने उपेक्षित कर रखा है तो यह मान लेना चाहिए कि वहाॅं किसी भी तरह के आर्थिक-दोहन की संभावनाऐं बची ही नहीं है। इस व्यवस्था की नजर-ए-इनायत अगर गाॅवों पर हुई है तो इसका अर्थ है कि अब यह बालू से तेल निकालने का खेल शुरु करेगी। पिछले कुछ वर्षों में हुई सरकारी घोषणाओं से ही यह शक़ होने लगा था कि सरकार को गाँवों की एकायक हुई चिन्ता अनायास नहीं हो सकती। जैसे जब देश के प्रत्येक गाँव में एक अदद डाकखाना होने के बावजूद अगर सरकार को वहाॅ बैंकांे की जरुरत बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी तो इसका अर्थ यही है कि वहाॅ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चरण पड़ने ही वाले हैं, जिनका काम कोर बैंकिंग सर्विस यानी सी.बी.एस. सुविधा के बगैर हो नहीं सकता। और यह जरुरत सरकार को इस तथ्य के बावजूद हो रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही सरकारी बैंकों की शाखाओं में आधे से भी अधिक खाते निष्क्रिय ही पड़े रहते है!
इस सच्चाई के बावजूद कि गाँवों में विकट बेकारी और गरीबी है, बड़ी-बड़ी कम्पनियों का मानना है कि जीवन यापन तो वहाॅं भी हो ही रहा है। यही वह दर्शन है जो इन कम्पनियों को उन गाँवों की तरफ ले जा रहा है जहाॅ भारत की तीन-चैथाई आबादी अभी भी बसती है। दैनिक उपभोग की वस्तुऐं बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के बड़े अधिकारी बताते हैं कि सिर्फ उ.प्र. के गाँवों से होने वाला व्यवसाय लगभग तीन लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष से अधिक का है! वे यह भी बताते हैं कि जब से वस्तुओं का पाउच और शैसे संस्करण आने लगा, बिक्री में जबर्दस्त उछाल आ गया और उन वस्तुओं की बिक्री भी होने लगी है जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था कि ये भी गाँवों में बिक सकती हैं! शैम्पू, मैगी, हेयर डाई, मेंहदी, ब्यूटी क्रीम, काॅफी, चाय पत्ती, नमकीन, नूडल्स, पान मसाला, वाॅशिंग पावडर, पिसा मसाला, गरज ये कि घरेलू उपभोग से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन तक की तमाम सामाग्रियाॅं आज एक रुपये से लेकर चार-पांच रुपये के अत्यन्त आकर्षक पैकेटों में गली-गली की दुकानों पर उपलब्ध हैं और इनकी अच्छी खासी बिक्री हो रही है। कभी सोचा गया था कि टूथ पेस्ट भी पाउच में मिल सकता है?
जरुरत के सामानांें की बिक्री हो रही है तो इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है लेकिन असल मायाजाल तो इसके पीछे छिपा हुआ है, जब गैर जरुरत की वस्तुऐं भी बच्चों से लेकर बड़ों तक को ललचाकर उन्हें अपना स्थायी ग्राहक बना लेती हैं। दो-चार रुपये में उपलब्ध होने के कारण लोग अपनी अन्य जरुरतों में कटौती करके इनकी खरीददारी करते हैं, जिससे उनका अत्यन्त सीमित दैनिक बजट उल्टा-पुल्टा हो जाता है। इसका सबसे बुरा असर तो बच्चों पर पड़ रहा है जो प्रायः ही पटरी-पेन्सिल या कापी खरीदने के लिए मिले पैसे में से कटौती करके तमाम तरह के चूरन-चटनी, च्यूइंगगम आदि खरीद लेते हैं। यह वैसे ही है जैसे स्व-रोजगार करने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को मिले सरकारी सहायता के धन को अन्य कार्यों पर खर्च कर देना। वास्तव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गाँव की तरफ रुख करने का मन्तव्य भी यही है। हम देख ही रहे है कि गाँवों में खुले शराब के ठेके पर किस तरह लोग दवा के पैसे तक खर्च कर देते हैं और इसका प्रतिरोध करने वाली घर की औरत को कितने प्रकार के जुल्मों को सहना पड़ता है। गाँव की दुकानों पर लटके सामान के पाउचों को एक निगाह देखकर ही जाना जा सकता है कि सिर्फ 70 रुपये दैनिक पारिवारिक आय (यह आॅकलन भी सरकार का ही है) वालों के लिए इसकी खरीददारी करना परिवार को किस संकट पर खड़ा कर देता होगा!
लेकिन यह बिक्री जोर-शोर से होती रहे इसके लिए गाँव वालों के पास क्रय शक्ति भी होनी चाहिए। अब बी.पी.ओ. यानी बिजनेस प्राॅसेस आउटसोर्स जैसे निहायत शहरी धंधे को गाँव का रुख कराया जा रहा है। देश के अग्रणी उद्यमी संगठन ‘नास्काॅम’ ने कुछ वर्ष पहले एक रिपोर्ट जारी की थी। ‘स्ट्रैटेजिक रिव्यू 2011’ नामक इस रिपोर्ट में कहा गया था कि शहरों में बी.पी.ओ. का काम कराना बहुत खर्चीला होता जा रहा है, जबकि इसके विपरीत अगर गाँव के पढ़े-लिखे युवाओं से यही काम कराया जाय तो लागत काफी कम हो जाएगी। कई बी.पी.ओ. कम्पनियों ने देश के दक्षिणी राज्यों में ऐसे कार्यों को शुरु किया है जिसमें फाइनेंस, एकाउन्टिंग, काॅल सेन्टर, इंजीनियरिंग, डाटा मैनेजमेंट तथा मेडिकल सर्विस आदि कार्य शामिल हैं। कर्नाटक में इस तरह के प्रयोगों का सार्थक असर दिखा है। नास्काॅम का कहना है कि सरकारी योजनाओं केे क्रियान्वयन, यूटीलिटी, हेल्थकेयर व रिटेल सेक्टर आदि कार्याे में गाँवों में काफी संभावनाऐं हैं और इनके मार्फत ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया कराये जा सकते हैं। निश्चित ही यह कार्य प्रशंसनीय है और यह अगर सलीके और संतुलित ढ़ंग से किया गया तो गांवो की तस्वीर बदल सकता है लेकिन यहाॅ सवाल सरकार की नीयत का आता है कि वह पहले गाँव का विकास चाहती है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भला?
देश के गाँवों में सस्ता और पर्याप्त श्रम आज भी मौजूद है। इसमें पढ़े लिखे युवा भी हैं। पूंजी के धंधेबाज यह जानते हैं कि उन्हें फायदा कहाॅ से हो सकता है। इस प्रकार अगर यह बाजारी व्यवस्था की माॅग है कि अब गाँव चला जाय तो वह वहाॅं पहॅंुचेगी ही। अब यहाॅ जिम्मेदारी सरकार की आ जाती है कि गाँव में वही रोजगार पहॅंुचे जो वहाॅ असंतुलन न पैदा करें। मसलन रिटेल चेन और माॅल कल्चर गाँवों के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे वे करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर आ जायेंगें जो छोटी-मोटी दुकान, ठेला-रेहड़ी या फुटपाथ पर बैठकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करते हैं। नास्काॅम ने गाँवों में अपनी संभावनाओं में रिटेल सेक्टर को भी रखा है, इसे भूलना नहीं चाहिए। हो सकता है कि यह उपर गिनाए गये रोजगार की तमाम संभावनाओं के पीछे छिपता हुआ आये! आखिर सरकार पर भी तो लम्बे अरसे से रिटेल सेक्टर को मंजूरी देने का अंतरराष्ट्रीय दबाव है।
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Saturday, April 09, 2016

लोहियावाद को नए सिरे से समझने की कोशिश -----सुनील अमर

लोहिया की सारी चिन्ता सामाजिक असमानता को लेकर थी। यह वह केन्द्र बिन्दु था जिसके चारो तरफ डाॅ. लोहिया के विचार घूमते थे। साठ के दशक में, जो कि लोहिया की सक्रियता का सबसे उर्वर कालखन्ड था, वे इस बात पर मनन करते थे कि देश में अगर समाजवादी सरकार बनी तो वे हाशिए पर पड़े लोगों की आमदनी को तीन गुना जरुर बढ़ाऐंगें। वे मानते थे कि समाज में असमानता रहने से शोषण और दमन बढ़ता है। यही कारण था कि वे वस्तुओं के दाम बाॅंधने और कर्मचारी तथा अधिकारी के वेतन में सिर्फ तीन गुने का फर्क रखने पर जोर देते थे। लोहिया असमय काल के शिकार हो गए। देश में तो नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे विशाल प्रदेशों में लोहियावादियों की सरकारें सत्ता में हैं और अपने हिसाब से हाशिए के लोगों के लिए कार्यक्रम चला रही हैं।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में समाजवादी पार्टी से जुड़े युवा डाॅं. आशीष पाण्डेय दीपू ने हाशिए के लोगों तक पहुॅंचने और उन्हें समझने का एक लोहियावादी प्रयोग दो वर्षों से शुरु किया है- समाज के दबे-कुचले और भूखे-बिलखते वर्ग को सेवा के माध्यम से सामने लाने का। समाजवादी पार्टी से जुड़ने के बाद डाॅ. आशीष को लगा कि लोहिया का सच्चा अनुगमन तो तभी हो सकता है जब समाज के दमित वर्ग को उठाने की कोशिश की जाय। बिना किसी संसाधन के उन्होंने एक बड़े आयोजन की शुरुआत कर डाली। समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर उनकी उम्र जितने दिनों तक गरीबों को लगातार भोजन, वस्त्र तथा जीवनोपयोगी सामग्रियों का वितरण कर उन्हें मुख्यधारा में ले आने का। इस सामाजिक समरसता के आयोजन को उन्होंने अयोध्या में शुरु किया और उनकी कोशिश रही कि इससे सर्वधर्म समभाव का सन्देश भी फैले। गतवर्ष 76 दिनों तक तथा इस वर्ष 77 दिनों तक लगातार गरीबों के लिए लंगर, रात्रि निवास, वस्त्र तथा जीविकोपार्जन की मदद का कार्यक्रम उन्होंने किया। डाॅ. आशीष का कहना है कि ऐसा करके उन्होंने समाज के इस वर्ग को नजदीक से देखा और समझा। उनकी जरुरतों को महसूस किया और उन्हें लगा कि जो भी सरकारी योजनाऐं बनती हैं, उनमें व्यावहारिकता की इसी कमी की वजह से इस वर्ग को वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अपने आयोजनों का चित्र, ध्वनि और वीडियो माध्यम में वृहद संकलन कर उन्होंने नेतृत्व और शासन को अवगत कराया है। उनके इस अद्भुत प्रयास को मीडिया ने भी काफी उत्साह से प्रचारित किया। आशीष बताते हैं कि शासन ने उनकी योजनाओं का संज्ञान लेते हुए उन्हें सूचित किया है कि इन पर यथोचित अमल किया जाएगा। लोहियावादी विचारक और विधानसभा अध्यक्ष माताप्रसाद पाण्डेय कहते हैं कि लोहिया को समझने और उन पर अमल करने का यह एक व्यावहारिक तरीका है।
डाॅ. आशीष पाण्डेय द्वारा किया गया यह प्रयोग सामाजिक समरसता का एक दूसरा मायने भी रखता है। बीते दिनों अयोध्या में भाजपा और विहिप द्वारा एक बार नये सिरे से मन्दिर मुद्दे को गरमाने का प्रयास किया गया। वर्षों से बन्द पड़ी मन्दिर निर्माणशाला को झाड़-पोंछकर और एकाध ट्रक पत्थर मॅंगाकर यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि केन्द्र की भाजपा सरकार मन्दिर निर्माण पर गम्भीर है। नेताओं की बयानबाजी तथा मीडिया रिपोर्टों से अयोध्या-फैजाबाद का अल्पसंख्यक वर्ग चिन्तित होने लगा था। ऐसे समय में समाज के सभी धर्मों-वर्गो को एकसाथ लेकर अयोध्या के भीतर सामूहिक भोजन, पूजा-उपासना तथा चर्चा आदि के इस कार्यक्रम ने निश्चित तौर पर संतुलन बनाया। न्यूज चैनलों पर जब इस कार्यक्रम की खबर चली तो एकाध कट्टरपन्थी हिन्दू नेताओं ने इसे मुलायम सिंह का अयोध्या प्रकरण पर किया जा रहा प्रायश्चित भी बताया। डाॅ. आशीष पाण्डेय को लोहियावाद विरासत में मिला है। वे लोहियावादी-समाजवादी विचारक और पूर्व विधायक जयशंकर पाण्डेय के पुत्र हैं।
डाॅ. लोहिया का जोर मुख्यतया दो बातों पर रहता था- वे मानते थे कि समाज में असमानता बढ़ने से गुलामी और दमन का रास्ता साफ होता है और बाद में उससे युद्ध की स्थितियाॅं बनती हैं। इसीलिए वे दाम और काम को निश्चित करने की बात करते थे। वे मानते थे कि आर्थिक असमानता एकदम से मिटाई नहीं जा सकती लेकिन आम आदमी को जीने की सम्माननीय परिस्थितियाॅं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों की ही है। दशकों पहले की लोहिया की आशंका आज अपने क्रूरतम रुप में सामने आ रही है जब सरकारें पूॅंजीपतियों से खुलेआम गलबहियाॅं कर रही हैंे। फ्रान्स के युवा अर्थशास्त्री थाॅमस पिकेटी ने अपनी ताजा पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वेन्टी फसर््ट सेन्चुरी’ में लोहिया की आशंका को विस्तारित करते हुए बताया है कि धन का भन्डार जितनी तेजी से बढ़ता है, उतनी तेजी से काम करने वालों की आय नहीं बढ़ती इसलिए दुनिया में आज जो ढ़ाॅंचा चल रहा है उसमें असमानता बढ़नी ही है। लोहिया की इन्हीं आशंकाओं का वर्णन प्रसिद्ध लेखक अमत्र्यसेन और ज्याॅं द्रेज अपनी पुस्तक ‘द अनसर्टेन ग्लोरी’ में करते हैं। लेकिन अफसोस यह है कि महात्मा गाॅंधी और लोहिया से लेकर ज्याॅं द्रेज तक की चिन्ता के बावजूद यह असमानता सारी दुनिया में तेजी से बढ़ती ही जा रही है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या एक-दो महीने भोजन करा देने, वस्त्र देने या भौतिक जीवन की कुछ जरुरतें पूरी कर देने से मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर हो जाएगी? डाॅं. आशीष पाण्डेय कहते हैं कि बड़े पैमाने पर और सतत् ऐसे कार्यक्रम चलाए जाने की जरुरत है जिसे अंगीकार करके सरकारें बेहतर काम कर सकती हैं। वे कहते हैं कि अगर आज के युवा राजनीतिक ऐसे सामाजिक कार्यक्रम अपने-अपने क्षेत्रों में शुरु करें तो साधन समपन्न लोग भी उनकी मदद को आगे आयेंगें और समाज में बदलाव आ सकता है। डाॅ. पाण्डेय अपना संकल्प बताते हैं कि वे इस तरह के कार्यक्रमों को सतत् चलायेंगें और अपने साथियों को भी ऐसा करने को प्रेरित कर रहे हैं। यह सच है कि सरकारी योजनाऐं तो बहुत सारी हैं, इतनी कि अधिकारियों को उनका नाम तक याद नहीं रहता लेकिन जागरुकता और पहुॅंच के अभाव में जरुरतमन्द लोग उसका लाभ नहीं ले पाते। ऐसे आयोजनों से अगर जनता को जागरुक किया जा सके तो निश्चित ही यह एक बड़ी समाजसेवा और लोहिया को वास्तविक श्रृद्धांजलि होगी। 0 0 

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Wednesday, December 09, 2015

कोचिंग की कालकोठरी में बच्चे --- सुनील अमर

देश के कोचिंग हब के रूप में मशहूर राजस्थान का कोटा शहर अब बच्चों की आत्महत्या के कारण चर्चा में है। इस साल अब तक 26 बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं। पिछले साल 11 बच्चों ने और 2013 में 13 ने आत्महत्या की थी। साफ है कि वहां सुसाइड करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। खुदकुशी की इन घटनाओं ने कोचिंग व्यवसाय की एक भयावह तस्वीर पेश की है, जिससे देश अब तक प्राय: अनजान था। ऐसा लगता है कि कोटा में होनहार और मासूम छात्रों में डेथ कॉम्पिटिशन शुरू हो गया है! औसत देखा जाए तो लगभग हर तेरहवें दिन एक स्टूडेंट अपनी जान दे रहा है। कारण एकदम साफ है - परीक्षाओं में सफल होने का बेहद दबाव, लक्ष्य के विकल्प का अभाव, कक्षा में अध्यापकों का उपेक्षापूर्ण व मशीनी रवैया और इसी के साथ मां-बाप की अनाप-शनाप अपेक्षाएं। छात्रों को सिर्फ ज्ञान और सूचनाएं दी जा रही हैं। उन्हें जीवन का सही अर्थ समझाया नहीं जा रहा। एक सांचा बना दिया गया है और जो छात्र उस में फिट नहीं हो रहा उसे निकम्मा बताया जा रहा है! जबकि दुनिया में हजारों-लाखों सांचे और भी हैं।

अपने-अपने तर्क
खुदकुशी के पीछे छात्रों, अभिभावकों और संस्थान प्रबंधकों के अलग-अलग तर्क हैं। आईआईटी /जेईई तथा मेडिकल पाठ्यक्रम की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारियां प्रायः बारहवीं की पढ़ाई के साथ-साथ शुरू हो जाती हैं और आईआईएम की प्रवेश परीक्षा यानी कैट की तैयारी ग्रेजुएशन या उसके अंतिम वर्ष की परीक्षा के साथ ही। ऐसा करने से छात्रों का एक साल का समय बच जाता है, लेकिन बारहवीं (विज्ञान वर्ग) और उक्त प्रवेश परीक्षाओं की एक साथ तैयारी करना बहुत कठिन काम है। यह छात्रों के सामने दोहरा चैलेंज खड़ा करता है। नए नियमों के अनुसार आईआईटी में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को अब दो के बजाय तीन मौके मिलेंगे। यही वह जानलेवा कानून है जो छात्रों पर जबर्दस्त दबाव बनाता है कि वे इंटर की बोर्ड परीक्षा और आईआईटी की प्रवेश परीक्षा एक साथ पास करें। इसका एक पहलू यह भी है कि इसमें भाग लेने वाले छात्रों की औसत आयु प्रायः 17-18 वर्ष ही होती है। यह बहुत कच्ची उम्र होती है। बच्चों के लिए सही-गलत का निर्णय करना आसान नहीं होता। प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों में एक छात्र पर कम से कम दो लाख रुपये प्रतिवर्ष का खर्च आता है और छात्र अपने मां-बाप की आर्थिक हालत सोचकर भी भारी दबाव में रहते हैं।

छात्रों का कहना है कि अध्यापक कक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्रों को न सिर्फ आगे की बेंचों पर बैठा कर उन पर ज्यादा ध्यान देते हैं बल्कि कम अच्छे छात्रों को सरेआम धिक्कारते और ज्यादा मेहनत करने का दबाव बनाते हैं या फिर उनका बैच ही बदल देते हैं। कोटा के एक कोचिंग संचालक का तो साफ कहना है कि जब मां-बाप जानते हैं कि उनका बच्चा स्कूल में बेहतर नहीं था, तो उसे यहां इतनी कठिन तैयारी के लिए क्यों भेज देते हैं?

कोटा से पहले दक्षिण भारत प्रतियोगिता परीक्षाओं का एकमात्र गढ़ था। दुनिया भर में दक्षिण भारत और खासकर केरल को तो आत्महत्याओं की राजधानी कहा जाता रहा है। ध्यान रहे कि केरल देश का पहला ऐसा राज्य है जो पूरी तरह साक्षर है। कोचिंग संस्थानों का संजाल पूरे देश में दक्षिण से ही फैला है। इन संस्थानों का हाल यह है कि इन्हें बेहतर परीक्षा परिणाम लाने पर ही ढेर सारे छात्र मिलते हैं। इसके लिए ये अच्छे से अच्छे अध्यापकों को मोटा वेतन देकर ले आते हैं। कोटा में ऐसे अध्यापकों का वेतन 15 लाख से 50 लाख रुपये प्रतिवर्ष तक का है और इस क्षेत्र में अपने विषय के जो स्टार अध्यापक माने जाते हैं उन्हें तो दो करोड़ रुपये प्रतिवर्ष तक मिल जाता है! जाहिर है कि ऐसे अध्यापकों के ऊपर ज्यादा से ज्यादा छात्रों को सफल बनाने का दबाव रहता है और इसके लिए वे हर तरह के उपाय अपनाते हैं। यहां ऐसा कोई नियम-कानून है ही नहीं जो छात्रों को परीक्षा के इस कहर से बचा सके। इसलिए यहां एक ही मंत्र चलता है- डू ऑर डाई। कोचिंग का काम अब उद्योग में बदल चुका है और कोटा में तो सारे बड़े कोचिंग संस्थान ‘इन्द्रप्रस्थ इंडस्ट्रियल एरिया’ की इमारतों में चलाए जा रहे हैं!

ऐसे कोचिंग संस्थानों पर नियंत्रण के लिए कोई बहुत स्पष्ट और बाध्यकारी कानून भी नहीं हैं। आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए कोटा के जिला प्रशासन ने 12 सूत्री दिशा-निर्देश जारी कर कहा है कि सभी संस्थान करियर काउंसलर, मनोचिकित्सक तथा फिजियोलॉजिस्ट नियुक्त करें, छात्र व उनके मां-बाप की भी काउंसलिंग की जाय, प्रवेश के लिए स्क्रीनिंग प्रक्रिया अपनाई जाय, कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए तथा एक बैच से दूसरे बैच में किसी छात्र के स्थानांतरण की समीक्षा की जाए। साप्ताहिक छुट्टी, योगाभ्यास, कक्षा से अक्सर गायब रहने वाले छात्रों की चिकित्सा जांच, मनोरंजन तथा फीस को एकमुश्त के बजाय किस्तों में लेने की व्यवस्था की जाय।

कोई जिम्मेदारी नहीं
नोट छापने के कारखाने में तब्दील हो चुके कोचिंग संस्थान ऐसी हिदायतों को कितना मानेंगे, बताने की जरूरत नहीं है। जो छात्र कुदरतन प्रतिभावान हैं, उनकी बात अगर छोड़ दी जाए तो सामान्य छात्रों की समस्याओं को सुनने के लिए इन कोचिंग संस्थानों के प्रबंधन के पास समय नहीं है। न ही अध्यापकों की इसमें कोई दिलचस्पी है। शायद इन्हें ऐसी समस्याओं को सुनने की जरूरत ही नहीं है जब तक कि इनके पास छात्रों की भरमार है। ( Published in   Wednesday December 09, 2015 )

Tuesday, December 08, 2015

इसलिए फल-सब्जियां नहीं उगाते किसान

अलग से बने कृषि बजट और कृषि सेवा -- सुनील अमर

देश की 58 प्रतिशत आबादी को रोजगार तथा लगभग समूची आबादी को भोजन उपलब्ध कराने वाली भारतीय कृषि की दयनीय हालत का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके लिए अलग से बजट बनाने का प्राविधान नहीं है। देश में रेलवे के लिए अलग से बजट बन सकता है लेकिन खेती के लिए नहीं। सरकार की निगाह मंे खेती से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मनरेगा जैसी श्रमिक योजनाऐं हैं जिनका बजट सम्पूर्ण भारतीय कृषि से कहीं ज्यादा रहता है। सरकारी उपेक्षा के चलते खेती किस हालत में आ गई है इसे सिर्फ इसी एक आॅंकड़े से समझा जा सकता है कि देश के लगभग आधे किसान मनरेगा में मजदूरी करने को विवश हैं और पिछले 17 वर्षों में तीन लाख से अधिक किसान गरीबी, कर्ज और प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुके हैं। यह क्रम जारी है और सिर्फ महाराष्ट्र में बीते सात महीने के भीतर किसानों की मौत में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है! अभी बीते दिनों गेंहॅूं की फसल पर हुई बेमौसम की बरसात और ओलावृष्टि से प्रभावित देश के 12 राज्यों में अनुमानतः 20,000 करोड़ रुपये की फसल बरबाद हो गई है।
वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के विकसित कहे जाने वाले सारे देशों का ध्यान भारत सरीखे उन विकासशील देशों की तरफ लगा हुआ है जहाॅं उपलब्ध विशाल भू-भाग पर कृषि को और उन्नत बनाकर ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने की अपार सम्भावनाऐं बनी हुई हैं ताकि उनके देशों को भी भोजन मिल सके। सम्पन्न ब्रिटेन और विस्तृत क्षेत्रफल वाले रुस भी खाद्यान्न के लिए भारत-चीन सरीखे देशों पर निर्भर करते हैं। कोई भी देश औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में कितनी ही प्रगति कर ले लेकिन उसे भी अपने नागरिकों के लिए खाने के लिए अनाज चाहिए ही। इस देश के किसानों का दुर्भाग्य यह है कि वे नाना प्रकार की उपेक्षा और तकलीफें सहकर भी देश की जरुरत का धान-गेहॅूं-गन्ना पैदा कर ही रहे हैं। जिस देश में आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में हर साल दोगुना की वृद्धि हो रही है वहाॅं किसानों को सरकारी समर्थन मूल्य के नाम पर प्रति कुन्तल सिर्फ 30-40 रुपये वृद्धि की सहमति दी जाती है। वह भी तब मिल सकता है जब किसान के उत्पाद की खरीद सरकार स्वयं करे। बहुत बार तो यह भी नहीं दिया जाता। जैसे उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी सरकार ने पिछले दो वर्ष से गन्ना किसानों को एक पैसे की भी मूल्य-वृ़िद्ध नहीं दी है।
आज स्थिति यह है कि इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए देश में किसान आयोग तक नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी नीत राजग सरकार ने वर्ष 2004 के अपने अन्तिम दिनों में एक महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था और प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन को इसका अध्यक्ष बनाया था। आयोग ने बहुत तत्परता से काम किया और दो वर्ष के भीतर 40 बैठकें कर कृषि सुधार से सम्बन्धित पाॅच बेहद शानदार और उपयोगी रिपोर्टें सरकार को सौंपी लेकिन मनमोहन सिंह नीत संप्रग सरकार की दिलचस्पी इन सबमें नहीं थी, लिहाजा काफी दिनों तक कोमा में रहने के बाद यह आयोग मृत्यु को प्राप्त हो गया। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विशेषज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशाहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त समस्याओं की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चैंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियाॅ निर्धारित करनी वाली एक हजार से अधिक कुर्सियों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए हैं! देश में रेलवे, दूरसंचार, वित्त, राजस्व यहाॅं तक कि वन विभाग के लिए भी अलग से सेवाऐं हैं लेकिन कृषि के लिए ऐसा जरुरी नहीं समझा जाता।
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 वर्षों में दो करोड़ से अधिक किसानों ने खेती करना छोड़कर अन्य कार्य अपना लिया। किसाना घट रहे हैं और मजदूर बढ़ रहे हैं। इसका अर्थ समझना कोई कठिन काम नहीं। देश में ज्यादा से ज्यादा मजदूर उपलब्ध रहेंगें तो कल-कारखानों को सस्ते में श्रमिक मिलते रहेंगें। सरकार की नीति देखिए कि वह अपने चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी को जितनी मासिक तनख्वाह देती है, उसका चैथाई भी न्यूनतम मजदूरी के तहत एक मजदूर को नहीं देती! कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाॅंधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। खेती अपरिहार्य है क्योंकि मनुष्य अन्न के बिना नहीं रह सकेगा। 18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थाॅमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि ‘‘आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणितीय तरीके से।’’ जाहिर है कि हमें खाद्यान्न उत्पादन को भी ज्यामितीय तरीके से बढ़ाना ही होगा। कृषि के लिए अलग से बजट की माॅंग कई हलकों से उठती रही है। देश का कृषि क्षेत्र बड़ा और विविधीकृत है। इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए व्यापक कवरेज वाला बजट तथा प्रासंगिक भारतीय कृषि सेवा का गठन किया जाना चाहिए। 0 0 ( Humsamvet )

Tuesday, June 23, 2015

मनमानी करती हैं मजबूत सरकारें - सुनील अमर

                         
विशिष्ट परिस्थितियों के कारण अब तक देश में चार बार प्रबल बहुमत की सरकारें बन चुकी हैं। ऐसी पहली सरकार, 1971 में इन्दिरा गॉधी की अगुवाई वाली तत्कालीन कॉंग्रेस (आर) की थी जिसे 352 सीटें हासिल हुई थीं। दूसरी सरकार 1977 में आपातकाल के बाद नवगठित जनता पार्टी की बनी थी जिसने तब की सर्वशक्तिमान कॉग्रेस को बुरी तरह पराजित कर अकेले 295 और गठबन्धन के साथ 345 सीटें जीती थी। इसके बाद वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गॉंधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गॉंधी के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने सहानुभूति लहर पर सवार होकर अभूतपूर्व प्रदर्शन के साथ कुल 414 सीटें जीत कर एक तरह से विपक्ष का सफाया ही कर दिया था। और फिर पिछले साल हुए चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने कॉग्रेस का सफाया करते हुए 336 सीटें जीत लीं जिसमें से भाजपा की सीटें 282 हैं। इस प्रकार आजाद भारत के 67 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर कॉग्रेस दल ने अकेले दम पर बहुमत से भी अधिक सीटें जीतीं।
अनुभव यह बताता है इन चारों सरकारों ने कई अवसरों पर लोकतन्त्र की भावना के विपरीत जाकर तानाशाहों जैसा मनमाना फैसला किया। इन्दिरा गॉधी ने 1971 की उसी जीत के बाद विपक्ष पर अंकुश लगाने की ऐसी कोशिशें शुरु कीं जिसका चरम बिन्दु आपातकाल की घोषणा के रुप मंे आया। जनता सरकार भी जीत का मद संभाल नहीं पाई। आपसी फूट और विवादास्पद फैसलों के चलते ढ़ाई साल में यह जनता के कोप का शिकार हो गई। राजीव गॉंधी की सरकार ने चर्चित बेगम शाहबानो तलाक फैसले को पलट कर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की तौहीन की। अयोध्या में विवादित स्थल पर शिलान्यास करा कर मामले को बेजा हवा दी। भोपाल गैस काण्ड, बोफोर्स तोप सौदा तथा मालदीव व श्रीलंका में सैन्य हस्तक्षेप जैसे मामलों में सरकार के रुख और उसके फैसलों ने विवादों को जन्म दिया। आज विपक्ष की जो हालत लोकसभा व दिल्ली विधानसभा में है, कुछ वैसी ही हालत उस समय भी लोकसभा में थी। लोग स्तब्ध होकर राजीव सरकार के फैसलों को देख रहे थे।
देश में आज राजग की प्रबल बहुमत की सरकार है और लोकसभा में विपक्ष का नेता तक नहीं है। प्रधानमन्त्री मोदी न सिर्फ अपने चुनावी वादों से लगातार पलट रहे हैं बल्कि ऐसे-ऐसे फैसले कर रहे हैं जो जन विरोधी हैं। भूमि अधिग्रहण जैसे अहम मसले पर विपक्ष के रुप में लिया गया अपना ही स्टैंड भुलाते हुए भाजपा नेता उसे और शोषणकारी बनाकर अध्यादेश के मार्फत तानाशाही ढ़ॅंग से लागू करने में लगे हुए है। गणतन्त्र दिवस के विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़, धर्म परिवर्तन, दस बच्चे पैदा करने का आह्वान तथा मोदी का नौलखा सूट ये सब इस सरकार की  तानाशाही प्रवृत्ति के नमूने हैं। इसके बरक्स 1989 में अल्पमत की वी.पी. सिंह सरकार का वह फैसला याद आता है जिसमें उन्होंने सरकार के चंगुल में रह रहे आकाशवाणी-दूरदर्शन को मुक्त करते हुए प्रसार भारती का गठन कर इसे स्वायत्तशाषी संगठन बना दिया था। वाजपेयी के नेतृत्व वाले 24 दलों की एनडीए सरकार सहयोगी दलों के दबाव में ही सही पर धारा 370, समान नागरिकता और राम मन्दिर जैसे मुद्दों को ठंढ़े बस्ते में डाले रही और इसके बाद 11 दलों केे साथ सत्ता में आई कॉंग्रेस ने भी मनरेगा, सूचना का अधिकार, किसान कर्ज माफी, शिक्षा का अधिकार तथा भोजन के अधिकार जैसे कई ऐतिहासिक फैसले किए।
साफ है कि कथित मजबूत सरकार की अवधारणा खास पार्टी या नेता को भले ज्यादा ताकत दे दे, आम लोगों के हितों के लिहाज से आशंकाऐं बढ़ाने वाली ही साबित हुई हैं। सबसे गम्भीर बात है कि ऐसी सरकार में जब गाड़ी पटरी से उतरती दिखने लगती है तब भी विपक्षी पार्टियॉं या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियॉं हस्तक्षेप कर मामले को ज्यादा बिगड़ने से बचाने की स्थिति में नहीं होतीं।
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Wednesday, March 25, 2015

जनता का धन, सरकारों के विवेक -- सुनील अमर

निर्वाचित और लोकप्रिय कही जाने वाली सरकारों द्वारा बहुत-सी ऐसी योजनाऐं चलाई जाती या खर्चे किए जाते हैं, जिनके औचित्य पर शंका और सवाल उठते रहते हैं। कई बार ये खर्चे इस हद तक मनमाने होते हैं कि उन पर न्यायालयों को भी ऊंगली उठानी पड़ती है। ताजा मामला मध्य प्रदेश का है, जहां मुख्यमयत्री ने गत सप्ताह प्रदेश के 1000 पत्रकारों को लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये की दर से चेक प्रदान किया है। इससे पहले भी देश के तमाम राज्यों में लोगों को प्रभावित करने के लिए इस तरह से जनता के धन को लुटाया गया है। तमिलनाडु तो इस मामले में खासा कुख्यात रहा है। सरकारों द्वारा जब भी इस तरह के मनमानीपूर्ण कृत्य किए जाते हैं तो यह सवाल उठता है कि सत्ता में आने के बाद क्या किसी राजनीतिक दल को यह अधिकार मिल जाता है कि वह जनता के धन का बंदरबांट कर सके? सत्ताधारी दल का यह तर्क होता है कि योजना कैबिनेट से मंजूर है और कैबिनेट को जनता ने चुना हुआ है, लेकिन सवाल धन के सदुपयोग का होता है। वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने तमाम जन योजनाओं के धन में कटौती कर अपनी तथाकथित विचारधारा के पोषण में पार्कों, मूर्तियों और ऐसे ही अन्य कामों पर अंधाधुंध अरबों रुपया खर्च करना शुरू किया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से ऐसे खर्चों का औचित्य पूछा। मायावती सरकार का जवाब था कि ये खर्चे कैबिनेट से मंजूर किए गए हैं, इसलिए वैध हैं। इस पर माननीय न्यायालय का कहना था कि सरकार इस तरह से जनता के धन का मनमाना उपयोग करेगी तो हम क्या चुपचाप देखते रहेंगे? लेकिन जैसा कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता होती है, अगले चुनाव में जनता ने मायावती की बसपा को हराकर बता दिया कि कैबिनेट का ऐसा मनमानापन उसे पसंद नहीं। सरकारें दो तरह के कार्य करती हैं। एक तो जनता के लिए और दूसरा, अपनी राजनीतिक पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए। एक निर्वाचित सरकार जब ‘सर्वजन हिताय’ की कोई योजना चलाती हैं तो वह राज्य के हित में होती है, लेकिन जब वह समाज के किसी खास वर्ग के हितपोषण में धन खर्च करती है तो प्रकारांतर से वह अपना निजी हित साध रही होती है। दशकों पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष से अपने चहेते लोगों को अंधाधुंध धन बांट कर एक विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने बिना किसी ‘क्राइटेरिया’
के धन बांटा और अपने चहेते पत्रकारों को लाखों रुपये देकर उपकृत किया था और तब मजाक में कहा जाने लगा था कि उत्तर प्रदेश में दो तरह के पत्रकार हैं-एक विवेकाधीन (विवेकाधीनकोष से धन लेने वाले) और दूसरे, विवेकहीन। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के विवेकाधीन कोषों से धन लेने वाले पत्रकारों-साहित्यकारों को अपना विवेक सरकारों के पास गिरवी रखना पड़ता है। सरकारों की खुली मंशा भी यही होती है। देश की तमाम राज्य सरकारें टीवी सेट, साड़ी, बिन्दी, टैबलेट-लैपटॉप, कम्बल, साइकिल और जाने क्या-क्या बांटती रहती हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता कि यह प्रत्येक जरूरतमंद को मिल जाय। सरकारों का एक आकलन होता है कि इतने प्रतिशत लोगों को अगर मिल जाएगा तो हमारी पार्टी को वोटों का लाभ होगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है-उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार ने हाई स्कूल उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को टैबलेट और इंटरमीडिएट के छात्रों को लैपटॉप देने का चुनावी वादा किया था। यह अंदेशा तभी था कि इतनी विशाल संख्या में छात्रों को टैबलेट और लैपटॉप देने का मतलब यह होगा कि प्रदेश की अन्य तमाम कल्याणकारी योजनाओं को या तो ठप कर देना या इस योजना को आधा-अधूरा छोड़ देना। दोनों प्रकार की आशंकाएं सच साबित हुईं। सरकार ने थोड़ा बहुत लैपटॉप बांटकर घोषित कर दिया कि अब यह योजना बंद की जा रही है। टैबलेट बॉटने की योजना तो शुरू ही नहीं हो सकी है। लैपटॉप ने भी अधिकांश छात्रों को फायदे के बजाय नुकसान ही पहुंचाया है, क्योंकि वे इसके इस्तेमाल की विधि तो जानते नहीं थे और न उनके पास इंटरनेट के संसाधन थे। ऐसे में ये लैपटॉप महज सिनेमा देखने की मशीन बनकर रह गए। मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार भी यही काम कर रही है। पत्रकारों को अपनी मर्जी का लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये देना, उन्हें अपने पाले में करना तथा उनके प्रतिरोध की धार को भोथरा करना ही है। कहा जा सकता है कि ऐसे पत्रकार दरबारी हो जाऐंगें। यह एक गंभीर मसला है। मध्य प्रदेश सरकार को अगर पत्रकारों से इतनी ही हमदर्दी थी तो उन्हें कर मुक्त और आसान किश्तों पर लैपटॉप दिला सकती थी। पत्रकारों की और भी बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके राज्य से प्रकाशित-प्रसारित होने वाले तमाम अखबारों-चैनलों में भी वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हैं, अंशकालिक या संविदा पर काम कर रहे पत्रकारों को जीवन के उत्तरार्ध में सुरक्षित ढ़ंग से जीने की कोई गारंटी नहीं है। जो पत्रकार समाचार संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं, उनकी नौकरी की ही गारंटी नहीं हैं। लेकिन इन सब समस्याओं को हल करने में लगने का मतलब समाचार-संस्थाओं के सशक्त मालिकों से पंगा लेना होगा। ऐसे में चार-छह करोड़ रुपया फेंक कर सही-सही जगह मौजूद पत्रकारों को काबू में कर लेना ज्यादा आसान काम लगता है। अखबार जिस तरह से भारी पूंजी का व्यवसाय हो चला है और अखबार मालिकों के अन्य उद्योग-धंधे भी चल रहे हैं, उसमें उनका सरकार से पंगा लेना नामुमकिन है। सरकार का लैपटॉप बॉटना या विवेकाधीन कोष से कुछ लाख रुपये देना तो छोटी बातें हैं, राजनीतिक दल तो अपने कोटे से चहेते पत्रकारों को विधान परिषद, राज्य सभा और न जाने कहां-कहां समायोजित कर रहे हैं। यही कारण तो है कि एक समय के वामपंथी ध्वजाधारी पत्रकार ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष में अपनी नियति तलाश लिए। जनता के धन के उपयोग में सरकारों के विवेक और उनकी स्वच्छंदता की सीमा निर्धारित होनी ही चाहिए। जिलाधिकारियों का भी विवेकाधीन कोष होता है, लेकिन वे उस कोष से किसी को लैपटॉप, कार या मोटरसाइकिल नहीं बांट सकते। वह प्राय: आपात स्थिति या प्राकृतिक आपदा को नियंत्रित करने के लिए होता है। एक निर्वाचित सरकार जनता के धन की संरक्षक होती है, उस धन का राजा नहीं। अफसोस तो यह है कि यह परम्परा कांग्रेसी शासन से उपजी है। जनता को फुसलाने की यह विधि पुरानी है। राजसत्ताएं इसी विधि से मुंह भी बंद करती रही हैं ताकि प्रतिरोध को निष्क्रिय किया जा सके। इसलिए लैपटॉप के लॉलीपॉप को समझने की जरूरत है। 0 0 

Tuesday, March 17, 2015

ध्वनि प्रदूषण रोकने को जरुरी है प्रभावी कानून --— सुनील अमर

देश में ध्वनि प्रदूषण का स्तर चिंतनीय ढ़ॅग से बढ़ा है और इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि जल और वायु प्रदूषण जितना ही खतरनाक ध्वनि प्रदूषण भी है और इससे होने वाली बीमारियों में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इसके निवारण के लिए देश में जो कानून व प्राविधान हैं भी उनका ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना ही इस समस्या की जड़ है। इससे सम्बन्धित अधिकारी अगर अपने अधिकारों का सम्यक प्रयोग करें तो ऐसी तात्कालिक समस्याओं से तो निजात पाया ही जा सकता हैै। दिल्ली पुलिस ने दो वर्ष पूर्व सार्वजनिक स्थानोें पर धूम्रपान करने वालों पर कानूनी कार्यवाही कर 90 लाख रुपये बतौर जुर्माना वसूला था लेकिन ध्वनि प्रदूषण पर ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा नहीं मिलता जबकि इसके प्रमुख स्रोत बड़े वाहन और उनमें लगे प्रेशर हार्न व तमाम तरह के आयोजनांे में प्रयुक्त होने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्र होते हैं। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तीखी आवाज वाले प्रेशर हार्न को रोकने के लिए ध्वनि नियंत्रण एक्ट 2000 या सड़क परिवहन अधिनियम 1988 में कोई भी कानून नहीं है।
नगर व कस्बों की बढ़ती आबादी, समारोह योग्य स्थलों की कमी व उनके अत्यधिक मॅंहगे होने के कारण प्रायः लोग घर के सामने की सार्वजनिक सड़क को ही घेरकर उसे उत्सव स्थल में बदल देते हैं। इससे मार्ग अवरुद्ध ही नहीं अक्सर बंद भी हो जाता है जबकि संविधान की धारा 19 (1)(डी) में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे अवरोध मुक्त सड़क पर निर्बाध चल सकें। जाहिर है कि इस प्रकार के आयोजनों से रास्ता बंद व ध्वनि प्रदूषण, दोनों प्रकार की परेशानियाॅ होती हैं। ऐसे आयोजन चॅूकि देर रात तक चलते हैं, इसलिए उस क्षेत्र में रहने वालों की नींद खराब हो जाना स्वाभाविक ही होता है। इसमें भी ज्यादा दिक्कत उन्हंे होती है जो मानसिक या शारीरिक रुप से तेज आवाज सहन करने में अस्मर्थ होते हैं। मोहल्लों में आजकल होने वाले जगराता, देवी जागरण, हफ्तों चलने वाले धार्मिक प्रवचन व तमाम तरह के अन्य मनोरंजन वाले कार्यक्रम इसी प्रकार के होते हैं। कहने को तो इन कार्यक्रमों के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति ले ली जाती है जिसमें रात दस बजे के बाद तथा सुबह छह बजे तक किसी खुले स्थान से ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग की सख्त मनाही होती है बावजूद इसके इसी अवधि में ऐसे कार्यक्रम किये जाते हैं और ध्वनि की उच्चता के मानक का पालन नहीं किया जाता। इसका खामियाजा छात्रों को भी भुगतना पड़ता है जिनकी पढ़ाई बाधित होती है। परीक्षा के समय में तो यह शोरगुल छात्रों के भविष्य पर भी भारी पड़ता है। प्रायः ऐसे मोहल्ला स्तरीय कार्यक्रमों को वहाॅं के स्थानीय सांसद/विधायक का संरक्षण प्राप्त रहता है जिससे स्थानीय अधिकारी शिकायत होने के बावजूद कार्यवाही नहीं करते। धार्मिक स्थलों पर लगे भयानक ध्वनि विस्तारक तो जैसे संविधान के भी उपर होते हैं और दिन-रात अनावश्यक प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इन्हें रोकने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की होती है वे भी प्रायः यहाॅं सर झुकाते रहते हैे।
शोरगुल से आजिज और बीमार होने की समस्या नई नहीं है। एक समय मेें मशहूर अभिनेता मनेाज कुमार ने इसी शोर पर आधारित फिल्म ‘‘शोर’’ बनाई थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव कई दिनों तक बहुत धूम से मनाया जाता है। इसमें होने वाले भारी शोर-शराबे से दुःखी होकर वर्ष 1952 में कुछ लोगों ने बम्बई हाई कोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने सरकार से पर्यावरण अधिनियम को सख्ती से लागू करने को कहा। कलकत्ता उच्च न्यायालय नेे ऐसा ही एक सख्त निर्णय वाहनों में प्रेशर हार्न के प्रयोग पर दिया और कहा कि ऐसा करने वालों पर जुर्माने लगाये जाॅय। वर्ष 2001 में दिल्ली की एक अदालत ने तो ध्वनि प्रदूषण के मामलों से निपटने के लिए अलग से एक अदालत गठित किये जाने का आदेश सरकार को दिया। वर्ष 1993 में केरल उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चर्च के अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लाउडस्पीकर का प्रयोग कर उस क्षेत्र के निवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन न करें। अदालत ने वादी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, और कहा कि एक सुसंगठित समाज में अधिकार हमेशा कर्तव्यों से जुड़े होते हैं। सबसे चर्चित मामला तो राजस्थान के बीछड़ी गाॅव का रहा जहाॅ प्रदूषण फैलाने के लिए देश की एक प्रमुख कम्पनी को जुलाइ्र्र्र 2011 में 200 करोड़ रुपये का जुर्माना सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया। इस सम्बन्ध में स्पष्ट आदेशांे के बावजूद प्रशासनिक स्तर पर सही क्रियान्वयन के अभाव में यह शोर-शराबा दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।   
Link --- http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1796

किसानों के साथ किए जा रहे सरकारी छल पर दैनिक जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर

'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा' --- — सुनील अमर

बढ़ते ध्वनि प्रदूषण पर आज नवभारत टाइम्स में मेरा आलेख —
'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा'
Link -- http://epaper.navbharattimes.com/…/12-13@13-02@03@2015-1001…