Saturday, June 25, 2011

सच सच बतलाना निगमानंद.. --- सुनील अमर





                                प्रिय निगमानंद,
स्वामी निगमानंद 
             पैंतीस साल की उम्र कुछ कम तो नहीं होती! खासकर उस मुल्क में जहाँ के बच्चे इन दिनों पैदा होने के बाद 35 महीने में ही जवान हो जाते हों, तुम बच्चे ही बने रहे? साधु के साधु ही रह गये तुम और उसी निगाह से इस मुल्क के निजाम को भी देखते रहे? क्या तुम्हें वास्तव में यह नहीं पता था कि अब बच्चे तोतली आवाज में ‘‘मैया, मैं तो चन्द्र खिलौना लैहौं’’ न गाकर ‘‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’’ और ‘‘मुन्नी बदनाम हुई’’ मार्का गाना गाने लगे हैं? इस तरक्कीशुदा देश में बच्चे तक इच्छाधारी होने लगे हैं निगमानंद लेकिन तुम......?
तुम तो पढ़े-लिखे भी थे निगमानंद फिर भी नहीं समझ पाये कि देश के मौजूदा हालात और निजाम सब अर्थमय हो गये हैं और इसी बीच तुम लगातार अनर्थ की बातें कर रहे थे? जिस देश में औलादें अपने बूढ़े माँ-बाप को भूलने लगी हों वहाँ तुम गंगा जैसी हजारों-हजार साल बूढ़ी नदी के स्वास्थ्य की बात कर रहे थे? तुम बालू-मिट्टी और पत्थर खोदकर अरबपति बन रहे लोगों के पेट पर लात मारने की बात कर रहे थे? क्या तुम नहीं जानते थे कि जिस देश का मुखिया अर्थशास्त्री हो, उसका वित्तमंत्री अर्थशास्त्री हो, उसका गृहमंत्री अर्थशास्त्री हो तथा उसके योजना आयोग का सर्वे-सर्वा भी प्रकांड अर्थशास्त्री हो, उस देश में अर्थ-चिन्तन, अर्थ-रक्षण और अर्थ-भक्षण के अलावा और होगा क्या, और उसमें जो भांजी मारने की कोशिश करेगा उसे आधी रात को पुलिस आकर रामलीला मैदान कर देगी चाहे वह कितना भी बड़ा योगी या मदारी क्यों न हो? क्या तुम टी.वी. और अखबार नहीं देख-पढ़ रहे थे? ओह! लेकिन कैसे देखते-पढ़ते तुम निगमानंद, तुम्हें तो न्याय की लड़ाई ने हफ्तों से कोमा में कर रखा था। इस देश में यह रिवाज बनता जा रहा है कि जो न्याय और इंसाफ की बात करता है, उसे हम लोग कोमा में ही देखना पसंद करते हैं। इरोम शर्मिला को तो तुमने देखा ही रहा होगा निगमानंद जिनके पेट में 10 साल से अन्न नहीं गया है ? तो क्या उन्हीं से प्रेरणा ली थी तुमने अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की?
अपनी स्कूली किताबों में तुमने जरुर कहीं पढ़ा रहा होगा कि नदियाँ हमारी माँ  हैं क्योंकि इन्होंने ही हमारी सभ्यताओं को जन्म दिया है। इन्हीं की गोद में पल-बढ़कर हम सभ्य बने और आज बिच्छू के बच्चों की तरह इस लायक हो गये हैं कि इन्हें ही मिटाने पर आमादा हैं। तुम इसी का तो विरोध कर रहे थे निगमानंद? तुम शायद इधर कर्नाटक नहीं गये थे नहीं तो देखते कि जमीन खोदकर खरबपति बनने वालों के अंग विशेष पर ही वहाँ की सरकार टिकी हुई है और ऐसी ही सरकारों से प्राणवायु ग्रहण करने वालों के राज्य में तुम ऐसे ही महारथियों के खिलाफ आमरण अनशन कर रहे थे तो तुम्हें तो मरना ही था निगमानंद! भूख से या षडयंत्र से। लेकिन इतना अन्याय देखकर तो गंगा खुद ही इस देश को छोड़ देना चाहेंगी निगमानंद, तुमने नाहक ही अपनी जान दी!
सवाल तुम्हारी मौत का नहीं है निगमानंद। इस देश में तो तुम्हारे जैसे तमाम लोग भूख, प्यास, अन्याय, दुर्घटना और सरकार की साजिशों का शिकार होकर रोज मरते ही रहते हैं। सवाल तुम्हारे उस भोलेपन का है, सवाल तुम्हारी उस आत्म-मुग्धता का है जिसे यह भरोसा था कि जब इस महान लोकतांत्रिक देश का एक नागरिक, एक बिल्कुल जायज और देश हित के मुद्दे को लेकर अपनी मांग न मानी जाने पर जान देने का ऐलान करेगा तो सत्ता की चूलें हिल जायेंगीं! इसी भोलेपन ने इस देश में तुमसे भी पहले तीन जानें ली हैं निगमानंद, इसे जानते हुए भी तुम इतने आत्म मुग्ध और विश्वास से भरे हुए क्यों थे? क्या तुमने चंद दिन पहले ही नहीं देखा था कि सारी दुनिया में क्रांति ला देने का दावा करने वाले स्वयंभू योगी, पुलिस को देखकर औरतों के बीच में जा छिपते हैं? लेकिन तुम कैसे देखते निगमानंद, तुम तो कोमा में थे। और यह अच्छा ही था कि तुम यह सब देखने के लिए होश में नहीं थे, नहीं तो भ्रम टूटने की कई और तकलीफें लेकर ही तुम मरते।
  तुम तो जानते ही थे कि इस देश में उत्पीड़न से आजिज लोग पुलिस कप्तान के दफ्तर में पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह कर लेते हैं फिर भी कुछ नहीं होता, जिला मैजिस्ट्रेट की अदालत के सामने परिवार सहित आग लगा लेते हैं लेकिन ऊॅंचा सुनने और चमकदार देखने की अभ्यस्त हमारी यह अंधी-बहरी व्यवस्था उन्हें तब भी नहीं सुनती। निगमानंद, अपनी जान से बढ़कर किसी भी आदमी के पास क्या होता है देने के लिए? और अगर तब भी उसकी न सुनी जाय तो वह ऐसे आँख बंद कर पगुराते जानवर को ठोंक-पीटकर सही करने पर आमादा न हो जाय तो और क्या करे? और तब यह सत्ता पुरुष धीरे से आधी आँख खोलकर कहता है कि यह तो नक्सली है और यह तो राष्ट्रद्रोही है!
अरसा हुआ जब हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र में बदल गया। शायद तुम कभी जेल नहीं गये थे निगमानंद नहीं तो जरुर जानते कि कैदी जिंदा रहें या मुर्दा, गिनती में पूरे होने ही चाहिए! कमाल देखिए कि जेल का यही अलिखित नियम हमारे लोकतंत्र में लिखित रुप में मौजूद है! यहाँ भी मॅूड़ी ही गिनी जाती है। जिसके साथ जितनी ज्यादा मॅूड़ी, उसे देश को चर-खा लेने का उतना ही ज्यादा अधिकार! तो तुम्हारे साथ कितनी मुंडियां थीं निगमानंद ? क्या कहा, एक भी नहीं? हा-हा ! फिर तुमने कैसे हिम्मत कर ली थी सरकार से अपनी बातें मनवाने की दोस्त? क्या तुम्हें टीम अन्ना का भी हश्र नहीं पता था? लेकिन कैसे पता होता तुम्हें निगमानंद, तुम तो कोमा में थे!
सच बताना निगमानंद, तुम भूख-प्यास से कोमा में  चले गये थे या अपने विश्वासों के टूटने की वजह से? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि विश्वास का टूटना आदमी को भीतर से तोड़ देता है। निगमानंद और इरोम शर्मिला जैसों को अगर भूख-प्यास सताती तो वे भी इस भीड़तंत्र में खूब चरते-खाते और यकीन मानिये, हुक्मरान उन्हें लाखों-करोड़ों देकर सम्मानित करते और सर-आँखों पर बैठाते! लेकिन जिसकी भूख अपने चारों तरफ के लोगों का पेट भरा देखने से मिटती हो, जिसकी प्यास दुधमुंहों को दूध पीते देखकर मिटती हो और यह सब न होने पर जो आततायी व्यवस्था से लड़ने को उद्यत हो जाते हों, उन्हें देर-सबेर तुम्हारी तरह कोमा में ही जाना पड़ता है दोस्त!
सादगी, ईमानदारी, सच्चाई और विनम्रता यह सब आजकल कोमा की ही अवस्थाऐं हैं दोस्त निगमानंद! इनका अंत कैसे होता है, तुम्हें देखने के बाद अब इस पर सोचने की जरुरत क्या? बस, इतना जरुर बताना निगमानंद कि हमारे मौजूदा निजाम का कोमा कैसे टूटेगा? ( दैनिक जनसन्देश  टाईम्स में २५ जून २०११ को सम्पादकीय पृष्ठ ८ पर प्रकाशित www.jansandeshtimes.com )




3 comments:

  1. काफी दिल को छू जानेवाला यह लेख है.. लेकिन इसका वैकल्पिक उपाय क्या होगा ? जिससे ऐसे निगामंद जैसी मौत ना हो, और जिस लोक्षहिका सपना हर भारतीय के दिल में है उसे वास्तविकता में देख सके ?

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  2. कृष्णा जी , इसका एक ही उपाय है और वह है हमारी जागरूकता और सचेतन होना.हम बहुधा राजनीतिज्ञों द्वारा इस्तेमाल कर लिए जाते हैं या फिर कई बार जानबूझ कर इस्तेमाल हो जाते हैं . जन-दबाव क्या होता है इसे अभी हमने अन्ना हजारे के आमरण अनशन के दौरान देखा. लोकतंत्र में यही सबसे कारगर हथियार होता है.

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  3. बहुत मार्मिक, प्रेरक और मन को झकझोरने वाला व्यंग्य लिखा आपने सुनील जी ! याद नही आता कि किसी राजनीतिक / सामाजिक विषय पर इतना जोरदार व्यंग्य इससे पहले कब पढ़ा था. क्या भाषा, क्या शैली और क्या व्यंग्य करने की अदा, मन को छू गया सब. निगमानंद को हमारी मीडिया ने जिस तरह आपराधिक ढंग से उपेक्षित किया है, उसकी काफी पूर्ति आपने कर दी और मीड़िया की लाज रख ली. लेकिन ऐसी ही खिंचाई आप जरा मीडिया की भी करिए तो बात बने ! इतना जोरदार व्यंग्य-आलेख लिखने के लिए आप को बहुत-बहुत धन्यवाद.

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