Wednesday, March 25, 2015

जनता का धन, सरकारों के विवेक -- सुनील अमर

निर्वाचित और लोकप्रिय कही जाने वाली सरकारों द्वारा बहुत-सी ऐसी योजनाऐं चलाई जाती या खर्चे किए जाते हैं, जिनके औचित्य पर शंका और सवाल उठते रहते हैं। कई बार ये खर्चे इस हद तक मनमाने होते हैं कि उन पर न्यायालयों को भी ऊंगली उठानी पड़ती है। ताजा मामला मध्य प्रदेश का है, जहां मुख्यमयत्री ने गत सप्ताह प्रदेश के 1000 पत्रकारों को लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये की दर से चेक प्रदान किया है। इससे पहले भी देश के तमाम राज्यों में लोगों को प्रभावित करने के लिए इस तरह से जनता के धन को लुटाया गया है। तमिलनाडु तो इस मामले में खासा कुख्यात रहा है। सरकारों द्वारा जब भी इस तरह के मनमानीपूर्ण कृत्य किए जाते हैं तो यह सवाल उठता है कि सत्ता में आने के बाद क्या किसी राजनीतिक दल को यह अधिकार मिल जाता है कि वह जनता के धन का बंदरबांट कर सके? सत्ताधारी दल का यह तर्क होता है कि योजना कैबिनेट से मंजूर है और कैबिनेट को जनता ने चुना हुआ है, लेकिन सवाल धन के सदुपयोग का होता है। वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने तमाम जन योजनाओं के धन में कटौती कर अपनी तथाकथित विचारधारा के पोषण में पार्कों, मूर्तियों और ऐसे ही अन्य कामों पर अंधाधुंध अरबों रुपया खर्च करना शुरू किया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से ऐसे खर्चों का औचित्य पूछा। मायावती सरकार का जवाब था कि ये खर्चे कैबिनेट से मंजूर किए गए हैं, इसलिए वैध हैं। इस पर माननीय न्यायालय का कहना था कि सरकार इस तरह से जनता के धन का मनमाना उपयोग करेगी तो हम क्या चुपचाप देखते रहेंगे? लेकिन जैसा कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता होती है, अगले चुनाव में जनता ने मायावती की बसपा को हराकर बता दिया कि कैबिनेट का ऐसा मनमानापन उसे पसंद नहीं। सरकारें दो तरह के कार्य करती हैं। एक तो जनता के लिए और दूसरा, अपनी राजनीतिक पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए। एक निर्वाचित सरकार जब ‘सर्वजन हिताय’ की कोई योजना चलाती हैं तो वह राज्य के हित में होती है, लेकिन जब वह समाज के किसी खास वर्ग के हितपोषण में धन खर्च करती है तो प्रकारांतर से वह अपना निजी हित साध रही होती है। दशकों पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष से अपने चहेते लोगों को अंधाधुंध धन बांट कर एक विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने बिना किसी ‘क्राइटेरिया’
के धन बांटा और अपने चहेते पत्रकारों को लाखों रुपये देकर उपकृत किया था और तब मजाक में कहा जाने लगा था कि उत्तर प्रदेश में दो तरह के पत्रकार हैं-एक विवेकाधीन (विवेकाधीनकोष से धन लेने वाले) और दूसरे, विवेकहीन। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के विवेकाधीन कोषों से धन लेने वाले पत्रकारों-साहित्यकारों को अपना विवेक सरकारों के पास गिरवी रखना पड़ता है। सरकारों की खुली मंशा भी यही होती है। देश की तमाम राज्य सरकारें टीवी सेट, साड़ी, बिन्दी, टैबलेट-लैपटॉप, कम्बल, साइकिल और जाने क्या-क्या बांटती रहती हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता कि यह प्रत्येक जरूरतमंद को मिल जाय। सरकारों का एक आकलन होता है कि इतने प्रतिशत लोगों को अगर मिल जाएगा तो हमारी पार्टी को वोटों का लाभ होगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है-उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार ने हाई स्कूल उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को टैबलेट और इंटरमीडिएट के छात्रों को लैपटॉप देने का चुनावी वादा किया था। यह अंदेशा तभी था कि इतनी विशाल संख्या में छात्रों को टैबलेट और लैपटॉप देने का मतलब यह होगा कि प्रदेश की अन्य तमाम कल्याणकारी योजनाओं को या तो ठप कर देना या इस योजना को आधा-अधूरा छोड़ देना। दोनों प्रकार की आशंकाएं सच साबित हुईं। सरकार ने थोड़ा बहुत लैपटॉप बांटकर घोषित कर दिया कि अब यह योजना बंद की जा रही है। टैबलेट बॉटने की योजना तो शुरू ही नहीं हो सकी है। लैपटॉप ने भी अधिकांश छात्रों को फायदे के बजाय नुकसान ही पहुंचाया है, क्योंकि वे इसके इस्तेमाल की विधि तो जानते नहीं थे और न उनके पास इंटरनेट के संसाधन थे। ऐसे में ये लैपटॉप महज सिनेमा देखने की मशीन बनकर रह गए। मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार भी यही काम कर रही है। पत्रकारों को अपनी मर्जी का लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये देना, उन्हें अपने पाले में करना तथा उनके प्रतिरोध की धार को भोथरा करना ही है। कहा जा सकता है कि ऐसे पत्रकार दरबारी हो जाऐंगें। यह एक गंभीर मसला है। मध्य प्रदेश सरकार को अगर पत्रकारों से इतनी ही हमदर्दी थी तो उन्हें कर मुक्त और आसान किश्तों पर लैपटॉप दिला सकती थी। पत्रकारों की और भी बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके राज्य से प्रकाशित-प्रसारित होने वाले तमाम अखबारों-चैनलों में भी वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हैं, अंशकालिक या संविदा पर काम कर रहे पत्रकारों को जीवन के उत्तरार्ध में सुरक्षित ढ़ंग से जीने की कोई गारंटी नहीं है। जो पत्रकार समाचार संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं, उनकी नौकरी की ही गारंटी नहीं हैं। लेकिन इन सब समस्याओं को हल करने में लगने का मतलब समाचार-संस्थाओं के सशक्त मालिकों से पंगा लेना होगा। ऐसे में चार-छह करोड़ रुपया फेंक कर सही-सही जगह मौजूद पत्रकारों को काबू में कर लेना ज्यादा आसान काम लगता है। अखबार जिस तरह से भारी पूंजी का व्यवसाय हो चला है और अखबार मालिकों के अन्य उद्योग-धंधे भी चल रहे हैं, उसमें उनका सरकार से पंगा लेना नामुमकिन है। सरकार का लैपटॉप बॉटना या विवेकाधीन कोष से कुछ लाख रुपये देना तो छोटी बातें हैं, राजनीतिक दल तो अपने कोटे से चहेते पत्रकारों को विधान परिषद, राज्य सभा और न जाने कहां-कहां समायोजित कर रहे हैं। यही कारण तो है कि एक समय के वामपंथी ध्वजाधारी पत्रकार ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष में अपनी नियति तलाश लिए। जनता के धन के उपयोग में सरकारों के विवेक और उनकी स्वच्छंदता की सीमा निर्धारित होनी ही चाहिए। जिलाधिकारियों का भी विवेकाधीन कोष होता है, लेकिन वे उस कोष से किसी को लैपटॉप, कार या मोटरसाइकिल नहीं बांट सकते। वह प्राय: आपात स्थिति या प्राकृतिक आपदा को नियंत्रित करने के लिए होता है। एक निर्वाचित सरकार जनता के धन की संरक्षक होती है, उस धन का राजा नहीं। अफसोस तो यह है कि यह परम्परा कांग्रेसी शासन से उपजी है। जनता को फुसलाने की यह विधि पुरानी है। राजसत्ताएं इसी विधि से मुंह भी बंद करती रही हैं ताकि प्रतिरोध को निष्क्रिय किया जा सके। इसलिए लैपटॉप के लॉलीपॉप को समझने की जरूरत है। 0 0 

Tuesday, March 17, 2015

ध्वनि प्रदूषण रोकने को जरुरी है प्रभावी कानून --— सुनील अमर

देश में ध्वनि प्रदूषण का स्तर चिंतनीय ढ़ॅग से बढ़ा है और इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि जल और वायु प्रदूषण जितना ही खतरनाक ध्वनि प्रदूषण भी है और इससे होने वाली बीमारियों में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इसके निवारण के लिए देश में जो कानून व प्राविधान हैं भी उनका ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना ही इस समस्या की जड़ है। इससे सम्बन्धित अधिकारी अगर अपने अधिकारों का सम्यक प्रयोग करें तो ऐसी तात्कालिक समस्याओं से तो निजात पाया ही जा सकता हैै। दिल्ली पुलिस ने दो वर्ष पूर्व सार्वजनिक स्थानोें पर धूम्रपान करने वालों पर कानूनी कार्यवाही कर 90 लाख रुपये बतौर जुर्माना वसूला था लेकिन ध्वनि प्रदूषण पर ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा नहीं मिलता जबकि इसके प्रमुख स्रोत बड़े वाहन और उनमें लगे प्रेशर हार्न व तमाम तरह के आयोजनांे में प्रयुक्त होने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्र होते हैं। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तीखी आवाज वाले प्रेशर हार्न को रोकने के लिए ध्वनि नियंत्रण एक्ट 2000 या सड़क परिवहन अधिनियम 1988 में कोई भी कानून नहीं है।
नगर व कस्बों की बढ़ती आबादी, समारोह योग्य स्थलों की कमी व उनके अत्यधिक मॅंहगे होने के कारण प्रायः लोग घर के सामने की सार्वजनिक सड़क को ही घेरकर उसे उत्सव स्थल में बदल देते हैं। इससे मार्ग अवरुद्ध ही नहीं अक्सर बंद भी हो जाता है जबकि संविधान की धारा 19 (1)(डी) में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे अवरोध मुक्त सड़क पर निर्बाध चल सकें। जाहिर है कि इस प्रकार के आयोजनों से रास्ता बंद व ध्वनि प्रदूषण, दोनों प्रकार की परेशानियाॅ होती हैं। ऐसे आयोजन चॅूकि देर रात तक चलते हैं, इसलिए उस क्षेत्र में रहने वालों की नींद खराब हो जाना स्वाभाविक ही होता है। इसमें भी ज्यादा दिक्कत उन्हंे होती है जो मानसिक या शारीरिक रुप से तेज आवाज सहन करने में अस्मर्थ होते हैं। मोहल्लों में आजकल होने वाले जगराता, देवी जागरण, हफ्तों चलने वाले धार्मिक प्रवचन व तमाम तरह के अन्य मनोरंजन वाले कार्यक्रम इसी प्रकार के होते हैं। कहने को तो इन कार्यक्रमों के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति ले ली जाती है जिसमें रात दस बजे के बाद तथा सुबह छह बजे तक किसी खुले स्थान से ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग की सख्त मनाही होती है बावजूद इसके इसी अवधि में ऐसे कार्यक्रम किये जाते हैं और ध्वनि की उच्चता के मानक का पालन नहीं किया जाता। इसका खामियाजा छात्रों को भी भुगतना पड़ता है जिनकी पढ़ाई बाधित होती है। परीक्षा के समय में तो यह शोरगुल छात्रों के भविष्य पर भी भारी पड़ता है। प्रायः ऐसे मोहल्ला स्तरीय कार्यक्रमों को वहाॅं के स्थानीय सांसद/विधायक का संरक्षण प्राप्त रहता है जिससे स्थानीय अधिकारी शिकायत होने के बावजूद कार्यवाही नहीं करते। धार्मिक स्थलों पर लगे भयानक ध्वनि विस्तारक तो जैसे संविधान के भी उपर होते हैं और दिन-रात अनावश्यक प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इन्हें रोकने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की होती है वे भी प्रायः यहाॅं सर झुकाते रहते हैे।
शोरगुल से आजिज और बीमार होने की समस्या नई नहीं है। एक समय मेें मशहूर अभिनेता मनेाज कुमार ने इसी शोर पर आधारित फिल्म ‘‘शोर’’ बनाई थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव कई दिनों तक बहुत धूम से मनाया जाता है। इसमें होने वाले भारी शोर-शराबे से दुःखी होकर वर्ष 1952 में कुछ लोगों ने बम्बई हाई कोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने सरकार से पर्यावरण अधिनियम को सख्ती से लागू करने को कहा। कलकत्ता उच्च न्यायालय नेे ऐसा ही एक सख्त निर्णय वाहनों में प्रेशर हार्न के प्रयोग पर दिया और कहा कि ऐसा करने वालों पर जुर्माने लगाये जाॅय। वर्ष 2001 में दिल्ली की एक अदालत ने तो ध्वनि प्रदूषण के मामलों से निपटने के लिए अलग से एक अदालत गठित किये जाने का आदेश सरकार को दिया। वर्ष 1993 में केरल उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चर्च के अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लाउडस्पीकर का प्रयोग कर उस क्षेत्र के निवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन न करें। अदालत ने वादी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, और कहा कि एक सुसंगठित समाज में अधिकार हमेशा कर्तव्यों से जुड़े होते हैं। सबसे चर्चित मामला तो राजस्थान के बीछड़ी गाॅव का रहा जहाॅ प्रदूषण फैलाने के लिए देश की एक प्रमुख कम्पनी को जुलाइ्र्र्र 2011 में 200 करोड़ रुपये का जुर्माना सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया। इस सम्बन्ध में स्पष्ट आदेशांे के बावजूद प्रशासनिक स्तर पर सही क्रियान्वयन के अभाव में यह शोर-शराबा दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।   
Link --- http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1796

किसानों के साथ किए जा रहे सरकारी छल पर दैनिक जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर

'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा' --- — सुनील अमर

बढ़ते ध्वनि प्रदूषण पर आज नवभारत टाइम्स में मेरा आलेख —
'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा'
Link -- http://epaper.navbharattimes.com/…/12-13@13-02@03@2015-1001…