देश इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहा है। पिछले दिनों अरब देशों में हुई जन क्रांति का असर निष्चित ही यहॉ तक आया है। नागरिकों और समाजसेवियों में ऐसी चेतना का आना लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ लक्षण माना जाता है। ऐसी चेतनाऐं ही परिवर्तन की वाहक होती हैं। इस तरह के परिवर्तनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका उन लोगों व संगठनों की होती है जो इसके प्रायोजक या अगुवा होते हैं। इस प्रकार दो बातें साफ हो जानी चाहिए कि जो लोग ऐसे आन्दोलनों में लगते हैं,उनका वास्तविक सरोकार समाज के किस वर्ग से है तथा वे स्वयं किस पृष्ठभूमि से आते हैं।
सर्वप्रथम जन लोकपाल आन्दोलन। 'इंडिया अगेन्स्ट करप्शन' नामक संस्था के बैनर तले श्री अन्ना हजारे और उनके साथियों ने पिछले महीने राजधानी के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन कर आन्दोलन किया। उनकी मॉग है कि एक ऐसे सशक्त लोकपाल की स्थापना हो जिसके अधीन प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और क्लर्क-बाबू तक आ सकें ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। गाँधीवादी विचारधारा से ओत-प्रोत अन्ना के कार्य-व्यवहार और उद्देश्यों पर कोई शक नहीं। उनकी टीम में जो और सदस्य हैं,कमोवेश उनके बारे में भी सब जानते ही हैं। अब प्रश्न यह है कि अन्ना की माँग के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति अगर हो भी जाय तो क्या वह किसी और ग्रह का प्राणी होगा और उसमें काम-क्रोध-मद और लोभ व्याप्त नहीं होगा?क्या वह अपने निष्कर्षों और निर्देशों के क्रियान्वयन हेतु अलग से अपना कोई निर्दोष तंत्र बनायेगा या इसी कथित भ्रष्ट और पतित कार्यपालिका पर निर्भर करेगा? और अगर इसी पर निर्भर रहना होगा तो उन उद्देश्यों की पूर्ति कैसे होगी जिसके लिए यह आन्दोलन किया जा रहा है? क्या अभी हमने सी.वी.सी. पर हुए नाटकीय घटनाक्रमों को देखा नहीं?
प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को भी इसकी जद में लाने की मॉग की जा रही है। यह इस महादेश के लोकतंत्र का सौभाग्य है कि इसे आज तक जितने भी प्रधानमंत्री मिले हैं ( उनमें से सिर्फ एक स्व. राव को छोड़कर ) वे चाहे जिस दल, विचारधारा और गठबंधन के रहे हों, उनकी नीयत और चरित्र पर कोई संदेह नहीं कर सका है। ऐसे में शासन के इस सर्वोच्च पद पर बैठने वाले व्यक्ति के सिर पर अनायास ही एक नंगी तलवार लटकाना आवश्यक नहीं लगता और अगर आवश्यकता होगी ही तो रास्ते तो बंद हो नहीं जा रहे हैं।
जहाँ तक न्यायपालिका की बात है, इधर के वर्षों में उस पर सबूत सहित उगलियॉ उठनी शुरु हो गयीं हैं। पहले भी कदाचार के आरोप न्यायाधीशों पर लगते रहे हैं। वे कटघरे में भी आये लेकिन उन्हें बचाने का काम भी हमारे राजनेताओं ने ही किया। फिर भी एक बात को समझ लेना जरुरी है- नौकरशाही और न्यायाधीशों के क्रियाकलापों में एक बुनियादी अंतर कार्य की प्रकृति का होता है। यह सही है कि सब नौकर ही हैं,लेकिन न्याय करने को हम महज आठ घंटे की नौकरी नहीं मान सकते। फिर, नौकर का आदर्श उसका मालिक होता है। हमें सोचना चाहिए कि यही प्रवृत्ति अगर न्यायाधीशों में आ जाय तो क्या नतीजे निकल सकते हैं? क्या एक नौकर न्यायाधीश से तटस्थ न्याय की उम्मीद की जा सकती है ? हमारे संविधानकारों ने जब नौकर के रुप में सेवा में लिए जाने के बावजूद न्यायाधीशों को अतुलनीय अधिकारों से लैस किया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि नौकरी के नियम-कानून से बँधा होने के बाद भी वे मानसिक रुप से नौकर न बन जॉय ताकि वे किसी भी प्रकार के भय, प्रलोभन या दबाव में आये बगैर कभी भी और कहीं भी न्यायिक प्रक्रिया को अंजाम दे सकें। इन सारी बातों के प्रमाण भी हम समय-समय पर देखते ही आ रहे हैं। न्यायिक प्रणाली के बंधुआ बन जाने के खतरों को हम पड़ोसी पाकिस्तान और तानाशाही व्यवस्था वाले देशों में देख ही रहे हैं। इस प्रकार न्यायपालिका को किसी दबाव बिन्दु के तहत लाना उचित नहीं होगा। अभी जिन व्याधियों की चिंता हमें न्यायपालिका की फिसलन से हो रही है,हो सकता है कि उक्त दबाव बिन्दु उससे भी बड़ी चिंता साबित हों !
भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भारतीय स्वाभिमान पार्टी के संस्थापक स्वामी रामदेव ने अभी बीते दिनों अपने निराले अंदाज में राजधानी में अनशन या तप या योग शिविर,जो कुछ भी हो, किया। इसकी मीमांसा करने के बजाय यह जानना जरुरी है कि क्या किसी भी मुद्दे को कोई भी व्यक्ति या संगठन उठाकर जो मर्जी चाहे कर सकता है? क्या डाकु को यह अधिकार होना चाहिए कि वे अपने डाकू-गिरोहों को इकट्ठा कर डाका डालने के अपने हक के लिए आन्दोलनरत हो जॉय? भ्रष्टाचार पर आंदोलन करने वाले व्यक्ति का स्वयं भ्रष्टाचार मुक्त होना क्या पहली शर्त नहीं होनी चाहिए? जो आदमी देश-विदेश में उद्योग-धंधे चलाता हो, जो स्वयं अपने मुह से सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुका हो कि उसके कामों के लिए उससे घूस मॉगा जाता है,जिसने अ-पारदर्शी तौर-तरीकों से सरकारी जमीनें हथियाई हों और जो आदमी परम्परा से ही नि:शुल्क उपलब्ध योग जैसी देशी विधा को लाखों रुपये का टिकट लगाकर सिखाता हो, जिसके कारखानों के हजारों गरीब मजदूर अपनी वाज़िब मजदूरी पाने के लिए संघर्षरत हों और उनकी पुलिस द्वारा पिटाई होती हो, क्या उसे भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ होना चाहिए? और अगर वह ऐसी कोई कोशिश करता भी है तो उसे क्यों न व्यक्तिगत हित के लिए किया जा रहा उसका खेल माना जाय?
देश की तीन चौथाई जनता विकट गरीबी में गुजर-बसर कर रही है और प्राय: ही उसे भूखे पेट सो जाना पड़ता है,यह तथ्य सरकारी रिपोर्टों से स्थापित है। श्री अन्ना हजारे का जन लोकपाल बन जाय और स्वामी रामदेव का भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनकर विदेशों में कथित रुप से जमा अकूत काला धन वापस ले आये, क्या इन दोनों प्रयासों से इस तीन चौथाई जनता को भी कुछ हासिल हो सकता है ? इन दोनों आन्दोलन करने वालों ने क्या इस जनता को भी अपनी सोच में कभी रखा है? यदि हॉ, तो कृपया उसका सबूत दें और यदि नहीं तो क्या यह सारा अभियान सिर्फ खाये-अघाये और मुटियाये मात्र 25 प्रतिशत लोगों के लिए है? स्वामी रामदेव किसको झाँसा देना चाहते हैं? देश का वह कौन सा पैसेवाला है जिसका पैसा विदेशों में जमा नहीं है? ऐसे में कौन कानून बनायेगा, कौन क्रियान्वयन करेगा और क्यों? स्वामीजी के साथ जो लोग इस आंदोलन में आगे-पीछे साफ-साफ लगे हैं, क्या उससे स्वामी की वास्तविक मंशा साफ नहीं हो जाती ? जन लोकपाल एक तलवार का नाम है और भ्रष्टाचार पर नये कानून की मॉग एक राजनीतिक ड्रामा। इसमें गरीब लोग कहॉ हैं और उनका उध्दार कैसे होगा, इसे कौन से अन्ना और कौन से रामदेव से पूछा जाय? अफसोस है कि इस तीन-चौथाई जनता को कोई नाखुदा नहीं मिल पा रहा है। कोई निकलने की कोशिश भी करता है तो उसे सत्ता और व्यवस्था के मठाधीश समय रहते ही बॉट लेते हैं। ऐसी ही चालाकियाँ, असंतोष की जमीन तैयार कर उसमें क्रांति के बीज बीती हैं। यह ठीक ही हुआ कि बाबा के कन्धो पर रखकर अपनी बन्दूक चला रहे लोग अब बाबा को अपने कन्धे पर बैठा कर सामने आ गये हैं। ( हम समवेत न्यूज फीचर एजेंसी में १३ जून २०११ को प्रकाशित )
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