Tuesday, March 17, 2015

ध्वनि प्रदूषण रोकने को जरुरी है प्रभावी कानून --— सुनील अमर

देश में ध्वनि प्रदूषण का स्तर चिंतनीय ढ़ॅग से बढ़ा है और इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि जल और वायु प्रदूषण जितना ही खतरनाक ध्वनि प्रदूषण भी है और इससे होने वाली बीमारियों में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इसके निवारण के लिए देश में जो कानून व प्राविधान हैं भी उनका ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना ही इस समस्या की जड़ है। इससे सम्बन्धित अधिकारी अगर अपने अधिकारों का सम्यक प्रयोग करें तो ऐसी तात्कालिक समस्याओं से तो निजात पाया ही जा सकता हैै। दिल्ली पुलिस ने दो वर्ष पूर्व सार्वजनिक स्थानोें पर धूम्रपान करने वालों पर कानूनी कार्यवाही कर 90 लाख रुपये बतौर जुर्माना वसूला था लेकिन ध्वनि प्रदूषण पर ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा नहीं मिलता जबकि इसके प्रमुख स्रोत बड़े वाहन और उनमें लगे प्रेशर हार्न व तमाम तरह के आयोजनांे में प्रयुक्त होने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्र होते हैं। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तीखी आवाज वाले प्रेशर हार्न को रोकने के लिए ध्वनि नियंत्रण एक्ट 2000 या सड़क परिवहन अधिनियम 1988 में कोई भी कानून नहीं है।
नगर व कस्बों की बढ़ती आबादी, समारोह योग्य स्थलों की कमी व उनके अत्यधिक मॅंहगे होने के कारण प्रायः लोग घर के सामने की सार्वजनिक सड़क को ही घेरकर उसे उत्सव स्थल में बदल देते हैं। इससे मार्ग अवरुद्ध ही नहीं अक्सर बंद भी हो जाता है जबकि संविधान की धारा 19 (1)(डी) में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे अवरोध मुक्त सड़क पर निर्बाध चल सकें। जाहिर है कि इस प्रकार के आयोजनों से रास्ता बंद व ध्वनि प्रदूषण, दोनों प्रकार की परेशानियाॅ होती हैं। ऐसे आयोजन चॅूकि देर रात तक चलते हैं, इसलिए उस क्षेत्र में रहने वालों की नींद खराब हो जाना स्वाभाविक ही होता है। इसमें भी ज्यादा दिक्कत उन्हंे होती है जो मानसिक या शारीरिक रुप से तेज आवाज सहन करने में अस्मर्थ होते हैं। मोहल्लों में आजकल होने वाले जगराता, देवी जागरण, हफ्तों चलने वाले धार्मिक प्रवचन व तमाम तरह के अन्य मनोरंजन वाले कार्यक्रम इसी प्रकार के होते हैं। कहने को तो इन कार्यक्रमों के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति ले ली जाती है जिसमें रात दस बजे के बाद तथा सुबह छह बजे तक किसी खुले स्थान से ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग की सख्त मनाही होती है बावजूद इसके इसी अवधि में ऐसे कार्यक्रम किये जाते हैं और ध्वनि की उच्चता के मानक का पालन नहीं किया जाता। इसका खामियाजा छात्रों को भी भुगतना पड़ता है जिनकी पढ़ाई बाधित होती है। परीक्षा के समय में तो यह शोरगुल छात्रों के भविष्य पर भी भारी पड़ता है। प्रायः ऐसे मोहल्ला स्तरीय कार्यक्रमों को वहाॅं के स्थानीय सांसद/विधायक का संरक्षण प्राप्त रहता है जिससे स्थानीय अधिकारी शिकायत होने के बावजूद कार्यवाही नहीं करते। धार्मिक स्थलों पर लगे भयानक ध्वनि विस्तारक तो जैसे संविधान के भी उपर होते हैं और दिन-रात अनावश्यक प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इन्हें रोकने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की होती है वे भी प्रायः यहाॅं सर झुकाते रहते हैे।
शोरगुल से आजिज और बीमार होने की समस्या नई नहीं है। एक समय मेें मशहूर अभिनेता मनेाज कुमार ने इसी शोर पर आधारित फिल्म ‘‘शोर’’ बनाई थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव कई दिनों तक बहुत धूम से मनाया जाता है। इसमें होने वाले भारी शोर-शराबे से दुःखी होकर वर्ष 1952 में कुछ लोगों ने बम्बई हाई कोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने सरकार से पर्यावरण अधिनियम को सख्ती से लागू करने को कहा। कलकत्ता उच्च न्यायालय नेे ऐसा ही एक सख्त निर्णय वाहनों में प्रेशर हार्न के प्रयोग पर दिया और कहा कि ऐसा करने वालों पर जुर्माने लगाये जाॅय। वर्ष 2001 में दिल्ली की एक अदालत ने तो ध्वनि प्रदूषण के मामलों से निपटने के लिए अलग से एक अदालत गठित किये जाने का आदेश सरकार को दिया। वर्ष 1993 में केरल उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चर्च के अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लाउडस्पीकर का प्रयोग कर उस क्षेत्र के निवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन न करें। अदालत ने वादी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, और कहा कि एक सुसंगठित समाज में अधिकार हमेशा कर्तव्यों से जुड़े होते हैं। सबसे चर्चित मामला तो राजस्थान के बीछड़ी गाॅव का रहा जहाॅ प्रदूषण फैलाने के लिए देश की एक प्रमुख कम्पनी को जुलाइ्र्र्र 2011 में 200 करोड़ रुपये का जुर्माना सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया। इस सम्बन्ध में स्पष्ट आदेशांे के बावजूद प्रशासनिक स्तर पर सही क्रियान्वयन के अभाव में यह शोर-शराबा दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।   
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