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नया मोर्चा
समय और समाज का साक्षी
Thursday, December 20, 2012
मंडी बन गये हैं मीडिया के सरोकार --- सुनील अमर
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डिया के बदलते सरोकारों पर अक्सर बहस होती रहती है और ऐसे निष्कर्ष भी निकाले जा रहे हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्राणवायु माने जाने वाले इस जन माध्यम की सोच व सरोकार में पतनशील परिवर्तन हो रहा है जो कि इस माध्यम के लिए ही नहीं बल्कि देश के राजनीतिक भविष्य के लिए भी घातक होगा। देश की राजधानी दिल्ली में दो सम्पादक कथित तौर पर घूस मॉगने के आरोप में जेल में निरुध्द हैं और अदालत ने उनकी जमानत याचिका भी इस आधार पर खारिज कर दी है कि जेल से छूटने पर वे गवाहों व सबूतों को प्रभावित कर सकते हैं। देश में पत्रकारिता के इतिहास में संभवत:यह पहली घटना है। इसी बीच देसी अखबारों ने कोलम्बिया की पॉप गायिका शकीरा, जो कि मॉ बनने वाली है, के ''गर्भस्थ भ्रूण का अल्ट्रासाउन्ड फोटो'' छाप कर बताया है कि होने वाला बच्चा लड़का है!गत माह ऐसे ही अखबारों ने एक और खबर बहुत महत्त्वपूर्ण बनाकर प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि इटली में मॉडलिंग करने वाली एक लड़की अपने कौमार्य की नीलामी कर रही है और उसकी इतने रुपयों की बोली लग चुकी है!
बाजारवाद सारी दुनिया में पैर पसार रहा है और 'हार्डकोर' कम्युनिस्ट चीन भी अब इसकी चपेट में है। ऐसे में मीडिया भी अगर बाजार की वस्तु बन जाय तो आश्चर्य कैसा! आज अगर बाजार की परिभाषा बदली है तो बाजार ने अपने दायरे में आने वाली सभी चीजों को पुनर्परिभाषित किया है। बाजार का ध्येय वाक्य अगर 'शुभ और लाभ' है तो इसका उद्धोष है कि 'सब बिकता है।' इसलिए आश्चर्य नहीं कि आज बहुत से बड़े विचारक और मीडिया विशेषज्ञ अखबार समेत सभी समाचार माध्यमों को एक प्रोडक्ट मानने लगे हैं और किसी प्रोडक्ट को बेचने के लिए जिस तरह के दॉव-पेच किये जाते हैं, वो सब इस क्षेत्र में कमोवेश आ गये हैं। यही कारण है कि उपर जिन खबरों पर बहुत आश्चर्य व्यक्त किया गया है, वैसी खबरें अब मीडिया में बहुत आम हैं। बाजार का सिध्दांत है कि नयी वस्तु पुरानी को खिसका कर अपनी जगह बनाती है, सो बहुत सी खबरें दूसरे या तीसरे दर्जे से होती हुई बाहर हो चुकी हैं और उनका स्थान नये मिजाज की खबरों ने ले लिया है। इस परिवर्तन में दिक्कत उनके लिए आयी है जिनके पास अपनी आवाज नहीं थी और अखबार ही उनकी आवाज बनते थे। यह कैसी विडम्बना है कि आज अखबार तो भारी-भरकम और अत्यधिक विस्तार वाले हो गये हैं लेकिन उनका देश की उस तीन चौथाई आबादी से कोई सरोकार ही नहीं है जो दो वक्त की रोटी, कपडे अौर मकान को मोहताज हैं!
समाज में अखबार की अवधारणा 'वॉच डॉग' यानी सजग प्रहरी के तौर पर की गयी है और यह अपेक्षा की जाती है कि देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों व घटनाओं से वह लोगों को अवगत कराता रहेगा। इसके साथ ही अखबार का एक और महत्त्वपूर्ण काम है जनमत बनाना। हाल के वर्षों में हमने देखा कि अखबार या अन्य समाचार माध्यम ये सारे काम तो कर रहे हैं क्योंकि यह इनका गुण है लेकिन इससे फायदा कुछ विशिष्ट लोगों को ही पहुॅचाया जा रहा है। भारत जैसे देश में पत्रकारिता का स्वरुप ब्रिटेन, अमरीका, जापान या अन्य अमीर व विकसित देशों से भिन्न रहा है क्योंकि यहाँ की सामाजिक संरचना व आवश्यकताऐं भिन्न हैं। बीते दो दशक में देसी पत्रकारिता में उतना बदलाव आ गया है जितना पत्रकारिता के इतिहास में कभी नहीं आया था। देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता कुछ गिने-चुने हाथों में सिमट गयी तो उसके सरोकार भी ऐसे ही हाथों के इर्द-गिर्द सिमट गये। यह कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता आज इंडस्ट्री बन गयी है। आज इसके लक्ष्य हैं कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पाठक बनें, उससे बाजार बने और बाजार से पैसा मिले। अब इस 'इंडस्ट्री पत्रकारिता' को न तो पैसा लेकर खबर छापने में कोई गुरेज है और न अपने स्वार्थ के लिए फर्जी खबर छापने से। बाजारवाद का 'सब बिकता है' का झंडा यहाँ इनके पहले पन्ने से दिखना शुरु हो जाता है और यहीं शकीरा के गर्भस्थ बच्चे का अल्ट्रासाउंड फोटो लगाया जाता है ताकि इसी बहाने पाठक इन बहुपृष्ठीय भारी अखबारों के भीतरी पन्नों तक जॉय जहॉ तमाम विज्ञापन और बिकी हुई खबरें उनका इंतजार करती रहती हैं। सभी जानते हैं कि इंडस्ट्री, पूॅजी की मोहताज होती है और पूॅजी का अपना चरित्र होता है! आज इस पूॅजी का चरित्र ही मीडिया का चरित्र हो गया है। जो मीडिया संस्थान पूॅजी के चपेटे में आने से बचे हुए हैं, उनका अपना अलग चरित्र बरकरार है।
मीडिया के बदलते सरोकारों पर वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ एक दिलचस्प घटना का उदाहरण देते हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के पुणे में हुई एक फैशन प्रतियोगिता का समाचार संकलन करने देश-विदेश के पॉच सौ से अधिक पत्रकार गये थे लेकिन वहीं निकट स्थित विदर्भ में हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध लेने मात्र तीन पत्रकार गये थे जिनमें से एक स्वयं साईंनाथ थे! सारी दुनिया में मीडिया आज मुनाफे का खेल है। जो भी घटना या समाचार उसे मुनाफा दे सकता है, उसी में उसकी दिलचस्पी होती है। आप पूछ सकते हैं कि क्या 25-30 पृष्ठ के दैनिक अखबार और 24 घंटे के समाचार चैनल में सब कुछ मुनाफा दे सकने वाला ही होता है तो जवाब होगा कि हाँ, क्योंकि इन सबका जो प्राण-तत्त्व होता है वह मुनाफाखोर ही होता है। किसी अखबार या चैनल में करोड़ों-अरबों रुपया लगाने वाला व्यक्ति जाहिर है कि उससे मुनाफा और अपना हित चिंतन करेगा ही। अन्ना या रामदेव के आंदोलन की प्रस्तुति ये किसी समजासेवा के दायित्व से अभिभूत होकर नहीं करते बल्कि यह इन्हें एक ऐसी सनसनीखेज सामाग्री उपलब्धा कराता है जिस पर सवार होकर इनके बेशुमार विज्ञापन नोटों की बारिश में बदल जाते हैं! दूसरी तरफ इरोम चानू शर्मिला का मामला है जो वहॉ तैनात सशस्त्र बलों के अत्याचार के खिलाफ बीते 12 वर्षों से मणिपुर में लगातार भूख हड़ताल पर हैं, लेकिन जिन्हें एक बार भी तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने सर-माथे नहीं बैठाया क्योंकि उससे मीडिया को कोई लाभ नहीं दिखता। इसके बजाय अखबार के पहले पन्ने भी आज सिने कलाकारों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सी.ई.ओ., यहॉ तक कि माफियाओं की चर्चा से भरे रहते हैं लेकिन 24 पृष्ठ में चार पृष्ठ भी देश की उस 75प्रतिशत जनता के लिए नहीं होता जो कि हर प्रकार से पिस रही है। दर्शकों व पाठकों को हर हाल में बॉधकर रखना है इसलिए आज प्राय:सभी चैनलों पर बलात्कार सरीखी अत्यन्त शर्मनाक घटना को भी पचासों बार घुमा-फिराकर दिखाया जाता है। व्यावसायिक लाभ के लिए निर्ममता और निर्लज्जता की पराकाष्ठा यह है कि बलात्कार और हत्या जैसी घटनाओं को चैनल की स्टूडियों मे 'री-शूट' किया जाता है ताकि इसी बहाने दर्शक रुकें और टी.आर.पी. बढ़े। भूत-प्रेत के कल्पित किस्सों की भी बाढ़ सी आई हुई है। आज का मीडिया नितांत स्वार्थी हो गया है। अब तो तमाम प्रतिबध्द कही जाने वाली पत्र-पत्रिकाऐं भी इस गति को पहुॅच रही हैं।
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सुनील अमर
Ayodhya - Delhi, U.P., India
An M.A. in English and a degree in Journalism . 45 years given to this field till now. Writer - Shayer & Social Activist .
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