Friday, February 25, 2011

'' कहाँ पहले जैसे जमाने रहे अब ! '' -- सुनील अमर

न शिकवे, शिकायत, बहाने रहे अब,
कहाँ पहले जैसे जमाने रहे अब !

वो ख्वाबों में मिलना, किताबो में मिलना,
वो चंदा पे मिलना, सितारों पे मिलना ,
वो मिलने के सौ-सौ बहाने भी गढ़ना ,
वो अपनों से बचना, वो गैरों से बचना ।

हर इक साँस में तुम, हर इक आस में तुम,
वो रो-रो के हॅंसना, वो हॅंस कर सिसकना।

बहकती सी पुरवा जो आई हुई है,
मिलन का संदेशा ये लाई हुई है ,
तेरे ज़िस्म को छूकर आई हुई है,
ये महकी है, थोड़ा लजाई हुई है।

न दिन-रात अपने, न जज्ब़ात अपने ,
न ख्वाबों पे बस, न ख्यालात अपने ।
अज़ब सा नशा एक तारी हुआ था
मेरे होश पर खूब भारी हुआ था ,
कहाँ इल्म था ये गुलाबों का टुकड़ा,
मेरी जिन्दगी पर दुधारी हुआ था ।

अचानक कि जैसे कहर टूटता है ,
शबे-वस्ल पर ज्यूं सहर टूटता है,
ये बरसों का रिश्ता भी कुछ ऐसे टूटा,
हवाओं से जैसे शज़र टूटता है ।


वो बचकर निकलना, वो कतरा के जाना,
वो रस्ते में मिलने पे आखें चुराना ,
वो खुद से सहमना, वो खुद में सिमटना ,
वो सूखे गले से बहाने बनाना ।

मैं सबसे परेशां , तू मुझसे परेशां ,
अचानक हुआ क्या, तू गाफ़िल, मैं हैरां !


ये बरसों की चाहत को बस गर्द समझा,
मेरे दिल के ज़ज्बात को सर्द समझा ,
न हमराज समझा , न हमदर्द समझा ,
मुझे तुमने इस दर्जा खुदग़र्ज समझा !

जरुरी नहीं था कि हम साथ रहते,
मुहब्बत पे रिश्तों का कुछ नाम रखते,
मुझे तेरी खुशियों से निस्बत थी हमदम,
ये जां भी मैं देता , तुम इक बार कहते !
ये दिल टूटने पर मैं रो भी न पाया,
जो भर आयीं आँखें तो आंसू छिपाया,
तुम्हारी कसम थी, सो उसको निभाया,
कहो तुम, कोई आज तक जान पाया ?

बहुत सोचता हूँ तुम्हें भूल जाऊॅं,
तुम्हारी तरह, कोई दुनिया बसाऊॅं,
तुम्हारी तरह ही हॅंसू, खिलखिलाऊॅं,
मैं खुश हूँ , बहुत खुश हूँ ,सबको दिखाऊॅं,

मगर दिल है अब भी तुम्हें चाहता है,
तुम्हें चाहता है............
तुम्हें चाहता है........

मैं फ़नकार, अब अपना फ़न बेचता हूँ ,
मैं नाकाम उल्फ़त का तन बेचता हूँ ,
ये ग़ज़लें , ये नज़्में , क़ता ये रुबाई ,
ये लिख-लिख के मैं अपना मन बेचता हूँ ।



ये सदमा मेरे दिल में घुटता रहा है,
ग़ज़ल बन के लफ़्जों में ढ़लता रहा है,
यही मेरा रोना है - गाना यही है ,
मेरी जिन्दगी का तराना यही है ।

कहाँ मेरे जैसे दीवाने रहे अब !
कहाँ पहले जैसे जमाने रहे अब !
न शिकवे, शिकायत, बहाने रहे अब !!
oooo

Thursday, February 24, 2011

लौह-पुरुष और उनका ब्लॉग ! -- सुनील अमर

लोहे में ही जंग लगता है, यह सनातनी जानकारी मैं उन लोगों को दे रहा हूँ जो लोहे को ही सर्व शक्तिमान मान कर अपने आदर्श पुरुषों को '' लौह-पुरुष'' की उपाधि से विभूषित कर देते हैं! बाद में इस लोहे में जंग लगा देखकर वे छि-छि कर दूर खड़े होते हैं कि कहीं उनका दामन भी गन्दा न हो जाये इस बुढ़ाते हुए लोहे के कारण !
इस 125 करोड़ की महा आबादी वाले देश में सिर्फ एक लौह-पुरुष और उनकी भी यह गति !
वर्ष 2004 में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अपने भारत का उदय कराने में असफल हो गया तो राजग के चतुर-सुजान लोगों ने ''भागते भूत की लंगोटी ही सही '' की तर्ज पर नेता-प्रतिपक्ष की कुर्सी हथियाने के लिए आपस में ही घुटना-टेक लड़ाई लड़ी.कायदे से यह कुर्सी भाजपा के वट-बृक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को मिलनी चाहिए थी लेकिन प्रतिघात में चूँकि लौह-पुरुष का कोई जबाब नहीं,इसलिए वे यह कुर्सी झटक ले गए! उस वक़्त जिन लोगों ने अटल और अडवाणी को आमने-सामने खड़े देखा रहा होगा, उन्हें वाजपेयी के चेहरे की कातरता और अडवाणी के चेहरे की कुटिलता भी अच्छी तरह याद होगी. जिन लोगों ने शेक्सपियर का प्रसिद्द नाटक '' जुलिअस-सीजर पढ़ा है, उन्हें अवश्य ही वह दृश्य याद आ गया होगा जिसमे तलवार की चोट खाने के बाद सीजर अपने परम विश्वस्त ब्रुट्स से कहता है कि '' ब्रुट्स यु टू!'' कातर वाजपेयी की आँखें भी उस वक़्त मानों यही कह रही थीं कि '' आडवाणी, यू टू!'' '' अरे! सबने धोखा किया, सो किया लेकिन आडवानी तुम भी?''
समय का पहिया अगर गतिमान न होता और इतिहास अपने को दुहराता न होता तो भला लोहे में कभी जंग लग सकता था !
इस लोहे में जंग लगने की शुरुआत संभवतः 2005 में ही शुरू हुई, जिन्ना की समाधि से,
पत्रकारिता,राजनीति और पठन-पाठन के क्षेत्र में जो लोग हैं उन्हें जरुर याद होगा कि यही वह वक़्त था जब बाजपेयी की याददास्त ने साथ छोड़ना शुरू किया था और लौह-पुरुष की याददास्त ने जोर पकड़ना! लौह पुरुष को लाहौर में याद आया कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में हुआ बाबरी मस्जिद का विध्वंस बहुत गलत था! बाजपेयी की डूबती याददास्त से वे चौकन्ने थे, सो भूल न जाय , इसलिए उन्होंने कायदे-आज़म की समाधि पर रखे रजिस्टर में बाकायदा इसे लिख दिया ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आये !
तो दोस्तों! वक़्त भी आया और जो लिखा था वह काम भी आया!!
नागपुर ने इस लोहे में लग रहे जंग को गंभीरता से लिया और रेगमाल उठा कर साफ करना शुरू कर दिया.
नागपुर??
दुनिया में कुछ स्थान ऐसे हैं जो शक्ति-पुंज के तौर पर जाने जाते हैं.इनका नाम ही इनकी ताकत का पर्याय है. जैसे -- 10 डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाईट हॉउस, 10 जनपथ, क्रेमलिन आदि. उसी तरह नागपुर भी है, यह संघ का मुख्यालय होने के साथ-साथ भाजपा का हवाई अड्डा भी है.इसकी सभी उड़ानें यहीं से नियंत्रित होती हैं.इधर इसने भाजपा के लिए पायलट भी देना शुरू कर दिया है. तो किस्सा-कोताह यह कि पहले लौह-पुरुष की अध्यक्षी गयी फिर वो कुर्सी जिसके लिए वो ''ब्रुट्स'' तक बन गए थे !
बेचारे लौह-पुरुष !!
फिर एक वक़्त ऐसा भी आया कि मक्खन सी मुलायम एक महिला ने इस लोहे की सारी अकड़ निकालते हुए संसद का वह कक्ष भी हथिया लिया जिसमें लौह-पुरुष बैठा करते थे. यह दुर्दिन !!
भारतीय राजनीति में जिसकी दशा '' भीलन लूटीं गोपिका,वहि अर्जुन,वहि बान '' सरीखी हो जाती है, वह पत्र-वत्र लिखने लगता है.जब कोई सुनता ही नहीं तो किया क्या जाय ? राम जेठ मलानी ने तो एक बार पत्र लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू किया था कि मामला मार-कुटाई पर जाकर शांत हुआ था. अपनी-अपनी पसंद !
इधर जमाना बदल गया है और पत्र-वत्र न तो कोई लिखना चाहता है और न ही कोई पढ़ना चाहता है. अब ट्विट और ब्लॉग लिखा जाता है. हो सकता है कि दो-चार साल पहले का समय होता तो लौह-पुरुष पत्र ही लिखते लेकिन प्रचलित रिवाज के हिसाब से उन्होंने ब्लॉग लिखा और जिसे-जिसे पढ़ना ज़रूरी था, उन्होंने उसे पढ़ा भी ! उमा भारती ने भी पढ़ा और कल्याण सिंह ने भी .
नागपुर शायद ब्लॉग भी नहीं पढ़ता ! कौन फंसे विदेशी संस्कृति में!
उमा भारती ने तो तुरंत ही भोपाल से लेकर राम जन्म भूमि तक का एक चक्कर लगा लिया. यह एक टेस्ट-फ्लाईट थी. लेकिन नागपुर के ATC (वायु-यातायात नियंत्रक) ने उसे नोटिस में ही नहीं लिया!
बेचारी उमा भारती ! फिर उन्होंने खिसियाकर कहा कि अभी तो उन्होंने अपनी पार्टी से कोई सलाह-मशविरा किया ही नहीं है कि भाजपा में जाना है कि नहीं ! अरसा हुआ उनके यह कहे. अभी शायद वह अपनी पार्टी को खोज रही होंगी! मिले तो राय-मशविरा करें!
और लौह-पुरुष !
ब्लॉग और ट्विट लिखकर भी कई नेताओं ने अपना भविष्य बनाया है -- जैसे शशि थरूर !
ख़ैर ! यह कहने में कोई एतराज तो नहीं होना चाहिए कि --- '' गर्व से कहो ,मैं ब्लोगर हूँ !'' oo

Tuesday, February 22, 2011

ग्रामीण स्वास्थ्य के लिये तैयार होंगे ग्रामीण डाक्टर्स ---- सुनील अमर

देश के ग्रामीण क्षेत्र की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने तीन वर्षीय पाठय-क्रम की जिस योजना पर काम शुरु किया है, वह अगर ठीक से परवान चढ़ सकी तो निश्चित ही कारगर साबित होगी। आश्चर्यजनक है कि इस योजना की रुपरेखा तैयार करने वाले सज्जन और खुद डाक्टर ही इस योजना का विरोध कर रहे हैं। हालाँकि डाक्टरों के ही एक कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इसे उपयोगी करार देकर तमाम अटकलों पर एक तरह से विराम लगा दिया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि गॉवों में सरकारी और प्रशिक्षित दोनों तरह के डॉक्टरों की बेहद कमी है, जिसका नतीजा है कि वहाँ अकुशल या जिन्हें झोला छाप कहा जाता है, ऐसे डाक्टरों की भरमार है जो प्राय: ही जानलेवा साबित होते रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी चिकित्सालयों में जिन डाक्टरों की तैनाती की जाती है वे शायद ही वहाँ कभी रात्रि निवास करते हों, क्योंकि तमाम प्रकार की आवासीय दिक्कतों के कारण ऐसे डॉक्टर निकटवर्ती शहरों में अपना आवास बना लेते है और बहुत आवश्यक होने पर ही वे अपनी तैनाती के अस्पताल पर जाते हैं।

ग्रामीण इलाकों में मुख्य रुप से तीन तरह की चिकित्सा संबंधी समस्याऐं हैं। एक तो योग्य चिकित्सकों का अभाव, दूसरे, इसी वजह से तथाकथित झोला छाप डाक्टरों की भरमार तथा तीसरे, योग्य और सरकारी चिकित्सकों द्वारा अन्यान्य प्रलोभनवश महंगी दवाओं को लिखकर इलाज करना। यहाँ यह चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है कि देश के सरकारी अस्पतालों में प्रति व्यक्ति कितने रुपये का औसत बजट इलाज के लिए पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा में आने वाली सबसे बड़ी बाधा सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों का न रहना है। उनकी गैर मौजूदगी में कम्पाउन्डर ही डाक्टर का काम करते हैं। अब जो मरीज कम्पाउन्डर को नहीं दिखाना चाहते वे मजबूरी में प्रायवेट चिकित्सकों के पास जाते हैं, भले ही वह झोला छाप हो। ऐसे बहुत से नीम हकीम ख़तरे-जान लोगों ने बाकायदा नर्सिंग होम्स तक खोल रखा है! केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की गत वर्ष की रपट बताती है कि आजादी मिलने के समय देश में निजी अस्पतालों की जो संख्या मात्र 8 प्रतिशत थी, वो अब बढ़कर 68 प्रतिशत हो गयी है!

स्वास्थ्य मंत्रालय की इस नयी योजना में देश में मेडिकल स्कूलों की स्थापना की जानी है। जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है, ये मेडिकल कॉलेज नहीं होंगें। यहॉ से पॉच साल के बजाय सिर्फ तीन साल में ही अपनी पढ़ाई पूरी कर एक नये तरह के डाक्टरों की खेप निकलेगी जो देश के देहाती क्षेत्रों को अपनी सेवायें देगी। ऐसे डॉक्टरों को बी.आर.एच.सी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ कोर्स) की डिग्री मिलेगी। उनके पंजीकरण में ही इस तरह की बाध्यता होगी कि वे एक निश्चित परिधि या क्षेत्र में ही नौकरी या मेडिकल प्रैक्टिस कर सकेंगें। वैसे तो यह संकल्पना ही एक तरह का क्षोभ पैदा करती है कि देश में दो तरह की स्वास्थ्य सेवायें रखी जायं-शहरी लोगों के लिए उत्कृष्ट किस्म की और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए दोयम दर्जे की! फिर भी यह माना जा सकता है कि देश में संसाधनों की जो स्थिति है, उसमें अभी इस तरह की ही व्यवस्थाऐं हो सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जिस तरह से फर्जी डाक्टरों की भरमार है, उसके बजाय अगर बी.आर.एच.सी वहॉ उपलब्ध रहेंगें तो यह एक तरह से ठीक ही रहेगा।

लेकिन मूल समस्या सिर्फ इतनी सी ही नहीं है। अभी जिन सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर चिकित्सक मौजूद भी रहते हैं, मसलन, जिला चिकित्सालयों में, वहाँ का तजुर्बा भी मरीजों के लिए यही है कि या तो डाक्टरों द्वारा उन्हें बाहर से खरीदने के लिए मंहगी दवाऐं लिख दी जाती हैं, या यही काम मरीजों को घर बुलाकर किया जाता है और साथ में तमाम तरह की जॉच का पर्चा भी थमाकर। अध्ययन बताते हैं कि जॉच और मंहगी दवा के दुश्चक्र के कारण मरीज को दस गुना तक ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है। यही कारण है कि गरीब मरीज बीच में ही इलाज छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं। यह बीमारी किस तरह से दूर होगी, सरकार को इस पर भी विचार करना चाहिए। हालॉकि डाक्टरों को निर्देश हैं कि वे बाहर से खरीदनें के लिए दवा का पर्चा न बनायें लेकिन इलाज के लिए ड़ॉक्टर के पास गया मरीज उसकी बात मानेगा या सरकार की! दूसरी मुख्य समस्या है प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डाक्टरों के रात्रि निवास न करने की। इसे कैसे बाध्यकारी किया जा सकता है, इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। तीसरी और अहम् समस्या है मंहगे इलाज की। दवाओं की कम उपलब्धता और उनका घटिया होना भी एक चिकित्सक को बाहर की दवायें लिखने को प्रेरित करता है क्योंकि वह मरीज को ठीक करना चाहता है। ऐसे में एक परेशान हाल मरीज दवा कम्पनियों के दलालों और डाक्टरों की दुरभिसंन्धि का बेरहमी से शिकार बन जाता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि दवा कम्पनियां अपनी दवाओं का ब्रान्ड नाम बनाती हैं और उनके प्रचार-प्रसार में बहुत धन खर्च करती हैं। इस प्रकार लागत और डाक्टर-स्टोरवालों का कमीशन जोड़कर ये दवाऐं खासी मंहगी हो जाती हैं, जबकि वही दवा जो जेनरिक यानी बिना ब्रांड-नाम के बाजार में उपलब्ध रहती है, उसकी कीमत चौथाई ही रहती है! छोटी दवा कम्पनियों के संघों का तो यहाँ तक कहना है कि यदि किसी प्रकार डाक्टरों और दवा विक्रेताओं को उपहार और कमीशन देने की प्रथा बंद हो जाय तो दवाओं की कीमत अपने आप आधी हो जाय! इसी क्रम में यह भी सोचने वाली बात है कि चिकित्सा के कार्य ने बीते दो दशक में उद्योग का रुप ले लिया है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी से लेकर पढ़ाई और नर्सिंग होम की स्थापना तक का कार्य अब भारी पूंजी का मोहताज हो चुका है। ऐसे में निजी चिकित्सा क्षेत्र से किसी रहम या खैरात की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।

तीन वर्षीय बी.आर.एच.सी. डॉक्टर तैयार करने की केन्द्र सरकार की योजना वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित और स्थापित होने वाले सरकारी अस्पतालों के लिये डाक्टर उपलब्ध कराने की है। जब तक उपर वर्णित शेष दोनों व्याधियाँ भी न दूर की जायें, स्पष्ट है कि कोई खास सुधार हो नहीं पायेगा। जैसी कि योजना है, 200 बेड वाले जिला चिकित्सालयों में ही ऐसे स्कूल चलाये जायेंगें और उन्हें वहीं के सेवारत डाक्टर पढ़ायेंगें। इसमें शिक्षण कक्ष व छात्रावास आदि बनाने हेतु केन्द्र सरकार प्रति जिला चिकित्सालय 20 करोड़ रुपया देगी। उसका कहना है कि राजीव गाँधी राश्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अन्तर्गत राज्यों को जो धनराशि दी जा रही है वह डाक्टरों की कमी के कारण अस्पतालों में खर्च ही नहीं हो पा रही है। इस योजना का खाका वास्तव में मेडिकल काउन्सिल ऑफ इन्डिया के तत्कालीन अध्यक्ष डा. केतन देसाई ने तैयार करके केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को दिया था। बाद में जब डा. देसाई को एमसीआई से निकाल बाहर कर दिया गया तो अब वे इसका विरोध करने लगे है।

आश्चर्यजनक यह है कि इस योजना के विरुध्द स्वयं डाक्टर्स ही हो गये है और वे 20 फरवरी को दिल्ली में प्रदर्शन करने पर आमादा हैं! वह तो अच्छा रहा कि एक्स रे एवं एम.आर.आई. डॉक्टरों के सम्मेलन में बीती 29 जनवरी को स्वयं राष्ट्रपति ने ही साफ कर दिया कि गॉवों को सस्ती चिकित्सा और डाक्टर सुलभ होने ही चाहिए। ( Also published in HAMSAMVET Features on 21 February 2011.May be clicked on humsamvet.org.in )

Tuesday, February 01, 2011

धर्म-परिवर्तन और वह भी खाली पेट का ! इससे बड़ा प्रहसन और क्या हो सकता है भला? -- सुनील अमर

प्रिय संपादक जी ,

संजय दिवेदी जी का लेख पढ़ा, बल्कि दो बार पढ़ा! बहुत करीने से , बहुत विस्तार से और बहुत सिलसिलेवार व्याख्या की है उन्होंने धर्म-परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दे पर. वर्तमान से होते हुए अतीत तक जाकर उन्होंने यह बताया है कि धर्म कैसे एक निहायत व्यक्तिगत मामला है और कैसे प्रजा से लेकर राजाओं तक ने अपनी मर्जी और पसंद के मुताबिक धर्म-परिवर्तन किया है! अच्छा लगा!
लेख जब पढ़ना शुरू किया तो लगा था कि आदिवासियों पर संघ द्वारा किये जा रहे तमाम कार्यक्रमों को लेकर एक आदिवासी-बहुल इलाके में जो कुम्भ सरीखा आयोजन होने जा रहा है, जरुर ही उसमें उन्ही को केन्द्रीय तत्व के तौर पर रखा गया होगा . लेख का शीर्षक भी यह बताता लग रहा था कि अवश्य ही इसमें आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं पर चर्चा होगी, लेकिन यह चर्चा -जल, जंगल, जमीन जैसी संज्ञाओं से आगे नहीं गयी! मैं बहुत आशान्वित था कि तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासियों का जिस तरह उच्छेदन किया जा रहा है, और जिस वजह से वे नक्सालियों से सहानुभूति रखने को विवश हैं , उस पर भी रौशनी जरुर डाली गयी होगी, लेकिन निराश ही हुआ! यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि आदिवासियों की समस्याएँ सिर्फ जल-जंगल-जमीन तक ही सीमित नहीं हैं. उनके साथ भी उसी तरह का दोहरा अत्याचार हो रहा है, जैसा कि जम्मू-कश्मीर के निवासियों के साथ आतंकवादी और सेना के जवान कर रहे हैं !संपादक जी , मैं संजय जी से कहना चाहता हूँ कि आदिवासियों का मूल सवाल धर्म-परिवर्तन है ही नहीं ! धर्म रोटी से बढ़कर नहीं हो सकता ! रोटी के बाद ही धर्म का नंबर आता है! और आदिवासियों की मूल समस्या तो Survival यानि जीवन-संग्राम में टिके रहने की है !
क्या ही अच्छा होता, अगर इस मौके पर इन्ही मूल समस्याओं को लेकर एक Eye -Opener मार्का लेख लिखा गया होता, जो हो सकता है कि महा-कुम्भ में कुछ लोगों की निगाह से जरुर गुज़रता और अपना काम कर जाता!
मैं संजय जी की कई बातों से बहुत संजीदगी से सहमत हूँ, जैसे इस लेख का अंतिम पैराग्राफ ! वास्तव में इस लेख का उपसंहार ही इसका समूचा धड़ बन गया है! संजय जी अगर अन्यथा न लें तो मैं आग्रह करना चाहता हूँ कि वे, जब भी समय और सहूलियत पायें, इस पैराग्राफ को अपनी लेखनी चलाकर जरा बड़ा फलक दें तो हम लोग उस पर नए सिरे से बहस शुरू करें!
धर्म-परिवर्तन और वह भी खाली पेट का ! इससे बड़ा प्रहसन और क्या हो सकता है भला? यह दूसरे धर्म के प्रति ललक नहीं बल्कि एक सड़े धर्म से उपजी जुगुप्सा पर प्रतिक्रिया और कहीं रोटी मिल जाने की उम्मीद भर ही है! जहाँ भी यह उम्मीद दिखेगी, जुगुप्सित और भूखे लोग वहां-वहां आते-जाते रहेंगें ! उन्हें कोई भी मिशनरी या संघ रोक नहीं पायेगा.
संजय जी को साधुवाद ! बहुत सही समय पर उन्होंने एक राष्ट्रीय मसले को बहस की शक्ल दी है. उम्मीद है कि उक्त कार्यक्रम संपन्न हो जाने के बाद एक बार फिर उनकी प्रतिक्रिया जानने को मिलेगी!(यह लेख pravakta.com पर छपे श्री संजय द्विवेदी के लेख की प्रतिक्रिया में है )