Tuesday, May 13, 2014

भ्रामक विज्ञापनों के जाल में फंसे उपभोक्ता ----- सुनील अमर



टीवी और रेडियो पर इन दिनों आ रहे एक विज्ञापन में बच्चा स्कूल से घर आता है तो मां पूछती है-‘.अपने दोस्तों को भी साथ लाए हो?’बच्चा आश्र्चय से पूछता है कि कैसे दोस्त! तो मां धूल, मिट्टी, कीटाणु आदि-आदि का हवाला देती है। बच्चे का पिता कहता है कि साबुन से नहा लेना तो मां कहती है कि किसी ऐसे-वैसे साबुन से नहीं, फलां से नहाना होगा। यह विज्ञापन बच्चों के कोमल मन में अपनी पैठ बनाता है तथा मां-बाप को चिंतित करता है कि कहीं वास्तव में उनके बच्चे के साथ स्कूल से ढेर सारे जीवाणु और गंदगी न चली आती हो। और फिर वे यथासामथ्र्य बच्चे की हिफाजज करने लगते हैं। दरअसल प्रकाशित प्रसारित हो रहे सारे विज्ञापन व्यक्ति के मन पर मनोवैज्ञानिक असर डालते हैं। विज्ञापनों की मारक क्षमता और बारम्बारता दिमाग पर ऐसा असर डालती है कि उपभोक्ता उनके झांसे में आकर वस्तु नहीं, ब्रान्ड मांगने लगता है! आप अपने आस-पास के लोगों को देखें तो पाऐंगें कि अक्सर वह वस्तु नहीं सीधे-सीधे किसी ब्रान्ड को मांग कर रहे होते हैं। यही विज्ञापन की सफलता है। किसी गलत वस्तु को एक बार कोई धोखे से खरीद ले तो और बात है लेकिन उसको बार-बार खरीदने के लिए उसके दिमाग का अनुकूलन ही कर दिया जाय, यह ज्यादा खतरनाक बात है। ज्यादातर विज्ञापन आज इसी तरह का मानसिक अनुकूलन बनाने में लगे हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के विज्ञापनों के नियंतण्रहेतु बनी विनियामक संस्था भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने विभिन्न उत्पादों से सम्बन्धित ताजा प्राप्त कुल 136 शिकायतों के निस्तारण में 99 को सही पाया है। इन मामलों में शिकायतें सही पाई गई और वस्तुओं की विज्ञापित बातें सच्चाई से परे थीं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों की धोखाधड़ी किस स्तर पर हो रही है। माना जाना चाहिए कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे उत्पाद भी होंगें जिनकी शिकायत इस नियामक संस्था तक पहुंच ही नहीं पाई होंगीं। अपने साथ हुए धोखे या जालसाजी की शिकायत करने की जागरूकता वैसे भी अपने यहां बहुत कम है। सामान्यत: यदि उपभोक्ता को नुकसान कम पैसों का हुआ हो तो वह शिकायत करने जैसे पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। इस लिहाज से परिषद के पास जो शिकायतें आई होंगी, वे कुल शिकायतों का सौवां/हजारवां हिस्सा ही रही होंगीं। इसका अनुमान ऐसे भी लगाया जा सकता है कि परिषद तक पहुंची शिकायतें प्राय: नामचीन कंपनियों के बहुप्रचलित उत्पादों के विरुद्ध थीं। नई या कम चर्चित कम्पनियों के उत्पादों के गुण-दोष पर तो लोग वैसे भी कम ध्यान देते हैं। सरकारी और कुछ गैर सरकारी संगठनों के विज्ञापन सूचित, सचेत तथा जागरूक करने के लिए जरूर होते हैं लेकिन इसके अलावा बाकी के विज्ञापन येन-केन- प्रकारेण अपना माल बेचने के लिए ही होते हैं। आज का बाजारवाद बेहद आक्रामक है। वह लोगों को मूर्ख बनाकर, फंसाकर, डराकर तथा इससे भी काम न चले तो उनके जीवन में सम्बन्धित वस्तु की जरूरत पैदा कर अपना माल बेचना जानता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण पीने का पानी और आयोडीन युक्त नमक है। जीवन के लिए अति आवश्यक इन दोनों वस्तुओं के बारे में दशकों से सिलसिलेवार और एक खास दृष्टिकोण से समाचार, लेख, गोष्ठियां, विज्ञापन और जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। लोगों को बताया जाता है कि बोतलबंद पानी के अलावा दुनिया का सारा पानी दूषित हो चुका है। पानी के बारे में जिस तरह की बातें विज्ञापित की जाती हैं, उसके अनुसार तो उन लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाना चाहिए जो सरकारी आपूत्तर्ि या हैंडपम्प के पानी का प्रयोग करते हैं। यह सच है कि देश में भू-गर्भीय जल में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे हानिकारक तत्त्वों की मात्रा मौजूद है लेकिन यूनिसेफ की रपट (वर्ष 2008) कहती है कि भारत की 88 प्रतिशत आबादी को संशोधित साधनों से पीने का पानी सुलभ है। पीने के पानी को गन्दा, दूषित और जहरीला बताकर भय पैदा करने का ही नतीजा है कि आज देश में बोतलबंद पानी का व्यवसाय 10,000 करोड़ रुपये से भी अधिक का हो गया है और जिसके वर्ष 2015 तक 15,000 करोड़ रुपये तक हो जाने का अनुमान है। आज स्थिति यह हो गयी है कि शहरों में बहुत से लोगों ने अवैध ट्यूबवेल या सरकारी आपूत्तर्ि से पानी चुराकर उसे बेचने का धंधा बना लिया है। गांव देहात में शुद्ध बोतलबंद पानी के भ्रम में लोग भारी कीमत देकर उसे हर रोज खरीद रहे हैं। दुकानों और दफ्तरों में भी पानी के डिब्बे उसी तरह पहुंचाए जा रहे हैं जैसे खाने का टिफिन। विज्ञापन से पैदा हुई दहशत का आलम यह है कि पैसे वाले लोग पेयजल शुद्धिकरण के लिए घरों में महंगे आरओ या वॉटर प्यूरीफायर लगा रहे हैं। कई मामलों में तो लोग ‘ज्यादा महंगा, तो ज्यादा अच्छा’ की मानसिकता के चलते ऐसे स्तर का आरओ घर में लगा रहे हैं जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं है और वह उनके पेयजल को डिस्टिल्ड वॉटर बना दे रहा है। जानना जरूरी है कि प्राकृतिक शुद्ध जल में कई प्रकार के खनिज और लवण पाए जाते हैं जो मानव शरीर के लिए जरूरी होते हैं लेकिन उक्त प्रकार के आरओ इन सबको भी छानकर निकाल देते हैं। यही स्थिति खाद्य तेलों के साथ भी है। विज्ञापन का असर ऐसा है कि अब वे लोग भी रिफाइंड तेल खा रहे हैं जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि रिफाइंड तेल से ऐसे बहुत से तत्व निकाल दिए जाते हैं जिनकी एक स्वस्थ आदमी को रोज आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक का मामला भी ऐसा ही है। आयोडीन की अत्यन्त अल्प मात्रा की ही जरूरत हर आदमी को होती है। जिन इलाकों में प्राकृतिक तौर पर आयोडीन नहीं पाया जाता, वहां घेंघा आदि कई बीमारियां हो जाती हैं। ऐसे लोग देश की कुल आबादी का मात्र 2.5 यानी ढाई प्रतिशत ही हैं। ताजा रिसर्च से पता चलता है कि एक स्वस्थ आदमी को प्रतिदिन सिर्फ दामलव डेढ़ सौ (0.150) माइक्रोग्राम आयोडीन चाहिए। एक हजार माइक्रोग्राम का एक मिलीग्राम होता है तो एक मिलीग्राम आयोडीन एक सप्ताह के लिए पर्याप्त हुआ। इसका मतलब यह हुआ यदि कोई व्यक्ति 90 वर्ष की उम्र तक जिए तो उसे जीवन में कुल साढ़े चार ग्राम आयोडीन की जरूरत होगी! यह खाना खाने वाले चम्मच से आधा चम्मच ही हुआ। मानव शरीर की खासियत यह है कि यह अतिरिक्त आयोडीन की मात्रा को उत्सर्जन क्रियाओं द्वारा निकाल देता है इसलिए आयोडीनयुक्त नमक बनाने वाली कम्पनियों का अरबों रुपये का धंधा चल रहा है। इस नमक लॉबी के दबाव में वर्ष 2005 में केन्द्र सरकार ने साधारण नमक की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया जिससे नमक- कम्पनियों की चांदी हो गई। जबकि नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद ने अपने अध्ययन में पाया कि आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में प्राकृतिक रूप से ही जरूरत से ज्यादा आयोडीन मौजूद है। बावजूद इसके समूचे देश को साधारण नमक की जगह आयोडीनयुक्त नमक खाने को बाध्य करने की कोशिशें होती हैं। ( राष्ट्रीय सहारा 09 May 2014 के सम्पादकीय पृष्ठ 10 पर )

Friday, May 02, 2014

इन्हीं को सौपें हम देश की बागडोर ? सुनील अमर



कैसे विकट समय में हम जी रहे हैं कि देश के चोटी के नेता भी अपनी जबान से मवालियों को मात देते नजर आ रहे हैं! लोकतंत्र में किसी नेता को परखने का सही समय चुनाव ही होता है, जब वह हाथ जोड़े और सिर झुकाए मतदाताओं के पास जाता है। चुनाव का यह आम दृश्य होता है। बजाय इसके, इधर राष्ट्रीय स्तर के कुछ नेताओं में अपराधियों जैसी ढ़िठाई दिख रही है। अब तक देखने में यही आता था कि मतदाताओं को लुभाने के लिए नेता लोग तमाम तरह के ऐसे वादे और घोषणाऐं करते रहते थे जिसके पूरा होने के बारे में मतदाताओं को पहले ही दिन से शक़ रहता था लेकिन इस चुनाव में तो न सिर्फ मतदाताओं को धोखा देने बल्कि संवैधानिक व्यवस्थाओं से टकराने और उनकी ऑख में धूल झोंकने का भी काम नेताओं द्वारा हो रहा है। ये नेता इस तरह से कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं कि आम आदमी के मन में दहशत हो रही है कि ये अगर देश की बागडोर पा गए तो क्या करेंगें!
                देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा है। एक दशक से यह पार्टी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करती है जबकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं। इस बार भाजपा के ऐसे दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। मोदी यद्यपि देश की दो सीट से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन वे अपने भाषणों में कहते हैं देश में जो भी मतदाता कमल (भाजपा का चुनाव चिह्न) पर मुहर लगाएगा, वह वोट उनको ही मिलेगा! मानों वे अमेरिका के राष्ट्रपति की तरह देश में प्रधानमंत्री का कोई सीधा चुनाव लड़ रहे हैं। इन्हीं मोदी ने पिछले कई चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति का खाना खाली छोड़ दिया था। न विवाहित बताया, और न अविवाहित। अपने हालिया भाषणों में उन्होंने कई बार बताया कि प्रधानमंत्री बन जाने पर वे कोई भी भ्रष्टाचार नहीं करेंगें क्योंकि उनके तो कोई है ही नहीं! लेकिन गत सप्ताह गुजरात ने चुनाव का नामांकन पत्र भरते समय उन्होंने घोषित किया कि वे अरसे से शादीशुदा हैं और श्रीमती जशोदाबेन उनकी पत्नी हैं! अब पता चल रहा है कि उनके माँ-बाप, भाई-बहन सब कोई हैं। ऐसा नहीं हैं कि मोदी की अंतरात्मा अचानक जागृत हो गई और उन्होंने विवाह के साल भर बाद से बिना तलाक के छोड़ रखी और बहुत तकलीफ में दिन काट रही अपनी पत्नी को अपना लिया हो। अपनाया तो उन्होंनें अभी भी नहीं है। असल में इधर चुनाव में नामांकने के नये नियम ऐसे सख्त हो गए हैं कि फार्म में कोई भी खाना अगर खाली छोड़ा गया तो फार्म को अधूरा मानकर रद्द कर दिया जाएगा। इस भय ने मोदी के झूठ को उजागर किया। अपनी ब्याहता बीवी से ऐसा सलूक करने वाले मोदी देश की जनता से उसके पालन-पोषण का वादा कर रहे हैं! बताया जाता है कि वे अपनी मॉ से भी दशकों से नहीं मिले हैं। मोदी जोगी भी नहीं, बाकायदा गृहस्थ हैं।
               देश में एक और स्वनामधान्य नेता हैं- मुलायम सिंह यादव। समाजवादी पार्टी नामक एक क्षेत्रीय दल के राष्ट्रीय अधयक्ष हैं और उत्तर प्रदेश में इनकी पार्टी की सरकार है। देश के रक्षामंत्री रह चुके हैं। किसी समय में जमीन से जुड़े नेता होते थे और खुद को समाजवादी चिंतक लोहिया की विचारधारा का बताते रहते हैं और इनकी पार्टी में लोग इन्हें नेताजी के नाम से पुकारते हैं। इन दिनों मुसलमानों को कैसे भी रिझाकर उनके वोट लेने की तरकीब में नेताजी लगे रहते हैं। मुम्बई के शक्ति मिल बलात्कार कांड के आरोपियों को गत सप्ताह फांसी की सजा सुनाई गई। संयोग से इस जघन्य कांड के अपराधियों में कुछ मुस्लिम युवक हैं। बस नेता जी का वोट प्र्रेम जागृत हो गया और उन्होंने सार्वजनिक रुप से ऐलान कर दिया कि नौजवानों से तो ऐसी गलती (बलात्कार) हो ही जाती है और बलात्कार के दोषियों को फॉँसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए! यहाँ यह धयान रखने की बात है कि दिसम्बर 2012 में दिल्ली बस बलात्कार कांड की जिस घटना की दुनिया भर में निंदा हुई और उसके दोषियों को भी फांसी की सजा सुनाई गई तब इन वयोवृध्द नेताजी को बलात्कारियों को माफ कर देने की अपील नहीं सूझी थी। सारी दुनिया के लोग मानते हैं कि बलात्कार सबसे ज्यादा क्रूर और जघन्यतम अपराधा है और इसकी शिकार महिला को उसके बाकी जीवन भर के लिए मुर्दा जैसा बनाकर रख देता है। देश और दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की ही है और उस आधी आबादी के प्रति ऐसा क्रूर नजरिया रखने वाला आदमी देश में सरकार बनाने का दावा करके वोट मॉग रहा है! बलात्कारी तो किसी एक महिला को जीवन भर के लिए मर्माहत करता है लेकिन मुलायम सिंह की इस सोच ने तो सारी महिलाओं को मर्माहत किया है। हैरत तो इस बात पर भी है इसी पार्टी के मुम्बई के एक कुख्यात नेता ने भी मुलायम सिंह के बयान का समर्थन किया है तो मुलायम सिंह के पूर्व सहयोगी और अब कॉग्रेस पार्टी के एक विकट नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने बीते सप्ताह लखनऊ में पत्रकार वार्ता में कहा कि- 'मोदी चाय तो बेचते थे लेकिन उसमें अफीम मिलाकर बेचते थे।' राजनीतिक आरोपों का स्तर देखिए!
                देश में एक और स्वनामधान्य नेत्री हैं- सुश्री ममता बनर्जी। इसमें कोई शक़ नहीं कि वे एक उजले चरित्र की बेहद ईमानदार नेता हैं और उनकी जितनी सादगी और निम्नतम खर्चे में जीवन यापन करने वाले देश में बिरले लोग ही हैं। लेकिन राजनीतिक अक्खड़पने और ज़िद के चलते विवादों और चर्चाओं में आना भी उनका शगल है। एक समय सांसद रहते हुए उन्होंने यह कहकर संसद को सकते में ला दिया था कि अगर उनकी बात न सुनी गई तो वे अपना कपड़ा उतार कर संसद में फेंक देंगीं! अब वही ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं और गत सप्ताह उन्होंने चुनाव आयोग के निर्देश मानने से इनकार करके सनसनी फैला दी थी। चुनाव आयोग ने उन्हें चेतावनी देकर समय सीमा निधर्ाारित की तो गनीमत है कि वे आयोग का निर्देश मानने को राजी हो गईं अन्यथा पश्चिम बंगाल का चुनाव रद्द होने की स्थिति बन रही थी।
                चुनाव में बड़बोलेपन और जुबानी ज़हर की कारस्तानी दिखाने वाले तो तमाम छुटभैया या दोयम दर्जे के नेता हैं और कुछ को तो चुनाव आयोग ने दंडित भी किया है। लेकिन ज्यादा चिंता की बात यह है कि उपरवर्णित नेतागण देश की बागडोर संभालने की जुगत में हैं। देश में जोड़तोड़ की जिस तरह की राजनीति का दौर चल रहा है उसमें देवेगौड़ा सरीखे व्यक्ति को प्रधानमंत्री और मधाुकौड़ा जैसे निर्दल विधायक को मुख्यमंत्री बनते हमने देखा ही है। अपनी ब्याहता पत्नी का सारा जीवन वैधयव्य सरीखा बना देने वाला और इसके लिए देश के कानून के समक्ष शपथ ले-लेकर बार-बार झूठ बोलने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बनना चाह रहा है, बलात्कार जैसे गर्हित अपराधा को नौजवानों द्वारा जोश में आकर की गई मामूली गलती बताने वाला प्रधानमंत्री बनना चाह रहा है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संरक्षित संस्था चुनाव आयोग को ठेंगा दिखाने वाले नेता भी प्रधानमंत्री बनना चाह रहे हैं तो चिंता स्वाभाविक ही है कि सत्ता पाकर ये अपना कौन सा छिपा हुआ चरित्र प्रकट करेंगें, कहना मुश्किल है। ( हमसमवेत)

कारगर होगी चुनाव आयोग की नई रोकथाम ------ सुनील अमर



 से समय में जब ये खबरें आ रही हों कि देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल ने अपने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की छवि चमकाने के लिए देश की एक शीर्ष विज्ञापन कम्पनी को चार सौ करोड़ रुपये का ठेका दे दिया है तथा चुनाव से काफी पहले से ही यह राजनीतिक दल अपनी एक-एक रैली पर कई करोड़ रुपये खर्च कर रहा है, तो दुनिया में अपनी निष्पक्ष और सख्त छवि के प्रसिध्द देश के चुनाव आयोग का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। चुनावों में बढ़ते धन बल को हर हाल में रोकने के लिए कटिबध्द भारत के चुनाव आयोग ने आसन्न लोकसभा चुनावों के मद्दे-नजर कुछ नयी तैयारियाँ की हैं। इसमें मुख्य रुप से चुनाव में प्रयुक्त होने वाले कालेधान पर हर संभव तरीके से रोक लगाना है।
              चुनावों में किस तरह से राजनीतिक लोग बड़े पैमाने पर कालेधन का इस्तेमाल कर आयोग की ऑख में धाूल झोंकते हैं इसकी पहली सार्वजनिक स्वीकारोक्ति कुछ माह पूर्व भाजपा के एक बड़े नेता गोपीनाथ मुंडे ने मुम्बई में की थी। उन्होंने स्वीकार किया था कि अपने लोकसभा के चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपये से अधिक धन खर्च किया था। धयान रहे कि चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा प्रत्याशी के खर्च की वैधानिक सीमा सिर्फ चालीस लाख रुपया तथा विधान सभा प्रत्याशी की सिर्फ सोलह लाख रुपया ही है। श्री मुंडे की इस स्वीकारोक्ति को चुनाव आयोग ने गंभीरता से लिया है और उन्हें तथ्यों को छुपाने का दोषी मानते हुए कार्यवाही शुरु की है। यह सिर्फ गोपीनाथ मुंडे का ही मामला नहीं है। ऐसा माना जाता है कि चुनाव लड़ने वाले प्राय: सभी लोग अंधाधुंध पैसा खर्च करते हैं लेकिन आयोग को दिए जाने वाले अपने दस्तावेजों में निर्धारित सीमा से भी आधा ही खर्च किया हुआ दिखाते हैं। अब यह एक आम रिवाज बन गया है कि ऐसे प्रत्याशी अपने विज्ञापन तथा अन्य मद में हुए भारी खर्च को अपने प्रशंसकों और समर्थकों द्वारा खर्च किया हुआ बताकर आयोग की ऑंखों में धूल झोंकते हैं। इस बार की बैठक में आयोग ने ऐसे कृत्यों का संज्ञान लेते हुए यह निर्धारित किया है कि किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में कोई व्यक्ति तभी विज्ञापन छपवा या प्रचार सामाग्री बनवा सकेगा जब उसे प्रत्याशी की लिखित सहमति प्राप्त होगी। नि:सन्देह ऐसा हो जाने से प्रत्याशी की ऐसे खर्चों की जवाबदेही बनेगी।
             आयोग का एक दूसरा प्रावधान भी बहु प्रतीक्षित कदम है। यह देखने में आता है कि समाचार माधयम किसी एक राजनीतिक दल या व्यक्ति को अपनी खबरों में ज्यादा समय या स्थान देने लगते हैं। आयोग की समझ में यह भी एक प्रकार की पेड न्यूज सरीखा मामला है और उसकी कोशिश है कि आने वाले चुनावों में प्रत्येक दल या प्रत्याशी को समान अवसर और स्थान मिल सके। धनबल के इस खेल में होता यह है कि बहुत से योग्य प्रत्याशी धनाभाव में अपनी बात मतदाताओं तक पहॅुचा ही नहीं पाते और वह धनपतियों की चकाचौंधा में गुम हो जाते है। धन के इस मायाजाल को काटने का उपाय वामपंथी दलों ने काडर बनाकर और सतत जनसम्पर्क करके निकाला था लेकिन अफसोस है कि वामपंथ चुनावी परिदृश्य से गायब ही होता जा रहा है। एक दिक्कत यह है कि आयोग के पास किसी समाचार माधयम के विरुद्व कार्यवाही करने का सीधा अधिकार नहीं है। अखबार में आए ऐसे मामलों की शिकायत तो वह भारतीय प्रेस परिषद को भेज देता है। प्रेस परिषद की भी सीमा यही है कि वह दोषी पाए गए अखबार या पत्रिका की (परिषद के अधिकार क्षेत्र में प्रिंट माध्यम ही आता है) सिर्फ भर्त्सना ही कर सकता है। दंड देने का अधिकार उसके पास भी नहीं है। परिषद सर्वोच्च संस्था है। दंड देने का अधिकार प्राप्त होने से उसके विरुद्व अपील की स्थिति बनेगी और उसकी सर्वोच्चता नहीं रह जाएगी। लेकिन देखने में यह आ रहा है कि समाचार माधयमों की प्रवृत्ति में आमूल-चूल बदलाव आ गया है और इनकी प्रकृति समाजसेवा की न होकर उद्यम की हो गयी है। इसलिए महज भर्त्सना का इन पर कोई भी असर नहीं हो रहा है। शासन द्वारा इन्हें दंडित करने की अवधारणा इसलिए उचित नहीं कही जा सकती कि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है। ऐसे में चारों तरफ से बार-बार यही कहा जाता है कि समाचार माधयम अपने भीतर से ही खुद पर अंकुश लगाने की व्यवस्था करें लेकिन यह आग्रह कारगर नहीं हो पा रहा है। बेहतर होगा कि आयोग अनुभवी और स्वच्छ छवि वाले प्रेस प्रतिधियों को मिलाकर एक अधिकार सम्पन्न संस्था बनाए और दोषी पाए जाने वाले समाचार माधयमों पर खुली कार्यवाही की व्यवस्था करे। आयोग मीडिया में 'अंडर टेबल' चलने वाले इस धांधो को बंद करने के प्रति अपनी प्रतिबद्वता प्रकट कर रहा है लेकिन इस बात का उसे धयान रखना ही होगा कि उसका कोई भी कृत्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले की श्रेणी में न आए।
             समाचार माध्यमों पर निगाह रखने में आयोग को एक नई चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और वह है-सोशल मीडिया यानी इंटरनेट पर मौजूद समाचार और प्रचार माधयम। इंटरनेट के बढ़ते प्रचार-प्रसार ने इसे काफी उपयोगी बना दिया है और इसका भी हर तरह से असर दिख रहा है। आयोग इस पर निगरानी बैठा रहा है और समझा जाता है कि इस पर हुई गतिविधि को भी प्रत्याशी के प्रचार और खर्चे से जोड़ा जाएगा। मंहगाई और प्रचार के विकसित होते संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में आयोग प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की निर्धारित सीमा को भी बढ़ाने पर विचार कर रहा है। हालॉकि ऐसा होने से कोई वांछित सुधार आ जाएगा, इसमें शक है। चालीस लाख की सीमा होने पर जो प्रत्याशी पच्चीस लाख का चुनाव खर्च दिखा रहे हैं वो साठ लाख की सीमा होने पर थोड़ा और खर्च दिखा देंगें। तय सीमा से अधिक खर्च तो आज तक किसी भी प्रत्याशी ने दिखाया नहीं है। यह जरुर हुआ है कि देश में अपने तरह के पहले मामले में उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज का मामला साबित हो जाने पर एक महिला विधायक उमलेश यादव का चुनाव आयोग ने रद्द घोषित कर दिया था।
             आयोग के चुनाव सुधार की दिशा में उठाए गए कदमों ने सार्थक नतीजे दिए हैं। उसकी सख्ती और चुस्त व्यवस्था का ही परिणाम है कि बूथ कैप्चरिंग जैसी चुनावी महामारी अब समाप्त हो चुकी है और इसके लिए कुख्यात बिहार जैसे राज्य भी अब इससे मुक्त हो चुके हैं। हालाँकि कई बार आयोग के निर्णय लोगों को हास्यास्पद और बेजा कार्यवाही जैसे लगते हैं, जैसे उत्तर प्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में पूर्ववर्ती बसपा सरकार द्वारा प्रदेश में जगह-जगह स्थापित की गई हाथी की मूर्तियों को पर्दे में ढ़ॅंकने का आदेश लेकिन जनभावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर आदेश की सार्थकता समझ में आती है। देश में अभी भी सारे चुनाव आखिर चिह्नों पर ही तो लड़े जाते हैं। ऐसे में पेड न्यूज, चुनाव घोषणा के पूर्व किए गए खर्चे तथा शुभचिंतको आदि की आड़ में किए जाने वाले बेतहाशा खर्चों को कानून की जद में लाना बहुत जरुरी है। चुनाव में धनबल की बहुलता ने योग्य लेकिन धनहीन व्यक्तियों को न सिर्फ लड़ाई से बाहर कर दिया है बल्कि जनता के सदनों को अपराधियों और धंधेबाजों से भर दिया है। आयोग के चुनाव सुधार की ताजा पहल का समर्थन और स्वागत किया जाना चाहिए। ( हमसमवेत)

खेती-किसानी की सुध भी कोई ले --- सुनील अमर


किसान और मजदूरों को मिलाकर देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी बनती है लेकिन किसी भी प्रमुख राजनीतिक पार्टी के एजेंडे में खेतीकि सानी मुख्य मुद्दा नहीं हैं। यह हताशापूर्ण स्थिति है। खासकर ऐसे समय में जब प्राकृतिक आपदा और कृषि ऋण से त्रस्त किसानों की आत्महत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। देश की सव्रेक्षण एजेंसियों तथा स्वयं सरकार की जांच-पड़ताल का नतीजा बताता है कि किसानों की औसत मासिक आय बढ़ने के बजाय घट रही है और खेती-किसानी छोड़कर पलायन कर रहे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है। ऐसे में उम्मीद थी कि सत्तारूढ़ दल व्यापक अनुभवों से सबक लेते हुए किसानों की बदहाली के लिए ठोस उपायों की घोषणा करता और देश में परिवर्तन लाने का ढिंढोरा पीट रही प्रमुख विपक्षी पार्टी पार्टी किसानों की दयनीय दशा पर तरस खाती लेकिन दोनों पार्टियां इस दिशा में उसी तरह खामोश हैं जैसे अन्य क्षेत्रीय पार्टियां। किसान एक बार फिर ठगा जा रहा है। वामपंथी दल इस तबके की बात जरूर करते हैं लेकिन वे सत्ता परिवर्तन करने की स्थिति में नहीं हैं। किसानों की बदहाली का मुख्य कारण उनका असंगठित होना है। संसदीय राजनीति का जो स्वरूप हो गया है, उसमें सिर्फ संगठित वर्ग की ही आवाज सुनी जाती है। किसानों का जो वर्ग संगठित है, उसमें बड़े किसान और खेती के नाम पर फलों के बगीचे, चाय बागानों के मालिक, कृषि यंत्र निर्माता तथा रासायनिक उर्वरक निर्माता आदि आते हैं। किसानों के नाम पर दी जाने वाली सरकारी रियायतों का तीन-चौथाई हिस्सा यही ले जाते हैं। इनकी आवाज सरकारें सुनती हैं और ये लोग ही कृषि नीतियों को प्रभावित करते हैं। इनके लिए चुनावी घोषणा की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि ये सरकारों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी किसानों और युवाओं की बात तो करते हैं लेकिन उनकी देख-रेख में तैयार कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किसानों-मजदूरों के बारे में कुछ खास नहीं है। हालांकि कॉग्रेस नीत संप्रग-1 के कार्यकाल में मजदूरों की कर्जमाफी का महत्वपूर्ण काम किया गया था जो उसके तत्कालीन चुनावी घोषणापत्र के अनुरूप था। भाजपा केन्द्र में परिवर्तन का नारा दे रही है। घोषित
लोकसभा चुनाव के लिए देश में काफी पहले से भाजपा ने प्रचार का भारी-भरकम काम शुरू कर दिया था। उसके नये खेवनहार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग साल भर से रैलियां कर रहे हैं लेकिन उनके भाषणों में भी देश की कृषि नीति के बारे में कुछ खास सुनने को नहीं मिलता है। गन्ना किसानों की बात तो उन्होंने एकाध बार की है लेकिन समग्र किसानों की बात नहीं करते। केन्द्र में कुल मिलाकर इसके खाते में छह वर्षों से अधिक का कार्यकाल दर्ज है लेकिन किसानों की बदहाली दूर करने का ठोस प्रयास इस सरकार ने कभी नहीं किया। अबकी बार भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी तो बड़े व्यवसायियों और उद्योगपतियों से लगाव के लिए ही ज्यादा जाने जाते हैं। तमाम सरकारी और गैर-सरकारी सव्रेक्षण बताते हैं कि देश के किसानों की प्रति परिवार औसत मासिक आमदनी 2200 रपए के करीब है। चार व्यक्तियों के एक परिवार के मानक के अनुसार यह प्रति व्यक्ति दैनिक 20 रुपये से भी कम बैठता है जिसके बारे में लगभग सात साल पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अजरुन सेनगुप्ता ने अपनी रपट में बताया था कि देश की 83 करोड़ 60 लाख आबादी की औसत दैनिक आमदनी नौ से बीस रुपये के बीच है। देश में सभी वस्तुओं और वेतनभोगियों की आमदनी लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की आमदनी स्थिर हो गई है। देश में परिवर्तन लाने का दावा करने वाले इसके बारे में मुंह नहीं खोल रहे हैं। किसान से कहीं ज्यादा अच्छी हालत तो मनरेगा के मजदूर और जेल में बंद कैदियों की है। जेल में बंद एक कैदी जहां 99 रुपये दैनिक तक पाता है, वहीं मनरेगा में 150 से लेकर 200 रुपये तक की दिहाड़ी सरकारें दे रही हैं। एक किसान परिवार अगर जेल चला जाए तो अपनी खेती की कमाई का छह गुना ज्यादा तो निश्चित ही पा सकता है और अगर वह किसानी छोड़कर मजदूर बन जाय तो 10-12 गुना ज्यादा कमा सकता है। शोध संस्था ‘सीएसडीएस’ ने बीते मार्च महीने में अपनी एक सव्रे रपट जारी की है जिसमें देश के किसानों की भयावह सचाई सामने आई है। इस सव्रे में 18 राज्यों के 137 जिलों में 11000 किसानों से बात की गई। रपट के अनुसार किसान मानते हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ सिर्फ बड़े और सक्षम किसानों को ही मिल रहा है और 76 प्रतिशत किसानों ने कहा कि वे खेती छोड़कर कोई दूसरा काम करना चाहते हैं। तमाम शहरी और औद्योगिक विकास के बावजूद देश की आधी आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। क्या यह माना जा सकता है कि इस आधी आबादी को सरकार कल- कारखानों और मजदूरी में समायोजित कर लेगी? सरकारी तौर पर यह कहा जाता है कि खेती पर निर्भर रहने वालों का दबाव बढ़ रहा है लेकिन उस दबाव को कम करने का कोई उपाय किया नहीं जाता। एक सहज उपाय कृषि से सम्बन्धित कुटीर उद्योग धंधों तथा प्रसंस्करण इकाइयों का विकास है जिससे न सिर्फ किसानों को अतिरिक्त आमदनी हो सकती है बल्कि ग्रामीण नौजवानों का शहरों की तरफ पलायन भी रुक सकता है लेकिन इस दिशा में आज तक कुछ हुआ ही नहीं। इसके विपरीत यह जरूर हुआ है कि खेतिहर नौजवानों के शहर की तरफ पलायन करने से वहां कामगारों की भीड़ बढ़ी है और वे कम वेतन या दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर हैं। इससे पूंजीपतियों का ही लाभ हो रहा है। देश आज भी कृषि प्रधान है। ऐसे में जरूरी था कि दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां अपने चुनाव घोषणा पत्र में तीन मुद्दे जरूर रखतीं। पहला रेल विभाग की तरह कृषि का भी अलग से बजट बने। ताकि किसानों की समस्याओं का तरीके से निस्तारण किया जा सके। दूसरे, प्रत्येक लघु और मध्यम किसान को निश्चित आय की गारंटी सरकार से मिले ताकि वह खेती से विमुख न हो और तीसरा देश के इस सबसे बड़े क्षेत्र के लिए प्रशासनिक सेवा और तकनीकी सेवा की तरह अलग से भारतीय कृषि सेवा भी होनी चाहिए क्योंकि अब तक इस विभाग से सभी महत्वपूर्ण पदों पर प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही कब्जा जमाए हुए हैं जिनका खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं होता। खेती के लिए हवाई योजनाएं इसीलिए बनती रहती हैं। अफसोस यह कि आगामी पांच वर्षो में किसान फिर से उसी तरह बदहाली में जीने को अभिशप्त होगा जैसे अब तक जीता आया है। ( 25 April in Rashtriya Sahara) 

दलों व माध्यमों की पारदर्शिता से रुक सकेगी 'पेड न्यूज' ---- सुनील अमर




'पेड न्यूज' यानी पैसे लेकर माफिक समाचार प्रकाशित करने का मामला एक बार फिर चर्चा में है। देश के मुख्य चुनाव आयुक्त वी.एस. सम्पत ने गत दिनों तिरुवनंतपुरम् में चुनाव सुधारों पर आयोजित एक सेमिनार में कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा पैसे देकर माफिक खबरों को छपवाने से चुनावी प्रक्रिया को व्यापक क्षति पहुॅचती है, इसलिए इसे चुनाव अपराध बनाना चाहिए ताकि इसमें शामिल सभी लोगों को परिणामों का सामना करना पड़े। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने इस सम्बन्ध में विधि मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा है।
                 पत्रकारिता की बदलती प्रवृत्ति तथा उसमें आ रहे चारित्रिक क्षरण का एक रुप पेड न्यूज के तौर पर दिखाई पड़ने लगा है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजनीतिक दल ही पैसा देकर मनमाफिक खबरें छपवाते हैं या सिर्फ अपने देश में ही ऐसा हो रहा है बल्कि दुनिया के तमाम देशों में तमाम तरह के लोग अपने स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। पैसा देकर खबरें चाहे राजनीतिक दल छपवाऐं या उद्योगपति, अंतत: उसका खमियाजा उस खबर को पढ़ने वाले को ही उठाना पड़ता है। राजनीतिक दल चूँकि सत्ता में आकर देश का संचालन करते हैं इसलिए उनके द्वारा प्रचारित किया गया कोई झूठ ज्यादा गंभीर और व्यापक प्रभाव वाला हो जाता है। सभी जानते हैं कि समाचार माध्यमों में दो जगह होती है- एक जहाँ समाचार रहता है और दूसरी, जहॉ विज्ञापन। पत्रकारिता करने वालों की एक व्यावहारिक समझ यह होती है कि जो बताया जाय वह विज्ञापन होता है और जो छिपाया जाय वह समाचार। शुरु से ही समाचारों की विश्वसनीयता विज्ञापनों से कहीं अधिक होती रही है क्योंकि पाठक को विश्वास रहता है कि समाचार माध्यम ने आवश्यक छानबीन के पश्चात ही खबर को जारी किया होगा जबकि विज्ञापन तो होता ही है ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए। पाठकों का यही विश्वास समाचारों को कीमती बनाता है और न्यस्त स्वार्थों वाले लोग यही कीमत देकर अपने विज्ञापन को खबर बनवाते हैं ताकि पढ़ने वालों को अपने हक़ में किया जा सके। हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों द्वारा ऐसा किए जाने के मामले बहुतायत में आने लगे हैं और कुछ निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी सदस्यता से वंचित भी किए जा चुके हैं।
                लेकिन सिर्फ राजनीतिक दल ही इस मामले में दोषी हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। घूस देने वाला जितना गुनाहगार होता है, उतना ही लेने वाला भी। राजनीतिक दल या अन्य लोग पहले भी समाचार माध्यमों को अपने पक्ष में करते रहते थे। आचार्य द्विवेदी का एक प्रसंग इस सन्दर्भ में सामयिक होगा। उन दिनों वे 'सरस्वती' का सम्पादन कर रहे थे। एक सज्जन उनसे मिलने आये तो अपने साथ कोई उपहार भी लाए थे। चलते समय उन्होंने अपनी कोई रचना द्विवेदी जी को सरस्वती में प्रकाशनार्थ दी। कुछ माह पश्चात एक दिन वे सज्जन फिर द्विवेदी जी से मिलने आये और अपनी रचना प्रकाशित न होने के बारे में शिकायत की। बातों-बातों में उन्होंने दिए गए उपहार की तरफ भी द्विवेदी जी का ध्यान दिलाया। द्विवेदी जी कुछ क्षण उन्हें देखते रहे और फिर आलमारी की तरफ इशारा करके बोले कि आपका दिया उपहार ज्यों का त्यों वहाँ रखा है, आप तुरन्त उसे ले लीजिए। सरस्वती किसी के व्यापार का साधन नहीं बन सकती।
                तब और आज की परिस्थितियों में बुनियादी फ़र्क यह है कि तब न तो लाभ कमाने के आकांक्षी इस कार्य क्षेत्र में आते थे, न पत्र-पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार आज जितना व्यापक था और न ही यह क्षेत्र अकूत आर्थिक लाभ कमाने का उपक्रम बना था। आज अगर अरबों-खरबों रुपये का ऋण लेकर और पूॅजी बाजार से जनता का धन लेकर समाचार पत्र या चैनल चलाए जा रहे हैं तो निश्चित ही वे लाभ कमाने के लिए ही हैं और जो काम लाभ कमाने के लिए किया जाएगा वहाँ हर प्रकार से लाभ कमाने की बात सोची जाएगी ही। यह तो दौर ही बाजारवाद का है जहॉ 'सब बिकता है' का उद्धोष चौबीस घंटे हो रहा है। आज के समय में जो पत्र-पत्रिकाऐं लाभ न कमाने की घोषणा करके चलाई जा रही हैं वहाँ भी कंचन न सही कामिनी-शोषण कर उपकृत करने की काली छायाऐं प्रतिबिम्बित हो रही हैं। तो उपकृत होना और करना आज जैसे समाचार माधयमों की नियति बन गई है।
               'पेड न्यूज' की प्रकृति और इसे रोकने के उपायों पर अगर विचार किया जाय तो समझ में आता है कि इस मामले में सबसे बड़ी दोषी तो सरकार खुद ही है। समाचार माध्यमों को करोड़ों रुपयों का विज्ञापन तथा अन्य तमाम सरकारी सहूलियतें जब दी जाती हैं तो अप्रत्यक्ष रुप से यह दबाव तो रहता ही है कि अगर किसी भी तरह से दाता नाराज हो गया तो प्राप्त हो रही सुविधा व सहूलियत बंद हो जाएगी। सरकार जब विज्ञापन देती है तो अपेक्षा भी रखती है कि समाचार माध्यम सरकारी खबरों को भी महत्त्वपूर्ण ढ़ॅंग से प्रकाशित करेगा। चुनाव नजदीक आने पर यह लेन-देन जरा बड़े पैमाने पर होने लगता है। यही कारण है कि चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय को भेजे सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव में यह कहा है कि चुनाव होने से कम से कम छह माह पूर्व सत्तारुढ़ दल अपनी सरकार की उपलब्धियों के बखान वाले विज्ञापनों को जारी करना बंद कर दें।
                आज के दौर की राजनीति बेहद खर्चीली हो गयी है। साधारण जनाधार वाले किसी राजनीतिक दल को चलाना आज किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को चलाने जैसा हो गया है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अपने प्रभाव और जुगाड़ से अधिकाधिक धान इकठ्ठा करने में लगे रहते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने के बावजूद किसी भी दल में न तो आंतरिक लोकतंत्र है और न ही मॉग होने के बावजूद कोई दल इसे स्वीकार करने के पक्ष में है। यहाँ तक कि पार्टी के खातों की जॉच कराने को भी कोई दल तैयार नहीं। यही वह कारण है जो पेड न्यूज को बढ़ावा देता है। लगभग यही हालत समाचार माधयम चलाने वाली कम्पनियों की भी है। सूचना तकनीक पर संसद की स्थाई समिति ने बीती 6 मई को प्रस्तुत अपनी 47वीं रिपोर्ट में कहा है कि मीडिया घरानों के खातों की नियमित जॉच की जानी चाहिए ताकि यह पता चले कि उनके राजस्व के स्रोत क्या-क्या हैं। समिति ने पेड न्यूज पर व्यापक अधययन कर कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। इसके अलावा समिति ने मीडिया संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन, उनकी नौकरी की परिस्थितियाँ, कार्य करने की स्वतंत्रता तथा संस्था में सम्पादक के अधिकारों की भी समय-समय पर समीक्षा करने पर जोर दिया है। समिति का मानना है कि ठेका पर पत्रकारों को रखने और कम वेतन दिए जाने के कारण भी पेड न्यूज का प्रचलन बढ़ा है। समिति ने इसी क्रम में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात की तरफ इंगित किया है कि अखबारों की नियामक संस्था भारतीय प्रेस परिषद में बहुत से मालिक-सम्पादक और मालिक भी शामिल रहते हैं। इस स्थिति में पेड न्यूज पर अंकुश लगाना मुश्किल होगा। समिति ने एक वजनदार संस्तुति यह भी की है कि पेड न्यूज का मामला सही पाए जाने पर चुनाव आयोग को प्रत्याशी के विरुध्द कार्यवाही करने का अधिकार मिलना चाहिए। आज जो स्थितियॉ हैं उनमें समाचार पत्र को उत्पाद तथा समूह को कारपोरेट मान लेने वाले मीडिया घरानों से पेड न्यूज बंद करने की उम्मीद सरासर बेमानी होगी। इस पर बाहर से अंकुश लगाने की व्यवस्था करनी होगी। चाहे ऐसा भारतीय प्रेस परिषद करे, चुनाव आयोग करे या कोई अन्य संवैधानिक संस्था। ( 30 December 2013 Humsamvet)

ज्यादा गंभीर हैं महिलाओं की सुरक्षा के सवाल ---- सुनील अमर


र्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त जज, एक स्वनामधान्य पत्रकार तथा एक विश्वविद्यालय के विधि विभाग के चेयरमैन के उपर युवतियों से यौन उत्पीड़न अथवा बलात्कार के आरोप इन दिनों चर्चा में हैं। जॉच कमेटी ने उक्त जज को प्रथम दृष्टया दोषी पाया है, पत्रकार न्यायिक हिरासत में हैं और पुलिस उन्हें रिमांड पर लेकर उनकी मेडिकल जाँच व अन्य परीक्षण कर रही है तथा विधि विभाग के चेयरमैन को विश्वविद्यालय प्रशासन ने निलम्बित कर दिया है। बड़ा जज, बड़ा पत्रकार और बड़ा प्रोफेसर, ये समाज के आधार स्तम्भ माने जाते हैं और इन पर इस तरह के संगीन आरोप इशारा करते हैं कि समाज का कैसा विचलन हो रहा है। उक्त प्रकार के मामलों के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर औरतें सुरक्षित कहाँ हैं? जज के मामले में युवती 'लॉ इंटर्न' है, पत्रकार के मामले में युवती उसी संस्थान में पत्रकार है तथा प्रोफेसर के मामले में युवती एल.एल.एम. की छात्रा है। ये तीनों युवतियाँ कानून-कायदे को जानने वाली तथा खुदमुख्तार हैं, इसीलिए यौन उत्पीड़न के ये मामले प्रकट हो गए।
               किसी मामूली या शोहदे किस्म के व्यक्ति की अपेक्षा जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों द्वारा की गई बलात्कार या छेड़छाड़ की घटना कहीं ज्यादा चिंता पैदा करती है। ये ताजा घटनाऐं बताती हैं कि ऐसे अपराधा महज अनपढ़ या गलत सोहबत में रह रहे लोगों द्वारा ही नहीं किये जाते बल्कि खूब पढ़े-लिखे, मुल्क के कायदे-कानून को जानने-समझने वाले तथा ऐसे कृत्यों के परिणाम से वाकिफ लोगों द्वारा भी किये जा रहे हैं। उपर्युक्त मामलों से पता चलता है कि ऐसी घटनाओं को उजागर करने में जितना लड़की के माँ-बाप का हाथ होता है उतना ही लड़की के पढ़े-लिखे और जागरुक होने का। गत सप्ताह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के गुड़गाँव शहर में अपनी मॉ के साथ जा रही एक लड़की पर मोटरसायकिल सवार दो युवकों ने फब्तियाँ कसीं। माँ-बेटी ने तत्काल पुलिस थाने जाकर युवकों की शिनाख्त बताते हुए शिकायत दर्ज करायी और पुलिस ने तुरन्त ही उन दोनों को धार दबोचा। ऐसे मामलों में अदालती सक्रियता बढ़ने के बाद अब पुलिस भी टालमटोल के बजाय कार्यवाही करने लगी है। राष्ट्रीय अपराधा रिकार्ड ब्यूरो के ताजा ऑंकड़े बताते हैं कि जहाँ गत वर्ष जनवरी से अगस्त तक के आठ महीने में दिल्ली में बलात्कार के कुल 468 मामले दर्ज किए गए थे वहीं इस साल इस अवधि में 1121 मामले दर्ज किए गए हैं। यह लगभग तीन गुना की बढ़ोत्तरी इस बात का संकेत है कि अब ऐसे मामलों को छिपाने के बजाय लोग कानून के दायरे में लाने को तैयार हो रहे हैं।
              सवाल यह है कि स्त्रियों के प्रति ऐसे हिंसक व्यवहार की जड़ें कहाँ हैं। यौन शोषण के मामलों पर निगाह डालें तो यह एक आदिम प्रवृत्ति लगती है लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य का सामाजिक और मानसिक विकास होता गया, ज्ञान-विज्ञान के साधान उन्नत होते गए, वैसे-वैसे अपेक्षा यह हुई कि लैंगिक और नस्लीय भेदभाव को भूलकर लोग ज्यादा उदार और सह अस्तित्व वाला समाज बनाएंगें। लेकिन यौन अपराधों के मामले में आम आदमी से लेकर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति द्वय- जॉन केनेड़ी और बिल क्लिंटन तक सब एक जैसी मानसिकता के ही लगते हैं। इसी क्रम में एक और चिंतनीय खबर इलाहाबाद उच्च न्यायालय उत्तर प्रदेश की लखनऊ बेंच से आई है जहाँ प्रैक्टिस कर रही कई महिला अधिवक्ताओं ने न्यायालय में अपील की है कि बहुत से पुरुष वकील उनके साथ यौन दुव्यवहार करते हैं। महिला अधिवक्ताओं ने शिकायत की है कि कुछ पुरुष वकील न सिर्फ उनसे अश्लील और भद्दे मजाक करते हैं बल्कि कोर्टरुम में भी उनके बगल बैठकर उन्हें आपत्तिजनक ढ़ॅंग से छूते हैं। अपील में कहा गया है कि महिला वकीलों को ऐसे पुरुष वकील प्राय: अपने मोबाइल फोन पर अश्लील फिल्में या वीडियो क्लिप दिखाने की कोशिश करते हैं और महिलाऐं विरोधा करने की स्थिति में भी नहीं होतीं। अपील कहती है कि यह तो उच्च न्यायालय परिसर का हाल है। निचली अदालतों में तो महिला वकील और भी बुरी हालत में हैं। संतोषजनक है कि उच्च न्यायालय ने मामले में तत्काल कार्यवाही करते हुए शिकायतों की जाँच के लिए रजिस्ट्रार की अध्यक्षता में एक कमेटी भी गठित की है तथा एक अधिकारी नियुक्त किया है जो महिला वकीलों तथा कोर्ट परिसर में आने वाली महिलाओं की ऐसी शिकायतों को पंजीकृत करेगा।
              समाज में आए त्वरित बदलाव के कारण आज पहले से कहीं ज्यादा संख्या में महिलाऐं घरों से बाहर निकल रही हैं और इस वजह से कहीं पद और प्रभाव की आड़ में पुरुष उनका यौन शोषण करता है तो कहीं शारीरिक ताकत के बल पर। हमारे समाज की ये कैसी विडम्बना है कि बलात्कारी तो सरेआम घूमता है और उसे पहले जैसी सामाजिक स्वीकृति मिली रहती है जबकि बलात्कृत स्त्री को लोग न सिर्फ उपेक्षा की निगाह से देखते हैं बल्कि उसे ही उस अपराधा की जड़ भी मानते हैं। खाप पंचायतों के दृष्टिकोण को इसी प्रसंग में देखा जाता है जहाँ या तो बलात्कार की कीमत देने की बात की जाती है या फिर कई मामलों में तो स्त्री को अपने बलात्कारी से ही शादी करने को भी मजबूर किया जाता है! देखने में यही आ रहा है कि ऐसे मामलों में सभी पुरुष प्राय: एक जैसी अपराधी सोच के ही होते हैं। तहलका के पूर्व सम्पादक तरुण तेजपाल ने पहले तो कहा कि उनसे गलती हुई है और उन्होंने अपनी ही पत्रिका के सम्पादक पद से इस्तीफा भी दिया लेकिन बाद में उन्होंने वे सारे पैंतरे अपनाए जो कथावाचक आसाराम ने अपनाए थे। जो बार-बार हो, वह गलती कैसे हो सकती है? जैसे कि आरोप हैं- आसाराम ने कई बार यौन उत्पीड़न किया, तरुण तेजपाल ने भी पीड़ित लड़की का एकाधिक बार यौन शोषण किया, पूर्व न्यायाधीश ने भी कई लड़कियों के साथ दर्ुव्यवहार किया और उक्त प्रोफेसर ने भी। प्रोफेसर तो पहले भी एक अमेरिकी छात्रा से यौन दुव्यवहार में निलम्बित किए गए थे। यह इन सबकी गलती है या इनका चरित्र?
              हमारे समाज की संरचना और मान्यताऐं ऐसी हैं कि पुरुष जघन्य अपराध करके भी न सिर्फ अपने रुतबे पर कायम रहता है बल्कि कई मायने में उसकी हनक और बढ़ भी जाती है। अपने कुकर्मो में सफल न होने पर पुरुष प्राय: औरतों को डायन और चुड़ैल बताकर उनका जानलेवा उत्पीड़न करते हैं ताकि उनका मनोबल टूट जाय और वे समर्पण कर दें तथा अन्य औरतों को नसीहत मिल जाय कि पुरुषों का विरोधा करने पर उनका भी यही हाल होगा। समाज में पुरुष निर्णायक स्थानों पर काबिज हैं। स्त्री की मजबूरी है कि वह अपने स्थान पर बने रहने या आगे बढ़ने के लिए इन पर निर्भर होती है और इनमें से अधिकांश पुरुष उसकी इस स्थिति का नाजायज लाभ उठाते हैं। यह अराजकता कितनी घातक हो गई है कि महिलाऐं एकांत ही नहीं भीड़भाड़ वाली जगहों पर भी इसकी शिकार हो रही हैं। आखिर तभी तो न सिर्फ महिलाओं के लिए देश के कई शहरों में महिलाओं द्वारा चलाई जाने वाली टैक्सी शुरु की गई हैं बल्कि अभी तो गत माह महिलाओं के लिए अलग से बैंक भी शुरु कर दिया गया है! यह बचाव का रास्ता है, समस्या का निर्मूल करने का नहीं। समस्या तो दृष्टिकोण में ही है। उसे बदलने के कोई प्रयास किए ही नहीं जा रहे हैं, उल्टे स्त्री को खरीदने योग्य वस्तु के रुप में ही पेश करने की कोशिशें परवान चढ़ाई जा रही हैं। यह स्त्री समाज के साथ हो रहा सतत् धोखा है।  0 0