Saturday, April 09, 2016

लोहियावाद को नए सिरे से समझने की कोशिश -----सुनील अमर

लोहिया की सारी चिन्ता सामाजिक असमानता को लेकर थी। यह वह केन्द्र बिन्दु था जिसके चारो तरफ डाॅ. लोहिया के विचार घूमते थे। साठ के दशक में, जो कि लोहिया की सक्रियता का सबसे उर्वर कालखन्ड था, वे इस बात पर मनन करते थे कि देश में अगर समाजवादी सरकार बनी तो वे हाशिए पर पड़े लोगों की आमदनी को तीन गुना जरुर बढ़ाऐंगें। वे मानते थे कि समाज में असमानता रहने से शोषण और दमन बढ़ता है। यही कारण था कि वे वस्तुओं के दाम बाॅंधने और कर्मचारी तथा अधिकारी के वेतन में सिर्फ तीन गुने का फर्क रखने पर जोर देते थे। लोहिया असमय काल के शिकार हो गए। देश में तो नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे विशाल प्रदेशों में लोहियावादियों की सरकारें सत्ता में हैं और अपने हिसाब से हाशिए के लोगों के लिए कार्यक्रम चला रही हैं।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में समाजवादी पार्टी से जुड़े युवा डाॅं. आशीष पाण्डेय दीपू ने हाशिए के लोगों तक पहुॅंचने और उन्हें समझने का एक लोहियावादी प्रयोग दो वर्षों से शुरु किया है- समाज के दबे-कुचले और भूखे-बिलखते वर्ग को सेवा के माध्यम से सामने लाने का। समाजवादी पार्टी से जुड़ने के बाद डाॅ. आशीष को लगा कि लोहिया का सच्चा अनुगमन तो तभी हो सकता है जब समाज के दमित वर्ग को उठाने की कोशिश की जाय। बिना किसी संसाधन के उन्होंने एक बड़े आयोजन की शुरुआत कर डाली। समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर उनकी उम्र जितने दिनों तक गरीबों को लगातार भोजन, वस्त्र तथा जीवनोपयोगी सामग्रियों का वितरण कर उन्हें मुख्यधारा में ले आने का। इस सामाजिक समरसता के आयोजन को उन्होंने अयोध्या में शुरु किया और उनकी कोशिश रही कि इससे सर्वधर्म समभाव का सन्देश भी फैले। गतवर्ष 76 दिनों तक तथा इस वर्ष 77 दिनों तक लगातार गरीबों के लिए लंगर, रात्रि निवास, वस्त्र तथा जीविकोपार्जन की मदद का कार्यक्रम उन्होंने किया। डाॅ. आशीष का कहना है कि ऐसा करके उन्होंने समाज के इस वर्ग को नजदीक से देखा और समझा। उनकी जरुरतों को महसूस किया और उन्हें लगा कि जो भी सरकारी योजनाऐं बनती हैं, उनमें व्यावहारिकता की इसी कमी की वजह से इस वर्ग को वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अपने आयोजनों का चित्र, ध्वनि और वीडियो माध्यम में वृहद संकलन कर उन्होंने नेतृत्व और शासन को अवगत कराया है। उनके इस अद्भुत प्रयास को मीडिया ने भी काफी उत्साह से प्रचारित किया। आशीष बताते हैं कि शासन ने उनकी योजनाओं का संज्ञान लेते हुए उन्हें सूचित किया है कि इन पर यथोचित अमल किया जाएगा। लोहियावादी विचारक और विधानसभा अध्यक्ष माताप्रसाद पाण्डेय कहते हैं कि लोहिया को समझने और उन पर अमल करने का यह एक व्यावहारिक तरीका है।
डाॅ. आशीष पाण्डेय द्वारा किया गया यह प्रयोग सामाजिक समरसता का एक दूसरा मायने भी रखता है। बीते दिनों अयोध्या में भाजपा और विहिप द्वारा एक बार नये सिरे से मन्दिर मुद्दे को गरमाने का प्रयास किया गया। वर्षों से बन्द पड़ी मन्दिर निर्माणशाला को झाड़-पोंछकर और एकाध ट्रक पत्थर मॅंगाकर यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि केन्द्र की भाजपा सरकार मन्दिर निर्माण पर गम्भीर है। नेताओं की बयानबाजी तथा मीडिया रिपोर्टों से अयोध्या-फैजाबाद का अल्पसंख्यक वर्ग चिन्तित होने लगा था। ऐसे समय में समाज के सभी धर्मों-वर्गो को एकसाथ लेकर अयोध्या के भीतर सामूहिक भोजन, पूजा-उपासना तथा चर्चा आदि के इस कार्यक्रम ने निश्चित तौर पर संतुलन बनाया। न्यूज चैनलों पर जब इस कार्यक्रम की खबर चली तो एकाध कट्टरपन्थी हिन्दू नेताओं ने इसे मुलायम सिंह का अयोध्या प्रकरण पर किया जा रहा प्रायश्चित भी बताया। डाॅ. आशीष पाण्डेय को लोहियावाद विरासत में मिला है। वे लोहियावादी-समाजवादी विचारक और पूर्व विधायक जयशंकर पाण्डेय के पुत्र हैं।
डाॅ. लोहिया का जोर मुख्यतया दो बातों पर रहता था- वे मानते थे कि समाज में असमानता बढ़ने से गुलामी और दमन का रास्ता साफ होता है और बाद में उससे युद्ध की स्थितियाॅं बनती हैं। इसीलिए वे दाम और काम को निश्चित करने की बात करते थे। वे मानते थे कि आर्थिक असमानता एकदम से मिटाई नहीं जा सकती लेकिन आम आदमी को जीने की सम्माननीय परिस्थितियाॅं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों की ही है। दशकों पहले की लोहिया की आशंका आज अपने क्रूरतम रुप में सामने आ रही है जब सरकारें पूॅंजीपतियों से खुलेआम गलबहियाॅं कर रही हैंे। फ्रान्स के युवा अर्थशास्त्री थाॅमस पिकेटी ने अपनी ताजा पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वेन्टी फसर््ट सेन्चुरी’ में लोहिया की आशंका को विस्तारित करते हुए बताया है कि धन का भन्डार जितनी तेजी से बढ़ता है, उतनी तेजी से काम करने वालों की आय नहीं बढ़ती इसलिए दुनिया में आज जो ढ़ाॅंचा चल रहा है उसमें असमानता बढ़नी ही है। लोहिया की इन्हीं आशंकाओं का वर्णन प्रसिद्ध लेखक अमत्र्यसेन और ज्याॅं द्रेज अपनी पुस्तक ‘द अनसर्टेन ग्लोरी’ में करते हैं। लेकिन अफसोस यह है कि महात्मा गाॅंधी और लोहिया से लेकर ज्याॅं द्रेज तक की चिन्ता के बावजूद यह असमानता सारी दुनिया में तेजी से बढ़ती ही जा रही है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या एक-दो महीने भोजन करा देने, वस्त्र देने या भौतिक जीवन की कुछ जरुरतें पूरी कर देने से मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर हो जाएगी? डाॅं. आशीष पाण्डेय कहते हैं कि बड़े पैमाने पर और सतत् ऐसे कार्यक्रम चलाए जाने की जरुरत है जिसे अंगीकार करके सरकारें बेहतर काम कर सकती हैं। वे कहते हैं कि अगर आज के युवा राजनीतिक ऐसे सामाजिक कार्यक्रम अपने-अपने क्षेत्रों में शुरु करें तो साधन समपन्न लोग भी उनकी मदद को आगे आयेंगें और समाज में बदलाव आ सकता है। डाॅ. पाण्डेय अपना संकल्प बताते हैं कि वे इस तरह के कार्यक्रमों को सतत् चलायेंगें और अपने साथियों को भी ऐसा करने को प्रेरित कर रहे हैं। यह सच है कि सरकारी योजनाऐं तो बहुत सारी हैं, इतनी कि अधिकारियों को उनका नाम तक याद नहीं रहता लेकिन जागरुकता और पहुॅंच के अभाव में जरुरतमन्द लोग उसका लाभ नहीं ले पाते। ऐसे आयोजनों से अगर जनता को जागरुक किया जा सके तो निश्चित ही यह एक बड़ी समाजसेवा और लोहिया को वास्तविक श्रृद्धांजलि होगी। 0 0 

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