Tuesday, June 07, 2011

मुद्दा नहीं, एक अदद चेहरे की तलाश में उ.प्र. भाजपा --- सुनील अमर


 देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने अब अपना सारा ध्यान उ.प्र. में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव पर केन्द्रित कर लिया है। वैसे तो अगले वर्ष चार अन्य राज्यों पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी चुनाव होने हैं लेकिन सभी जानते हैं कि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश कुछ अलग ही मायने रखता है। यही वह प्रदेश है जहॉ से अब तक भाजपा की दशा व दिशा तय होती रही है और यही वह प्रदेश है जिसके सर्वाधिक प्रभावशाली नेता भाजपा के शीर्ष मंडल में हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वर्ष 1989-90के दौरान भाजपा ने अपने राजनीतिक अश्वमेघ की जो शुरुआत की थी, उसका घोड़ा भी अयोध्या से ही छोड़ा गया था।
               इसी उ.प्र. में एक बार फिर अपनी जड़ों को जमाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी है और यह लेख छपने तक वह आगामी चुनावों के मद्दे-नजर लखनऊ में अपनी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक कर चुकी होगी। प्रदेश स्तर से लेकर केन्द्र के वरिष्ठतम् नेताओं तक जिस तरह आपसी तू-तू, मैं-मैं और आरोप-प्रत्यारोप का बे-रोकटोक दौर चल रहा है और जिस तरह अभी दो सप्ताह पूर्व सम्पन्न पॉच राज्यों के आम चुनाव में पार्टी 824 सीटों में से मात्र पॉच सीटें ही जीत सकी है,इन सबको देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक का किसी फैसलाकुन नतीजे पर पहुच पाना काफी कठिन काम होगा। उ.प्र.में भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक इससे पूर्व वर्ष 2006में हुई थी जब इसी तरह साल भर बाद वहॉ विधानसभा के चुनाव होने थे। उस चुनाव में भाजपा की सीटें घटकर आधी हो गयी थीं।
                भाजपा की उ.प्र. इकाई में अन्य राज्यों से हटकर कई विशिष्ट प्रकार की समस्याऐं हैं, जो इसकी झुकी हुई कमर को सीधा होने देने के बजाय और झुका डाल रही हैं। इस इकाई की सबसे बड़ी समस्या यहाँ कद्दावर नेताओं की बहुतायत है। होना तो यह चाहिए था कि ऐसी हालत में उ.प्र इकाई काफी दमदार और चुस्त-दुरुस्त होती लेकिन जातिवाद और वरिष्ठता के अहं के चलते नेताओं के आपसी टकराव ने यहॉ गुटबंदी की वो खंदक खोद डाली है जो पाटे नहीं पट रही है। यही वजह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने इधर उ.प्र. में अपने दौरों की संख्या काफी बढ़ा दी है और बैठक भी संभवत: इन्हीं कारणों से उ.प्र. में ही रखी गयी है।
              पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही कहते हैं कि हमारे पास मुद्दों की कोई कमी नहीं है, बसपा और काँग्रेस के खिलाफ तमाम मुद्दे हैं। अब दिक्कत यह है कि बसपा और कॉग्रेस के खिलाफ लगभग यही मुद्दे प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के पास भी हैं। ऐसे में भाजपा को एक ऐसे चेहरे की तलाश है जिसे सामने कर पार्टी की फौज को चुनाव मैदान में उतारा जा सके। हो सकता है कि ऐसे किसी चेहरे के नाम पर आम सहमति बनाने का प्रयास इस बैठक में हो। श्री शाही जिन मुद्दों की बात करते हैं उनमें केन्द्र की काँग्रेस सरकार के अलावा प्रदेश की मायावती सरकार का कथित भ्रष्टाचार और जमीन अधिग्रहण के कारण पश्चिमी उ.प्र.में हो रहा किसान संघर्ष है। भ्रष्टाचार,जैसा कि हमने पिछले महीने पॉच राज्यों में सम्पन्न विधान सभा चुनावों में देखा,मतदाताओं को बहुत आंदोलित नहीं कर सका। जमीन अधिग्रहण के विरोध में लाठी-गोली खा रहे टप्पल या भट्टा पारसौल के किसानों प्रति भाजपा का समर्थन राजनीतिक दिखावा भर बनकर रह गया और इसका सारा श्रेय राहुल गाँधी ले गये। केन्द्र सरकार जमीन अधिग्रहण नीति पर एक संशोधित विधेयक संसद के इसी मानसून सत्र में लाने की पहले ही घोषणा कर चुकी है तथा मुआवजा दिये जाने के तौर-तरीकों को भी ज्यादा प्रभावकारी बनाया जा रहा है। जहॉ तक प्रदेश सरकार की बात है तो 10माह पूर्व टप्पल में हुए किसान आंदोलन के बाद ही मायावती सरकार ने मुआवजे का एक संशोधित प्रारुप जारी कर दिया है और यह प्रारुप काफी हद तक किसानों की क्षतिपूर्ति करता है। हालॉकि इसे अभी केन्द्र सरकार द्वारा पेश किये जाने वाले मुआवजा प्रारुप के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना बाकी है।
                उ.प्र. में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा किस तरह चुनाव मैदान में आएगी, यह विचारणीय है। भाजपा तो कॉग्रेस से केन्द्र में भी लड़ती रहती है इसलिए काँग्रेस की बात अगर किनारे कर दें तो उसे सपा और बसपा से लड़ना है और इन दोनों का उ.प्र.के अलावा और कोई कार्यक्षेत्र फिलहाल कहीं है नहीं तथा दोनों का ही गिरहबान मौजूदा समय में न्यायालय और सी.बी.आई.के हाथ में है। इन दोनों पार्टियों पर आर्थिक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं लेकिन इसी मुद्दे पर सपा-बसपा को घेरने के लिए क्या भाजपा के पास अपना साफ चेहरा है?मीडिया के अकूत विस्तार की वजह से आज उ.प्र.के लोग भी जानते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में राज-काज कैसे चल रहा है। भाजपा जब सपा-बसपा-कॉग्रेस के भ्रष्टाचार की बात करेगी तो क्या कर्नाटक में उसके मुख्यमंत्री येदियुरप्पा, उनके पुत्रगण, उनके आधा दर्जन मंत्री-विधायक और रेड्डी बंधुओं की चर्चा नहीं होगी? मध्यप्रदेश की उसकी सरकार द्वारा कुशाभाउ ठाकरे ट्रस्ट को गलत ढ़ॅंग से दी गई जमीन को बीते दिनों जो सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया है, क्या यह चर्चा में नहीं आएगा? उत्तराखंड के सिटर्जिया घोटाले के बारे में भाजपा क्या जवाब देगी?
                हिमांचल प्रदेश का हाल और भी बेहाल है। वहॉ के भाजपाई मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के कामकाज की तारीफ करके पार्टी वट-वृक्ष लालकृष्ण आडवाणी हटे भी न थे कि उनके अपने ही सांसद राजन सुशांत ने धूमल को महाभ्रष्ट और हिमांचल के गॉव-गॉव तक भ्रष्टाचार फैलाने वाला बयान देकर हल्ला मचा दिया है। ऐसा ही कुछ जम्मू-कश्मीर में भी हुआ। पार्टीं के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह पिछले दिनों जब वहाँ के दौर पर थे तभी 11में से सात विधायकों ने विधान परिषद चुनाव मे पार्टी ह्विप का उल्लंघन कर सत्तारुढ़ दल के पक्ष में मतदान कर दिया। पार्टी वहॉ टूटने के कगार पर है। भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुके कर्नाटक को लेकर बवाल चल ही रहा है और ताजा मामला इसे लेकर पार्टी दिग्गज अरुण जेटली और नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज की आपसी जंग है जिसे शांत कराने के लिए राजनाथ सिंह जी-जान से लगे हैं। कर्नाटक किस तरह से भाजपा नेतृत्व के लिए लाइलाज सिर दर्द बन चुका है, इसे समझने के लिए यह याद रखना जरुरी है कि अभी कुछ माह पहले कुख्यात रेड्डी बंधुओं की शिकायत करने दिल्ली आये मुख्यमंत्री येदुरप्पा केंन्द्रीय कार्यालय में सरेआम फूट-फूटकर रो पड़े थे लेकिन येदियुरप्पा और रेड्डी बंधु दोनों को हटाने की हिम्मत पार्टी कर नहीं सकी। शायद इसे ही कहते हैं 'पार्टी बिद ए डिफरेंस'!
               उ.प्र. में पार्टी का संगठन भी बवाले-जान ही है-अस्वस्थता के कारण बाजपेयी जी को अगर छोड़ दिया जाय तो प्रदेश अध्यक्ष के अलावा तीन प्रदेश प्रभारी,उस पर पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्षों की एक कोर कमेटी,चुनावी राजनीति की मॉनीटरिंग करने के लिए पॉच वरिष्ठ नेताओं की एक समिति तथा प्रदेश में ही सक्रिय दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष! बजरंगी विनय कटियार, योगी आदित्यनाथ और वरुण गॉधी हैं ही और अब उमा भारती को लाने की तैयारी! प्रदेश भाजपा के एक कर्मठ,वरिष्ठ किन्तु सदा उपेक्षित नेता ने अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहा कि इतने ज्यादा वरिष्ठ यहॉ हो गये हैं कि कार्यकर्ताओं की समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे किसकी सुनें! इस नेता की बातों से समझा जा सकता है कि पार्टी का वास्तविक संकट क्या है। ( हम समवेत फीचर्स में 07 जून 2011 को प्रकाशित )

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