Wednesday, December 09, 2015

कोचिंग की कालकोठरी में बच्चे --- सुनील अमर

देश के कोचिंग हब के रूप में मशहूर राजस्थान का कोटा शहर अब बच्चों की आत्महत्या के कारण चर्चा में है। इस साल अब तक 26 बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं। पिछले साल 11 बच्चों ने और 2013 में 13 ने आत्महत्या की थी। साफ है कि वहां सुसाइड करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। खुदकुशी की इन घटनाओं ने कोचिंग व्यवसाय की एक भयावह तस्वीर पेश की है, जिससे देश अब तक प्राय: अनजान था। ऐसा लगता है कि कोटा में होनहार और मासूम छात्रों में डेथ कॉम्पिटिशन शुरू हो गया है! औसत देखा जाए तो लगभग हर तेरहवें दिन एक स्टूडेंट अपनी जान दे रहा है। कारण एकदम साफ है - परीक्षाओं में सफल होने का बेहद दबाव, लक्ष्य के विकल्प का अभाव, कक्षा में अध्यापकों का उपेक्षापूर्ण व मशीनी रवैया और इसी के साथ मां-बाप की अनाप-शनाप अपेक्षाएं। छात्रों को सिर्फ ज्ञान और सूचनाएं दी जा रही हैं। उन्हें जीवन का सही अर्थ समझाया नहीं जा रहा। एक सांचा बना दिया गया है और जो छात्र उस में फिट नहीं हो रहा उसे निकम्मा बताया जा रहा है! जबकि दुनिया में हजारों-लाखों सांचे और भी हैं।

अपने-अपने तर्क
खुदकुशी के पीछे छात्रों, अभिभावकों और संस्थान प्रबंधकों के अलग-अलग तर्क हैं। आईआईटी /जेईई तथा मेडिकल पाठ्यक्रम की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारियां प्रायः बारहवीं की पढ़ाई के साथ-साथ शुरू हो जाती हैं और आईआईएम की प्रवेश परीक्षा यानी कैट की तैयारी ग्रेजुएशन या उसके अंतिम वर्ष की परीक्षा के साथ ही। ऐसा करने से छात्रों का एक साल का समय बच जाता है, लेकिन बारहवीं (विज्ञान वर्ग) और उक्त प्रवेश परीक्षाओं की एक साथ तैयारी करना बहुत कठिन काम है। यह छात्रों के सामने दोहरा चैलेंज खड़ा करता है। नए नियमों के अनुसार आईआईटी में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को अब दो के बजाय तीन मौके मिलेंगे। यही वह जानलेवा कानून है जो छात्रों पर जबर्दस्त दबाव बनाता है कि वे इंटर की बोर्ड परीक्षा और आईआईटी की प्रवेश परीक्षा एक साथ पास करें। इसका एक पहलू यह भी है कि इसमें भाग लेने वाले छात्रों की औसत आयु प्रायः 17-18 वर्ष ही होती है। यह बहुत कच्ची उम्र होती है। बच्चों के लिए सही-गलत का निर्णय करना आसान नहीं होता। प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों में एक छात्र पर कम से कम दो लाख रुपये प्रतिवर्ष का खर्च आता है और छात्र अपने मां-बाप की आर्थिक हालत सोचकर भी भारी दबाव में रहते हैं।

छात्रों का कहना है कि अध्यापक कक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्रों को न सिर्फ आगे की बेंचों पर बैठा कर उन पर ज्यादा ध्यान देते हैं बल्कि कम अच्छे छात्रों को सरेआम धिक्कारते और ज्यादा मेहनत करने का दबाव बनाते हैं या फिर उनका बैच ही बदल देते हैं। कोटा के एक कोचिंग संचालक का तो साफ कहना है कि जब मां-बाप जानते हैं कि उनका बच्चा स्कूल में बेहतर नहीं था, तो उसे यहां इतनी कठिन तैयारी के लिए क्यों भेज देते हैं?

कोटा से पहले दक्षिण भारत प्रतियोगिता परीक्षाओं का एकमात्र गढ़ था। दुनिया भर में दक्षिण भारत और खासकर केरल को तो आत्महत्याओं की राजधानी कहा जाता रहा है। ध्यान रहे कि केरल देश का पहला ऐसा राज्य है जो पूरी तरह साक्षर है। कोचिंग संस्थानों का संजाल पूरे देश में दक्षिण से ही फैला है। इन संस्थानों का हाल यह है कि इन्हें बेहतर परीक्षा परिणाम लाने पर ही ढेर सारे छात्र मिलते हैं। इसके लिए ये अच्छे से अच्छे अध्यापकों को मोटा वेतन देकर ले आते हैं। कोटा में ऐसे अध्यापकों का वेतन 15 लाख से 50 लाख रुपये प्रतिवर्ष तक का है और इस क्षेत्र में अपने विषय के जो स्टार अध्यापक माने जाते हैं उन्हें तो दो करोड़ रुपये प्रतिवर्ष तक मिल जाता है! जाहिर है कि ऐसे अध्यापकों के ऊपर ज्यादा से ज्यादा छात्रों को सफल बनाने का दबाव रहता है और इसके लिए वे हर तरह के उपाय अपनाते हैं। यहां ऐसा कोई नियम-कानून है ही नहीं जो छात्रों को परीक्षा के इस कहर से बचा सके। इसलिए यहां एक ही मंत्र चलता है- डू ऑर डाई। कोचिंग का काम अब उद्योग में बदल चुका है और कोटा में तो सारे बड़े कोचिंग संस्थान ‘इन्द्रप्रस्थ इंडस्ट्रियल एरिया’ की इमारतों में चलाए जा रहे हैं!

ऐसे कोचिंग संस्थानों पर नियंत्रण के लिए कोई बहुत स्पष्ट और बाध्यकारी कानून भी नहीं हैं। आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए कोटा के जिला प्रशासन ने 12 सूत्री दिशा-निर्देश जारी कर कहा है कि सभी संस्थान करियर काउंसलर, मनोचिकित्सक तथा फिजियोलॉजिस्ट नियुक्त करें, छात्र व उनके मां-बाप की भी काउंसलिंग की जाय, प्रवेश के लिए स्क्रीनिंग प्रक्रिया अपनाई जाय, कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए तथा एक बैच से दूसरे बैच में किसी छात्र के स्थानांतरण की समीक्षा की जाए। साप्ताहिक छुट्टी, योगाभ्यास, कक्षा से अक्सर गायब रहने वाले छात्रों की चिकित्सा जांच, मनोरंजन तथा फीस को एकमुश्त के बजाय किस्तों में लेने की व्यवस्था की जाय।

कोई जिम्मेदारी नहीं
नोट छापने के कारखाने में तब्दील हो चुके कोचिंग संस्थान ऐसी हिदायतों को कितना मानेंगे, बताने की जरूरत नहीं है। जो छात्र कुदरतन प्रतिभावान हैं, उनकी बात अगर छोड़ दी जाए तो सामान्य छात्रों की समस्याओं को सुनने के लिए इन कोचिंग संस्थानों के प्रबंधन के पास समय नहीं है। न ही अध्यापकों की इसमें कोई दिलचस्पी है। शायद इन्हें ऐसी समस्याओं को सुनने की जरूरत ही नहीं है जब तक कि इनके पास छात्रों की भरमार है। ( Published in   Wednesday December 09, 2015 )

Tuesday, December 08, 2015

इसलिए फल-सब्जियां नहीं उगाते किसान

अलग से बने कृषि बजट और कृषि सेवा -- सुनील अमर

देश की 58 प्रतिशत आबादी को रोजगार तथा लगभग समूची आबादी को भोजन उपलब्ध कराने वाली भारतीय कृषि की दयनीय हालत का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके लिए अलग से बजट बनाने का प्राविधान नहीं है। देश में रेलवे के लिए अलग से बजट बन सकता है लेकिन खेती के लिए नहीं। सरकार की निगाह मंे खेती से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मनरेगा जैसी श्रमिक योजनाऐं हैं जिनका बजट सम्पूर्ण भारतीय कृषि से कहीं ज्यादा रहता है। सरकारी उपेक्षा के चलते खेती किस हालत में आ गई है इसे सिर्फ इसी एक आॅंकड़े से समझा जा सकता है कि देश के लगभग आधे किसान मनरेगा में मजदूरी करने को विवश हैं और पिछले 17 वर्षों में तीन लाख से अधिक किसान गरीबी, कर्ज और प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुके हैं। यह क्रम जारी है और सिर्फ महाराष्ट्र में बीते सात महीने के भीतर किसानों की मौत में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है! अभी बीते दिनों गेंहॅूं की फसल पर हुई बेमौसम की बरसात और ओलावृष्टि से प्रभावित देश के 12 राज्यों में अनुमानतः 20,000 करोड़ रुपये की फसल बरबाद हो गई है।
वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के विकसित कहे जाने वाले सारे देशों का ध्यान भारत सरीखे उन विकासशील देशों की तरफ लगा हुआ है जहाॅं उपलब्ध विशाल भू-भाग पर कृषि को और उन्नत बनाकर ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने की अपार सम्भावनाऐं बनी हुई हैं ताकि उनके देशों को भी भोजन मिल सके। सम्पन्न ब्रिटेन और विस्तृत क्षेत्रफल वाले रुस भी खाद्यान्न के लिए भारत-चीन सरीखे देशों पर निर्भर करते हैं। कोई भी देश औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में कितनी ही प्रगति कर ले लेकिन उसे भी अपने नागरिकों के लिए खाने के लिए अनाज चाहिए ही। इस देश के किसानों का दुर्भाग्य यह है कि वे नाना प्रकार की उपेक्षा और तकलीफें सहकर भी देश की जरुरत का धान-गेहॅूं-गन्ना पैदा कर ही रहे हैं। जिस देश में आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में हर साल दोगुना की वृद्धि हो रही है वहाॅं किसानों को सरकारी समर्थन मूल्य के नाम पर प्रति कुन्तल सिर्फ 30-40 रुपये वृद्धि की सहमति दी जाती है। वह भी तब मिल सकता है जब किसान के उत्पाद की खरीद सरकार स्वयं करे। बहुत बार तो यह भी नहीं दिया जाता। जैसे उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी सरकार ने पिछले दो वर्ष से गन्ना किसानों को एक पैसे की भी मूल्य-वृ़िद्ध नहीं दी है।
आज स्थिति यह है कि इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए देश में किसान आयोग तक नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी नीत राजग सरकार ने वर्ष 2004 के अपने अन्तिम दिनों में एक महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था और प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन को इसका अध्यक्ष बनाया था। आयोग ने बहुत तत्परता से काम किया और दो वर्ष के भीतर 40 बैठकें कर कृषि सुधार से सम्बन्धित पाॅच बेहद शानदार और उपयोगी रिपोर्टें सरकार को सौंपी लेकिन मनमोहन सिंह नीत संप्रग सरकार की दिलचस्पी इन सबमें नहीं थी, लिहाजा काफी दिनों तक कोमा में रहने के बाद यह आयोग मृत्यु को प्राप्त हो गया। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विशेषज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशाहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त समस्याओं की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चैंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियाॅ निर्धारित करनी वाली एक हजार से अधिक कुर्सियों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए हैं! देश में रेलवे, दूरसंचार, वित्त, राजस्व यहाॅं तक कि वन विभाग के लिए भी अलग से सेवाऐं हैं लेकिन कृषि के लिए ऐसा जरुरी नहीं समझा जाता।
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 वर्षों में दो करोड़ से अधिक किसानों ने खेती करना छोड़कर अन्य कार्य अपना लिया। किसाना घट रहे हैं और मजदूर बढ़ रहे हैं। इसका अर्थ समझना कोई कठिन काम नहीं। देश में ज्यादा से ज्यादा मजदूर उपलब्ध रहेंगें तो कल-कारखानों को सस्ते में श्रमिक मिलते रहेंगें। सरकार की नीति देखिए कि वह अपने चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी को जितनी मासिक तनख्वाह देती है, उसका चैथाई भी न्यूनतम मजदूरी के तहत एक मजदूर को नहीं देती! कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाॅंधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। खेती अपरिहार्य है क्योंकि मनुष्य अन्न के बिना नहीं रह सकेगा। 18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थाॅमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि ‘‘आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणितीय तरीके से।’’ जाहिर है कि हमें खाद्यान्न उत्पादन को भी ज्यामितीय तरीके से बढ़ाना ही होगा। कृषि के लिए अलग से बजट की माॅंग कई हलकों से उठती रही है। देश का कृषि क्षेत्र बड़ा और विविधीकृत है। इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए व्यापक कवरेज वाला बजट तथा प्रासंगिक भारतीय कृषि सेवा का गठन किया जाना चाहिए। 0 0 ( Humsamvet )