Saturday, June 25, 2011

सच सच बतलाना निगमानंद.. --- सुनील अमर





                                प्रिय निगमानंद,
स्वामी निगमानंद 
             पैंतीस साल की उम्र कुछ कम तो नहीं होती! खासकर उस मुल्क में जहाँ के बच्चे इन दिनों पैदा होने के बाद 35 महीने में ही जवान हो जाते हों, तुम बच्चे ही बने रहे? साधु के साधु ही रह गये तुम और उसी निगाह से इस मुल्क के निजाम को भी देखते रहे? क्या तुम्हें वास्तव में यह नहीं पता था कि अब बच्चे तोतली आवाज में ‘‘मैया, मैं तो चन्द्र खिलौना लैहौं’’ न गाकर ‘‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’’ और ‘‘मुन्नी बदनाम हुई’’ मार्का गाना गाने लगे हैं? इस तरक्कीशुदा देश में बच्चे तक इच्छाधारी होने लगे हैं निगमानंद लेकिन तुम......?
तुम तो पढ़े-लिखे भी थे निगमानंद फिर भी नहीं समझ पाये कि देश के मौजूदा हालात और निजाम सब अर्थमय हो गये हैं और इसी बीच तुम लगातार अनर्थ की बातें कर रहे थे? जिस देश में औलादें अपने बूढ़े माँ-बाप को भूलने लगी हों वहाँ तुम गंगा जैसी हजारों-हजार साल बूढ़ी नदी के स्वास्थ्य की बात कर रहे थे? तुम बालू-मिट्टी और पत्थर खोदकर अरबपति बन रहे लोगों के पेट पर लात मारने की बात कर रहे थे? क्या तुम नहीं जानते थे कि जिस देश का मुखिया अर्थशास्त्री हो, उसका वित्तमंत्री अर्थशास्त्री हो, उसका गृहमंत्री अर्थशास्त्री हो तथा उसके योजना आयोग का सर्वे-सर्वा भी प्रकांड अर्थशास्त्री हो, उस देश में अर्थ-चिन्तन, अर्थ-रक्षण और अर्थ-भक्षण के अलावा और होगा क्या, और उसमें जो भांजी मारने की कोशिश करेगा उसे आधी रात को पुलिस आकर रामलीला मैदान कर देगी चाहे वह कितना भी बड़ा योगी या मदारी क्यों न हो? क्या तुम टी.वी. और अखबार नहीं देख-पढ़ रहे थे? ओह! लेकिन कैसे देखते-पढ़ते तुम निगमानंद, तुम्हें तो न्याय की लड़ाई ने हफ्तों से कोमा में कर रखा था। इस देश में यह रिवाज बनता जा रहा है कि जो न्याय और इंसाफ की बात करता है, उसे हम लोग कोमा में ही देखना पसंद करते हैं। इरोम शर्मिला को तो तुमने देखा ही रहा होगा निगमानंद जिनके पेट में 10 साल से अन्न नहीं गया है ? तो क्या उन्हीं से प्रेरणा ली थी तुमने अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की?
अपनी स्कूली किताबों में तुमने जरुर कहीं पढ़ा रहा होगा कि नदियाँ हमारी माँ  हैं क्योंकि इन्होंने ही हमारी सभ्यताओं को जन्म दिया है। इन्हीं की गोद में पल-बढ़कर हम सभ्य बने और आज बिच्छू के बच्चों की तरह इस लायक हो गये हैं कि इन्हें ही मिटाने पर आमादा हैं। तुम इसी का तो विरोध कर रहे थे निगमानंद? तुम शायद इधर कर्नाटक नहीं गये थे नहीं तो देखते कि जमीन खोदकर खरबपति बनने वालों के अंग विशेष पर ही वहाँ की सरकार टिकी हुई है और ऐसी ही सरकारों से प्राणवायु ग्रहण करने वालों के राज्य में तुम ऐसे ही महारथियों के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे थे तो तुम्हें तो मरना ही था निगमानंद! भूख से या षडयंत्र से। लेकिन इतना अन्याय देखकर तो गंगा खुद ही इस देश को छोड़ देना चाहेंगी निगमानंद, तुमने नाहक ही अपनी जान दी!
सवाल तुम्हारी मौत का नहीं है निगमानंद। इस देश में तो तुम्हारे जैसे तमाम लोग भूख, प्यास, अन्याय, दुर्घटना और सरकार की साजिशों का शिकार होकर रोज मरते ही रहते हैं। सवाल तुम्हारे उस भोलेपन का है, सवाल तुम्हारी उस आत्म-मुग्धता का है जिसे यह भरोसा था कि जब इस महान लोकतांत्रिक देश का एक नागरिक, एक बिल्कुल जायज और देश हित के मुद्दे को लेकर अपनी मांग न मानी जाने पर जान देने का ऐलान करेगा तो सत्ता की चूलें हिल जायेंगीं! इसी भोलेपन ने इस देश में तुमसे भी पहले तीन जानें ली हैं निगमानंद, इसे जानते हुए भी तुम इतने आत्म मुग्ध और विश्वास से भरे हुए क्यों थे? क्या तुमने चंद दिन पहले ही नहीं देखा था कि सारी दुनिया में क्रांति ला देने का दावा करने वाले स्वयंभू योगी, पुलिस को देखकर औरतों के बीच में जा छिपते हैं? लेकिन तुम कैसे देखते निगमानंद, तुम तो कोमा में थे। और यह अच्छा ही था कि तुम यह सब देखने के लिए होश में नहीं थे, नहीं तो भ्रम टूटने की कई और तकलीफें लेकर ही तुम मरते।
  तुम तो जानते ही थे कि इस देश में उत्पीड़न से आजिज लोग पुलिस कप्तान के दफ्तर में पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह कर लेते हैं फिर भी कुछ नहीं होता, जिला मैजिस्ट्रेट की अदालत के सामने परिवार सहित आग लगा लेते हैं लेकिन ऊॅंचा सुनने और चमकदार देखने की अभ्यस्त हमारी यह अंधी-बहरी व्यवस्था उन्हें तब भी नहीं सुनती। निगमानंद, अपनी जान से बढ़कर किसी भी आदमी के पास क्या होता है देने के लिए? और अगर तब भी उसकी न सुनी जाय तो वह ऐसे आँख बंद कर पगुराते जानवर को ठोंक-पीटकर सही करने पर आमादा न हो जाय तो और क्या करे? और तब यह सत्ता पुरुष धीरे से आधी आँख खोलकर कहता है कि यह तो नक्सली है और यह तो राष्ट्रद्रोही है!
अरसा हुआ जब हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र में बदल गया। शायद तुम कभी जेल नहीं गये थे निगमानंद नहीं तो जरुर जानते कि कैदी जिंदा रहें या मुर्दा, गिनती में पूरे होने ही चाहिए! कमाल देखिए कि जेल का यही अलिखित नियम हमारे लोकतंत्र में लिखित रुप में मौजूद है! यहाँ भी मॅूड़ी ही गिनी जाती है। जिसके साथ जितनी ज्यादा मॅूड़ी, उसे देश को चर-खा लेने का उतना ही ज्यादा अधिकार! तो तुम्हारे साथ कितनी मुंडियां थीं निगमानंद ? क्या कहा, एक भी नहीं? हा-हा ! फिर तुमने कैसे हिम्मत कर ली थी सरकार से अपनी बातें मनवाने की दोस्त? क्या तुम्हें टीम अन्ना का भी हश्र नहीं पता था? लेकिन कैसे पता होता तुम्हें निगमानंद, तुम तो कोमा में थे!
सच बताना निगमानंद, तुम भूख-प्यास से कोमा में  चले गये थे या अपने विश्वासों के टूटने की वजह से? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि विश्वास का टूटना आदमी को भीतर से तोड़ देता है। निगमानंद और इरोम शर्मिला जैसों को अगर भूख-प्यास सताती तो वे भी इस भीड़तंत्र में खूब चरते-खाते और यकीन मानिये, हुक्मरान उन्हें लाखों-करोड़ों देकर सम्मानित करते और सर-आँखों पर बैठाते! लेकिन जिसकी भूख अपने चारों तरफ के लोगों का पेट भरा देखने से मिटती हो, जिसकी प्यास दुधमुंहों को दूध पीते देखकर मिटती हो और यह सब न होने पर जो आततायी व्यवस्था से लड़ने को उद्यत हो जाते हों, उन्हें देर-सबेर तुम्हारी तरह कोमा में ही जाना पड़ता है दोस्त!
सादगी, ईमानदारी, सच्चाई और विनम्रता यह सब आजकल कोमा की ही अवस्थाऐं हैं दोस्त निगमानंद! इनका अंत कैसे होता है, तुम्हें देखने के बाद अब इस पर सोचने की जरुरत क्या? बस, इतना जरुर बताना निगमानंद कि हमारे मौजूदा निजाम का कोमा कैसे टूटेगा? ( दैनिक जनसन्देश  टाईम्स में २५ जून २०११ को सम्पादकीय पृष्ठ ८ पर प्रकाशित www.jansandeshtimes.com )




Friday, June 17, 2011

इस रंग बदलती दुनिया में….स्वामी रामदेव ! ---- सुनील अमर


बाबा रामदेव : एक अदा यह भी !
सयाने कह गये हैं- इस दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं, सब कच्चा है। सिर्फ वही ‘एक’ सच्चा है। फिर भी लोग नहीं मानते। बहुत से साधु-संत भी नहीं मानते, हमेशा आजमाने की कोशिश में लगे रहते हैं। किसी ने कह दिया कि आग में हाथ ड़ालने से जल जाता है तो क्या जरुरी है कि हाथ ड़ालकर देख ही लिया जाय? लेकिन बहुत से लोगों का दिल है कि मानता ही नहीं।
ज्ञानी लोग बताते हैं कि भगवा एक ऐसा रंग है जिसके बाद इस असार-संसार में फिर किसी और रंग की जरुरत ही नहीं रह जाती। भगवा, ज्वाला का प्रतीक है। उसको धारण करने का मतलब ही है कि आपने सांसारिक कमजोरियों, लिप्साओं और वासनाओं को संयम की आग में जलाकर नष्ट कर दिया है और जो कोई भी संसारी व्यक्ति आपके सानिध्य में रहेगा, आपसे दीक्षित होगा, उसका भी व्यामोह नष्ट हो जाएगा। पर, देखने में आता है कि प्राय: ऐसा होता नहीं। यह देव दुलर्भ है। मतलब देवता भी इससे विचलित होते रहे हैं। नारद-वारद को तो प्राय: ही ऐसी विचलन होती रहती थी। तो इसमें बाबा रामदेव का क्या दोष?
उपर जिन सयाने लोगों ने यह बताया है कि कुछ भी स्थायी नहीं, साजिशन उन्होंने यह नहीं बताया कि कम से कम कितनी देर तक यह टिकाऊ रहेगा, वरना बाबा धोखा न खाते। अब महाजनों की कही कोई बात 48 घंटा भी न टिके तो धोखा खाने के अलावा और हो ही क्या सकता है? देखने वाले दंग रह गये कि इस दौरान कितनी तेजी से रंग बदले! जिस बाबा का हवाई अड्डे पर रेड कार्पेट मार्का वेलकम किया गया, 5 स्टार होटल में आवभगत की गई उसी बाबा को 24 घंटे भी न बीतने पाये कि उन्हीं लोगों द्वारा यह सलूक! बाबा ने अपनी आदत के अनुसार सरकार से एडवांस में कोई गोपनीय सौदा कर ही लिया था तो काँग्रेस की पल्टी देखिए कि अखबारवालों के सामने उस चिठ्ठी को ही आऊट कर दिया!
बाबा भी कम नहीं। तप करने के लिए पुलिस से मोहलत ली थी लेकिन वहॉ जाने क्या-क्या करने लगे। कॉग्रेस अलग हैरान! उसकी किस्मत आजकल ऐसी ही चल रही है। अन्ना की काट के लिए जिसे मोहरा बनाती है वो रामदेव बन जाता है और जिसे लाट साहबी करने के लिए भेजती है, वो कामदेव बन जाता है! कॉग्रेस कब तक लाल-पीला स्वागत करती फोकट में। उसने बाबा से काबू में रहने को कहा तो बाबा के चेले कहने लगे कि बाबा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। चेले क्या जाने बाबा की लीला कि बाबा की 8 फुट की म्यान महज दिखावे की है, तलवार तो उसमें दो फुट की भी नहीं है। खेल-खेल में शुरु हुआ कार्यक्रम कॉग्रेस को अपने गले में सॉप जैसा लिपटा दिखने लगा। बाबा के पल-पल रंग बदलने से आहत कॉग्रेस ने आखिर वही किया जो कोई भी दिग्भ्रमित कर सकता है। गले में पड़े रामदेव नामक सॉप को मॅूड़ी से पकड़ा और ले जाकर भाजपा के गले में डाल आई कि लो अब संभालो इसे।
जो लीला न करे वो भगवान कैसा? हमारे धर्मग्रंथों में भगवानों के जो मानक लिखे हैं, उसके अनुसार उनका लीला करना अपरिहार्य होता है। भगवान राम ने जनकपुर में लीला न की होती तो परशुराम उन पर फरसा ही चला बैठते। उनकी लीला देखकर वे संतुष्ट हो गये थे। भगवान आशाराम तो बाकायदा कृष्ण की वेशभूषा में स्त्रियों के साथ रासलीला रचाते है! उसी प्रकार भगवान रामदेव भी कुछ लीला करना चाह रहे थे। कभी किसी के कंधे पर चढ़ रहे थे, तो कभी महिलाओं के बीच में घुसे जा रहे थे। बेचारे ब्रह्मचारी आदमी! ख्याल आ गया होगा कि स्त्री न सही तो स्त्री का वस्त्र ही सही, सो किसी स्त्री का वस्त्र पहन लिया। हालॉकि पुलिस यह नहीं बताती कि वे महिलाओं का अधोवस्त्र भी पहने थे कि नहीं। पुलिस कभी भी पूरी बात नहीं बताती।
फिर पुलिस ही कब तक रंग न बदलती। वह तो स्वभाव से ही रंग में भंग करने को आतुर रहती है। थोड़ी देर पहले तक जो पुलिस जरखरीद गुलाम जैसी बनी हुई थी वह अचानक तांडव करने लगी। मुझे शक़ होता है कि पुलिसियों को इतनी ताकत कहीं योग से तो नहीं मिल गई? बहरहाल, पुलिस ने बाबा को बताया कि तप का मतलब यह नहीं होता कि तुम लिंग परिवर्तन करने लगो और अगर लिंग परिवर्तन की तुम्हारी इतनी ही इच्छा है तो चलो तुम्हें पहाड़ों में छोड़ दें। वहीं जो करना हो करो।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिध्द कहानी ‘कफन’ के अंत में घीसू और माधव के बारे में लिखा है कि ‘ वे गाये और नाचे भी, ठुमके भी लगाये और भाव भी बताये। बाद में नशे की अधिकता के कारण सुध-बुध खोकर गिर पड़े।’ यही सब बाबा ने भी किया और गिर पड़े! वे पहले बाबा बने, फिर योगी बनकर योग सिखाने लगे। योग में भी उनकी रुचि नाखून रगड़कर सफेद बाल को काला करने और उँगलियों के कई दबाव बिंदु की मार्फत सेक्स जगाने जैसी समस्याओं में ज्यादा रही। बाबा ने इस बात का खासा प्रचार किया कि फलॉ उंगली में सेक्स जागृत करने का दबाव बिंदु होता है और इसीलिए शादी के एंगेजमेंट के समय उसी उँगली में ऍगूठी पहनी जाती है! (हमारे कई सुधी पाठकों को याद होगा, एक समय में स्वयंभू भगवान आचार्य रजनीश उर्फ ओशो भी ऐसा ही कुछ कहते थे। एक बार एक विदेशी पत्रकार ने उनसे पूछा कि भगवान्, ये महिलाऐं हाथ में चूड़ियां क्यों पहनती हैं, तो भगवान ने उत्तर दिया था – दीज आर बेंगल्स। दीज प्रोडयूस द साउन्ड ऑफ सेक्स। मतलब ये चूड़ियाँ हैं और ये सेक्सी ध्वनि पैदा करती हैं!) बाद में बाबा कारोबारी, व्यापारी और उद्योगपति भी बन गये। ये सब हुआ तो राजनीति में भी हाथ आजमाने की सोचने लगे। यहॉ तक तो गनीमत थी लेकिन बाबा को अचानक सत्ता की दलाली करने का भी शौक चढ़ा और रामदेव जैसे लोग शायद समझते हैं कि सत्ता किसी भैंसे की तरह है और अगर उसकी पूंछ पकड़ में आ गई तो मरोड़ कर भैंसे का काबू में कर ही लेंगें। वे काँग्रेस की पूंछ पकड़े तो, उसे मरोड़े भी लेकिन कॉग्रेस ने एक झटका देकर अपनी पूंछ छुड़ा ली। अब पूंछ छुटाया भैंसा कितना खतरनाक हो जाता है इसे तो कोई बाबा रामदेव से जाकर पूछे।
पॉच जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर आधी रात को सिर्फ रामदेव की धोती ही नहीं खुली उनके तमाम राज फाश हो गए! वे कितने बडे योगी हैं, वे कितना तप कर लेते हैं और वे जनता के लिए कितना संघर्ष कर सकते हैं, पुलिस को देखकर कितना ज्यादा डर सकते हैं, ये सब देश-दुनिया ने देखा। अब इधर बाबा के बारे में जो चंद लोग कटो-मरो की बातें कर उनकी रक्षा में लगे हैं, वे सब असल में उनके कारोबारी लोग हैं।
.बाबा रामदेव के उक्त प्रयत्नों से और चाहे कुछ हुआ या न हुआ हो, लेकिन कई नये तथ्य जरुर स्थापित हो गये। जैसे कि 1. भगवान से भी बड़ी सरकार होती है। 2. योग और तप से भी बड़ी देसी पुलिस होती है। 3. जिस नारी की छाईं पड़ने से भुजंग अन्धा हो जाता है, उसकी छाईं से हमारी पुलिस का रोवाँ भी नहीं टेढ़ा होता और वह ऐसी सैकड़ों छाइयों के बीच घुसकर अपना शिकार पकड़ सकती है, और 4 वक्त अगर बुरा हो तो अंजाम बुरा ही होगा क्योंकि कहा भी गया है कि – मनुज बली नहि होत है, समय होत बलवान, भीलन लूटी गोपिका, वहि अर्जुन, वहि बान!
इस रंग बदलती दुनिया में बेचारे बाबा रामदेव! क्या जानें कि यहाँ इन्सानों की नीयत ठीक नहीं। बाबा, निकला न करो तुम…………। ( प्रवक्ता डाट काम में १७ जून २०११ को प्रकाशित)



हे सफल सरकार ! गरीबी का भी कुछ उपाय कर --- सुनील अमर



''...सरकार कैलोरी खाने की मात्रा को गरीबी/अमीरी का आधार मान रही है। क्या सरकार यह नहीं जानती कि जिसके घर नहीं है वो गरीब है, जो दो वक्त भोजन न कर सके वो गरीब है, जो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा न सके वो गरीब है और जो बीमारी में इलाज न करा सके वो गरीब है? क्या इन जरुरतों को गरीबी निर्धारण का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए? जो आदमी 20 रुपये से अधिक रोज कमा ही नहीं पा रहा है आप उसकी कैलोरी नापकर उसके गरीब या अमीर होने का फतवा दे रहे हैं और दावा करते हैं कि आप जनकल्याणकारी राज्य और लोकप्रिय सरकार हैं?......'' ( जन सन्देश टाईम्स 18 जून 2011 के सम्पादकीय पृष्ठ 8 पर प्रकाशित )

Wednesday, June 15, 2011

लोकपाल व भ्रष्टाचार पर आन्दोलन का दूसरा पहलू ---- सुनील अमर


देश इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहा है। पिछले दिनों अरब देशों में हुई जन क्रांति का असर निष्चित ही यहॉ तक आया है। नागरिकों और समाजसेवियों में ऐसी चेतना का आना लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ लक्षण माना जाता है। ऐसी चेतनाऐं ही परिवर्तन की वाहक होती हैं। इस तरह के परिवर्तनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका उन लोगों व संगठनों की होती है जो इसके प्रायोजक या अगुवा होते हैं। इस प्रकार दो बातें साफ हो जानी चाहिए कि जो लोग ऐसे आन्दोलनों में लगते हैं,उनका वास्तविक सरोकार समाज के किस वर्ग से है तथा वे स्वयं किस पृष्ठभूमि से आते हैं।

               सर्वप्रथम जन लोकपाल आन्दोलन। 'इंडिया अगेन्स्ट करप्शन' नामक संस्था के बैनर तले श्री अन्ना हजारे और उनके साथियों ने पिछले महीने राजधानी के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन कर आन्दोलन किया। उनकी मॉग है कि एक ऐसे सशक्त लोकपाल की स्थापना हो जिसके अधीन प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और क्लर्क-बाबू तक आ सकें ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। गाँधीवादी विचारधारा से ओत-प्रोत अन्ना के कार्य-व्यवहार और उद्देश्यों पर कोई शक नहीं। उनकी टीम में जो और सदस्य हैं,कमोवेश उनके बारे में भी सब जानते ही हैं। अब प्रश्न यह है कि अन्ना की माँग के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति अगर हो भी जाय तो क्या वह किसी और ग्रह का प्राणी होगा और उसमें काम-क्रोध-मद और लोभ व्याप्त नहीं होगा?क्या वह अपने निष्कर्षों और निर्देशों के क्रियान्वयन हेतु अलग से अपना कोई निर्दोष तंत्र बनायेगा या इसी कथित भ्रष्ट और पतित कार्यपालिका पर निर्भर करेगा? और अगर इसी पर निर्भर रहना होगा तो उन उद्देश्यों की पूर्ति कैसे होगी जिसके लिए यह आन्दोलन किया जा रहा है? क्या अभी हमने सी.वी.सी. पर हुए नाटकीय घटनाक्रमों को देखा नहीं?
               प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को भी इसकी जद में लाने की मॉग की जा रही है। यह इस महादेश के लोकतंत्र का सौभाग्य है कि इसे आज तक जितने भी प्रधानमंत्री मिले हैं ( उनमें से सिर्फ एक स्व. राव को छोड़कर ) वे चाहे जिस दल, विचारधारा और गठबंधन के रहे हों, उनकी नीयत और चरित्र पर कोई संदेह नहीं कर सका है। ऐसे में शासन के इस सर्वोच्च पद पर बैठने वाले व्यक्ति के सिर पर अनायास ही एक नंगी तलवार लटकाना आवश्यक नहीं लगता और अगर आवश्यकता होगी ही तो रास्ते तो बंद हो नहीं जा रहे हैं।
               जहाँ तक न्यायपालिका की बात है, इधर के वर्षों में उस पर सबूत सहित उगलियॉ उठनी शुरु हो गयीं हैं। पहले भी कदाचार के आरोप न्यायाधीशों पर लगते रहे हैं। वे कटघरे में भी आये लेकिन उन्हें बचाने का काम भी हमारे राजनेताओं ने ही किया। फिर भी एक बात को समझ लेना जरुरी है- नौकरशाही और न्यायाधीशों के क्रियाकलापों में एक बुनियादी अंतर कार्य की प्रकृति का होता है। यह सही है कि सब नौकर ही हैं,लेकिन न्याय करने को हम महज आठ घंटे की नौकरी नहीं मान सकते। फिर, नौकर का आदर्श उसका मालिक होता है। हमें सोचना चाहिए कि यही प्रवृत्ति अगर न्यायाधीशों में आ जाय तो क्या नतीजे निकल सकते हैं? क्या एक नौकर न्यायाधीश से तटस्थ न्याय की उम्मीद की जा सकती है ? हमारे संविधानकारों ने जब नौकर के रुप में सेवा में लिए जाने के बावजूद न्यायाधीशों को अतुलनीय अधिकारों से लैस किया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि नौकरी के नियम-कानून से बँधा होने के बाद भी वे मानसिक रुप से नौकर न बन जॉय ताकि वे किसी भी प्रकार के भय, प्रलोभन या दबाव में आये बगैर कभी भी और कहीं भी न्यायिक प्रक्रिया को अंजाम दे सकें। इन सारी बातों के प्रमाण भी हम समय-समय पर देखते ही आ रहे हैं। न्यायिक प्रणाली के बंधुआ बन जाने के खतरों को हम पड़ोसी पाकिस्तान और तानाशाही व्यवस्था वाले देशों में देख ही रहे हैं। इस प्रकार न्यायपालिका को किसी दबाव बिन्दु के तहत लाना उचित नहीं होगा। अभी जिन व्याधियों की चिंता हमें न्यायपालिका की फिसलन से हो रही है,हो सकता है कि उक्त दबाव बिन्दु उससे भी बड़ी चिंता साबित हों !
               भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भारतीय स्वाभिमान पार्टी के संस्थापक स्वामी रामदेव ने अभी बीते दिनों अपने निराले अंदाज में राजधानी में अनशन या तप या योग शिविर,जो कुछ भी हो, किया। इसकी मीमांसा करने के बजाय यह जानना जरुरी है कि क्या किसी भी मुद्दे को कोई भी व्यक्ति या संगठन उठाकर जो मर्जी चाहे कर सकता है? क्या डाकु को यह अधिकार होना चाहिए कि वे अपने डाकू-गिरोहों को इकट्ठा कर डाका डालने के अपने हक के लिए आन्दोलनरत हो जॉय? भ्रष्टाचार पर आंदोलन करने वाले व्यक्ति का स्वयं भ्रष्टाचार मुक्त होना क्या पहली शर्त नहीं होनी चाहिए? जो आदमी देश-विदेश में उद्योग-धंधे चलाता हो, जो स्वयं अपने मुह से सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुका हो कि उसके कामों के लिए उससे घूस मॉगा जाता है,जिसने अ-पारदर्शी तौर-तरीकों से सरकारी जमीनें हथियाई हों और जो आदमी परम्परा से ही नि:शुल्क उपलब्ध योग जैसी देशी विधा को लाखों रुपये का टिकट लगाकर सिखाता हो, जिसके कारखानों के हजारों गरीब मजदूर अपनी वाज़िब मजदूरी पाने के लिए संघर्षरत हों और उनकी पुलिस द्वारा पिटाई होती हो, क्या उसे भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ होना चाहिए? और अगर वह ऐसी कोई कोशिश करता भी है तो उसे क्यों न व्यक्तिगत हित के लिए किया जा रहा उसका खेल माना जाय?
               देश की तीन चौथाई जनता विकट गरीबी में गुजर-बसर कर रही है और प्राय: ही उसे भूखे पेट सो जाना पड़ता है,यह तथ्य सरकारी रिपोर्टों से स्थापित है। श्री अन्ना हजारे का जन लोकपाल बन जाय और स्वामी रामदेव का भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनकर विदेशों में कथित रुप से जमा अकूत काला धन वापस ले आये, क्या इन दोनों प्रयासों से इस तीन चौथाई जनता को भी कुछ हासिल हो सकता है ? इन दोनों आन्दोलन करने वालों ने क्या इस जनता को भी अपनी सोच में कभी रखा है? यदि हॉ, तो कृपया उसका सबूत दें और यदि नहीं तो क्या यह सारा अभियान सिर्फ खाये-अघाये और मुटियाये मात्र 25 प्रतिशत लोगों के लिए है? स्वामी रामदेव किसको झाँसा देना चाहते हैं? देश का वह कौन सा पैसेवाला है जिसका पैसा विदेशों में जमा नहीं है? ऐसे में कौन कानून बनायेगा, कौन क्रियान्वयन करेगा और क्यों? स्वामीजी के साथ जो लोग इस आंदोलन में आगे-पीछे साफ-साफ लगे हैं, क्या उससे स्वामी की वास्तविक मंशा साफ नहीं हो जाती ? जन लोकपाल एक तलवार का नाम है और भ्रष्टाचार पर नये कानून की मॉग एक राजनीतिक ड्रामा। इसमें गरीब लोग कहॉ हैं और उनका उध्दार कैसे होगा, इसे कौन से अन्ना और कौन से रामदेव से पूछा जाय? अफसोस है कि इस तीन-चौथाई जनता को कोई नाखुदा नहीं मिल पा रहा है। कोई निकलने की कोशिश भी करता है तो उसे सत्ता और व्यवस्था के मठाधीश समय रहते ही बॉट लेते हैं। ऐसी ही चालाकियाँ, असंतोष की जमीन तैयार कर उसमें क्रांति के बीज बीती हैं। यह ठीक ही हुआ कि बाबा के कन्धो पर रखकर अपनी बन्दूक चला रहे लोग अब बाबा को अपने कन्धे पर बैठा कर सामने आ गये हैं। ( हम समवेत न्यूज फीचर एजेंसी में १३ जून २०११ को प्रकाशित )

Wednesday, June 08, 2011

आखिर क्यों नहीं कम हो रही है गरीबी ---- सुनील अमर


















































देश में इन दिनों ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और विशेषज्ञ बताते हैं कि अब तक की सबसे सफल पंचवर्षीय योजना इसे कहा जा सकता है। इस योजना में विकास दर पहले और दूसरे वर्ष यानी 2007 और 2008 में तो दहाई के अंक को छूने के कगार तक पहुँच गई थी। देश में विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है और खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार तो मानक के दो गुना से भी ज्यादा है। घरेलू स्तर पर यद्यपि मंहगाई बढ़ रही है लेकिन अर्थशास्त्र का एक नियम कहता है कि किसी भी देश में मंहगाई का स्तर उसकी आर्थिक समृद्वि का सूचक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान बता रहे हैं कि भारत में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा में तीन तथा महिलाओं में पांच वर्षों की वृद्धि हुई है। जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि साक्षारता बढ़ी है तथा जनसंख्या वृद्धि पर कुछ हद तक काबू पाया गया है। पिछले कुछ वर्षों में लगातार वैश्विक संक्रामक रोगों के भारत में फैलने की खबरें आती रही थीं लेकिन इधर उन पर भी पूरी तरह नियंत्रण है। मुम्बई हमले के बाद से कोई बड़ी आतंकी घटना देश में नहीं हुई है और आश्चर्यजनक रुप से जम्मू-कश्मीर शांत है। राज्यों के चुनाव लोकतांत्रिक दक्षता के साथ हो रहे हैं। बांग्लादेश बनने के बाद से हम जो एक हिंसक और शिकारी खुशी से पूरी तरह वंचित हो गये थे उसकी पूर्ति भी अमेरिका ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मारकर (?) कर दी है। इस प्रकार विश्वकप के सेमी फाइनल और ओसामा कांड के कारण हमने पड़ोसी-पतन और उसकी थुक्का-फजीहत से होने वाले दुगने सुख को भी हासिल किया है। निश्चित ही ये सब उपलब्धियां हैं और किसी भी सरकार को अपनी इन उपलब्धियों पर गर्व करने का हक़ होना ही चाहिए। सो संप्रग-2 को भी इतराने का पूरा हक़ है ही।
तो फिर गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है? वह कौन सा व्यवधान है जो इसके आड़े आ रहा है? जब देश-दुनिया के तमाम क्षेत्रों में हम कदम-दर-कदम बढ़ते चले जा रहे हैं तो एक दर्जन से अधिक गरीबी उन्मूलन योजनाओं के बावजूद देश में गरीबी बढ़ती ही क्यों चली जा रही है? सरकार की अपनी ही कमेटियां बता रही हैं कि इस सबसे सफल पंचवर्षीय योजना के दौरान भी गरीबी बढ़ी ही है, घटी नहीं। कई सरकारी कमेटियों ने कई तरह के पैमानों से नाप-जोख की लेकिन नतीजा यही निकला कि गरीब और बढ़ते ही जा रहे हैं! दुनिया के एक दर्जन देशों की टोटल आबादी से भी अधिक लोग हमारे देश में रोज भूखे पेट सोते हैं और सरकार उनकी गरीबी नापने का पैमाना कैलोरी को बनाये हुए है कि गरीब लोग कुल कितनी कैलोरी रोज खा रहे हैं? क्या यह कुछ ‘रोम और नीरो’ तथा ‘ब्रेड नहीं है तो केक खाओ’ जैसा मजाक नहीं है? सरकारी कमेटियां अभी गरीबी की परिभाषा ही नहीं तय कर पा रही हैं! राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में 60.50 प्रतिशत गरीब लोग हैं तो ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एन.सी. सक्सेना समिति की रपट गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत बताती है। चर्चित अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता समिति इसे 77 प्रतिशत तो राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर समिति का निष्कर्ष है कि गरीब कुल 37.2 प्रतिशत ही हैं। इसमें सबसे अद्भुत काम योजना आयोग ने किया और सभी राज्यों को कहा कि वे गरीबों की संख्या को 36 प्रतिशत मानकर ही योजनाओं का क्रियान्वयन करें!
इन आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार की रुचि गरीबी को मिटाने में है या तकनीकी तौर पर उसे कम दिखाने में। जिस योजना आयोग का काम ही समस्या हल करने के लिए उपयुक्त योजनाऐं बनाने का हो, वह अगर आंकड़ेबाजी करके गरीबों की संख्या आधी से भी कम कर देने पर आमादा हो तो यह अनुमान कोई भी सहज ही लगा सकता है कि समस्या का क्या हश्र होने वाला है! बीते मार्च महीने में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सारे सर्वेक्षणों को दरकिनार करते हुए योजना आयोग यह कैसे कह सकता है कि सभी राज्य गरीबों की एक निश्चित संख्या को मानकर कार्य करें? अदालत ने प्रश्न किया कि क्या युवाओं और वृद्धों की कोई अधिकतम संख्या निश्चित की जा सकती है?
सन् 1971 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद स्व. इन्दिरा गाँधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उस वक्त यह नारा बहुत चर्चित हुआ था। उस समय से लेकर आज तक गरीबी हटाने की जितनी भी योजनाऐं बनीं, वास्तव में वे सिर्फ गरीबों को किसी तरह जिन्दा रखने के लिए ही थीं। केन्द्र मे वर्ष 2004 में संप्रग की सरकार बनने के बाद प्रख्यात अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों आदि पर रिपोर्ट देनी थी। डा. सेनगुप्ता ने गरीबी आंकलन का सबसे आसान, उपयुक्त और व्यावहारिक तरीका यानी औसत दैनिक आमदनी की गणना को अपनाते हुए नतीजे निकाले और सरकार को बताया कि देश में कुल 83 करोड़ 60 लाख लोग ऐसे हैं जिनकी औसत दैनिक आमदनी रु. नौ से लेकर 20 तक ही है। अब यह आंकड़ा खुद योजना आयोग को ही नहीं सूट कर रहा है! वह जबरन कह रहा है कि देश में गरीबों की संख्या सिर्फ 36 प्रतिशत ही मानी जाय, जबकि वह जानता है कि सरकार जेल में बंद एक कैदी के भोजन पर प्रतिदिन 100 रुपये से अधिक खर्च करती है, तो क्या जेल के बाहर रहने वाला एक व्यक्ति इससे कम में गुजर कर सकता है?
यह हम पिछले 65 वर्षों से देख रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा सस्ता या लगभग मुफ्त चावल-गेंहूँ बाँट देने से गरीबी नहीं मिट सकती, वृद्धावस्था-विधवा पेंशन से हालत सुधरने वाली नहीं है, मनरेगा के तहत वर्ष में 100 दिन मिलने वाले काम का लालच 265 दिनों के लिए एक दूसरी तरह की बेरोजगारी पैदा कर रहा है और सामाजिक सुरक्षा की जितनी भी योजनाऐं गरीबों के लिए बनी हैं वे जरुरतमंदों के दरवाजे तक पहुँच नहीं रहीं हैं। सरकार कैलोरी खाने की मात्रा को गरीबी/अमीरी का आधार मान रही है। क्या सरकार यह नहीं जानती कि जिसके घर नहीं है वो गरीब है, जो दो वक्त भोजन न कर सके वो गरीब है, जो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा न सके वो गरीब है और जो बीमारी में इलाज न करा सके वो गरीब है? क्या इन जरुरतों को गरीबी निर्धारण का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए? जो आदमी 20 रुपये से अधिक रोज कमा ही नहीं पा रहा है आप उसकी कैलोरी नापकर उसके गरीब या अमीर होने का फतवा दे रहे हैं और दावा करते हैं कि आप जनकल्याणकारी राज्य और लोकप्रिय सरकार हैं?

गरीबी तब तक नहीं मिट सकती (और मिटी हुई मानी भी नहीं जानी चाहिए) जब तक कि 83 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आमदनी इस लायक न कर दी जाय कि वे अपने बूते रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरुरतें पूरी कर सकें। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुशल-अकुशल बेरोजगारों को वर्ष भर के लिए रोजगार की गारंटी, चाहे वह मनरेगा के ही तहत क्यों न हो जरुरी है। अगर सरकारी नौकरियाँ सृजित नहीं की जा सकतीं तो मानव श्रम के अवसर तो बेइंतहा मौजूद हैं, उनका इस्तेमाल क्यों नहीं?
  ( हरियाणा, छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश व् दिल्ली से प्रकाशित होने वाले  दैनिक हरिभूमि  में ०७ जून २०११ को प्रकाशित)
Haribhoomi

Tuesday, June 07, 2011

मुद्दा नहीं, एक अदद चेहरे की तलाश में उ.प्र. भाजपा --- सुनील अमर


 देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने अब अपना सारा ध्यान उ.प्र. में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव पर केन्द्रित कर लिया है। वैसे तो अगले वर्ष चार अन्य राज्यों पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी चुनाव होने हैं लेकिन सभी जानते हैं कि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश कुछ अलग ही मायने रखता है। यही वह प्रदेश है जहॉ से अब तक भाजपा की दशा व दिशा तय होती रही है और यही वह प्रदेश है जिसके सर्वाधिक प्रभावशाली नेता भाजपा के शीर्ष मंडल में हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वर्ष 1989-90के दौरान भाजपा ने अपने राजनीतिक अश्वमेघ की जो शुरुआत की थी, उसका घोड़ा भी अयोध्या से ही छोड़ा गया था।
               इसी उ.प्र. में एक बार फिर अपनी जड़ों को जमाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी है और यह लेख छपने तक वह आगामी चुनावों के मद्दे-नजर लखनऊ में अपनी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक कर चुकी होगी। प्रदेश स्तर से लेकर केन्द्र के वरिष्ठतम् नेताओं तक जिस तरह आपसी तू-तू, मैं-मैं और आरोप-प्रत्यारोप का बे-रोकटोक दौर चल रहा है और जिस तरह अभी दो सप्ताह पूर्व सम्पन्न पॉच राज्यों के आम चुनाव में पार्टी 824 सीटों में से मात्र पॉच सीटें ही जीत सकी है,इन सबको देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक का किसी फैसलाकुन नतीजे पर पहुच पाना काफी कठिन काम होगा। उ.प्र.में भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक इससे पूर्व वर्ष 2006में हुई थी जब इसी तरह साल भर बाद वहॉ विधानसभा के चुनाव होने थे। उस चुनाव में भाजपा की सीटें घटकर आधी हो गयी थीं।
                भाजपा की उ.प्र. इकाई में अन्य राज्यों से हटकर कई विशिष्ट प्रकार की समस्याऐं हैं, जो इसकी झुकी हुई कमर को सीधा होने देने के बजाय और झुका डाल रही हैं। इस इकाई की सबसे बड़ी समस्या यहाँ कद्दावर नेताओं की बहुतायत है। होना तो यह चाहिए था कि ऐसी हालत में उ.प्र इकाई काफी दमदार और चुस्त-दुरुस्त होती लेकिन जातिवाद और वरिष्ठता के अहं के चलते नेताओं के आपसी टकराव ने यहॉ गुटबंदी की वो खंदक खोद डाली है जो पाटे नहीं पट रही है। यही वजह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने इधर उ.प्र. में अपने दौरों की संख्या काफी बढ़ा दी है और बैठक भी संभवत: इन्हीं कारणों से उ.प्र. में ही रखी गयी है।
              पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही कहते हैं कि हमारे पास मुद्दों की कोई कमी नहीं है, बसपा और काँग्रेस के खिलाफ तमाम मुद्दे हैं। अब दिक्कत यह है कि बसपा और कॉग्रेस के खिलाफ लगभग यही मुद्दे प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के पास भी हैं। ऐसे में भाजपा को एक ऐसे चेहरे की तलाश है जिसे सामने कर पार्टी की फौज को चुनाव मैदान में उतारा जा सके। हो सकता है कि ऐसे किसी चेहरे के नाम पर आम सहमति बनाने का प्रयास इस बैठक में हो। श्री शाही जिन मुद्दों की बात करते हैं उनमें केन्द्र की काँग्रेस सरकार के अलावा प्रदेश की मायावती सरकार का कथित भ्रष्टाचार और जमीन अधिग्रहण के कारण पश्चिमी उ.प्र.में हो रहा किसान संघर्ष है। भ्रष्टाचार,जैसा कि हमने पिछले महीने पॉच राज्यों में सम्पन्न विधान सभा चुनावों में देखा,मतदाताओं को बहुत आंदोलित नहीं कर सका। जमीन अधिग्रहण के विरोध में लाठी-गोली खा रहे टप्पल या भट्टा पारसौल के किसानों प्रति भाजपा का समर्थन राजनीतिक दिखावा भर बनकर रह गया और इसका सारा श्रेय राहुल गाँधी ले गये। केन्द्र सरकार जमीन अधिग्रहण नीति पर एक संशोधित विधेयक संसद के इसी मानसून सत्र में लाने की पहले ही घोषणा कर चुकी है तथा मुआवजा दिये जाने के तौर-तरीकों को भी ज्यादा प्रभावकारी बनाया जा रहा है। जहॉ तक प्रदेश सरकार की बात है तो 10माह पूर्व टप्पल में हुए किसान आंदोलन के बाद ही मायावती सरकार ने मुआवजे का एक संशोधित प्रारुप जारी कर दिया है और यह प्रारुप काफी हद तक किसानों की क्षतिपूर्ति करता है। हालॉकि इसे अभी केन्द्र सरकार द्वारा पेश किये जाने वाले मुआवजा प्रारुप के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना बाकी है।
                उ.प्र. में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा किस तरह चुनाव मैदान में आएगी, यह विचारणीय है। भाजपा तो कॉग्रेस से केन्द्र में भी लड़ती रहती है इसलिए काँग्रेस की बात अगर किनारे कर दें तो उसे सपा और बसपा से लड़ना है और इन दोनों का उ.प्र.के अलावा और कोई कार्यक्षेत्र फिलहाल कहीं है नहीं तथा दोनों का ही गिरहबान मौजूदा समय में न्यायालय और सी.बी.आई.के हाथ में है। इन दोनों पार्टियों पर आर्थिक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं लेकिन इसी मुद्दे पर सपा-बसपा को घेरने के लिए क्या भाजपा के पास अपना साफ चेहरा है?मीडिया के अकूत विस्तार की वजह से आज उ.प्र.के लोग भी जानते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में राज-काज कैसे चल रहा है। भाजपा जब सपा-बसपा-कॉग्रेस के भ्रष्टाचार की बात करेगी तो क्या कर्नाटक में उसके मुख्यमंत्री येदियुरप्पा, उनके पुत्रगण, उनके आधा दर्जन मंत्री-विधायक और रेड्डी बंधुओं की चर्चा नहीं होगी? मध्यप्रदेश की उसकी सरकार द्वारा कुशाभाउ ठाकरे ट्रस्ट को गलत ढ़ॅंग से दी गई जमीन को बीते दिनों जो सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया है, क्या यह चर्चा में नहीं आएगा? उत्तराखंड के सिटर्जिया घोटाले के बारे में भाजपा क्या जवाब देगी?
                हिमांचल प्रदेश का हाल और भी बेहाल है। वहॉ के भाजपाई मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के कामकाज की तारीफ करके पार्टी वट-वृक्ष लालकृष्ण आडवाणी हटे भी न थे कि उनके अपने ही सांसद राजन सुशांत ने धूमल को महाभ्रष्ट और हिमांचल के गॉव-गॉव तक भ्रष्टाचार फैलाने वाला बयान देकर हल्ला मचा दिया है। ऐसा ही कुछ जम्मू-कश्मीर में भी हुआ। पार्टीं के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह पिछले दिनों जब वहाँ के दौर पर थे तभी 11में से सात विधायकों ने विधान परिषद चुनाव मे पार्टी ह्विप का उल्लंघन कर सत्तारुढ़ दल के पक्ष में मतदान कर दिया। पार्टी वहॉ टूटने के कगार पर है। भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुके कर्नाटक को लेकर बवाल चल ही रहा है और ताजा मामला इसे लेकर पार्टी दिग्गज अरुण जेटली और नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज की आपसी जंग है जिसे शांत कराने के लिए राजनाथ सिंह जी-जान से लगे हैं। कर्नाटक किस तरह से भाजपा नेतृत्व के लिए लाइलाज सिर दर्द बन चुका है, इसे समझने के लिए यह याद रखना जरुरी है कि अभी कुछ माह पहले कुख्यात रेड्डी बंधुओं की शिकायत करने दिल्ली आये मुख्यमंत्री येदुरप्पा केंन्द्रीय कार्यालय में सरेआम फूट-फूटकर रो पड़े थे लेकिन येदियुरप्पा और रेड्डी बंधु दोनों को हटाने की हिम्मत पार्टी कर नहीं सकी। शायद इसे ही कहते हैं 'पार्टी बिद ए डिफरेंस'!
               उ.प्र. में पार्टी का संगठन भी बवाले-जान ही है-अस्वस्थता के कारण बाजपेयी जी को अगर छोड़ दिया जाय तो प्रदेश अध्यक्ष के अलावा तीन प्रदेश प्रभारी,उस पर पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्षों की एक कोर कमेटी,चुनावी राजनीति की मॉनीटरिंग करने के लिए पॉच वरिष्ठ नेताओं की एक समिति तथा प्रदेश में ही सक्रिय दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष! बजरंगी विनय कटियार, योगी आदित्यनाथ और वरुण गॉधी हैं ही और अब उमा भारती को लाने की तैयारी! प्रदेश भाजपा के एक कर्मठ,वरिष्ठ किन्तु सदा उपेक्षित नेता ने अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहा कि इतने ज्यादा वरिष्ठ यहॉ हो गये हैं कि कार्यकर्ताओं की समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे किसकी सुनें! इस नेता की बातों से समझा जा सकता है कि पार्टी का वास्तविक संकट क्या है। ( हम समवेत फीचर्स में 07 जून 2011 को प्रकाशित )

Thursday, June 02, 2011

निराले लोकतंत्र के खेल निराले हैं ! --- सुनील अमर


सन २०१० में भगवन बालाजी को ५ करोड़ रूपये का सोने का मुकुट
चढाते रेड्डी ( दाहिने )

कर्नाटक के माइन किंग यानी खान-माफिया और सरकार के मंत्री (या सच कहें तो सरकार के माई-बाप) जनार्दन रेड्डी ढ़ाई करोड़ रुपये की कीमत वाले सोने के भगवान की पूजा करते हैं और इतनी ही कीमत की सोने की कुर्सी पर बैठते भी हैं। सोने और चॉदी के बर्तनों में ही खाते भी हैं। यह उन्होंने वहॉ के लोकायुक्त को दिए अपने शपथ पत्र में घोषित किया है। अब यह उन्होंने उसमें साफ नहीं किया है कि वे खाते क्या हैं! चाल और चरित्र की बातें करने वाली एक नेत्री 40-50 हजार रुपये की साड़ी, और अब जैकेट भी, पहनने की शौकीन हैं तो देश में एक ताजा बनी मुख्यमंत्री भी ऐसी ही शानो-शौकत का रिकार्ड काफी पहले तोड़ते हुए 1997 में जेल यात्रा कर चुकी हैं। वे जब उस यात्रा पर जाने लगी थीं तो पता चला था कि उनकी जूतियॉ, चप्पलें, सैंडिलें और कपड़े-जेवर गिनने के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता पड़ी थी। गरीबों की चिन्ता में दिन-रात घुलती रहने वाली एक और मुख्यमंत्री हैं जिनके सोफे, कुर्सियां और बाथरुम आदि के सामान मात्र कुछ अरब रुपयों में विदेशों से मॅगा लिए गये थे।
गरीबों की चिन्ता में ही गलते रहने वाले बिहार के एक स्वनामधन्य, जो मुख्यमंत्री आवास में आलू खोदने, गन्ना चूसने या गाय दुहने को ही अपने कार्यों का निर्वहन मानते थेे, जाड़े के दिनों में बहुत परेशान हो जाया करते थे और उनकी ठंढ़क तब मिटती थी जब वे 20-25 हजार रुपयों की कीमत का स्वेटर पहन लेते थे। अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब देश के एक तत्कालीन गृहमंत्री दिन भर के लिए सफारी सूटों की एक बड़ी रेंज मेंन्टेन करके रखते थे - सभाओं के लिए एक तो शोक सभाओं के लिए दूसरा, दुर्घटना देखने के लिए तीसरा तो हत्याओं को देखने के लिए चौथा, लंच के लिए पॉचवां तो डिनर के लिए......। अब गृहमंत्री का काम इतने झमेले का होता है कि और ज्यादा सफारी सूट बदलने के लिए वक्त ही न मिले, सो आजिज आकर उन्होंने पद ही छोड़ (?) दिया!
इस लोकतंत्र के खेल कितने निराले हैं कि देश की तीन चौथाई भूखी-नंगी आबादी को अखाड़ा बनाकर लूटे-खाए-अघाए लोग उसमें कुलॉचे भर रहे हैं! ये कोई नहीं पूछ रहा है कि पॉच साल पहले गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने जो 84 करोड़ 60 लाख लोगों की दैनिक आमदनी 20 रुपया से भी कम बताई है, क्या लोकपाल विधेयक बन जाने से उन्हें शाम को रोटी मिल जाया करेगी? भ्रष्टाचार और काला धन वापसी पर अनशन अगर सफल हो जाता है तो क्या उसका इस्तेमाल इन तीन चौथाई भुक्खड़ों का पेट भरने के लिए किसी कारआमद योजना में किया जाएगा? या यह सारा खेल हमेशा की तरह सिर्फ 25 फीसदी का ही है और तय कर लिया गया है कि घी अगर गिरेगा भी तो दाल में ही जाएगा?
इस लोकतंत्र के खेल बड़े निराले हैं! समरथ को नहिं दोस गुसांईं। अब तो लगता है कि नीरो गलती से रोम में पैदा हो गया था। उसे भारत में पैदा होना चाहिए था। जो समर्थ हैं उनके लिए इस व्यवस्था से ज्यादा बेहतर और क्या हो सकता है और जो हत्भाग्य हैं वे भी बिना टिकट के ही ये सब तमाशा देख रहे हैं। ये हत्भाग्य देख सकते हैं कि कैसे टंकी पर तेल बेचने की नौकरी करने वाले की औलादें न सिर्फ सैकड़ों कम्पनियों की मालिक बन जाती हैं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा मकान बना डालती हैं! ये हतभाग्य, इस मामले में तो सौभाग्यशाली हैं ही कि भले वे जन्म से ही भूखे हों लेकिन वे देख सकते है कि उनके प्रिय देश में इतना अनाज ठूंसा हुआ है कि रखने को जगह नहीं और वह सड़ रहा है। इन कपूतों को पता है कि जिस कोठी के सामने के फुटपाथ पर उनके दुधमुंहे भूखे पेट तड़प रहे हैं उसके कुत्तों तक को दूध-भात अच्छा नहीं लगता। ये इस देश में पैदा भले ही हो जाते हैं लेकिन फुटपाथ पर भी बैठने का हक इन्हें नहीं होता और अगर बिना हक का यह काम ये करते भी हैं तो देश के रईसजादों की गाड़ियां इन्हें रौंद डालती हैं। अब इसमें गाड़ी वालों का क्या दोष? लम्बी गाड़ियॉ और कैसे मुड़ती हैं ?
ये लोकतंत्र है कि अदालतें जिन्हें अपराधी बताती हैं, ‘हमारा’ लोकतंत्र उन्हें ही हमारा भाग्य विधाता बना देता है। ये लोकतंत्र का ही काल-चक्र है कि पुलिस एक समय में जिनके हाथ-पैर तोड़े रहती है, अगले ही चरण में उन्हीं के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहने को अभिशप्त रहती है। ये लोकतंत्र ही है कि गणित पढ़ा हुआ एक आदमी कानून मंत्री बन जाता है, अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ पुलिस विभाग संभालता है, जिसने कभी कबड्डी तक नहीं खेली हो वह जन्म-जन्मांतर के लिए खेलों का मसीहा बना रहता है, जिसने सारी उम्र कानून तोड़े हों वह कानून बनाने की सभा में शामिल हो जाता है, जिसने.........।
और यह भी हमारे लोकतंत्र में ही संभव है कि जो सत्ता की कुसीं पर बैठकर ‘हम दो, हमारे दो’ का उपदेश देते हैं वे अपने निजी जीवन में ‘हम पॉच, हमारे सोलह’ का आदर्श पेश कर सकते हैं। कनिमोरी जेल न गई होतीं तो दुनिया लोकतंत्र की इस उदारता से शायद परिचित ही न हो पाती। इस लोकतंत्र की माया असीम है! अपराधियों, अमीरों, भ्रष्टाचारियों, और बलात्कारियों के लिए इसका दिल कितना बड़ा है, इसे कोई एण्डरसनों, अम्बानियों, कलमाड़ियों और राठौरों से जाकर पूछे तो सही बात पता चले! पिछले वर्ष किया गया सी-वोटर का एक सर्वेक्षण बताता है कि इस लोकतांत्रिक देश के 25 फीसद जनगण साल भर में ढ़ाई लाख करोड़ रुपया भगवान की पूजा पर खर्च कर डालते हैं। इसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि यह केन्द्र सरकार द्वारा गरीबों के रोजगार के लिए बने मनरेगा के सालाना बजट का सिर्फ ढ़ाई गुना है!
ये हमारा लोकतंत्र रंगरेज है। काले को सफेद और सफेद को काला करता रहता है। लाल को उखाड़ फेंकता है। हरे को भगवा और भगवा को हरा कर देता है। मुर्दा को जिन्दा और जिन्दा को........। बलि-बलि जाऊॅ मैं तोरे रंगरेजवा......।
( विस्फोट.कॉम पर भी प्रकाशित)