Thursday, December 20, 2012

मंडी बन गये हैं मीडिया के सरोकार --- सुनील अमर



               मीडिया के बदलते सरोकारों पर अक्सर बहस होती रहती है और ऐसे निष्कर्ष भी निकाले जा रहे हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्राणवायु माने जाने वाले इस जन माध्यम की सोच व सरोकार में पतनशील परिवर्तन हो रहा है जो कि इस माध्यम के लिए ही नहीं बल्कि देश के राजनीतिक भविष्य के लिए भी घातक होगा। देश की राजधानी दिल्ली में दो सम्पादक कथित तौर पर घूस मॉगने के आरोप में जेल में निरुध्द हैं और अदालत ने उनकी जमानत याचिका भी इस आधार पर खारिज कर दी है कि जेल से छूटने पर वे गवाहों व सबूतों को प्रभावित कर सकते हैं। देश में पत्रकारिता के इतिहास में संभवत:यह पहली घटना है। इसी बीच देसी अखबारों ने कोलम्बिया की पॉप गायिका शकीरा, जो कि मॉ बनने वाली है, के ''गर्भस्थ भ्रूण का अल्ट्रासाउन्ड फोटो'' छाप कर बताया है कि होने वाला बच्चा लड़का है!गत माह ऐसे ही अखबारों ने एक और खबर बहुत महत्त्वपूर्ण बनाकर प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि इटली में मॉडलिंग करने वाली एक लड़की अपने कौमार्य की नीलामी कर रही है और उसकी इतने रुपयों की बोली लग चुकी है!
               बाजारवाद सारी दुनिया में पैर पसार रहा है और 'हार्डकोर' कम्युनिस्ट चीन भी अब इसकी चपेट में है। ऐसे में मीडिया भी अगर बाजार की वस्तु बन जाय तो आश्चर्य कैसा! आज अगर बाजार की परिभाषा बदली है तो बाजार ने अपने दायरे में आने वाली सभी चीजों को पुनर्परिभाषित किया है। बाजार का ध्येय वाक्य अगर 'शुभ और लाभ' है तो इसका उद्धोष है कि 'सब बिकता है।' इसलिए आश्चर्य नहीं कि आज बहुत से बड़े विचारक और मीडिया विशेषज्ञ अखबार समेत सभी समाचार माध्यमों को एक प्रोडक्ट मानने लगे हैं और किसी प्रोडक्ट को बेचने के लिए जिस तरह के दॉव-पेच किये जाते हैं, वो सब इस क्षेत्र में कमोवेश आ गये हैं। यही कारण है कि उपर जिन खबरों पर बहुत आश्चर्य व्यक्त किया गया है, वैसी खबरें अब मीडिया में बहुत आम हैं। बाजार का सिध्दांत है कि नयी वस्तु पुरानी को खिसका कर अपनी जगह बनाती है, सो बहुत सी खबरें दूसरे या तीसरे दर्जे से होती हुई बाहर हो चुकी हैं और उनका स्थान नये मिजाज की खबरों ने ले लिया है। इस परिवर्तन में दिक्कत उनके लिए आयी है जिनके पास अपनी आवाज नहीं थी और अखबार ही उनकी आवाज बनते थे। यह कैसी विडम्बना है कि आज अखबार तो भारी-भरकम और अत्यधिक विस्तार वाले हो गये हैं लेकिन उनका देश की उस तीन चौथाई आबादी से कोई सरोकार ही नहीं है जो दो वक्त की रोटी, कपडे अौर मकान को मोहताज हैं!
               समाज में अखबार की अवधारणा 'वॉच डॉग' यानी सजग प्रहरी के तौर पर की गयी है और यह अपेक्षा की जाती है कि देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों व घटनाओं से वह लोगों को अवगत कराता रहेगा। इसके साथ ही अखबार का एक और महत्त्वपूर्ण काम है जनमत बनाना। हाल के वर्षों में हमने देखा कि अखबार या अन्य समाचार माध्यम ये सारे काम तो कर रहे हैं क्योंकि यह इनका गुण है लेकिन इससे फायदा कुछ विशिष्ट लोगों को ही पहुॅचाया जा रहा है। भारत जैसे देश में पत्रकारिता का स्वरुप ब्रिटेन, अमरीका, जापान या अन्य अमीर व विकसित देशों से भिन्न रहा है क्योंकि यहाँ की सामाजिक संरचना व आवश्यकताऐं भिन्न हैं। बीते दो दशक में देसी पत्रकारिता में उतना बदलाव आ गया है जितना पत्रकारिता के इतिहास में कभी नहीं आया था। देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता कुछ गिने-चुने हाथों में सिमट गयी तो उसके सरोकार भी ऐसे ही हाथों के इर्द-गिर्द सिमट गये। यह कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता आज इंडस्ट्री बन गयी है। आज इसके लक्ष्य हैं कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पाठक बनें, उससे बाजार बने और बाजार से पैसा मिले। अब इस 'इंडस्ट्री पत्रकारिता' को न तो पैसा लेकर खबर छापने में कोई गुरेज है और न अपने स्वार्थ के लिए फर्जी खबर छापने से। बाजारवाद का 'सब बिकता है' का झंडा यहाँ इनके पहले पन्ने से दिखना शुरु हो जाता है और यहीं शकीरा के गर्भस्थ बच्चे का अल्ट्रासाउंड फोटो लगाया जाता है ताकि इसी बहाने पाठक इन बहुपृष्ठीय भारी अखबारों के भीतरी पन्नों तक जॉय जहॉ तमाम विज्ञापन और बिकी हुई खबरें उनका इंतजार करती रहती हैं। सभी जानते हैं कि इंडस्ट्री, पूॅजी की मोहताज होती है और पूॅजी का अपना चरित्र होता है! आज इस पूॅजी का चरित्र ही मीडिया का चरित्र हो गया है। जो मीडिया संस्थान पूॅजी के चपेटे में आने से बचे हुए हैं, उनका अपना अलग चरित्र बरकरार है।
              मीडिया के बदलते सरोकारों पर वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ एक दिलचस्प घटना का उदाहरण देते हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के पुणे में हुई एक फैशन प्रतियोगिता का समाचार संकलन करने देश-विदेश के पॉच सौ से अधिक पत्रकार गये थे लेकिन वहीं निकट स्थित विदर्भ में हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध लेने मात्र तीन पत्रकार गये थे जिनमें से एक स्वयं साईंनाथ थे! सारी दुनिया में मीडिया आज मुनाफे का खेल है। जो भी घटना या समाचार उसे मुनाफा दे सकता है, उसी में उसकी दिलचस्पी होती है। आप पूछ सकते हैं कि क्या 25-30 पृष्ठ के दैनिक अखबार और 24 घंटे के समाचार चैनल में सब कुछ मुनाफा दे सकने वाला ही होता है तो जवाब होगा कि हाँ, क्योंकि इन सबका जो प्राण-तत्त्व होता है वह मुनाफाखोर ही होता है। किसी अखबार या चैनल में करोड़ों-अरबों रुपया लगाने वाला व्यक्ति जाहिर है कि उससे मुनाफा और अपना हित चिंतन करेगा ही। अन्ना या रामदेव के आंदोलन की प्रस्तुति ये किसी समजासेवा के दायित्व से अभिभूत होकर नहीं करते बल्कि यह इन्हें एक ऐसी सनसनीखेज सामाग्री उपलब्धा कराता है जिस पर सवार होकर इनके बेशुमार विज्ञापन नोटों की बारिश में बदल जाते हैं! दूसरी तरफ इरोम चानू शर्मिला का मामला है जो वहॉ तैनात सशस्त्र बलों के अत्याचार के खिलाफ बीते 12 वर्षों से मणिपुर में लगातार भूख हड़ताल पर हैं, लेकिन जिन्हें एक बार भी तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने सर-माथे नहीं बैठाया क्योंकि उससे मीडिया को कोई लाभ नहीं दिखता। इसके बजाय अखबार के पहले पन्ने भी आज सिने कलाकारों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सी.ई.ओ., यहॉ तक कि माफियाओं की चर्चा से भरे रहते हैं लेकिन 24 पृष्ठ में चार पृष्ठ भी देश की उस 75प्रतिशत जनता के लिए नहीं होता जो कि हर प्रकार से पिस रही है। दर्शकों व पाठकों को हर हाल में बॉधकर रखना है इसलिए आज प्राय:सभी चैनलों पर बलात्कार सरीखी अत्यन्त शर्मनाक घटना को भी पचासों बार घुमा-फिराकर दिखाया जाता है। व्यावसायिक लाभ के लिए निर्ममता और निर्लज्जता की पराकाष्ठा यह है कि बलात्कार और हत्या जैसी घटनाओं को चैनल की स्टूडियों मे 'री-शूट' किया जाता है ताकि इसी बहाने दर्शक रुकें और टी.आर.पी. बढ़े। भूत-प्रेत के कल्पित किस्सों की भी बाढ़ सी आई हुई है। आज का मीडिया नितांत स्वार्थी हो गया है। अब तो तमाम प्रतिबध्द कही जाने वाली पत्र-पत्रिकाऐं भी इस गति को पहुॅच रही हैं।

Friday, November 16, 2012

फ़ैज़ाबाद को जलाने की साजिश किसकी ? - सुनील अमर





                 फैज़ाबाद देशद्रोहियों की साजिश का गंभीर शिकार होते-होते बचा। जो शहर वर्ष 1989 से लेकर वर्ष 1992 तक देश व समाज तोड़ने वालों के झॉसे में नहीं आया उसे एक बार फिर जलाने की कोशिश की गयी लेकिन यहाँ की जनता निश्चित ही बधाई की पात्र है जिसने हमेशा की तरह इस बार भी धर्य का परिचय देकर असमाजिक तत्त्वों को मुॅहतोड़ जवाब दिया। बीते माह 25 अक्तूबर को दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन के दौरान पूर्व नियोजित ढॅग़ से उपद्रव कर एक समुदाय की दुकानें जलायी गयीं। इनकी चपेट में आकर कहीं-कहीं दूसरे समुदाय की भी दुकानें जलीं। दंगाई कितने पूर्व नियोजित ढ़ॅग से काम कर रहे थे, इसका पता इसी से चलता है कि जल रही दुकानों की आग बुझाने आ रहे सरकारी दमकल को रास्ते में कथित भीड़ ने रोक दिया। फलस्वरुप विपरीत दिशा में 55किमी दूर टांडा स्थित नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन से दमकलों को मॅगाया गया। इस दौरान यहॉ की स्थानीय जनता ने कितने धर्य का परिचय दिया, इसका पता इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग एक पखवारे तक र्कफयू लगा होने तथा बार-बार उपद्रव भड़काने की कोशिशों के बाद भी यहॉ जनहानि नहीं होने पायी है। शहर से दूर की एक बाजार में दो मौतें हुई बतायी जा रही हैं। घटना के एक पखवारे बाद अब शासन-प्रशासन की नाकामियॉ खुलकर सामने आ रही हैं।
                 ऐतिहासिक व जुड़वा शहर अयोध्या और फैजाबाद अमन के शहर हैं। हिन्दू-मुसलमान की अच्छी खासी तादाद होने के साथ-साथ ही यहाँ के लोगों का साम्प्रदायिक सद्भाव भी गज़ब का है। अनुमान लगाइए कि जिस अयोध्या को लेकर देश-दुनिया में बार-बार उत्तेजना देखी गयी वही अयोधया इन दिनों फैजाबाद में हो रहे  उत्पात में भी न सिर्फ शांत बल्कि निर्लिप्त सी रही और वहॉ पूजा-नमाज के रोजमर्रा कामों के अलावा दुर्गापूजा,दशहरा व बकरीद के सारे आयोजन हमेशा की तरह दोनों धर्मो के लोगों ने मिलकर मनाये। साफ है कि फैजाबाद को जलाने की साजिश कुछ ऐसे लोगों की थी जिन्हें इस तहस-नहस से किसी न किसी प्रकार का लाभ होता दिख रहा था। हैरानी तो प्रशासनिक निकम्मेपन पर है कि वो कैसे ऑख मॅूदकर व हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा! फैजाबाद नगर के एक बाहरी मोहल्ले देवकाली स्थित एक मंदिर की प्रतिमा लगभग डेढ़ माह पहले चोरी चली गयी। प्रतिमा आस्था व प्राचीनता के कारण भले कीमती रही हो लेकिन धातु के तौर पर वह कोई बहुत कीमती नहीं थी। उसके चोरी जाने की खबर से स्थानीय श्रध्दालुओं में क्रोध व उत्तेजना की लहर दौड़ गई। पुलिस प्रशासन हरकत में तो तुरन्त आया लेकिन इस मामले में इतनी ज्यादा राजनीतिक दखलन्दाजी थी कि वह मनचाहे लोगों पर हाथ नहीं डाल पाया। मामला लम्बा खिंचा तो धार्मिक आस्था का दोहन कर अपना उल्लू सीधा करने वाले भी सक्रिय हो गये। प्रशासन के विरुध्द कई बार प्रदर्शन हुए। शहर के हृदय स्थल चौक घंटाघर पर स्थानीय मुसलमानों ने भी एक दिवसीय धरना देकर मूर्ति बरामदगी की मॉग की।  ध्यान देने की बात यह है कि अयोध्या में मंदिरों से मूर्ति चोरी होने की घटनाऐं प्राय: ही होती रहती हैं क्योंकि तमाम मंदिरों में अष्टधातु आदि की बेशकीमती मूर्तियॉ स्थापित हैं व पीतल आदि धातुओं के भारी-भरकम कलश व घंटे लगे हुए हैं। अक्सर ही ऐसी चोरियों में उन मंदिरों के रखवालों की संलिप्तता उजागर होती रहती है। कुछ वर्ष पहले जनपद की एक बाजार में स्थित मंदिर से अष्टधातु की एक देव प्रतिमा चोरी गयी थी जिसकी कीमत तीन करोड़ से भी अधिक ऑकी गयी थी लेकिन ऐसी सारी घटनायें कभी भी धार्मिक उत्तेजना नहीं बल्कि पुलिस ततीश का ही हिस्सा बनी रहीं।
                   बहरहाल, ऐसी ही चोरियों के क्रम में जब उक्त देवकाली मंदिर में चोरी हुई तो उसे हवा देने जनपद गोरखपुर स्थित गोरखनाथ धाम मंदिर के महंत व भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ 13अक्तूबर को फैजाबाद आ पहुॅचे। उनके आने पर स्थानीय प्रशासन उनके आगे दंडवत हो गया। उनकी मान-मनौव्वल होने लगी तथा उनसे सिफारिश की गयी कि वे अपने कार्यक्रम को सीमित करें। जवाब में योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण में कहा कि प्रदेश सरकार कब्रिस्तानों की सुरक्षा के लिए सरकारी धान फॅूक रही है और मंदिर लूटे जा रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि अगर 48घंटे में मूर्ति बरामद न की गई तो 'बड़ा आंदोलन'छेड़ा जाएगा। इसके जवाब में उसी दिन समाजवादी पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य व लोहियावादी विचारक सूर्यकांत पान्डेय ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि दुर्गा पूजा व दशहरा के अवसर पर संघ व अन्य कट्टरपंथी ताकतें शहर का अमन चैन बिगाड़ना चाहती हैं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भाजपा व संघ को अयोध्या-फैजाबाद से अपने विधायक का हार जाना हजम नहीं हो रहा है और वे इसका बदला शहर की शांति व्यवस्था खराब करके लेना चाहती हैं। यही हुआ भी और ऐन 10 दिन के बाद शहर दंगे की भेंट चढ़ गया।
              फैजाबाद शहर के विधान सभा क्षेत्र का नाम अयोध्या है। यहॉ से वर्ष 1991 में भाजपा प्रत्याशी जीता था और वह तब से लगातार जीतता रहा। इस दौरान भाजपा यहॉ से संसदीय सीट जीती और हारी भी लेकिन विधानसभा सीट पर उसका कब्जा 21साल तक लगातार बना रहा। इस बार हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रहे तेज नारायण पाण्डेय को अपना प्रत्याशी बनाया और उन्होंने भाजपा के 21साल के जीत के इतिहास को हार में बदल दिया। सभी जानते हैं कि भाजपा के लिए अयोध्या का क्या मतलब है। अयोध्या की अशांति से ही भाजपा को यह सीट मिली थी। अयोधया में ही विश्व हिंदू परिषद ने अपना मुख्यालय 'कारसेवक पुरम्' बना रखा है जो प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी क्षेत्रीय मुख्यालय है। अयोध्या में अपनी हार से भाजपा व उसके सभी अनुसंगी सकते में आ गए। उसकी इस हार का संदेश सारी दुनिया में गया। अभी दो माह पूर्व विहिप ने घोषणा की है कि वह आगामी कुंभ मेले में अपनी धार्म संसद की बैठक में अयोध्या में मंदिर निर्माण आंदोलन पर विचार करेगी तथा इसके लिए हिंदू जनमानस को फिर से जगायेगी। वह दस रुपये का कूपन बॉटकर चंदा एकत्र करने के अभियान में भी लगी है।
              लेकिन फैजाबाद का प्रशासन इन सबसे अनजान रहा। यहॉ की खुफिया इकाइयों की हालत बहुत ही खराब है तथा ये लोग खुद सुरागरशी न कर पत्रकारों से ही सूचनाऐं पाकर प्रशासन को देते रहते हैं। सबसे संगीन हालत निकटवर्ती कस्बे भदरसा की रही जहॉ उसके टाउन एरिया चेयरमैन की भूमिका बहुत गलत बतायी जा रही है। भाजपा को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक दलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी थी कि शहर में दुर्गापूजा के दौरान उपद्रव किया जा सकता है लेकिन प्रशासन ने एक न सुनी बल्कि हैरत की बात है दुर्गापूजा की प्रतिमाओं के विसर्जन के दिन शराब की दुकानें खुली थीं जिन्हें कि ऐसे अवसरों पर बंदी का आदेश रहता है। पुलिस लाइन में ही यहॉ का अग्निशमन विभाग है लेकिन उसके टैंकरों में पानी ही नहीं था जबकि ऐसे टैंकरों को पानी से भरकर ही खड़ा करने का प्राविधान है।
                फैजाबाद व उसके उपद्रवग्रस्त आधा दर्जन कस्बों में हालात फिलहाल सामान्य है लेकिन तनाव बढ़ाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। अफसोस की बात है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फैजाबाद नहीं आये। वे महज अधिकारियों का तबादला करके ही फैजाबाद की जनता के घावों पर मरहम लगाना चाह रहे हैं। शासन ने उपद्रवियों के प्रतिकिसी भी प्रकार की सख्ती का परिचय नहीं दिया है जिसका नतीजा आगे चलकर और खराब हो सकता है क्योंकि ये दंगा राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास है।

Saturday, October 20, 2012

राष्ट्र-विकास में कृषि की घटती हिस्सेदारी --- सुनील अमर

देश के सकल विकास में कृषि की हिस्सेदारी साल दर साल घटती जा रही है। सरकार की अपनी ही रिपोर्ट बताती है कि यह छह वर्षों में 19 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत पर आ गई है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है और सरकारी खरीद के कारण हमारे गोदाम न सिर्फ जरुरत से ज्यादा भरे हैं बल्कि तमाम अनाज बाहर खुले में भी रखना पड़ा है। कृषि की घटती हिस्सेदारी का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि किसान खेती छोड़कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं तथा कृषि योग्य जमीन घट रही व लागत बढ़ रही है। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के लिए यह स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। देश में कृषि पर निर्भरता भी घटकर आधी से भी कम रह गयी है।
                गत दिनों कृषि से सम्बन्धित सरकारी ऑकड़े पेश किए गए जिसमें बताया गया है कि बीते आठ साल में जीडपी यानी सकल विकास में कृषि की भागीदारी पॉच प्रतिशत कम हो गयी है। वर्ष 2010 में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद में अपनी एक सर्वे रपट पेश की थी जिसमें बताया गया था कि कृषि पर व्यक्तियों की निर्भरता घटकर अब आधी से भी कम यानी सिर्फ 45.5 प्रतिशत ही रह गयी है। एक सरकारी ऑकड़े के ही अनुसार वर्ष 2004-05 में कुल 18.30 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि देश में थी जो अन्यान्य कारणों से घटकर वर्ष 2007-08 में 18.24 करोड़ हेक्टेयर रह गयी है यानी कि करीब छह लाख हेक्टेयर जमीन कम हो गयी है।
               सभी जानते हैं कि दुनिया का जिस तरह से वैश्वीकरण हुआ और अब आर्थिक उदारीकरण हो रहा है उसमें प्रत्येक देश के लिए कृषि प्राथमिक नहीं बल्कि तीसरे, चौथे या कहीं-कहीं तो आखिरी पायदान पर भी चली गयी है। कृषि की तरफ उतना ही ध्यान है कि यह नागरिकों की उदरपूर्ति के लिए आधारभूत अनाज ( जैसे गेहॅू-धान ) का उत्पादन करती रहे। अपने देश में कृषि के लिए न सिर्फ विविध मौसम उपलब्ध हैं बल्कि लगभग 64 प्रकार की मिट्टी भी है जिसमें प्राय: सभी फल, सब्जी और फसलें ली जा सकती हैं। बावजूद इसके आलम यह है कि देश के किसान खेती से विरक्त होते जा रहे हैं। जाहिर है कि इसके पीछे अपेक्षित सरकारी सहायता और सहूलियत का न मिलना तथा लगातार छोटी और अलाभकारी होती जा रही कृषि जोत ही मुख्य कारण हैं। दुनिया के अन्य विकसित देशं के मुकाबले हमारे देश में कृषि को बहुत कम राजकीय संरक्षण है। हमारे यहॉ प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय आज भी 2400 रुपये से कम है!
               इसके अलावा तमाम ऐसे अन्य कारक हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर खेती छोड़ने को बाधय करते हैं। असल में जैसे चिकित्सा, अध्यापन, वकालत और संगीत आदि पहले व्यवसाय न होकर, वृत्ति थे वैसे ही कृषि भी एक वृत्ति ही हैं, यह अलग बात है कि आज लगभग सभी वृत्तियाँ व्यवसाय में बदल गयी हैं। बड़े किसानों या फार्म हाउस वालों की बात छोड़ दी जाय तो छोटा किसान आज भी अपनी धारती माता को छोड़ने के बारे में सोच नहीं पाता, भले ही उसे तमाम तरह के घाटे व नुकसान इससे हो रहे हों। यही कारण है कि किसान भारी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। प्रकृति की मार, बाजार का खेल तथा साहूकारों के शोषण के बाद अब एक और कारक भी किसानों के उत्पीड़न में शामिल हो गया है- हायब्रिड के नाम पर निर्वंश बीज। यह देखने में आ रहा है कि कीटरोधी तथा अधिक उपज देने वाले के तौर पर प्रचारित हो रहे तथाकथित हायब्रिड बीजों में ऐसे निर्वंश बीज भी आ रहे हैं जो खेत में तैयार होने पर तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन उनमें या तो बीज ही नहीं होते या फिर इनके बीज में अंकुरण क्षमता ही नहीं होती। गत वर्ष बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि प्रांतों में हजारों किसानों ने उड़द, तिल व मक्का के ऐसे ही बीज बोये और नतीजे में उनके सामने निर्वंश बीज आये। इन फसलों की बालें तो बड़ी-बड़ी और तंदुरुस्त आयीं लेकिन उनमें दाने नहीं थे। किसान लुट गये! उनकी सिर्फ एक फसल नहीं बरबाद हुई बल्कि अगली फसल बोने को भी उन्हें लाले पड़ गये। ऐसी ही परिस्थितियों में किसान सूदखोरों के जाल में फॅंस जाता है।
              वर्ष 2010 में बीज बिल में यह प्रावधान किया गया था कि बीजों की शुध्दता और उर्वरता यानी अंकुरण क्षमता को मानकों के अनुरुप न रखने पर एक लाख रुपये का जुर्माना तथा नकली बीज बेचने पर एक साल की सजा व पॉच लाख रुपये का जुर्माना देना होगा। यह नाकाफी है। इसमें किसानों को कुछ नहीं मिलता और इस बात के प्राविधान किये जाने चाहिए कि न्यूतनतम क्षतिपूर्ति किसानों को मिले। देश में अभी जो नामी-गिरामी बीज कम्पनियॉ काम कर रही हैं उनमें से पॉयनियर, मायको व मोंसेंटो ने निर्वंश बीजों को बेचा बल्कि राजकीय बीज निगम के बीज भी निर्वंश साबित हुए लेकिन कानून में ऐसी कम्पनियों पर जिम्मेदारी डालने की व्यवस्था ही नहीं है। देश में फसल बीमा योजना लागू है लेकिन आम किसान उससे वाकिफ नहीं है। सहकारी समितियों पर सदस्य किसान के उर्वरक खरीदने पर स्वत: ही एक अल्वावधि का बीमा लागू हो जाता है जो किसानों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर क्षतिपूर्ति करता है लेकिन यह भी कागजों में ही है और क्योंकि अधिकांश सहकारी समितियॉ भ्रष्टाचार की शिकार हैं, इसलिए यह योजना प्रभावी नहीं है।
               कृषि की तरफ पर्याप्त धयान न दिये जाने से हालात असंतुलित हो गये हैं। एक तरफ तो धान-गेहॅू का इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि हमारे सरकारी भंडारों में इसे रखने की भी जगह नहीं है लेकिन दूसरी तरफ किसान बदहाल है और उसकी आत्महत्या करने की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। असल में कृषि जोतों के निरंतर छोटा होते जाने तथा उनपर निर्भरता बढ़ने से भी ऐसी समस्याऐं हो रही हैं। इनका एक समाधान बापू ने बताया था, कुटीर उद्योग के रुप में। वास्तव में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर सरकारें गॉव की आबादी को गॉव में ही रोक सकती हैं। कुछ उत्पादों को कुटीर उद्योग के तौर पर चिन्हित कर उन्हें बड़े उद्योगों के लिए मना कर दिया जाय। बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ज्यादा कर लगाकर छोटे-लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण दिया जा सकता है। ऐसा किये जाने पर किसान अपनी छोटी खेती से बचे समय में घर पर या नजदीक के किसी उत्पादन केन्द्र पर कामकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। वर्तमान समय में पशुधन पर भी ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता क्योंकि जहाँ खेत कम हैं वहॉ इनके लिए चारे की समस्या आ जाती है। काफी अरसे से गोदाम और छोटे शीतगृहों की देश व्यापी श्रंखला बनाने की बात केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं लेकिन अभी यह क्रियान्वित नहीं हो पाया है। असल में कृषि में सरकारी निवेश ही काफी कम है। राज्य सरकारें तो और भी उदासीन हैं। सरकारी निवेश बढ़े और ठोस योजनाएं बनें तो निजी क्षेत्र भी इसमें अपना निवेश करे। अब इस सच्चाई से मुॅह नहीं मोड़ा जा सकता कि अमेरिका जैसा देश भी अपने किसानों को मुक्तहस्त अनुदान बॉट रहा है ताकि किसान खेती के काम में लगे रहें और अनाज उत्पादन होता रहे। (15 अक्टूबर-2012 )

Wednesday, October 17, 2012

मुलायम के दबाव में उ.प्र सरकार -- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के रुप में अखिलेश यादव ने लगभग छह माह पूर्व उत्तर प्रदेश जैसे महाप्रदेश की बागडोर संभाली थी। इससे पूर्व अखिलेश ने कभी भी शासन में किसी दायित्व को नहीं संभाला था। इसलिए हर लिहाज से इस नये और युवा मुख्यमंत्री के कार्यकाल को ऑकने के लिए यह समय अत्यन्त कम है फिर भी चुनाव में किये गये अपने वादों पर उन्होंने अमल भी शुरु कर दिया है। बेरोजगारों को भत्ता तथा राजकीय नहरों से फसलों की मुत सिंचाई तथा कन्या विद्या धन जैसी योजनाऐं शुरु की जा चुकी है तथा किसानों के कर्जमाफी जैसी कई अन्य घोषणाओं के क्रियान्वयन पर मंथन चल रहा है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरुप छात्रसंघों के चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई है।
                अखिलेश के पिता श्री मुलायम सिंह यादव सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद कई दिनों तक यह उहापोह बना हुआ था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा! अखिलेश कहते थे कि नेताजी (मुलायम सिंह को पार्टीजन इसी सम्बोधन से बुलाते हैं) ही मुख्यमंत्री बनेंगें और नेता जी कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। दोनों के बयानों से यह बिल्कुल साफ लगता था कि दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। असल में यह एक परिवार की राजनीतिक विरासत का तनावपूर्ण हस्तांतरण था जिसमें मुलायम सिंह ने बहुत धौर्य और दूरगामी सोच से काम लिया। चुनाव प्रचार से भी पहले से पिता-पुत्र एक साथ न के बराबर देखे जा रहे थे। जानना दिलचस्प होगा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के फैसले के बाद जब पिता-पुत्र यानी मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठकर सपा मुख्यालय से बाहर निकले तो यह एक खबर बन गयी थी कि आज मुलायम-अखिलेश एक ही गाड़ी में बैठै!
               उत्तर प्रदेश से हटने के बाद स्वाभाविक है कि मुलायम सिंह के पास राष्ट्रीय राजनीति का ही विकल्प बच रहा था क्योंकि देश के किसी अन्य राज्य में सपा का कोई जनाधार नहीं है। देश में जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं उसमें सपा प्रमुख ऐसे व्यक्ति हैं जो केन्द्रीय राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वह न सिर्फ केन्द्रीय रक्षा मंत्री रह चुके हैं बल्कि एक समय (1996 में) तो प्रधानमंत्री बनते-बनते भी रह गये थे। सुधी पाठकों को याद होगा कि केन्द्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए भी मुलायम सिंह यादव के लिए उत्तर प्रदेश ही समूचा हिन्दुस्तान था और वे जरा सा भी मौका मिलते ही रक्षा वायुयानों के काफिले के साथ लखनऊ आ धमकते थे! अब मुलायम सिंह को लगता है कि केन्द्र में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियाँ बन चुकी हैं कि वे एक बार फिर अपने खोये हुए अवसर को पाने का प्रयास कर सकते हैं। यह तभी संभव है जब उनकी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें प्राप्त करे कि वे दबाव की राजनीति कर सकें। मुलायम ने कई बार कहा भी है कि अगर उन्हें 50 से अधिक सीटें मिलती हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता। यह 50 सीटें उन्हें उत्तर प्रदेश से ही मिलने की उम्मीद है और इसे पाने के लिए स्वाभाविक हैं कि वे राज्य सरकार को इस्तेमाल कर रहे हैं। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर केन्द्र सरकार को लेकर मुलायम सिंह के कई फैसले ऐसे हैं जो अगर अखिलेश सिंह को करने होते तो शायद वे दूसरी तरह या जरा बाद में करते।
                  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने आज दो तरह की राजनीतिक चुनौतियॉ हैं- एक तो आगामी लोकसभा चुनाव तथा दूसरा, विधानसभा का अगला चुनाव। अखिलेश के उपर अगर मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का बोझ न हो तो उनके पास साढ़े चार साल का अच्छा खासा वक्त है और वे अपनी प्रबल बहुमत की सरकार के सहारे अपनी चुनावी घोषणाओं को बिना किसी अफरा-तफरी के अमली जामा पहना सकते हैं लेकिन उनकी सरकार की एक अग्नि परीक्षा लोकसभा चुनाव के रुप में सामने है जिसके लिए वक्त बहुत कम बचा है और मुसलमानों को खुश करने जैसी जिन योजनाओं के क्रियान्वयन से लोकसभा चुनाव में सीटें बढ़ाने का प्रयास मुलायम सिंह कर रहे हैं उनसे प्रदेश का दूसरा वर्ग खासा नाराज हो रहा है। इस काम में मुलायम सिंह ऐसे दत्त-चित्त होकर लगे हैं कि उनकी सबको साथ लेकर चलने की समाजवादी सोच जाने कहॉ तिरोहित हो गयी है। मुलायम के पुराने साथी तथा सपा का मुस्लिम चेहरा बताये जा रहे कैबिनेट मंत्री आजम खॉ प्रदेश में सुपर मुख्यमंत्री बन गये हैं। उनकी कार्यप्रणाली इतनी निरंकुश और बदमिजाज हो गयी है कि पार्टीजनों से लेकर नौकरशाह तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। आजम की ही तरह कई और वरिष्ठ मंत्री हैं जो आज भी अखिलेश को लड़का ही समझते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना अखिलेश के लिए अपरिहार्य हो गया है। स्वाभाविक है कि अगर पिता मुलायम सिंह का दबाव न होता तो या तो ये मंत्री अपनी आदतें सुधारते या फिर बाहर का रास्ता देखते। मुलायम की मजबूरी यह है कि वे अपने इन पुराने साथियों को इस वक्त नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह निकटस्थ लोकसभा चुनाव पर है। मुलायम सिंह के एक और पुराने साथी तथा फिलहाल कॉग्रेसी के केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा इन दिनों फिर मुलायम के गुन गाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में कॉग्रेस के संदिग्धा भविष्य से आशंकित श्री वर्मा अगर सपा में शामिल होते हैं तो वह निश्चय ही अखिलेश के लिए दूसरे आजम खाँ साबित होंगें।
                 केन्द्र की कॉग्रेसनीत संप्रग सरकार ममता-माया-मुलायम की बैसाखी पर टिकी है जिसमें से अपनी घोषणा के अनुरुप ममता बनर्जी ने संप्रग से किनारा कर लिया है। इसी मानसून सत्र में कोयला आवंटन घोटाले के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने वाम दलों के साथ मिलकर संसद पर धरना दिया था और उनके तेवर कॉग्रेस पर बेहद आक्रामक थे लेकिन अचानक ही वे पलटी मार गये और कॉग्रेस के गुण गाने लगे। पता नहीं लोकसभा चुनाव में मुलायम अपनी इस कला से कौन सा लाभ उठायेंगें लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश की बोलती बंद है। समर्थन के मामले पर अखिलेश अगर ममता बनर्जी जैसा स्टैंड ले सकते तो विधानसभा चुनावों में उनका ज्यादा भला हो सकता था। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मुलायम ने विरोध कर अगड़ों के पक्ष में जो स्टैंड लिया था, उनके इस कृत्य ने उसे नेपथ्य में डाल दिया है।
                मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में 50-60 सीटें पाने का मंसूबा रखते हैं। प्रदेश में वोटों का बॅटवारा सिर्फ कॉग्रेस और सपा के बीच ही नहीं होगा, उसमें भाजपा और बसपा भी होगी। प्रदेश में अभी लोकसभा चुनाव लायक माहौल सपा सरकार नहीं बना पाई है। ऐसे में चुनाव अगर समय पूर्व होते हैं तो सपा को जितनी सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में मिली हैं उन्हीं को संभालना बड़ी बात होगी। प्रदेश की कुल 80 सीटों में ही सपा, भाजपा, बसपा और कॉग्रेस को हिस्सा मिलना है। हो सकता है कि कॉग्रेस अपनी मौजूदा सीटों में से भी कुछ को खो बैठे लेकिन उसकी खोयी सीट सपा को ही क्यों मिले, यह एक बड़ा और तकनीकी प्रश्न है। कॉग्रेस को अंधा भक्त की तरह समर्थन दे रही सपा अगर अपनी मौजूदा लोकसभा सीटों में से भी कुछ को खो देती है तो यह अखिलेश यादव की सरकार के लिए काफी संकट की बात होगी। अखिलेश के किसी भी बयान से आज तक यह नहीं लगा है कि वे केन्द्रीय राजनीति में किसी प्रकार की रुचि ले रहे हैं| 0 0 

समाचारों के प्रस्तुतिकरण पर प्रश्नचिह्न -- सुनील अमर

माचारों के संकलन और उनके प्रसारण में कितनी आजादी होनी चाहिए, यह विषय दुनिया भर में शुरु से ही अनिर्णीत रहा है। समाचार माध्यमों के जन्म के बाद से ऐसे अनेक अवसर दुनिया भर में आये हैं जब यह महसूस किया गया कि इन माध्यमों ने अपनी हदें लाँघी हैं और उसी के साथ-साथ ऐसी आवाजें भी उठीं कि इन्हें नियंत्रित किया जाना चाहिए। विश्व में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद प्रेस को नियंत्रित किया गया है। अपने देश में भी आपातकाल के अलावा कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं लेकिन अंतत: यही उचित माना गया कि यह अति महत्त्वपूर्ण माध्यम स्व-नियंत्रित रहे और अपनी हदें भी खुद ही निर्धारित करे। यह सब आरोप और मान्यताऐं लम्बे समय से ऐसे ही खुसर-पुसर तरीके से चल रही थीं लेकिन नब्बे के दशक के बाद के सूचना विस्फोट ने तो जैसे सारी सीमा ही तोड़ दी। इस विस्फोट ने जिस इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को जन्म दिया उसने तो 'खुल जा सिम-सिम' के मंत्र को ही जैसे साकार कर दिया! यह सच है कि आज समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता को काबू में करने की जितनी भी मॉगें की जा रही हैं वो तीन चौथाई इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को लेकर ही है। इस माध्यम ने नैतिकता और मर्यादा की सामाजिक मान्यताओं का कुछ ऐसा उल्लंघन किया कि इसकी देखा-देखी प्रिंट मीडिया भी बहक उठा। मुम्बई में ताजमहल होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद एक बार बड़ी शिद्दत से मीडिया की रिपोर्टिंग और उसकी लक्ष्मण रेखा पर चर्चा शुरु हुई। इस प्रकरण पर ताजा दखल दिल्ली उच्च न्यायालय का है।
               बच्चों से जुड़ी मीडिया रिपोर्टिंग के एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीते पखवारे न सिर्फ एक दिशा निर्देश जारी किया बल्कि साफ-साफ कहा कि मीडिया को संयम और संतुलन बरतते हुए न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए। मामला यह था कि इसी साल की शुरुआत में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दो साल की एक बालिका भर्ती करायी गई जिसे एम्स के अधिकारियों ने फलक नाम दिया क्योंकि भर्ती के समय बालिका अनाथ थी। उसे गंभीर चोटें आई थीं और बावजूद सारे संभव उपचार के वह तीन महीने बाद हृदयाघात के कारण चल बसी। आशंका थी कि बच्ची की निर्ममता पूर्वक पिटाई की गई थी। लम्बे अरसे तक यह प्रकरण मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा और इसने कई तरह की सामाजिक बहसों को भी जन्म दिया। इस दौरान मीडिया ने फलक के वास्तविक माता-पिता की खोज कर यह भी पता लगाया था कि कैसे वह देह मंडी की उत्पाद बनकर इस गति को पहुँची थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक वकील ने इस सम्बन्ध में वहाँ के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि जिस प्रकार से समाचार माध्यम दो साल की बच्ची फलक के बारे में उसके फोटो और तमाम निजी जानकारियाँ प्रचारित कर रहे हैं, उससे उसकी निजता तथा 'किशोर वय न्याय कानून' यानी जे.जे.एक्ट का उल्लंघन है। न्यायालय ने इसी पत्र पर संज्ञान लेते हुए न सिर्फ मामले की सुनवाई की बल्कि एक कमेटी का गठन भी किया जिसमें बाल न्यायालय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी, राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) केन्द्र व दिल्ली सरकार के सम्बन्धित अधिकारी, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और भारतीय प्रेस परिषद के एक-एक सदस्य को शामिल किया गया था। इस कमेटी ने बीती फरवरी में ही अपनी अनुशंषा न्यायालय को सौंप दी थी जिसमें सिफारिश की गई है कि बच्चों से सम्बन्धित मामलों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की मीडिया की आदत पर रोक लगायी जानी चाहिए तथा बच्चों की पहचान व उनकी निजता से सम्बन्धित बातों को भी प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए ताकि उनके मानसिक व शारीरिक विकास पर कोई विपरीत असर न पड़े। सुनवाई कर रही पीठ ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग, भारतीय प्रेस परिषद, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती व अन्य सम्बन्धित विभागों को निर्देश दिया है कि वे कमेटी की सिफारिशों का प्रचार-प्रसार कर बाल हितों की रक्षा करें। हालाँकि न्यायालय ने यह सदाशा भी प्रकट की है कि मीडिया स्वयं ही संयम से रिपोर्टिंग कर जे.जे.एक्ट का पालन करेगा।
              अन्यान्य कारणों से मीडिया आज अतिरंजित होकर रिपोर्टिंग करता है। इसके पीछे प्राय: वैचारिक व व्यावसायिक कारण ही होते हैं लेकिन एक तीसरा कारण भी होता है और वह है नासमझी का। बहुधा ऐसा होता है कि बच्चों या फिर वयस्कों के मामलों में भी रिपोर्टिंग करते समय संवाददाता यह भूल जाता है कि उस व्यक्ति की कोई निजी जिन्दगी भी है और कैमरे के सामने या अखबार में छप जाने के बाद उसे अपने परिवेश में लोगों से दो-चार होना पड़ेगा। बच्चों के उत्पीड़न या महिलाओं के दैहिक शोषण की परिचय सहित खबरें उनका शेष जीवन भी नारकीय बना देती है। हाल के दशकों में मीडिया की अतिरंजना का जबरदस्त उदाहरण अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमले के समय मिला था जब एक खास विचारधारा वाले समाचार पत्रों ने पुलिस गोलीबारी से मरने वालों की संख्या के बारे में बताया था कि मृतकों को ट्रकों में भरकर सरयू नदी में फेंका गया था! हालॉकि उन्हीं अखबारों ने एक-दो दिन के बाद मृतकों की संख्या को काफी कम करके अपनी ही पूर्ववर्ती खबर को गलत साबित किया था और इस काम के लिए बाद में भारतीय प्रेस परिषद ने ऐसे अखबारों की भर्त्सना भी की थी। वर्ष 2008 में मुम्बई में हुए ताज हमले के समय भी मीडिया के अति उत्साह को लेकर तमाम सवाल उठाये गये थे और प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी थी लेकिन अंतिम निष्कर्ष यही निकला था कि मीडिया आत्मानुशासित रहे तभी उचित होगा। इसी क्रम में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने स्वयं ही एक कमेटी बनाकर आत्मानुशासन के मानदंड तय किये थे। हालॉकि यह कहना मुहाल है कि उसमें से कितनों का पालन किया जा रहा है! यही कारण तो है कि भारतीय प्रेस परिषद जैसी स्वायत्तशाषी व विधायी संस्था ने भी दंड देने का अधिकार नहीं लिया है। वह गलत कृत्यों के लिए समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की महज भर्त्सना ही करती है क्योंकि यदि वह दंड देने का अधिकार लेगी तो उसके दंड के विरुध्द अपील भी होगी और इस प्रकार उसकी सर्वोच्चता जाती रहेगी।
               समाचार संकलन व प्रस्तुतिकरण में संतुलन का निरंतर अभाव होता जा रहा है। खबरों के साथ विचारों का घालमेल कर देना अब आम बात हो गई है। समाचार लेखन में गलत शब्दों का प्रयोग कर अर्थ का अनर्थ (जैसे आरोपित की जगह आरोपी तथा मुखालफ़त की जगह खिलाफ़त जैसे बहु प्रयुक्त शब्द) तो किया ही जा रहा है, इससे भी ज्यादा खतरनाक काम तो तमाम समाचारों को अदालती फैसले की तरह लिखने में किया जा रहा है। मसलन,पुलिस कहती है कि उसने चार बदमाश पकड़े तो संवाददाता भी लिख देता है कि चार बदमाश पकड़े गये!जबकि प्राय:90 प्रतिशत मामलों में इन कथित बदमाशों को अदालत बाइज्जत बरी कर देती है क्योंकि पुलिस का पक्ष बेहद लचर होता है। यही रवैया सेक्स रैकेट के मामले में होता है जब अखबार छापता है कि चार काल-गर्ल पकड़ी गई!वो तो भुक्तभोगियों के पास संसाधन या जानकारी का अभाव ही इन अखबारों की बचत बन जाता है अन्यथा ऐसे 'बदमाश' या 'कालगर्ल' अगर न्यायालय चले जॉय तो ये अखबार सजा के पात्र हो सकते हैं। हैरत तो यह देखकर होती है कि जिस समय में अप्रशिक्षित लेकिन स्वत:स्फूर्त लोग इस क्षेत्र में आते थे तब इसकी मर्यादा कहीं ज्यादा बनी रहती थी जबकि आज अगर मीडिया ने उद्योग का रुप ले लिया है तो इसके लिए प्रशिक्षित कामगार तैयार करने की फैक्टरियाँ भी खूब खुल गई हैं फिर भी अधकचरापन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा संभवत: सम्पादक नामक संस्था में हुए ह्रास के कारण ही हो रहा है। सम्पादक कभी स्वयं में एक पाठशाला हुआ करता था। 0 0

उ.प्र. सरकार के अंतर्विरोध --- सुनील अमर


देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार अपने व्यापक अंतर्विरोधों के कारण दिन-ब-दिन न सिर्फ जनता की आकांक्षाओं पर निराशा थोप रही है बल्कि कैबिनेट के शिवपाल यादव व आजम खाँ जैसे कई वरिष्ठ मंत्रियों के उन्मुक्त आचरण की वजह से बार-बार हास्यास्पद स्थिति भी पैदा हो रही है। यह सच है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इससे पूर्व कभी किसी सरकार में नहीं रहे हैं और इस प्रकार अपने पहले अवसर पर ही वह प्रदेश के इस सर्वोच्च प्रशासनिक दायित्व के पद पर आसीन हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर भी अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में कभी किसी कैबिनेट में शामिल नहीं हुए थे और सीधे प्रधानमंत्री ही बने थे। स्व. राजीव गॉधी भी पहली ही बार में प्रधानमंत्री बन गये थे। श्री अखिलेश यादव को राजनीतिक व प्रशासनिक अनुभव बहुत कम है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होना गहरे राजनीतिक अनुभव की मॉग करता है जिसकी स्वाभाविक कमी अखिलेश के फैसलों और कैबिनेट पर उनके नियंत्रण में झलकती है।
                प्रदेश में इस बार जब चुनाव में समाजवादी पार्टी को प्रबल बहुमत प्राप्त हुआ तो इस बात पर कई दिनों तक रस्साकशी हुई कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बनें या उनके पुत्र अखिलेश। अखिलेश कहते थे कि नेता जी ही बनेंगें और नेता जी यानी मुलायम कहते थे कि अखिलेश बनेंगें। ये सच्चाई है कि मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन पार्टी की पसंद के बहाने हुआ यह एक पारिवारिक सत्ता हस्तांतरण था। शुरु में ऐसा सोचा जा रहा था कि अखिलेश एक रिमोट कंट्रोल्ड मुख्यमंत्री होंगें लेकिन ऐसा कुछ खास लगा नहीं। अखिलेश के कुछ फैसलों में ऐसा अधकचरापन झलका कि वह उनके और उनके उन्हीं जैसे सलाहकारों का ही काम लगा। बेरोजगारी भत्ता में तमाम तिकड़म और विधायकों को मंहगी कार खरीदवाने जैसे फैसले इसके प्रमाण हैं।
                सरकार में सबसे बड़ी दिक्कत कई मंत्रियों का अत्यन्त वरिष्ठ तथा मुख्यमंत्री का बहुत कनिष्ठ होना है। यह फ़र्क 4-6 साल का नहीं, पीढ़ियों का है। आजम खाँ जैसे नेता समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के दोस्त हैं और इसी तरह अवधेश प्रसाद, शिवपाल सिंह यादव, भगवती सिंह तथा अहमद हसन आदि मुलायम सिंह के हमउम्र तथा संस्थापक सदस्य हैं। इसमें शिवपाल तो अखिलेश के सगे चाचा हैं। इतने वरिष्ठों से मुलायम का बतौर मुख्यमंत्री काम लेना तो स्वाभाविक था लेकिन अखिलेश का इन पर वह नियंत्रण नहीं है। शिवपाल तो शुरु से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं। सपा की पिछली सरकार में हुई पुलिस भर्ती धांधली के निर्देशक शिवपाल ही बताये गये थे। इस बार भी उन्होंने पिछले महीने अधिकारियों की एक बैठक में कथित तौर पर यह कहा कि आप सब चोरी तो कर सकते हैं लेकिन डाका नहीं डाल सकते। बाद में, शिवपाल मार्का नेता जैसा करते हैं, उन्होंने भी कह दिया कि मीडिया की कवरेज ही गलत थी। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री आजम खॉ ने भी गत सप्ताह विधान सभा सचिवालय में एक मीटिंग के दौरान एक वरिष्ठ अधिकारी को असंसदीय शब्दों का प्रयोग कर भगा दिया।
                  यह सच है कि प्रदेश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है। कई मामलों में तो निवर्तमान सरकार से भी अधिक खराब हालात हो गये हैं जैसे विद्युत आपूर्ति व मंहगाई। यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में बरसात ठीक से न होने के कारण ऐसा हुआ है लेकिन जनता को तर्क नहीं परिणाम चाहिए। जब किसान के घर में गेंहॅू था तो व्यापारी उसे 950 रुपये कुन्तल भी नहीं खरीद रहे थे आज वही गेंहूॅ बाजार में 1600 से 1700 रुपये कुंतल बिक रहा है। प्रदेश में धान रोपाई के समय बरसात नहीं हुई तो बाजार में यूरिया खाद उपलब्ध थी लेकिन जब खाद डालने का समय आया तो बाजार से यूरिया गायब है या फिर कालाबाजारी में बिक रही है। उपर से जले पर नमक छिड़कने का काम मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल यादव कर रहे हैं कि प्रदेश में खाद की भरमार है!पूरे पॉच साल यही परिस्थितियॉ मायावती की बसपा सरकार में थीं। सरकार के सारे आश्वासन, केन्द्र सरकार की आर्थिक सहायता व चीनी निर्यात पर छूट देने के बावजूद प्रदेश के गन्ना किसानों का अरबों रुपया चीनी मिलों के पास बकाया पड़ा है और सरकार का कोई भी मंत्री सुनने को तैयार नहीं है।
                        प्रदेश की मौजूदा कैबिनेट में सबसे बड़े स्वेच्छाचारी मोहम्मद आजम खॉ हैं। अपने कार्य व्यवहार में वे खुद को मुख्यमंत्री ही मानते हैं। उनका एकमात्र गुण सपा में वरिष्ठ मुसलमान नेता होना है। प्रदेश में सपा की प्रत्येक सरकार वे कैबिनेट मंत्री रहे हैं। जितना उन्हें अखिलेश झेल रहे हैं उससे ज्यादा मुलायम सिंह झेल चुके हैं। गत वर्ष उनकी सपा में वापसी हुई है। अखिलेश के लिये यह खेल नया है जबकि उनके पिता मुलायम सिंह इस तरह के कई लोगों को हताश,निराश तत्पश्चात मनाकर वापस पार्टी में ला चुके हैं। आजम खॉ की ही तरह एक समय में बेनी प्रसाद वर्मा भी सपा के लिए अक्सर सिरदर्द हुआ करते थे। बेनी भी सपा के संस्थापक सदस्य थे लेकिन तब अमर सिंह के नियंत्रण में मुलायम सिंह हुआ करते थे इसलिए अमर सिंह ने अन्यान्य कारणों से आजम और बेनी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। आजम तो गत वर्ष वापस आ गये लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा अब कॉग्रेस में हैं और केन्द्रीय मंत्री का पद सुशोभित कर रहे हैं। बेनी का बड़बोलापन अभी भी गया नहीं हैं और अपनी आदत के अनुसार कॉग्रेस को भी गाहे-बगाहे मुसीबत में डालने का काम करते रहते हैं।
                   समाजवादी पार्टी पहली बार प्रबल बहुमत में आयी है और यह अच्छा ही होता अगर मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने होते। यह पहला अवसर होता जब उन्हें अपनी मर्जी और हनक के अनुसार सरकार चलाने को मिलती। वो एकाध साल में सरकार को पटरी पर लाकर अखिलेश को कुर्सी सौंप सकते थे और अखिलेश भी कुछ दिन कैबिनेट का ककहरा सीख लेते, लेकिन शायद अखिलेश में धौर्य खत्म हो गया था। राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि अखिलेश कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते थे। आज स्थिति यह है कि कैबिनेट के तमाम वरिष्ठ मंत्री अपनी मर्जी के हो गये हैं। इसका सबसे बुरा असर नौकरशाही पर पड़ा है और वह प्रभावशाली नेताओं की गणेश परिक्रमा कर अपनी जेबें भरने में लगी है। यह नौकरशाही पिछली सरकार में यही कर रही थी। यही वजह है कि जनता को कोई भी बदलाव दिख नहीं रहा है। मुलायम सिंह अपनी पिछली सरकार में भी आपातकाल में अन्यान्य कारणों से जेल भेजे गये लोगों को लोकतंत्र-सेनानी घोषित कर रुपया 3000 प्रतिमाह की पेंशन देने की तैयारी में हैं। सभी जानते हैं कि आपातकाल में महज राजनीतिक व्यक्ति ही नही ज्यादातर अपराधी ही जेल भेजे गये थे। अपनी पिछली सरकार में जब मुलायम सिंह ने ऐसा किया था तो भी अपराधी तत्त्वों द्वारा लाभ उठाने की शिकायतें हुई थी। असल में मुलायम सिंह का यह प्रयास महज कॉग्रेस को चिढ़ाने के लिए था। सभी जानते हैं कि कॉग्रेस ने ही आपातकाल लगाया था। मुलायम के ऐसा करने से यह बात लगातार चर्चा में रहेगी। सरकार चाहे कितनी भी बढ़िया नीतियॉ बना रही हो, उद्योग धन्धों को बढ़ावा दे रही हो तथा यमुना एक्सप्रेस वे बना रही हो, आम आदमी तो यह देखता है कि उसके रोटी, कपड़ा और मकान का क्या हुआ? वह यह जानना चाहता है उसके बच्चों की शिक्षा व रोजी के लिए क्या संभवनायें इस सरकार ने पैदा की हैं। यह अफसोसजनक ही है कि अखिलेश यादव की सरकार 'फर्स्ट इम्प्रेशन' के तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकी है। मुलायम सिंह के राजनीतिक गुरु डॉ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि ' जिन्दा कौमें पॉच साल इन्तजार नहीं करतीं '। मुलायम सिंह को भी राजकाज सुधारने के लिए दखल देना ही चाहिए अन्यथा हो सकता है कि पॉच साल बाद जनता दुबारा इंतजार करने को राजी न हो! 0 0 

चिकित्सक और चिकित्सा पध्दतियों का घालमेल --- सुनील अमर



ह अब एक सामान्य सी बात है कि चिकित्सा की किसी भी पध्दति में डिग्री लिया हुआ व्यक्ति बड़े आराम और अधिकार के साथ अंग्रेजी दवाओं की प्रैक्टिस करता है। अधिकांश मरीज यह जानते ही नहीं कि अंग्रेजी दवाओं से उनका इलाज करने वाला डॉक्टर ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं है। देश के प्रत्येक हिस्से में ऐसे हजारों डॉक्टर मेडिकल प्रैक्टिस करते मिल जायेंगे जिन्होंने पढ़ाई तो आयुर्वेद, होम्योपैथ या फिर यूनानी पध्दति में की है लेकिन मरीजों का इलाज वे इन दवाओं से न करके ऍग्रेजी दवाओं से ही करते हैं। इस सिलसिले में एक दिलचस्प वाकया उत्तर प्रदेश का है जहॉ कुछ अरसा पहले तक सरकारी अस्पतालों में तैनात होने वाले आयुर्वेद व होम्योपैथ के डॉक्टर भी ऍग्रेजी दवाऐं ही मरीजों को लिखते व देते थे। प्रदेश में सत्तारुढ़ नयी सरकार ने गत माह एक शासनादेश जारी कर आयुर्वेद, होम्यापैथ व यूनानी पध्दति के समस्त डॉक्टरों द्वारा ऍग्रेजी दवाओं के प्रयोग पर रोक लगा दी तथा इसके उल्लंघन पर आपराधिक कार्यवाही करने का निर्देश भी दिया। इस रोक के विरुध्द कुछ चिकित्सकों ने वहॉ के उच्च न्यायालय में अपील की तो गत सप्ताह अदालत ने सरकार के कदम को सही बताते हुए कहा कि याची अपनी विधा के विशेषज्ञ हो सकते हैं लेकिन इतने भर से उन्हें मार्डन दवाओं की प्रैक्टिस करने का अधिकार नहीं मिल जाता।
               यह सच है कि देश में एम.बी.बी.एस. डिग्रीधारी डॉक्टरों की भारी कमी है। कमी तो असल में मेडिकल कालेजों की ही बहुत है जहाँ तैयार होकर डॉक्टर निकलते हैं। मेडिकल की पढ़ाई के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा सी.पी.एम.टी. अत्यन्त कठिन है तथा सीटें बहुत कम होने के कारण प्रत्येक सीट के लिए दावेदारों की संख्या अत्यधिक हो जाती है। प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं की तरह सी.पी.एम.टी. में भी मेरिट के हिसाब से पहले एम.बी.बी.एस. के लिए तत्पश्चात अन्य चिकित्सा पध्दतियों के लिए चयन होता है। हर पध्दति का अपना विशिष्ट पाठयक्रम तथा उपचार विधि होती है। जैसे इंजेक्शन और ऑपरेशन की जो व्यवस्था ऐलोपैथ में है वैसा संभवत: दुनिया की किसी अन्य पध्दति में नहीं है। इधर कुछ वर्षो से कुछ आयुर्वेदिक दवा निर्माताओं ने इंजेक्शन बनाना शुरु किया है लेकिन अन्यान्य कारणों से वह लोकप्रिय नहीं हो पाया है। आयुर्वेद हमारे देश की अत्यन्त प्राचीन चिकित्सा पध्दति है और आज भी दुनिया भर में महत्त्व रखती है लेकिन इसके मुकाबले एलोपैथ महज इसलिए सर्वव्यापी और लोकप्रिय हो गया कि असर करने में इसकी तीव्रता, सर्व सुलभता तथा इस पर हो रहे विस्मयकारी अनुसंधानों ने इसे सरर्वोच्च कर दिया। इसके बजाय आयुर्वेद हजारों साल पुरानी उन किताबों पर आश्रित होकर रह गया है जिन्हें ज्यादातर तो लाल कपड़े में बॉधकर रख दिया गया है और वे पूजा की सामाग्री बनकर रह गये हैं। इनमें कोई भी उल्लेखनीय अनुसंधान नहीं हुआ है। इसी प्रकार होम्योपैथी को भी इस देश में आये दो सौ साल से अधिक हो रहा है लेकिन वह महज पढ़े-लिखे लोगों में ही सिमटी हुई है।
               आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथ के सिध्दांतकार यह कहते हैं कि उनकी चिकित्सा पध्दति भी तीव्र असरकारी है लेकिन सच यही है कि तात्कालिक असर के मामले में एलोपैथ का कोई सानी नहीं है। इस पध्दति में इंजेक्शन और ऑपरेशन की सुलभता ने इसे सर्वोच्च बना दिया है। चिकित्सक, चाहे वह सरकारी ही क्यों न हो, के पास गया हुआ मरीज तत्काल आराम चाहता है और यह उसे एलोपैथ में ही मिल पाता है। दूसरे, न सिर्फ सरकार अस्पतालों में एलोपैथ पार जोर देती है, बाजार में सर्वाधिक सुलभता भी इन्हीं दवाओं की है। यही कारण है कि अन्य पैथी के चिकित्सक भी इसी पैथी में इलाज करने को प्रमुखता देते हैं क्योंकि यह सहूलियत व व्यवयसाय दोनों दृष्टिकोण से ठीक पड़ता है। लेकिन प्रश्न यहॉ उनकी योग्यता का है। सरकारी अस्पताल हों या समाज में मौजूद प्रायवेट चिकित्सक, अगर एम.बी.बी.एस. डॉक्टर मौजूद हों तो न तो मरीज को अन्य डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा और न ही अन्य पैथी के चिकित्सकों को एलोपैथ अपनाने को मजबूर होना पड़ेगा। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि एलोपैथिक दवाऐं तेज असर करने के साथ-साथ, मरीज को अगर अनुकूल न हुई तो नुकसान भी उतनी ही तेजी से करती है और क्षणांश में जानलेवा हो सकती हैं। यही कारण है कि अपात्र व्यक्तियों द्वारा इसकी प्रैक्टिस को गैर कानूनी व दंड योग्य घोषित किया गया है।     राजकीय प्रश्रय किसी भी विधा को शीर्ष पर पहुॅचा सकता है। अंग्रेजी भाषा और एलोपैथी के साथ यही हुआ है। सरकार का सारा जोर एलोपैथी पर रहता है। मेडिकल कॉउसिल ऑफ इंडिया में भी एलोपैथ का ही बोलबाला रहता है। बावजूद इसके, देश में डॉक्टर्स की भारी कमी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ऑकड़े बताते हैं कि देश के सामुदायिक केन्द्रों पर चिकित्सकों के लगभग चालीस प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं। लगभग यही हाल कम्पाउन्डरों का भी है। जितने डॉक्टर हर साल संस्थानों से पढ़कर बाहर निकलते हैं उनमें से अधिकांश विदेश चले जाते हैं और कमाल यह है कि इस पर न तो सरकार को कोई नियंत्रण हैं और न इसकी जानकारी ही कि कितने डॉक्टर्स प्रतिवर्ष देश के बाहर चले जाते हैं।           
 लगभग एक वर्ष से केन्द्र सरकार यह योजना बना रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन वर्षीय पाठयक्रम के आधार पर डॉक्टर्स तैयार किये जॉय जो उसी क्षेत्र में नौकरी या प्रैक्टिस करने को बाध्य हों। इसका ये मंतव्य है कि एक तो डॉक्टरों की कमी को जल्दी पूरा किया जा सके तथा ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य डॉक्टर उपलब्ध रहें। इस योजना का सबसे ज्यादा विरोध डॉक्टर ही कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि ये सब-ग्रेड के डाक्टर उनके प्रोफेशन और उनकी हनक को कम कर देंगें। सरकार की आधी-अधूरी कोशिशों के साथ ये अत्यन्त आवश्यक योजना ठंढ़े बस्ते में पड़ी हुई है जबकि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डॉक्टर्स की बहुत किल्लत है। संसद में प्राय: हर बड़े राजनीतिक दल से तमाम डॉक्टर सांसद हैं लेकिन शायद ही इनके द्वारा कभी डॉक्टरों या मेडिकल कॉलेजों की कमी की बात की जाती हो। एलोपैथ के डॉक्टर यदि पर्याप्त संख्या में उपलब्धा हों तो दूसरे पैथ के डॉक्टर से एलोपैथ की दवा लेने मरीज क्यों जाऐंगें। अभी तो स्थिति यह है कि बड़ी संख्या में दवा विक्रेता भी मरीजों का उपचार करते रहते हैं। सरकारी ऑकड़ों के अनुसार हर साल औसत 1200 एम.बी.बी.एस. डॉक्टर विदेश चले जाते हैं और इस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हैं जबकि ऐसे एक डॉक्टर को तैयार करने में सरकार का करोड़ों रुपया खर्च होता है और ये जिस देश में जाते हैं उन्हें बिना पैसा खर्च किये डॉक्टर मिल जाते हैं। देश में मेडिकल कॉलेज बहुत कम हैं। इस पर भी सितम यह है कि कॉलेजों को मानक के अनुसार न पाने पर मेडिकल काउन्सिल ऑफ इंडिया उनकी सीटें ही कम कर दे रही है। उच्च न्यायालय का आदेश सराहनीय है लेकिन गरीब मरीजों के मामले में यही कहावत सटीक बैठती है कि मरता क्या न करता। जब तक काबिल डॉक्टरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होगी, मरीज आयुर्वेदिक और होम्यो ही नहीं झोला छाप से भी इलाज कराते रहेंगें। ग्रामीण डॉक्टरों को तैयार करने की योजना पर शीघ्र अमल ही इसका सही हल हो सकता है। जरुरत है कि सरकार डॉक्टरों की धौंस में आये बिना इस योजना को शुरु करे। 0 0 

Wednesday, July 04, 2012

कई सवाल खड़े करती है माही की मौत -- सुनील अमर




                  दुनिया की दुश्वारियों से नावाकिफ चार साल की मासूम बच्ची माही हरियाणा के मानेसर में उस अंधे कुऐं में गिरकर मर गयी जो किसी और का गुनाह था। उसे बचाने में सेना के जवानों ने हमेशा की तरह प्रशंसनीय कार्य किया लेकिन वह नन्हीं सी जान कुॅऐ में गिरने के बाद ज्यादा देर तक जीवित ही नहीं रही थी जबकि पथरीली जमीन को काटते हुए 80 फुट नीचे उस तक पहॅुचने में सेना के जवानों को 87 घंटे लग गये थे। बोरवेल के ये हादसे नये नहीं हैं और बीते पॉच वर्षों में लगभग डेढ़ दर्जन ऐसे हादसे देश भर में हो चुके हैं। सबसे चर्चित हादसा हरियाणा का ही प्रिंस नामक बच्चे का था। वह भी माही की तरह ऐन अपने जन्म दिन 23 जुलाई 2006 को बोरवेल में गिर पड़ा था लेकिन उसे सेना के जवानों ने 40घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जीवित निकालने में सफलता पाई थी। बाकी मामलों में शायद चार-पाँच बच्चे ही जीवित निकाले जा सके। इसी के साथ यह भी सच है कि इतने हादसों के बावजूद न तो अवैधा बोरवेल (जमीन की खुदाई करके बनाये गए कुँओं) पर लगायी गयी सरकारी रोक प्रभावी हो सकी है और न ही वैध कुँओं को ढ़ॅंक कर रखने के आदेश। इतने बच्चों के काल कवलित हो जाने और इन्हें बचाने में सेना के सैकड़ों जवानों के प्रशंसनीय श्रम व सरकारी धान की बरबादी के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि अब आगे ऐसे हादसे नहीं होंगें क्योंकि पिछले छह वर्षों से ऐसे कुओं की खुदाई पर रोक होने के बाद भी आखिर कुॅए खोदे ही जा रहे हैं! ताजा खबर है कि पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में भी बीते 25 जून को एक बोरवेल में गिरे रोशन अली मंडल नामक किशोर की मौत हो गई है और उसके शव को भी कुॅए से निकाला गया है।
               माही की मौत ने कई सवाल उठाये हैं। सवाल सिर्फ बोरवेल का ही नहीं है। देश में ऐसे तमाम कार्यों पर रोक है जिनसे आम जनता को दिक्कत होती है या वे जन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, लेकिन वे सभी काम उनसे सम्बन्धित अधिकारियों की ऑंखों के सामने सरे-आम हो रहे हैं। केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण ने देश भर में ऐसे 84 स्थानों को चिन्हित व प्रतिबन्धित किया हुआ है जहाँ कुऑं खोदने, बोरिंग करने व जल निकासी के लिए अधिकारियों की अनुमति आवश्यक है। इनमें से 12स्थान सिर्फ हरियाणा में ही हैं। ऐसे स्थानों पर उस मंडल के उपायुक्त की अनुमति के बगैर कुऑ की खुदाई या बोरिंग नहीं की जा सकती। माही की मौत जहाँ हुई है,वह भी ऐसे ही क्षेत्र में आता है लेकिन घटना गवाह है कि किस तरह कानून का मखौल उड़ाकर निरीह बच्चों को काल का ग्रास बनाया जा रहा है। यद्यपि हरियाणा सरकार सिर्फ बीते एक साल में ही 500से अधिक ऐसे अवैध बोरवेल को बंद करा चुकी है तथा आगे की निगरानी और जॉच के लिए 27 निरीक्षण टीमों को तैनात कर रखा है, बावजूद इस सबके हादसे हो ही रहे हैं। वजह साफ है- ऐसे कृत्यों पर गंभीर दंड़ की व्यवस्था अभी तक की ही नहीं गयी है।
              देश में ऐसे बहुत से कानून और न्यायालयों के आदेश हैं जिनका क्रियान्वयन ही नहीं किया जाता क्योंकि हमारी सरकारी मशीनरी या तो काम नहीं करना चाहती या फिर किंही कारणों से वह सम्बन्धित मामलों से ऑखें बंद किये रहती है। बोरवेल के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने 11फरवरी 2010को एक आदेश जारी कर सभी राज्य सरकारों से कहा था कि बोरवेल खोदने वाले को सम्बन्धित अधिकारियों से 15दिन पूर्व ही अनुमति लेनी आवश्यक होगी। कुछ दिन बाद अगस्त 2010 को अदालत ने इसमें संशोधन करते हुए प्राविधान किया था कि अगर बोरवेल का कोई हादसा होता है तो सम्बन्धित जिला मैजिस्ट्रैट को इसके लिए उत्तरदायी माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अब तक घटी ऐसी 19 घटनाओं में एक भी जिला मैजिस्ट्रैट को दंडित नहीं किया गया है। मानेसर में र्हुई ताजा घटना में भी भू-स्वामी की तलाश की जा रही है। यह कितने अचरज की बात है कि हमारा प्रशासन ऐसे कुॅओं को ढॅक़वा तक नहीं सकता! देश में वैसे तो असंख्य कुऐं सूखे या खुले पड़े हैं लेकिन वे उतने खतरनाक नहीं हैं जितने बोरवेल क्योंकि साधारण कुॅऐ काफी चौड़े और बहुत कम गहरे होते हैं और उनमें गिरे व्यक्ति या जानवर को निकालना चंद मिनटों का काम होता है जबकि बोरवेल प्राय: बहुत ही सॅकरे, 2-3 फुट और 100 फुट के करीब गहरे होते हैं। बोरवेल प्राय: वहीं बनाये जाते हैं जहॉ जमीन पथरीली होने के कारण पानी बहुत नीचे होता है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसे हादसे उन्हीं बोरवेल में होते हैं जहॉ बहुत गहरी बोरिंग करने के बावजूद पानी का स्रोत नहीं मिलता और फिर ऐसे बोरवेल को लावारिस छोड़ दिया जाता है! जिन बोरवेल में पानी मिल जाता है, वे खुले नहीं रहते। उनमें टयूब वेल लग जाती है।
                असल में ऐसे कारनामों के लिए सारा दोष प्रशासनिक भ्रष्टाचार का है। पहले तो रिश्वत लेकर बोरवेल खुदने दिया जाता है, बाद में बोरवेल मालिक को ही फॅसाकर अधिकारी अपना गला बचा लेते हैं। देश में, खासकर उत्तर भारत में, एक बहुत खतरनाक शौक प्रचलित है, शादी-विवाह में या अन्य खुशी के मौकों पर बंदूक या पिस्टल से फायरिंग करने का। यह खुशी से ज्यादा ताकत का प्रदर्शन होता है। हर साल सैकड़ों बेगुनाह लोग ऐसी अंधाधुध फायरिंग में अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। सम्पत्ति का नुकसान अलग से होता है। इसे रोकने के लिए राज्य सरकारें तमाम तरह के प्रतिबंध की घोषणा करती हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं होता। बीती एक मई 2012 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक आपराधिक मामले में लाइसेंसी असलाह के दुरुपयोग की सुनवाई करते समय राज्य सरकार को एक महत्तवपूर्ण आदेश दिया कि शादी-विवाह या अन्य खुशी के मौके पर फायरिंग पर तत्काल रोक लगाकर ऐसा करने वालों के विरुध्द आपराधिक मामला दर्ज किया जाय। निचली अदालतें भी इस प्रकार का आदेश पहले दे चुकी हैं लेकिन नतीजा वही है- प्रशासन कुछ करना ही नहीं चाहता।
                 बोरवेल जैसी ही एक और वारदात अक्सर होती है जिसमें हमेशा गरीब लोग मारे जाते हैं और वह है सीवर की सफाई। सभी जानते हैं कि सीवरों में अत्यन्त खतरनाक गैंसें पाई जाती हैं जिनके सम्पर्क में आते ही मनुष्य मर सकता है। पश्चिमी देशों में यह काम मशीनों से होता है। अपने यहॉ भी'' मैनुअल स्कवैन्जर्स एंड काँस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरीन एक्ट 1993'' द्वारा मनुष्य से सीवर साफ कराना अपराध माना गया है लेकिन यह काम जारी है और अभी बीते सप्ताह दिल्ली में सीवर साफ करते एक पिता-पुत्र की एक साथ ही मौत हो गयी है! कानून पता नहीं किस गोदाम में पड़ा हुआ है। यही हाल ध्वनि प्रदूषण का है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट नियम हैं कि दिन और रात के बीच कब से कब तक कितनी तीव्रता का शोर किया जा सकता है और खास आयोजन के लिए सम्बन्धित अधिकारियों से आयोजन की अनुमति लेनी आवश्यक है लेकिन हम सभी रोज देखते हैं कि शादी-विवाह या धार्मिक आयोजनों में सारी-सारी रात थर्रा देने वाली तीव्रता के साथ बैंड बजते रहते हैं और ऐसी जगहों पर रहने वाले हृदय व अवसाद के मरीजों की जान पर बन आती है। ऐसे आपराधिक कृत्यों के जारी रहने की एक वजह हमारे भीतर 'सिविक सेंस' यानी नागरिक चेतना का अभाव भी है। हम बर्दाश्त कर लेते हैं लेकिन एकजुट होकर विरोध या शिकायत नहीं करते।

Sunday, July 01, 2012

भ्रष्‍टाचार... आखिर कौन बोलेगा हल्‍ला बोल ---शंभू भद्रा





देश में भ्रष्‍टाचार ने रक्‍तबीज का रूप ले लिया है। सरकारी तंत्र पूरी तरह भ्रष्‍ट हो चुका है। सत्‍ता पक्ष और विपक्ष ‘मेरा भ्रष्‍टाचार बनाम तेरा भ्रष्‍टाचार’ का खेल ‘खेल’ रहे हैं। मीडिया कठपुतली बन कर रह गया है। अन्‍ना हजारे जैसे आम आदमी भ्रष्‍टाचार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो राजनीतिक दलों की तरफ से कहा जाता है कि आप जनता द्वारा इलेक्‍टेड नहीं हैं, इसलिए आपको सरकार से संवाद करने का हक नहीं है, जबकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। लेकिन लगता है कि सरकार जनता को केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित रखना चाहती है, जोकि किसी भी गणतांत्रिक प्रणाली के लिए बेहद खतरनाक बात है। इससे लोकशाही में जनता की भागीदारी के सिद्धांत का उल्‍लंघन होता है। ऐसे में अहम सवाल है कि भ्रष्‍ट सरकारी तंत्र से पग-पग पर पीडि़त ‘आम आदमी’ को मुक्ति कैसे मिलेगी, आखिर भ्रष्‍टाचार के खिलाफ कौन हल्‍ला बोलेगा। इन्‍हीं सवालों पर रोशनी डाल रहे हैं शंभू भद्रा... 
  भ्रष्‍टाचार की स्थिति नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक सरकारी योजनाओं के लिए आवंटित धन का केवल 20 फीसदी धन ही योजनाओं पर खर्च होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. राजीव गांधी के स्‍वर में सरकारी एक रुपये का केवल 15 पैसा अंतिम लाभार्थी तक पहुंचता है। हांगकांग की संस्‍था पालिटिकल एंड इकोनोमी रिस्‍क कंस्‍लटेंसी के सर्वे के मुताबिक एशिया के 16 भ्रष्‍टतम देशों में भारत चौथे पायदान पर है। इस सूची में भारत से अधिक भ्रष्‍ट देश केवल फिलिपींस, इंडोनेशिया और कंबोडिया है। चीन की स्थिति भारत से बहुत बेहतर है। भारत पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश, नेपाल, भूटान, म्‍यांमार, थाइलैंड और श्रीलंका से भी गया गुजरा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 180 देशों की सूची में नीचे से भारत 84वें स्‍थान पर है।
   देश में संत्री से लेकर मंत्री तक करीब 90 प्रतिशत सरकारी कर्मी भ्रष्‍ट हैं। देश का करीब 468 अरब डालर कालाधन बाहर है। भ्रष्‍टाचार के रूप इसके दो रूप होते हैं। व्‍यक्तिगत (इंडिविजुअल) और संस्‍थागत (इंस्‍टीट्यूशनल)। घूस (नकद) लेना, किकबैक (पद का दुरुपयोग कर उपहार प्राप्‍त करना या कमीशन लेना), अवैध वसूली (एक्‍सटॉर्सन), टैक्‍स चोरी, हवाला, गबन (सरकारी धन की हेराफेरी), भाई-भतीजावाद (नेपोटिज्‍म-सगे संबंधियों एंड क्रोनीज्‍म-दोस्‍तों) आदि व्‍यक्तिगत भ्रष्‍टाचार के रूप हैं। राजनीतिक भ्रष्‍टाचार अर्थात क्‍लेप्‍टोक्रेसी (शासन तंत्र पर कब्‍जा जमाकर नियम-कानून के जरिये सरकारी संपत्ति मसलन जमीन, खादान, प्राकृतिक संसाधन, तेल-गैस, सोना आदि का दोहन करना, पेट्रोनेज यानी सत्‍ता संभालने के तुरंत बाद नीति संचालन के महत्‍वपूर्ण पदों पर अपने मनपसंद अफसरों की नियुक्ति करना और सत्‍ता की लूट में हिस्‍सेदारी सुनिश्चित करने के लिए मौकापरस्‍त गठबंधन बनाना आदि क्‍लेप्‍टोक्रेसी है), मनी लांड्रिंग, संगठित अपराध (ऑर्गेनाइज्‍ड क्राइम), कॉरपोरेट कार्टेल (मिलीभगत कर उपभोक्‍ता वस्‍तुओं की कीमतें तय करना और क्षेत्र-मात्रा के आधार पर कारोबार का विभाजन कर लेना), कॉरपोरेट-पॉलिटिशियन नेक्‍सस, ड्रग्‍स तस्‍करी, मानव तस्‍करी, बाल मजदूरी, श्रम का शोषण आदि संस्‍थागत भ्रष्‍टाचार की श्रेणी में आते हैं। 
 अभी दुनिया में हर साल एक ट्रिलियन (10 खरब) डालर का संस्‍थागत भ्रष्‍टाचार होता है। आजकल भ्रष्‍टाचार का एक तीसरा रूप भी प्रचलन में है- थर्ड पार्टी करप्‍शन। यह है सरकार और कॉरपोरेट के बीच या देश और देश के बीच किसी खास नीति को प्रभावित करने के लिए या अपनी बात मनवाने के लिए एक भरोसेमंद मध्‍यस्‍थ थर्ड पार्टी की भूमिका निभाता है। थर्ड पार्टी करप्‍शन अवसर के स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा की राह में बाधक है। कैसे असर डालता है भ्रष्‍टाचार किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ा बाधक है भ्रष्‍टाचार। अगर चुनाव और विधायिका भ्रष्‍ट हैं, तो आप स्‍वच्‍छ प्रशासन की कल्‍पना नहीं कर सकते। न ही आप नीति निर्माताओं से ईमानदारी और जन-जवाबदेही की अपेक्षा कर सकते। न्‍यायपालिका में भ्रष्‍टाचार इंसाफ और कानून के राज को नकारात्‍मक तरीके से प्रभावित करता है। प्रशासन (पुलिस सहित) में भ्रष्‍टाचार जन कल्‍याण के लिए बनी सरकारी योजनाओं के क्रियान्‍वयन को बाईपास करता है और घूस, अवैध वसूली किकबैक आदि को बढ़ावा देता है। यह जनतंत्र के लोक कल्‍याण के सिद्धांत का उल्‍लंघन करता है।
  गवर्नेंस में भ्रष्‍टाचार सरकार की संस्‍थागत क्षमता को कमजोर करता है, जिससे सरकारी संसाधन की लूट को बल मिलता है और सरकारी दफ्तर खरीद-बिक्री केंद्र बनकर रह जाता है। फलत: ऐसी सरकार की वैधता पर सवाल उठने लगता है। कॉरपोरेट भ्रष्‍टाचार मौके की समानता और स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा के माहौल पर हमला करता है। कॉरपोरेट और सरकार के बीच नेक्‍सस जन संसाधन की लूट को प्रश्रय देता है। उपभोक्‍ता वस्‍तुओं के मूल्‍य नियंत्रण पर से सरकार की पकड़ ढीली हो जाती है। कंपनियां कार्टेल बनाकर मनमानी पर उतर आती है और जनता महंगाई से बिलबिलाने लगती है। कॉरपोरेट को कानून का भय नहीं रह जाता है और वह सरकारी नियमों के पालन में आनाकानी बरतने लगता है। प्रभाव और धौंस का इस्‍तेमाल कर व्‍यापार करना भी भ्रष्‍टाचार है और इससे स्‍वस्‍थ व्‍यापार की अवधारणा का हनन होता है। अमेरिका इसका उदाहरण है। पब्लिक सेक्‍टर (सार्वजनिक क्षेत्र) में भ्रष्‍टाचार सरकारी धन को मुनाफे के खेल में झोंक देता है, जिससे जनता को उचित दर उत्‍पाद उपलब्‍ध कराने की भावना खत्‍म हो जाती है। इस भ्रष्‍टाचार के चलते सरकारी कंपनियों के अधिकारी सार्वजनिक परियोजनाओं के क्रियान्‍वयन में व्‍यवधान पैदा करने लगते हैं, इससे उच्‍च स्‍तर का निर्माण नहीं हो पाता है, पर्यावरण की उपेक्षा होती और सरकारी सेवाओं की गुणवत्‍ता प्रभावित होती है। नतीजा सरकार पर बजट दबाव बढ़ जाता है।     
शायद इसीलिए नोबल पुरस्‍कार प्राप्‍त अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन ने कहा था कि सूखे के कारण अकाल नहीं पड़ता, बल्कि राजनीतिक कायरता के चलते अकाल से लोगों की मौत होती है। 
 इसके अलावा स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, जन सुरक्षा और ट्रेड यूनियनों में भी जमकर भ्रष्‍टाचार है। भ्रष्‍टाचार पनपाने वाले शासन के लूपहोल्‍स 1.सरकारी सेवाओं, योजनाओं और नियमों के क्रियान्‍वयन में गोपनीयता होना। अर्थात प्रशासन में पारदर्शिता का अभाव। वैसे आरटीआई के रूप में जनता के पास हथियार है, लेकिन यह एकतरफा है। जब किसी व्‍यक्ति को किसी सरकारी फैसले के बारे में जानने की जरूरत महसूस होगी, तब वह आरटीआई का इस्‍तेमाल कर सकेगा। लेकिन होना यह चाहिए कि केवल गोपनीय अपवाद को छोड़ कर सभी प्रशासनिक फैसले पारदर्शी तरीके से किए जाएं। यह विडियो रिकार्डिंग और लाइव प्रसारण से संभव है।
 2.मीडिया में खोजी पत्रकारिता का अभाव होना। 
3.बोलने और विरोध करने की आजादी और प्रेस की स्‍वतंत्रता का कुंद हो जाना।
 4.सरकारी लेखा का कमजोर होना। 
5.कदाचार पर अंकुश के लिए निगरानी तंत्र का या तो अभाव होना या लचर होना। 
6.सरकार को नियंत्रित करने वाले कारकों जैसे सिविल सोसायटी का मौन रहना, एनजीओ का सक्रिय नहीं रहना और जनता द्वारा अपने वोट के महत्‍व को नहीं समझना। 
7. त्रुटिपूर्ण प्रशासनिक सेवा, सुस्‍त सुधार, कानून के भय का अभाव, न्‍यायपालिका व न्‍यायिक व्‍यवस्‍था का जनोन्‍मुख नहीं होना और सामाजिक प्रहरी के तौर पर काम कर रहे ईमानदार नागरिक को पर्याप्‍त सुरक्षा नहीं मिलना। उपरोक्‍त सभी लूपहोल्‍स हैं जो भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देते हैं। शासन तंत्र में भ्रष्‍टाचार के लिए उपलब्‍ध अवसर 1.सरकारी कर्मियों को नकद उपयोग करने की छूट होना। 2.सरकारी धन को केंद्रीयकृत रखना, उसका विकेंद्रीकरण नहीं होना। उदाहरण के तौर पर दो करोड़ रुपये से दो हजार निकलेगा तो पत नहीं चलेगा पर दस हजार से दो हजार निकलेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। 3.बिना सुपरविजन किए सरकारी निवेश करना। 4.सरकारी संपत्ति की बिक्री और अपारदर्शी तरीके से विनिवेश होना। 5.हर काम के लिए लाइसेंस का प्रावधान होना। इससे अवैध लेनदेन को बढ़ावा मिलता है। 6.लंबे समय तक सरकारी कर्मी का एक स्‍थान पर टिका होना। जनता और सरकारी कर्मियों के बीच कम संवाद होना। किसी भी फैसले के दुष्‍परिणाम की स्थिति में सरकारी कर्मियों की जवाबदेही तय नहीं होना। 7.चुनाव प्रक्रिया का महंगा होना। 8.प्रचुर सरकारी प्राकृतिक संसाधन के निर्यात का अवसर होना। पब्लिक सेक्‍टर का विशाल होना। 71 प्रतिशत भ्रष्‍टाचार पब्लिक सेक्‍टर में है। 
 शासन व्‍यवस्‍था के जरिये सरकारी संसाधन जमीन-खान-सोना-स्‍पेक्‍ट्रम आदि पर कब्‍जा जमाने का मौका होना। 9.शासन में स्‍वार्थ हित, भाई-भतीजावाद, उपहार संस्‍कृति और जनता के बीच वर्ग व जाति विभाजन की स्थिति होना। उक्‍त सभी अवसर भ्रष्‍टाचार के लिए खाद-पानी की तरह है। संप्रग सरकार का लचर रवैया अभी तक आपने देखा कि हमारी शासन प्रणाली में उपरोक्‍त वर्णित वो तमाम खामियां हैं जो भ्रष्‍टाचार के फलने-फूलने में मददगार हैं। अब कुछ नमूना भ्रष्‍टाचार के प्रति वर्तमान संप्रग सरकार के लचर रवैये का। अदालत की सक्रियता देश के राजनीतिक दलों को हमेशा चुभती रही है। 
 अभी किसी सदन का सदस्‍य नहीं होने के बावजूद वरिष्‍ठ माकपाई व पूर्व लोकसभा अध्‍यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने न्‍यायिक सक्रियता के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। लेकिन सोमनाथ बाबू की करतूत देखिए। चटर्जी ने धन के बदले सवाल पूछने के मामले में 11 सांसदों को बर्खास्‍त करने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का संज्ञान लेने से यह कह कर मना कर दिया था कि यह न्‍यायपालिका का विधायिका में हस्‍तक्षेप है। सच जो भी हो, पर सोमनाथ के लोकसभा अध्‍यक्ष रहते हुए ही नोट के बदले वोट कांड में लीपापोती हुई। इस मामले की जांच के लिए गठित संसदीय समिति ने कथित तौर पर आरोपी सांसदों से बिना पूछताछ किए ही रिपोर्ट दे दी, जिसमें किसी को दोषी नहीं बताया गया। बस कहा गया कि आगे जांच की जरूरत है। सोमनाथ ने कभी भी जांच की पहल नहीं की। नतीजा यह हुआ कि दिल्‍ली पुलिस उदासीन बनी रही। इस उदासीनता के खिलाफ दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीखे तेवर अपनाए, तो दिल्‍ली पुलिस अब हरकत में आई है। 
 अगर सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि अपना काम ठीक से करते तो शीर्ष अदालत को दखल नहीं देना पड़ता। अभी दिल्‍ली हाईकोर्ट ने राष्‍ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोप में जेल में बंद सुरेश कलमाड़ी की उस याचिका पर सख्‍त टिप्‍पणी की है, जिसमें कलमाड़ी ने मानसून सत्र में शरीक होने के लिए अदालत से अनुमति मांगी थी। हाईकोर्ट ने पूछा कि आखिर कलमाड़ी के लिए संसद सत्र में भाग लेना क्‍यों जरूरी है। क्‍या सरकार गिरी जा रही है। लगे हाथ कोर्ट ने कलमाड़ी से उनका संसद में भाग लेने का पिछला रिकार्ड मांग लिया। लेकिन किसी भी नेता ने एक भ्रष्‍टाचार के आरोपी के संसद में भाग लेने की मंशा का विरोध नहीं किया। ईमानदार प्रधानमंत्री ने भी नहीं और कांग्रेस आलाकमान ने भी नहीं। 
 उल्‍टे संप्रग सरकार में भ्रष्‍ट नेता की कितनी पूछ है, इसका पता कैग की उस हालिया रिपोर्ट से चलता है, जिसमें कैग ने कहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) जानबूझकर राष्‍ट्रमंडल खेल आयोजन की जिम्‍मेदारी सुरेश कलमाड़ी के पास रहने दिया, जबकि 25 अक्‍टूबर 2004 में मंत्रिसमूह ने निश्‍चय किया था कि खेल आयोजन की जिम्‍मेदारी खेलमंत्री को दी जाए। उस मंत्रिसमूह की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद शामिल थे। उस समय खेलमंत्री सुनील दत्‍त थे, जिनकी छवि के बारे में सबको पता है। उसके बाद कलमाड़ी ने क्‍या कमाल किया यह आपने देखा ही। कालेधन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल के गठन का फैसला तब किया जब वह आश्‍वस्‍त हो गई कि सरकार काले धन की जांच में मंशावश देरी कर रही है और अपना काम ठीक से नहीं कर रही है।   केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त (सीवीसी) के रूप में कथित दागदार दामन वाले पीजे थॅमस की नियुक्ति सरकार के ‘भ्रष्‍ट प्रेम’ का एक और प्रमाण है। सरकार को पता था कि थॉमस इस पद के योग्‍य नहीं है, फिर भी उसने उनकी नियुक्ति की, अदालत में उनके पक्ष में हलफनामे देती रही। इस मामले में भी अगर अदालत दखल नहीं देती तो थॉमस पूरी व्‍यवस्‍था को मुंह चिढ़ा रहे होते।
  2जी मामले में भी मीडिया रिपोर्ट के बाद न्‍यायालय दखल नहीं देता तो शायद ए राजा अब भी संचार मंत्री पद पर बने रहते। सांसद कनिमोझी जेल में नहीं होती। सलवा जुडूम मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है। तभी छत्‍तीसगढ़ सरकार ने हाथ पीछे खींचा है। कर्नाटक के लोकायुक्‍त ने ठीक से काम नहीं किया होता तो आज बीएस येदियुरप्‍पा को मुख्‍यमंत्री पद से इस्‍तीफा नहीं देना पड़ता। भूमि अधिग्रहण का मामला ही लें तो अगर इसमें संप्रग-एक के कार्यकाल में ही संशोधन हो जाता तो यह इतना बड़ा मामला नहीं और न ही अदालत पहुंचता। संप्रग-एक सरकार को ही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन विधेयक पारित करना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि गैर कांग्रेस राज्‍यों में इस पर राजनीति को हवा दी। अब तक आपको पता चल गया होगा कि भ्रष्‍टाचार के खिलाफ सरकार कितनी गंभीरता से काम कर रही है और इसके खिलाफ अन्‍ना हजारे जैसे लोगों को क्‍यों जंतर-मंतर पर आमरण अनशन करना पड़ता है। क्‍यों बाबा रामदेव को लाठी खानी पड़ती है। ऐसे में भ्रष्‍टाचार रूपी रक्‍तबीज के खात्‍मे के लिए हमारे पास क्‍या विकल्‍प है, तो बस अपना संकल्‍प कि किसी भी कीमत पर न ही घूस देंगे और न ही अन्‍याय सहेंगे और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को पारदर्शी बनाने के लिए सतत संघर्षशील रहेंगे। o o 

Friday, June 22, 2012

सरकारी बैंक भी सूदखोरों और सामंतों की तरह पेश आते हैं किसानों के साथ ----सुनील अमर




किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहॉं जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत पखवारे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बॉंदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गई। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरू की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया! यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गई। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगाई कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया। न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाए जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टैªक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुद्ध करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्राविधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्राविधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जाएं।
नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहां का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बांदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती, तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फंसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाएं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बांटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए- बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्रायः किसान इतना महंगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम टैªक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद टैªक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहां किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल टैªक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्रायः हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाए। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता।


कृषि-ऋण वसूली के नियम और स्पष्ट हों


सुनील अमर
                किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण कर्ज ही होता है जिसे वे फसल खराब होने या दाम गिर जाने के कारण बैंक या साहूकार को चुका नहीं पाते और उनकी जमीन कौड़ियों के मोल छीन ली जाती है। जमीन चली जाने के नुकसान से भी बड़ा भय उन्हें अपने समाज का होता है जो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगता है और जहाँ जीवित रहकर सबके उपहास का पात्र बनने के बजाय मौत को गले लगाना ही उन्हें उचित लगता है। किसी किसान का अपने ही गॉव में मजदूर बन जाना मौत से भी बदतर होता है। यह वैसे ही है जैसे कोई उद्यमी अपने ही संस्थान में श्रमिक बनने को विवश हो जाय। साहूकार या सामंती तत्त्वों द्वारा मनमानी शर्तों पर कर्ज देकर लाठी के बल पर वसूल कर लेना तो समझ में आता है लेकिन जब वही काम सरकारी बैंक करने लगें तो जाहिर है कि व्यवस्था से भरोसा खत्म हो जाता है। यही वह स्थिति होती है जो किसी किसान को मौत की तरफ ले जाती है।
               सरकारी बैंक किस तरह सूदखोर और सामंतों जैसा आचरण कर किसानों का सर्वनाश करते हैं, इसकी एक बानगी गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में दिखाई है और कहा है कि बैंक प्रापर्टी डीलर की तरह व्यवहार न करें। उ.प्र. के बाँदा जिले के एक किसान ने एक सरकारी बैंक से आठ हजार रुपया कर्ज लिया लेकिन कर्ज लेने के तीन साल बाद उसकी मौत हो गयी। बैंक ने ब्याज सहित बकाया रुपया साढ़े दस हजार की वसूली के लिए आर.सी. (रिकवरी सर्टीफिकेट) जारी कर नीलामी प्रक्रिया शुरु की और उसका सवा तीन बीघा खेत महज छह हजार रुपये में नीलाम कर दिया!यानी कर्ज लेते समय खेत की जो कीमत थी (ध्यान रहे कि बैंक प्रापर्टी की कीमत का 75 प्रतिशत ही कर्ज देते हैं) पॉच-छह साल बाद वह कीमत बढ़ी नहीं उल्टे और घट गयी। बहरहाल, बकाया चार हजार रुपये की वसूली के लिए बैंक ने कर्ज की जमानत लेने वाले व्यक्ति की डेढ़ बीघा जमीन 25,000 रुपये में नीलाम कर दी लेकिन सारा पैसा अपने पास रख लिया। याची द्वारा अपील करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को फटकार लगायी कि अगर जमीन को नियमानुसार बेचा गया होता तो कर्जदार की एक तिहाई जमीन बेचने से ही बकाया धनराशि प्राप्त हो सकती थी। न्यायालय ने इस बात पर सख्त रुख दिखाया कि जमानती की जमीन नीलाम करने से जो अतिरिक्त धन मिला उसे बैंक ने जमीन मालिक को देने के बजाय अपने पास कैसे रख लिया?न्यायालय ने बांदा के जिलाधिकारी को आदेश दिया कि तीन माह के भीतर अतिरिक्त धनराशि नौ प्रतिशत ब्याज सहित याची को भुगतान करें। अफसोस यह है कि जमीन बेचने की गलत प्रक्रिया अपनाये जाने को रेखांकित करने के बावजूद न्यायालय ने बैंक को निर्देशित नहीं किया कि वह जमीन मालिकों को हुई क्षति की भरपाई करे।
                 देश में जिस तरह से सैकड़ों कानून आज भी गुलामी के समय के हैं उसी तरह से सरकारी कर्ज वसूलने का नियम कानून भी 150 साल से अधिक पुराना है। यह सन् 1872 का इंडियन कान्टै्रक्ट एक्ट है जिसकी धारा 128 के तहत कर्जदार और उसकी जमानत लेने वाला, दोनों ही कर्ज भुगतान करने के जिम्मेदार माने जाते हैं। कर्ज वसूली में असफल रहने पर बैंक सम्बन्धित जिलाधिकारी से राजस्व की वसूली के तहत कर्ज वसूले जाने का अनुरोध करता है जिस पर जिलाधिकारी सम्बन्धित क्षेत्र की तहसील को आदेश देता है। तहसील कर्मी बकाया धनराशि पर 10 प्रतिशत वसूली-कर जोड़कर बकायेदार से उसकी वसूली करता है। इसके लिए दंडात्मक व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही तहसीलकर्मी करते हैं, मसलन नोटिस व वसूली के खर्चे, इससे भी काम न बनने पर बकायेदार को गिरफ्तार कर तहसील के बंदीगृह में निरुध्द करना तथा आखिर में जमीन की विधिक नीलामी कर बकाया धन वसूलना। बकाया वसूलने के लिए देश के राज्यों में अलग-अलग प्रावधान हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश में एक लाख रुपये तक के सरकारी बकाये के लिए बकायेदार का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता और अगर बकायेदार के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है तो उसकी नीलामी नहीं की जा सकती। जमीन नीलामी की प्रक्रिया में यह प्रावधान है कि पहले बकायेदार के गॉव में सार्वजनिक स्थानों पर नीलामी के बाबत सरकारी सूचना चिपकाई जाय कि बकायेदार कौन है, बकाया धनराशि कितनी है, बंधक जमीन का विवरण क्या है तथा नीलामी कब और कहॉ होगी। इसके अगले चरण में ध्वनि विस्तारक यंत्र या ढ़ोल आदि पीटकर उस गॉव में उपर्युक्त तथ्यों की मुनादी की जाय और आखिर में किसी स्थानीय दैनिक समाचार पत्र, जिसकी एक निर्धारित प्रसार संख्या हो, उसमें उक्त नीलामी का ब्यौरेवार प्रकाशन किये जाने का नियम है ताकि उस क्षेत्र के आमजन अच्छी तरह अवगत हो जॉय।
               नीलामी का एक अहम् पहलू विक्रय की जाने वाली भूमि का न्यूनतम मूल्य होता है जिससे कम पर उसे बेचा नहीं जा सकता। किसी भी जनपद की भूमि का न्यूनतम मूल्य निर्धारण वहाँ का कलेक्टर एक तयशुदा प्रक्रिया से करता है और अलग-अलग प्रकार की भूमि का अलग-अलग रेट होता है। उससे कम पर न तो उस भूमि का निबंधन यानी क्रय-विक्रय हो सकता है और न ही नीलामी। जनपद बॉदा के उपर्युक्त मामले में स्पष्ट है कि तहसील द्वारा नीलामी प्रक्रिया में सम्बन्धित कानूनों का घोर उल्लंघन किया गया। भूमि को मनमानी दर पर बेच दिया गया और इस पर भी जो अतिरिक्त धन मिला वह भू-स्वामी को न देकर बैंक ने अपने पास रख लिया! सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि अगर जमीन की नीलामी नियमानुसार की गई होती तो कर्जदार की जमीन के एक छोटे हिस्से को बेचने से ही बैंक को अपना बकाया धन प्राप्त हो सकता था।
               सरकारी बैंकों द्वारा कृषि ऋण देने के तौर-तरीके भी किसानों के हितकारी नहीं बल्कि उन्हें फॅसाने वाले ही हैं। होता यह है कि खेती के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाऐं असल मे अव्यवहारिक हैं और बैंकों पर इन योजनाओं हेतु ऋण बॉटने का एक लक्ष्य रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए-बैंकों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने का एक निश्चित लक्ष्य रहता है। पिछड़े क्षेत्रों में प्राय: किसान इतना मॅहगा कृषि उपकरण खरीदने में असमर्थ होते हैं और बहुधा तो उनके पास वांछित जमीन ही नहीं होती। ऐसे में बैंक वाले एकाधिक किसानों को मिलाकर संयुक्त रुप से उनके नाम ट्रैक्टर फायनेन्स कर देते हैं जो आगे चलकर झगड़े और विफलता का पक्का कारण बनता है। इसके बाद ट्रैक्टर व बंधक जमीन की नीलामी ही अंतिम उपाय रह जाती है। यही उन मामलों में भी होता है जहॉ किसी किसान की अनिच्छा होने पर भी बैंक के दलाल ट्रैक्टर फायनेन्स कराकर उसे पकड़ा देते हैं। यही प्राय:हर कृषि ऋण के साथ होता है। हर स्तर पर दलाल सक्रिय रहते हैं। इसलिए आवश्यकता कृषि ऋण की नीतियों को और ज्यादा उपयोगी तथा ऋण वसूली प्रक्रिया को और पारदर्शी तथा उदार किये जाने की है। ऐसा तभी संभव है जब किसानों को व्यवसायी और उद्योगपति न माना जाये। कृषि ऋण के साथ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाऐं जुड़ी रहती हैं तथा बाजार का कहर अलग से रहता है। इसके अलावा किसान का सामाजिक परिवेश व पृष्ठभूमि भी खासा महत्त्व रखती है। ऋण देने व वसूली करने में इन कारकों को ध्यान में रखा जाना बहुत आवश्यक है तभी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को कारगर ढ़ॅंग से रोका जा सकता है। सिर्फ किसान का कर्ज माफ कर देना कोई उपाय नहीं हो सकता। 0 0