Thursday, October 03, 2013

महिलाओं की सेवा शर्तों में बदलाव जरुरी --- सुनील अमर


रेलू जिम्मेदारियों के कारण महिलाओं द्वारा नौकरी या रोजगार छोड़ देना एक आम बात है लेकिन हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि इसे बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता, मानो ऐसा होना स्वाभाविक ही हो। सामान्य के अलावा योग्य और प्रतिभावान महिलाओं को भी ऐसा करना पड़ता है और इस प्रकार संस्थान योग्य कार्यकर्ताओं से वंचित हो जाते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ कई करोड़ परिवार अपनी महिला सदस्य की कमाई से ही चलते हैं, ऐसा होने पर भुखमरी के कगार पर आ जाते हैं और वहाँ बिखराव शुरु हो जाता है। सुखद है कि संसद की एक स्थाई समिति ने गत दिनों एक बहुप्रतीक्षित रपट पेश कर इन परिस्थितियों को सुधारने हेतु कानून बनाने और संशोधित किये जाने की मॉग की है।
              कामकाजी महिलाओं के लिए कई प्रकार की चुनौतियाँ सामने आती हैं। घर से बाहर कदम रखते ही उन्हें तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लैंगिक भेदभाव तथा छेड़छाड़ की घटनाऐं उनके साथ विकसित देशों में भी वैसे ही होती है जैसे तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों में। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इस मामले में एक अनपढ़ मजदूर स्त्री और खूब पढ़ी-लिखी स्त्री की स्थिति एक जैसी ही होती है। समान काम के लिए मजदूर स्त्री को पुरुष मजदूर के मुकाबले अगर मजदूरी कम दी जाती है तो निजी क्षेत्र के दतरों में भी उसे वेतन कम दिया जाता है, जबकि कार्य और कार्य के घंटे एक समान ही होते हैं। दुनिया का कोई भी पिछड़ा या विकसित देश हो या घने जंगलों के बीच रहने वाला कबीला, हर जगह औरत की भूमिका मर्दों से कई गुना अधिक होती हैं क्योंकि वह न सिर्फ मर्द के कन्धो से कन्धाा मिलाकर काम करती है बल्कि काम के बाद या साथ-साथ उसे घर और बच्चों को भी संभालना पड़ता है। यह एक आम दृश्य है कि पति-पत्नी अगर साथ-साथ काम पर से लौटें तो पति आराम फरमाने लगता है और पत्नी उसके चाय नाश्ते का प्रबंध कर घर, चौका और   बच्चों को संभालने में लग जाती है। कार्यस्थलों पर एक स्त्री को पुरुषवादी नजरिये से कमतर  जरुर ऑंका जाता है लेकिन तमाम सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि अपने पुरुष सहकर्मी के मुकाबले एक स्त्री कर्मचारी/अधिकारी का कार्य निष्पादन कहीं बेहतर और समय से होता है।
               स्त्री का माँ बनना एक प्राकृतिक गुण है। समाज व राष्ट्र के अस्तित्व लिए भी यह अपरिहार्य है। एक स्त्री अगर माँ बनती है तो उसके हर प्रकार की अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। यह कर्तव्य तब और व्यापक हो जाता है अगर वह स्त्री कामकाजी है। कामकाजी स्त्री राज्य के लिए कई प्रकार से उपयोगी होती है। वह न सिर्फ राज्य के कार्यो का यथासामर्थ्य निष्पादन करती है बल्कि राज्य को एक परिवार और नागरिक भी देती है। अफसोस की बात है कि इतना होने पर भी कार्यस्थल पर  उसकी स्त्रीगत समस्याओं की तरफ से राज्य लगातार उदासीन है। यही कारण है कि जब घर या नौकरी में से एक चुनने की बात आती है तो स्त्री नौकरी छोड़ देती है। यह समस्या सरकारी क्षेत्र से लेकर निजी क्षेत्र तक व्याप्त है। निजी क्षेत्र में अक्सर ऐसा होता है कि स्त्री कर्मचारी गर्भवती होने के बाद जब अवकाश लेती है तो उसकी जगह पर किसी और की नियुक्ति कर ली जाती है। संसद की एक स्थाई समिति 'कार्मिक, विधि एवं जनशिकायत' ने कामकाजी महिलाओं की समस्या का  व्यापक अध्ययन कर गत दिवस अपनी रपट पेश की है। समिति की संस्तुति है कि नौकरी करने वाली महिलाओं, खासकर युवतियों को काम के घंटों में रियायत दी जानी चाहिए क्योंकि उन्हें अपना घर-परिवार भी संभालना पड़ता है। इसी प्रकार माँ बनने वाली कामकाजी स्त्री के लिए मातृत्व अवकाश भी 180 दिन वेतन सहित करने का सुझाव दिया गया है। समिति ने यह भी पाया है कि नौकरी करने वाले दम्पत्ति को एक ही स्थान पर नियुक्त किए जाने की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है और इसे अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। कॉग्रेस सांसद शांताराम नायक की अध्यक्षता वाली इस समिति ने पाया कि कार्यस्थल पर हो रहे महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में कार्यवाही बेहद असंतोषजनक है। रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि 'समिति का यह मानना है कि महिलाओं और युवा माँओं के लिए कामकाज के लचीले घंटों  तथा घर से काम करने की नीति अपना कर उन्हें कार्यालय और घर के बीच बेहतर संतुलन कायम करने में मदद की जा सकती है।'
       समिति ने सुझाव दिया है कि अगर एक कामकाजी महिला के काम छोड़ने का यही मुख्य कारण है तो इससे उचित तरीके से निपटा जा सकता है। इससे अनुभवी और कुशल कर्मचारियों को बनाये रखा जा सकेगा तथा नये कर्मचारियों को भर्ती करने  और उनके प्रशिक्षण में लगने वाले श्रम से बचा जा सकेगा। दुनिया में 120 से अधिक देश ऐसे हैं जो अपनी महिला कर्मचारी को मातृत्व अवकाश तथा नवजात के पालन-पोषण हेतु वेतन सहित अवकाश देते है। अवकाश व वेतन की स्थितियाँ हर देश में अलग-अलग हैं लेकिन अपने देश में तो सरकारी विभागों में ही इस मामले में एकरुपता नहीं है। यह अवकाश 90 दिन से लेकर 135 दिन तक का है। इस स्थिति से नाराज उक्त समिति ने सरकार से कहा है कि मातृत्व अवकाश 180 दिन तथा नवजात के पालन पोषण का अवकाश 730 दिन का वेतन सहित होना चाहिए तथा यह सरकारी व निजी क्षेत्र में समान रुप से लागू हो। अक्सर होता यह है कि जो निजी संगठन उक्त अवकाश दे भी देते है, वे इस काल का वेतन नहीं देते जिससे महिलाऐं मातृत्व अवकाश प्राय: बहुत सीमित तथा पालन पोषण अवकाश लेती ही नहीं है। समिति का यह सुझाव भी काफी प्रभावशाली है कि यदि घर से काम करना संभव हो तो महिला कर्मी को घर से ही काम करने की अनुमति होनी चाहिए ताकि वह घर भी संभाल सके।
              महिला कर्मचारियों के काम के घंटे कम करने व उन्हें घर परिवार हेतु अवकाश देने की अवधारणा नयी नहीं है। दुनिया के कई देशों में ऐसा हो चुका है। अमेरिकी कहर के शिकार हुए इराक के पूर्व राष्ट्रपति स्व. सद्दाम हुसैन ने अपने देश में स्त्रियों को अभूतपूर्व सुविधा व अधिकार दे रखा था। उनके कार्यकाल में महिला कर्मचारी सिर्फ आधो समय कार्य करती थीं और वेतन उन्हें पूरा मिलता था। सद्दाम का मानना था कि माँओं द्वारा देश के लिए योग्य नागरिक तैयार करना आफिस में कार्य करने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इराक में पत्नी को तलाक देने वाले को अपनी सारी सम्पत्ति तलाकशुदा पत्नी को देनी पड़ती थी। लीबिया के शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी ने भी स्त्रियों व नागरिकों को तमाम तरह की वो सुविधाऐं दे रखी थीं जो अति विकसित कहे जाने वाले देशों के लिए भी संभव नहीं। स्थायी समिति के सुझाव बहुत कारगर और दूरगामी परिणाम देने वाले हैं। मौजूदा समय में जबकि समाज पर कई तरह के खतरे हमलावर हैं, मॉओं को राज्य से उक्त सहूलियतें मिलनी ही चाहिए। हम देख ही रहे हैं कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी से बचने के लिए आज देश की युवतियों में लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह कल्पना ही आतंकित करती है कि हमारे युवा बच्चे पैदा करना बंद कर दें। फिर परिवार और समाज कहॉ से बनेगा! अंतत: बच्चे राज्य की जिम्मेदारी हैं। बेहतर हो कि राज्य इसे प्राथमिक स्तर से ही कबूल करना शुरु कर दे।