Wednesday, December 09, 2015

कोचिंग की कालकोठरी में बच्चे --- सुनील अमर

देश के कोचिंग हब के रूप में मशहूर राजस्थान का कोटा शहर अब बच्चों की आत्महत्या के कारण चर्चा में है। इस साल अब तक 26 बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं। पिछले साल 11 बच्चों ने और 2013 में 13 ने आत्महत्या की थी। साफ है कि वहां सुसाइड करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। खुदकुशी की इन घटनाओं ने कोचिंग व्यवसाय की एक भयावह तस्वीर पेश की है, जिससे देश अब तक प्राय: अनजान था। ऐसा लगता है कि कोटा में होनहार और मासूम छात्रों में डेथ कॉम्पिटिशन शुरू हो गया है! औसत देखा जाए तो लगभग हर तेरहवें दिन एक स्टूडेंट अपनी जान दे रहा है। कारण एकदम साफ है - परीक्षाओं में सफल होने का बेहद दबाव, लक्ष्य के विकल्प का अभाव, कक्षा में अध्यापकों का उपेक्षापूर्ण व मशीनी रवैया और इसी के साथ मां-बाप की अनाप-शनाप अपेक्षाएं। छात्रों को सिर्फ ज्ञान और सूचनाएं दी जा रही हैं। उन्हें जीवन का सही अर्थ समझाया नहीं जा रहा। एक सांचा बना दिया गया है और जो छात्र उस में फिट नहीं हो रहा उसे निकम्मा बताया जा रहा है! जबकि दुनिया में हजारों-लाखों सांचे और भी हैं।

अपने-अपने तर्क
खुदकुशी के पीछे छात्रों, अभिभावकों और संस्थान प्रबंधकों के अलग-अलग तर्क हैं। आईआईटी /जेईई तथा मेडिकल पाठ्यक्रम की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारियां प्रायः बारहवीं की पढ़ाई के साथ-साथ शुरू हो जाती हैं और आईआईएम की प्रवेश परीक्षा यानी कैट की तैयारी ग्रेजुएशन या उसके अंतिम वर्ष की परीक्षा के साथ ही। ऐसा करने से छात्रों का एक साल का समय बच जाता है, लेकिन बारहवीं (विज्ञान वर्ग) और उक्त प्रवेश परीक्षाओं की एक साथ तैयारी करना बहुत कठिन काम है। यह छात्रों के सामने दोहरा चैलेंज खड़ा करता है। नए नियमों के अनुसार आईआईटी में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को अब दो के बजाय तीन मौके मिलेंगे। यही वह जानलेवा कानून है जो छात्रों पर जबर्दस्त दबाव बनाता है कि वे इंटर की बोर्ड परीक्षा और आईआईटी की प्रवेश परीक्षा एक साथ पास करें। इसका एक पहलू यह भी है कि इसमें भाग लेने वाले छात्रों की औसत आयु प्रायः 17-18 वर्ष ही होती है। यह बहुत कच्ची उम्र होती है। बच्चों के लिए सही-गलत का निर्णय करना आसान नहीं होता। प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों में एक छात्र पर कम से कम दो लाख रुपये प्रतिवर्ष का खर्च आता है और छात्र अपने मां-बाप की आर्थिक हालत सोचकर भी भारी दबाव में रहते हैं।

छात्रों का कहना है कि अध्यापक कक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्रों को न सिर्फ आगे की बेंचों पर बैठा कर उन पर ज्यादा ध्यान देते हैं बल्कि कम अच्छे छात्रों को सरेआम धिक्कारते और ज्यादा मेहनत करने का दबाव बनाते हैं या फिर उनका बैच ही बदल देते हैं। कोटा के एक कोचिंग संचालक का तो साफ कहना है कि जब मां-बाप जानते हैं कि उनका बच्चा स्कूल में बेहतर नहीं था, तो उसे यहां इतनी कठिन तैयारी के लिए क्यों भेज देते हैं?

कोटा से पहले दक्षिण भारत प्रतियोगिता परीक्षाओं का एकमात्र गढ़ था। दुनिया भर में दक्षिण भारत और खासकर केरल को तो आत्महत्याओं की राजधानी कहा जाता रहा है। ध्यान रहे कि केरल देश का पहला ऐसा राज्य है जो पूरी तरह साक्षर है। कोचिंग संस्थानों का संजाल पूरे देश में दक्षिण से ही फैला है। इन संस्थानों का हाल यह है कि इन्हें बेहतर परीक्षा परिणाम लाने पर ही ढेर सारे छात्र मिलते हैं। इसके लिए ये अच्छे से अच्छे अध्यापकों को मोटा वेतन देकर ले आते हैं। कोटा में ऐसे अध्यापकों का वेतन 15 लाख से 50 लाख रुपये प्रतिवर्ष तक का है और इस क्षेत्र में अपने विषय के जो स्टार अध्यापक माने जाते हैं उन्हें तो दो करोड़ रुपये प्रतिवर्ष तक मिल जाता है! जाहिर है कि ऐसे अध्यापकों के ऊपर ज्यादा से ज्यादा छात्रों को सफल बनाने का दबाव रहता है और इसके लिए वे हर तरह के उपाय अपनाते हैं। यहां ऐसा कोई नियम-कानून है ही नहीं जो छात्रों को परीक्षा के इस कहर से बचा सके। इसलिए यहां एक ही मंत्र चलता है- डू ऑर डाई। कोचिंग का काम अब उद्योग में बदल चुका है और कोटा में तो सारे बड़े कोचिंग संस्थान ‘इन्द्रप्रस्थ इंडस्ट्रियल एरिया’ की इमारतों में चलाए जा रहे हैं!

ऐसे कोचिंग संस्थानों पर नियंत्रण के लिए कोई बहुत स्पष्ट और बाध्यकारी कानून भी नहीं हैं। आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए कोटा के जिला प्रशासन ने 12 सूत्री दिशा-निर्देश जारी कर कहा है कि सभी संस्थान करियर काउंसलर, मनोचिकित्सक तथा फिजियोलॉजिस्ट नियुक्त करें, छात्र व उनके मां-बाप की भी काउंसलिंग की जाय, प्रवेश के लिए स्क्रीनिंग प्रक्रिया अपनाई जाय, कक्षा में छात्रों की संख्या कम की जाए तथा एक बैच से दूसरे बैच में किसी छात्र के स्थानांतरण की समीक्षा की जाए। साप्ताहिक छुट्टी, योगाभ्यास, कक्षा से अक्सर गायब रहने वाले छात्रों की चिकित्सा जांच, मनोरंजन तथा फीस को एकमुश्त के बजाय किस्तों में लेने की व्यवस्था की जाय।

कोई जिम्मेदारी नहीं
नोट छापने के कारखाने में तब्दील हो चुके कोचिंग संस्थान ऐसी हिदायतों को कितना मानेंगे, बताने की जरूरत नहीं है। जो छात्र कुदरतन प्रतिभावान हैं, उनकी बात अगर छोड़ दी जाए तो सामान्य छात्रों की समस्याओं को सुनने के लिए इन कोचिंग संस्थानों के प्रबंधन के पास समय नहीं है। न ही अध्यापकों की इसमें कोई दिलचस्पी है। शायद इन्हें ऐसी समस्याओं को सुनने की जरूरत ही नहीं है जब तक कि इनके पास छात्रों की भरमार है। ( Published in   Wednesday December 09, 2015 )

Tuesday, December 08, 2015

इसलिए फल-सब्जियां नहीं उगाते किसान

अलग से बने कृषि बजट और कृषि सेवा -- सुनील अमर

देश की 58 प्रतिशत आबादी को रोजगार तथा लगभग समूची आबादी को भोजन उपलब्ध कराने वाली भारतीय कृषि की दयनीय हालत का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके लिए अलग से बजट बनाने का प्राविधान नहीं है। देश में रेलवे के लिए अलग से बजट बन सकता है लेकिन खेती के लिए नहीं। सरकार की निगाह मंे खेती से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मनरेगा जैसी श्रमिक योजनाऐं हैं जिनका बजट सम्पूर्ण भारतीय कृषि से कहीं ज्यादा रहता है। सरकारी उपेक्षा के चलते खेती किस हालत में आ गई है इसे सिर्फ इसी एक आॅंकड़े से समझा जा सकता है कि देश के लगभग आधे किसान मनरेगा में मजदूरी करने को विवश हैं और पिछले 17 वर्षों में तीन लाख से अधिक किसान गरीबी, कर्ज और प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुके हैं। यह क्रम जारी है और सिर्फ महाराष्ट्र में बीते सात महीने के भीतर किसानों की मौत में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है! अभी बीते दिनों गेंहॅूं की फसल पर हुई बेमौसम की बरसात और ओलावृष्टि से प्रभावित देश के 12 राज्यों में अनुमानतः 20,000 करोड़ रुपये की फसल बरबाद हो गई है।
वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के विकसित कहे जाने वाले सारे देशों का ध्यान भारत सरीखे उन विकासशील देशों की तरफ लगा हुआ है जहाॅं उपलब्ध विशाल भू-भाग पर कृषि को और उन्नत बनाकर ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने की अपार सम्भावनाऐं बनी हुई हैं ताकि उनके देशों को भी भोजन मिल सके। सम्पन्न ब्रिटेन और विस्तृत क्षेत्रफल वाले रुस भी खाद्यान्न के लिए भारत-चीन सरीखे देशों पर निर्भर करते हैं। कोई भी देश औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में कितनी ही प्रगति कर ले लेकिन उसे भी अपने नागरिकों के लिए खाने के लिए अनाज चाहिए ही। इस देश के किसानों का दुर्भाग्य यह है कि वे नाना प्रकार की उपेक्षा और तकलीफें सहकर भी देश की जरुरत का धान-गेहॅूं-गन्ना पैदा कर ही रहे हैं। जिस देश में आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में हर साल दोगुना की वृद्धि हो रही है वहाॅं किसानों को सरकारी समर्थन मूल्य के नाम पर प्रति कुन्तल सिर्फ 30-40 रुपये वृद्धि की सहमति दी जाती है। वह भी तब मिल सकता है जब किसान के उत्पाद की खरीद सरकार स्वयं करे। बहुत बार तो यह भी नहीं दिया जाता। जैसे उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी सरकार ने पिछले दो वर्ष से गन्ना किसानों को एक पैसे की भी मूल्य-वृ़िद्ध नहीं दी है।
आज स्थिति यह है कि इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए देश में किसान आयोग तक नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी नीत राजग सरकार ने वर्ष 2004 के अपने अन्तिम दिनों में एक महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था और प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन को इसका अध्यक्ष बनाया था। आयोग ने बहुत तत्परता से काम किया और दो वर्ष के भीतर 40 बैठकें कर कृषि सुधार से सम्बन्धित पाॅच बेहद शानदार और उपयोगी रिपोर्टें सरकार को सौंपी लेकिन मनमोहन सिंह नीत संप्रग सरकार की दिलचस्पी इन सबमें नहीं थी, लिहाजा काफी दिनों तक कोमा में रहने के बाद यह आयोग मृत्यु को प्राप्त हो गया। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विशेषज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशाहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त समस्याओं की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चैंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियाॅ निर्धारित करनी वाली एक हजार से अधिक कुर्सियों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए हैं! देश में रेलवे, दूरसंचार, वित्त, राजस्व यहाॅं तक कि वन विभाग के लिए भी अलग से सेवाऐं हैं लेकिन कृषि के लिए ऐसा जरुरी नहीं समझा जाता।
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 वर्षों में दो करोड़ से अधिक किसानों ने खेती करना छोड़कर अन्य कार्य अपना लिया। किसाना घट रहे हैं और मजदूर बढ़ रहे हैं। इसका अर्थ समझना कोई कठिन काम नहीं। देश में ज्यादा से ज्यादा मजदूर उपलब्ध रहेंगें तो कल-कारखानों को सस्ते में श्रमिक मिलते रहेंगें। सरकार की नीति देखिए कि वह अपने चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी को जितनी मासिक तनख्वाह देती है, उसका चैथाई भी न्यूनतम मजदूरी के तहत एक मजदूर को नहीं देती! कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाॅंधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। खेती अपरिहार्य है क्योंकि मनुष्य अन्न के बिना नहीं रह सकेगा। 18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थाॅमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि ‘‘आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणितीय तरीके से।’’ जाहिर है कि हमें खाद्यान्न उत्पादन को भी ज्यामितीय तरीके से बढ़ाना ही होगा। कृषि के लिए अलग से बजट की माॅंग कई हलकों से उठती रही है। देश का कृषि क्षेत्र बड़ा और विविधीकृत है। इतने बड़े कृषि क्षेत्र के लिए व्यापक कवरेज वाला बजट तथा प्रासंगिक भारतीय कृषि सेवा का गठन किया जाना चाहिए। 0 0 ( Humsamvet )

Tuesday, June 23, 2015

मनमानी करती हैं मजबूत सरकारें - सुनील अमर

                         
विशिष्ट परिस्थितियों के कारण अब तक देश में चार बार प्रबल बहुमत की सरकारें बन चुकी हैं। ऐसी पहली सरकार, 1971 में इन्दिरा गॉधी की अगुवाई वाली तत्कालीन कॉंग्रेस (आर) की थी जिसे 352 सीटें हासिल हुई थीं। दूसरी सरकार 1977 में आपातकाल के बाद नवगठित जनता पार्टी की बनी थी जिसने तब की सर्वशक्तिमान कॉग्रेस को बुरी तरह पराजित कर अकेले 295 और गठबन्धन के साथ 345 सीटें जीती थी। इसके बाद वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गॉंधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गॉंधी के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने सहानुभूति लहर पर सवार होकर अभूतपूर्व प्रदर्शन के साथ कुल 414 सीटें जीत कर एक तरह से विपक्ष का सफाया ही कर दिया था। और फिर पिछले साल हुए चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने कॉग्रेस का सफाया करते हुए 336 सीटें जीत लीं जिसमें से भाजपा की सीटें 282 हैं। इस प्रकार आजाद भारत के 67 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर कॉग्रेस दल ने अकेले दम पर बहुमत से भी अधिक सीटें जीतीं।
अनुभव यह बताता है इन चारों सरकारों ने कई अवसरों पर लोकतन्त्र की भावना के विपरीत जाकर तानाशाहों जैसा मनमाना फैसला किया। इन्दिरा गॉधी ने 1971 की उसी जीत के बाद विपक्ष पर अंकुश लगाने की ऐसी कोशिशें शुरु कीं जिसका चरम बिन्दु आपातकाल की घोषणा के रुप मंे आया। जनता सरकार भी जीत का मद संभाल नहीं पाई। आपसी फूट और विवादास्पद फैसलों के चलते ढ़ाई साल में यह जनता के कोप का शिकार हो गई। राजीव गॉंधी की सरकार ने चर्चित बेगम शाहबानो तलाक फैसले को पलट कर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की तौहीन की। अयोध्या में विवादित स्थल पर शिलान्यास करा कर मामले को बेजा हवा दी। भोपाल गैस काण्ड, बोफोर्स तोप सौदा तथा मालदीव व श्रीलंका में सैन्य हस्तक्षेप जैसे मामलों में सरकार के रुख और उसके फैसलों ने विवादों को जन्म दिया। आज विपक्ष की जो हालत लोकसभा व दिल्ली विधानसभा में है, कुछ वैसी ही हालत उस समय भी लोकसभा में थी। लोग स्तब्ध होकर राजीव सरकार के फैसलों को देख रहे थे।
देश में आज राजग की प्रबल बहुमत की सरकार है और लोकसभा में विपक्ष का नेता तक नहीं है। प्रधानमन्त्री मोदी न सिर्फ अपने चुनावी वादों से लगातार पलट रहे हैं बल्कि ऐसे-ऐसे फैसले कर रहे हैं जो जन विरोधी हैं। भूमि अधिग्रहण जैसे अहम मसले पर विपक्ष के रुप में लिया गया अपना ही स्टैंड भुलाते हुए भाजपा नेता उसे और शोषणकारी बनाकर अध्यादेश के मार्फत तानाशाही ढ़ॅंग से लागू करने में लगे हुए है। गणतन्त्र दिवस के विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़, धर्म परिवर्तन, दस बच्चे पैदा करने का आह्वान तथा मोदी का नौलखा सूट ये सब इस सरकार की  तानाशाही प्रवृत्ति के नमूने हैं। इसके बरक्स 1989 में अल्पमत की वी.पी. सिंह सरकार का वह फैसला याद आता है जिसमें उन्होंने सरकार के चंगुल में रह रहे आकाशवाणी-दूरदर्शन को मुक्त करते हुए प्रसार भारती का गठन कर इसे स्वायत्तशाषी संगठन बना दिया था। वाजपेयी के नेतृत्व वाले 24 दलों की एनडीए सरकार सहयोगी दलों के दबाव में ही सही पर धारा 370, समान नागरिकता और राम मन्दिर जैसे मुद्दों को ठंढ़े बस्ते में डाले रही और इसके बाद 11 दलों केे साथ सत्ता में आई कॉंग्रेस ने भी मनरेगा, सूचना का अधिकार, किसान कर्ज माफी, शिक्षा का अधिकार तथा भोजन के अधिकार जैसे कई ऐतिहासिक फैसले किए।
साफ है कि कथित मजबूत सरकार की अवधारणा खास पार्टी या नेता को भले ज्यादा ताकत दे दे, आम लोगों के हितों के लिहाज से आशंकाऐं बढ़ाने वाली ही साबित हुई हैं। सबसे गम्भीर बात है कि ऐसी सरकार में जब गाड़ी पटरी से उतरती दिखने लगती है तब भी विपक्षी पार्टियॉं या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियॉं हस्तक्षेप कर मामले को ज्यादा बिगड़ने से बचाने की स्थिति में नहीं होतीं।
-------------------------------------------------
             

Wednesday, March 25, 2015

जनता का धन, सरकारों के विवेक -- सुनील अमर

निर्वाचित और लोकप्रिय कही जाने वाली सरकारों द्वारा बहुत-सी ऐसी योजनाऐं चलाई जाती या खर्चे किए जाते हैं, जिनके औचित्य पर शंका और सवाल उठते रहते हैं। कई बार ये खर्चे इस हद तक मनमाने होते हैं कि उन पर न्यायालयों को भी ऊंगली उठानी पड़ती है। ताजा मामला मध्य प्रदेश का है, जहां मुख्यमयत्री ने गत सप्ताह प्रदेश के 1000 पत्रकारों को लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये की दर से चेक प्रदान किया है। इससे पहले भी देश के तमाम राज्यों में लोगों को प्रभावित करने के लिए इस तरह से जनता के धन को लुटाया गया है। तमिलनाडु तो इस मामले में खासा कुख्यात रहा है। सरकारों द्वारा जब भी इस तरह के मनमानीपूर्ण कृत्य किए जाते हैं तो यह सवाल उठता है कि सत्ता में आने के बाद क्या किसी राजनीतिक दल को यह अधिकार मिल जाता है कि वह जनता के धन का बंदरबांट कर सके? सत्ताधारी दल का यह तर्क होता है कि योजना कैबिनेट से मंजूर है और कैबिनेट को जनता ने चुना हुआ है, लेकिन सवाल धन के सदुपयोग का होता है। वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने तमाम जन योजनाओं के धन में कटौती कर अपनी तथाकथित विचारधारा के पोषण में पार्कों, मूर्तियों और ऐसे ही अन्य कामों पर अंधाधुंध अरबों रुपया खर्च करना शुरू किया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से ऐसे खर्चों का औचित्य पूछा। मायावती सरकार का जवाब था कि ये खर्चे कैबिनेट से मंजूर किए गए हैं, इसलिए वैध हैं। इस पर माननीय न्यायालय का कहना था कि सरकार इस तरह से जनता के धन का मनमाना उपयोग करेगी तो हम क्या चुपचाप देखते रहेंगे? लेकिन जैसा कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता होती है, अगले चुनाव में जनता ने मायावती की बसपा को हराकर बता दिया कि कैबिनेट का ऐसा मनमानापन उसे पसंद नहीं। सरकारें दो तरह के कार्य करती हैं। एक तो जनता के लिए और दूसरा, अपनी राजनीतिक पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए। एक निर्वाचित सरकार जब ‘सर्वजन हिताय’ की कोई योजना चलाती हैं तो वह राज्य के हित में होती है, लेकिन जब वह समाज के किसी खास वर्ग के हितपोषण में धन खर्च करती है तो प्रकारांतर से वह अपना निजी हित साध रही होती है। दशकों पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष से अपने चहेते लोगों को अंधाधुंध धन बांट कर एक विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने बिना किसी ‘क्राइटेरिया’
के धन बांटा और अपने चहेते पत्रकारों को लाखों रुपये देकर उपकृत किया था और तब मजाक में कहा जाने लगा था कि उत्तर प्रदेश में दो तरह के पत्रकार हैं-एक विवेकाधीन (विवेकाधीनकोष से धन लेने वाले) और दूसरे, विवेकहीन। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के विवेकाधीन कोषों से धन लेने वाले पत्रकारों-साहित्यकारों को अपना विवेक सरकारों के पास गिरवी रखना पड़ता है। सरकारों की खुली मंशा भी यही होती है। देश की तमाम राज्य सरकारें टीवी सेट, साड़ी, बिन्दी, टैबलेट-लैपटॉप, कम्बल, साइकिल और जाने क्या-क्या बांटती रहती हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता कि यह प्रत्येक जरूरतमंद को मिल जाय। सरकारों का एक आकलन होता है कि इतने प्रतिशत लोगों को अगर मिल जाएगा तो हमारी पार्टी को वोटों का लाभ होगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है-उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार ने हाई स्कूल उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को टैबलेट और इंटरमीडिएट के छात्रों को लैपटॉप देने का चुनावी वादा किया था। यह अंदेशा तभी था कि इतनी विशाल संख्या में छात्रों को टैबलेट और लैपटॉप देने का मतलब यह होगा कि प्रदेश की अन्य तमाम कल्याणकारी योजनाओं को या तो ठप कर देना या इस योजना को आधा-अधूरा छोड़ देना। दोनों प्रकार की आशंकाएं सच साबित हुईं। सरकार ने थोड़ा बहुत लैपटॉप बांटकर घोषित कर दिया कि अब यह योजना बंद की जा रही है। टैबलेट बॉटने की योजना तो शुरू ही नहीं हो सकी है। लैपटॉप ने भी अधिकांश छात्रों को फायदे के बजाय नुकसान ही पहुंचाया है, क्योंकि वे इसके इस्तेमाल की विधि तो जानते नहीं थे और न उनके पास इंटरनेट के संसाधन थे। ऐसे में ये लैपटॉप महज सिनेमा देखने की मशीन बनकर रह गए। मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार भी यही काम कर रही है। पत्रकारों को अपनी मर्जी का लैपटॉप खरीदने के लिए 40,000 रुपये देना, उन्हें अपने पाले में करना तथा उनके प्रतिरोध की धार को भोथरा करना ही है। कहा जा सकता है कि ऐसे पत्रकार दरबारी हो जाऐंगें। यह एक गंभीर मसला है। मध्य प्रदेश सरकार को अगर पत्रकारों से इतनी ही हमदर्दी थी तो उन्हें कर मुक्त और आसान किश्तों पर लैपटॉप दिला सकती थी। पत्रकारों की और भी बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके राज्य से प्रकाशित-प्रसारित होने वाले तमाम अखबारों-चैनलों में भी वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हैं, अंशकालिक या संविदा पर काम कर रहे पत्रकारों को जीवन के उत्तरार्ध में सुरक्षित ढ़ंग से जीने की कोई गारंटी नहीं है। जो पत्रकार समाचार संस्थानों में नौकरी कर रहे हैं, उनकी नौकरी की ही गारंटी नहीं हैं। लेकिन इन सब समस्याओं को हल करने में लगने का मतलब समाचार-संस्थाओं के सशक्त मालिकों से पंगा लेना होगा। ऐसे में चार-छह करोड़ रुपया फेंक कर सही-सही जगह मौजूद पत्रकारों को काबू में कर लेना ज्यादा आसान काम लगता है। अखबार जिस तरह से भारी पूंजी का व्यवसाय हो चला है और अखबार मालिकों के अन्य उद्योग-धंधे भी चल रहे हैं, उसमें उनका सरकार से पंगा लेना नामुमकिन है। सरकार का लैपटॉप बॉटना या विवेकाधीन कोष से कुछ लाख रुपये देना तो छोटी बातें हैं, राजनीतिक दल तो अपने कोटे से चहेते पत्रकारों को विधान परिषद, राज्य सभा और न जाने कहां-कहां समायोजित कर रहे हैं। यही कारण तो है कि एक समय के वामपंथी ध्वजाधारी पत्रकार ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष में अपनी नियति तलाश लिए। जनता के धन के उपयोग में सरकारों के विवेक और उनकी स्वच्छंदता की सीमा निर्धारित होनी ही चाहिए। जिलाधिकारियों का भी विवेकाधीन कोष होता है, लेकिन वे उस कोष से किसी को लैपटॉप, कार या मोटरसाइकिल नहीं बांट सकते। वह प्राय: आपात स्थिति या प्राकृतिक आपदा को नियंत्रित करने के लिए होता है। एक निर्वाचित सरकार जनता के धन की संरक्षक होती है, उस धन का राजा नहीं। अफसोस तो यह है कि यह परम्परा कांग्रेसी शासन से उपजी है। जनता को फुसलाने की यह विधि पुरानी है। राजसत्ताएं इसी विधि से मुंह भी बंद करती रही हैं ताकि प्रतिरोध को निष्क्रिय किया जा सके। इसलिए लैपटॉप के लॉलीपॉप को समझने की जरूरत है। 0 0 

Tuesday, March 17, 2015

ध्वनि प्रदूषण रोकने को जरुरी है प्रभावी कानून --— सुनील अमर

देश में ध्वनि प्रदूषण का स्तर चिंतनीय ढ़ॅग से बढ़ा है और इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि जल और वायु प्रदूषण जितना ही खतरनाक ध्वनि प्रदूषण भी है और इससे होने वाली बीमारियों में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इसके निवारण के लिए देश में जो कानून व प्राविधान हैं भी उनका ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना ही इस समस्या की जड़ है। इससे सम्बन्धित अधिकारी अगर अपने अधिकारों का सम्यक प्रयोग करें तो ऐसी तात्कालिक समस्याओं से तो निजात पाया ही जा सकता हैै। दिल्ली पुलिस ने दो वर्ष पूर्व सार्वजनिक स्थानोें पर धूम्रपान करने वालों पर कानूनी कार्यवाही कर 90 लाख रुपये बतौर जुर्माना वसूला था लेकिन ध्वनि प्रदूषण पर ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा नहीं मिलता जबकि इसके प्रमुख स्रोत बड़े वाहन और उनमें लगे प्रेशर हार्न व तमाम तरह के आयोजनांे में प्रयुक्त होने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्र होते हैं। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तीखी आवाज वाले प्रेशर हार्न को रोकने के लिए ध्वनि नियंत्रण एक्ट 2000 या सड़क परिवहन अधिनियम 1988 में कोई भी कानून नहीं है।
नगर व कस्बों की बढ़ती आबादी, समारोह योग्य स्थलों की कमी व उनके अत्यधिक मॅंहगे होने के कारण प्रायः लोग घर के सामने की सार्वजनिक सड़क को ही घेरकर उसे उत्सव स्थल में बदल देते हैं। इससे मार्ग अवरुद्ध ही नहीं अक्सर बंद भी हो जाता है जबकि संविधान की धारा 19 (1)(डी) में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे अवरोध मुक्त सड़क पर निर्बाध चल सकें। जाहिर है कि इस प्रकार के आयोजनों से रास्ता बंद व ध्वनि प्रदूषण, दोनों प्रकार की परेशानियाॅ होती हैं। ऐसे आयोजन चॅूकि देर रात तक चलते हैं, इसलिए उस क्षेत्र में रहने वालों की नींद खराब हो जाना स्वाभाविक ही होता है। इसमें भी ज्यादा दिक्कत उन्हंे होती है जो मानसिक या शारीरिक रुप से तेज आवाज सहन करने में अस्मर्थ होते हैं। मोहल्लों में आजकल होने वाले जगराता, देवी जागरण, हफ्तों चलने वाले धार्मिक प्रवचन व तमाम तरह के अन्य मनोरंजन वाले कार्यक्रम इसी प्रकार के होते हैं। कहने को तो इन कार्यक्रमों के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति ले ली जाती है जिसमें रात दस बजे के बाद तथा सुबह छह बजे तक किसी खुले स्थान से ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग की सख्त मनाही होती है बावजूद इसके इसी अवधि में ऐसे कार्यक्रम किये जाते हैं और ध्वनि की उच्चता के मानक का पालन नहीं किया जाता। इसका खामियाजा छात्रों को भी भुगतना पड़ता है जिनकी पढ़ाई बाधित होती है। परीक्षा के समय में तो यह शोरगुल छात्रों के भविष्य पर भी भारी पड़ता है। प्रायः ऐसे मोहल्ला स्तरीय कार्यक्रमों को वहाॅं के स्थानीय सांसद/विधायक का संरक्षण प्राप्त रहता है जिससे स्थानीय अधिकारी शिकायत होने के बावजूद कार्यवाही नहीं करते। धार्मिक स्थलों पर लगे भयानक ध्वनि विस्तारक तो जैसे संविधान के भी उपर होते हैं और दिन-रात अनावश्यक प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इन्हें रोकने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की होती है वे भी प्रायः यहाॅं सर झुकाते रहते हैे।
शोरगुल से आजिज और बीमार होने की समस्या नई नहीं है। एक समय मेें मशहूर अभिनेता मनेाज कुमार ने इसी शोर पर आधारित फिल्म ‘‘शोर’’ बनाई थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव कई दिनों तक बहुत धूम से मनाया जाता है। इसमें होने वाले भारी शोर-शराबे से दुःखी होकर वर्ष 1952 में कुछ लोगों ने बम्बई हाई कोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने सरकार से पर्यावरण अधिनियम को सख्ती से लागू करने को कहा। कलकत्ता उच्च न्यायालय नेे ऐसा ही एक सख्त निर्णय वाहनों में प्रेशर हार्न के प्रयोग पर दिया और कहा कि ऐसा करने वालों पर जुर्माने लगाये जाॅय। वर्ष 2001 में दिल्ली की एक अदालत ने तो ध्वनि प्रदूषण के मामलों से निपटने के लिए अलग से एक अदालत गठित किये जाने का आदेश सरकार को दिया। वर्ष 1993 में केरल उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चर्च के अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लाउडस्पीकर का प्रयोग कर उस क्षेत्र के निवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन न करें। अदालत ने वादी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, और कहा कि एक सुसंगठित समाज में अधिकार हमेशा कर्तव्यों से जुड़े होते हैं। सबसे चर्चित मामला तो राजस्थान के बीछड़ी गाॅव का रहा जहाॅ प्रदूषण फैलाने के लिए देश की एक प्रमुख कम्पनी को जुलाइ्र्र्र 2011 में 200 करोड़ रुपये का जुर्माना सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया। इस सम्बन्ध में स्पष्ट आदेशांे के बावजूद प्रशासनिक स्तर पर सही क्रियान्वयन के अभाव में यह शोर-शराबा दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।   
Link --- http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1796

किसानों के साथ किए जा रहे सरकारी छल पर दैनिक जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर

'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा' --- — सुनील अमर

बढ़ते ध्वनि प्रदूषण पर आज नवभारत टाइम्स में मेरा आलेख —
'दिलो—दिमाग को भन्नाता आवाज का हथौड़ा'
Link -- http://epaper.navbharattimes.com/…/12-13@13-02@03@2015-1001…

Wednesday, February 25, 2015

गरीब नहीं, अमीरों की सब्सिडी बन्द कीजिए ---सुनील अमर

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश पर सब्सिडी का बहुत बड़ा बोझ है। इससे अगर मुक्ति मिल जाय तो यह सारा धन देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। खाद्यान्न, रसोई गैस, उर्वरक, मनरेगा तथा कुछ अन्य कल्याणकारी योजनाओं में ही तकरीबन छह लाख करोड़ रुपयों की सब्सिडी प्रतिवर्ष देनी पड़ रही है। किसी भी विकासशील देश के लिए यह रकम बहुत भारी है लेकिन अपने देश का जो सामाजिक-आर्थिक ढ़ाॅचा है, उसके परिपे्रक्ष्य में अगर देखा जाय तो सब्सिडी की यह व्यवस्था भारी नहीं अत्यावश्यक है। यह खर्च वैसे ही है जैसे किसी परिवार में बच्चों और वृद्धों पर खर्च किया जाता है। इन्हें बेसहारा तो नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार नाम की संस्था लाभ कमाने का उपक्रम नहीं बल्कि व्यवस्था नियामक होती है। इसलिए यहाॅं प्रश्न लाभ-हानि का नहीं, व्यवस्था की उपादेयता का है। वह व्यवस्था, जो सर्वहितकारी और समभाव वाली हो। केन्द्र में आरुढ़ भाजपा की सरकार ने सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उसे सब्सिडी की अब तक चली आ रही व्यवस्था पसन्द नहीं है और उसने इसकी समीक्षा और नये प्रारुप की कवायद भी तभी से शुरु कर दी है और इस क्रम मंे सरकार द्वारा गठित समिति ने अपनी संस्तुतियाॅं भी पेश कर दी हैं।
सब्सिडी यानी अनुदान मूलतः दो कारणों से दिया जाता है। एक तो किसी आवश्यक वस्तु के प्रचार-प्रसार के लिए और दूसरे, ऐसी वस्तुओं की उपलब्धता आर्थिक रुप से कमजोर लोगों को कराने के लिए। देश में सबसे ज्यादा अनुदान खाद्यान्न पर खर्च हो रहा है। चालू वित्तीय वर्ष में यह एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ रुपयों के करीब है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को सस्ते खाद्यान्न उपलब्ध कराने में खर्च होता है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त खाद्य और उपभोक्ता मामलों के पूर्व मन्त्री शांता कुमार की अगुआई वाली समिति ने इस मद में 40 प्रतिशत की भारी-भरकम कटौती करने की सिफारिश की है। सरकार ने इस मद में कटौती का मन बना लिया है। अगर ऐसा हुआ तो यह कटौती कई नयी समस्याऐं खड़ा करेगी। खाद्य अनुदान की ध्वजवाहक योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली है और अपनी शुरुआत से ही यह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। फर्जी राशन कार्ड, लाभार्थियों की श्रेणी का गलत निर्धारण, घटिया और कम मात्रा में खाद्यान्नों की बिक्री जैसे कई गम्भीर आरोप इस व्यवस्था पर लगे हैं और देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर कई बार तल्ख टिप्प्पणी की है। शांताकुमार समिति ने एक बढि़या सुझाव यह दिया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को हर हाल में कम्प्यूटरीकृत कर दिया जाय। इस समिति ने संप्रग सरकार की उस योजना को भी लागू करने की सिफारिश की है जिसमें खाद्यान्न व अन्य वस्तुओं के अनुदान की रकम को लाभार्थी के बैंक खाते में देकर उसे बाजार दर पर अनाज लेने को कहा जाय।
यहाॅं यह विचार करने की जरुरत है कि सब्सिडी देने में बुराई है या सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था में। शांताकुमार समिति कहती है कि यदि लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे अनुदान देने की व्यवस्था हो जाय तो सिर्फ इसी से प्रतिवर्ष 30,000 करोड़ रुपयों की बचत हो सकती है। सच्चाई यह है कि यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समूचे तौर पर कम्प्यूटरीकृत व फर्जी लाभार्थियों को निकाल कर घटतौली को समाप्त कर दिया जाय तो सिर्फ इसी कार्य से इस पर आने वाला सरकारी खर्च आधा हो सकता है। भारतीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली अपनी पाॅंच लाख राशन की दुकानों के साथ विश्व की सबसे बड़ी सरकारी वितरण प्रणाली है। वर्ष 1940 के भयावह बंगाल भुखमरी के दौरान सबसे पहले राशन की व्यवस्था की गई थी। बाद में 1960 के दशक में बाकायदा इसे सरकारी योजना बनाया गया और तब से यह प्रणाली कार्य कर रही है। अफसोस है कि इसे एक तरह से रामभरोसे छोड़ दिया गया और इसमंे सुधार और परिमार्जन के कार्य किए ही नहीं गए। अभी हाल में केन्द्र सरकार ने एक बढि़या काम शुरु किया है- रसोई गैस की सब्सिडी को लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे देने का। निःसन्देह इससे फर्जी कनेक्शनों की पहचान हो सकेगी जो कि बहुत बड़ी तादाद में हैं। यही काम राशन कार्डों के कम्प्यूटरीकरण से भी किया जा सकता है।
लेकिन रसोई गैस और राशन में एक बुनियादी अन्तर है। राशन की दुकानें बन्द करके बैंक खाते में नकद सब्सिडी देने से कई प्रकार की समस्याऐं उत्पन्न हो सकती हैं। अभी देखने में यह आता है कि अधिकांशतः परिवार की महिला ही राशन लेने जाती है और वह जरुरत के कई अनाज खरीद कर उसका बेहतर प्रबन्धन करती है। बैंक खाते में नकद धनराशि जाने पर वह पैसा परिवार के मुखिया के हाथ में आ जाएगा और वह उसका अन्य कार्यो में उपयोग या दुरुपयोग कर सकता है। एक दूसरी दिक्कत यह भी आ सकती है कि बैंक में पैसा आने पर लाभार्थी अच्छी किस्म के लेकिन कम और एक दो तरह के ही अनाज खरीदे। इससे उसके परिवार की पोषण सम्बन्धी समस्याऐं हो सकती हैं। इस योजना की धनराशि में कटौती करके हो सकता है कि सरकार कुछ हजार करोड़ रुपये बचा ले लेकिन इससे गरीबों के पेट पर लात ही लगेगा। कुपोषण के मामले में यह देश वैसे भी दुनिया भर में बदनाम है। सरकार पैसे बचाना चाहे तो और भी प्रासंगिक तरीके हैं। एक हास्यास्पद स्थिति यह है कि सरकार अमीर लोगों से रसोई गैस पर दिए जा रहे अनुदान को स्वेच्छा से छोड़ने की अपील कर रही है! उसी अनुदानित गैस को देश का अमीर तबका भी ले रहा है और उसी को अति निर्धन भी। सरकार ने उर्वरकों पर दिया जा रहा अनुदान भी कम कर दिया है और आगे और भी कम करने पर विचार कर रही है। इस अनुदानित उर्वरक को भी देश के अमीर लोग अपने-अपने उद्योग-धन्धों और चाय-फल के बागानों तक में इस्तेमाल करते हैं। उर्वरक अनुदान का भी आधे से अधिक धन गलत लोगों को जा रहा है।
यही हाल डीजल और पेट्रोल का भी है। सवाल यह है कि सरकार केरासिन आॅयल की तरह रसोई गैस, डीजल और पेट्रोल की भी राशनिंग क्यों नहीं कर सकती? सरकार अगर किसानों और परिवहन व्यवसायियों को सस्ती दर पर डीजल देना ही चाहती है तो उनके लिए अलग से व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? सरकार बता रही है कि पेट्रोलियम मन्त्री की अपील पर देश मे एक बड़े उद्यमी ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी है, देश के एक बड़े हिन्दी अखबार समूह के मालिक ने भी गैस सब्सिडी छोड़ दी है और मध्य प्रदेश में 25 लोगों ने यही काम किया है! बिडम्बना देखिए कि देश का जो उद्यमी खुद गैस उत्पादन करने में लगा हुआ वह भी गैस पर 340 रुपए प्रति सिलेन्डर की सब्सिडी लेता है! यह कानून है और इसे बदलने के बजाय सरकार अपील जारी करके ऐसे लोगों के हृदय परिवर्तन की राह देख रही है! देश के तथाकथित उद्यमियों का पिछले साल 5,00,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया गया। सरकार यह पैसा अगर इनसे वसूल ले तो देश में चार साल तक इसी धन से अनुदानित योजनाएं चलायी जा सकती हैं। इसलिए गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं को बन्द करने की नहीं बल्कि अमीरों द्वारा उनके दुरुपयोग को रोकने की जरुरत है। 

www.humsamvet.in)

क्षतिपूर्ति अभियान में लगे भाजपा और संघ —सुनील अमर

दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली शर्मनाक हार के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसके संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होश में आ गए लगते हैं और पिछले नौ महीनों से उनपर छाई लोकसभा जीत की खुमारी जरा उतरती दिख रही है। असल में भाजपा और उसके सह-संगठनों पर लोकसभा चुनाव की जीत का उतना ज्यादा असर शायद न भी होता लेकिन उसके बाद हुए राज्यों के चुनाव में मिली सफलता ने उन्हें उन्मादित कर दिया। कहना चाहिए कि संघ भी उन्माद में आ गया था लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी जैसे एक नवसिखुआ और सिर्फ दिल्ली में सिमटे राजनीतिक दल के हाथों हुई भाजपा की अभूतपूर्व दुर्गति ने संघ को भी होश में ला दिया है और अब वह इस क्षति की भरपाई में लग गया है। संघ ने न सिर्फ अपने मुखपत्रों बल्कि मौखिक रुप से भी भाजपा और सह-संगठनों को चेताया है तथा समझा जाता है कि संघ प्रमुख ने मोदी को भी सुधर जाने की चेतावनी दी है। असल में भाजपा को अभी तक सिर्फ काॅग्रेस से ही लड़ने की आदत थी जो इधर राजनीतिक हालातों से कम लेकिन अपने शीर्ष नेतृत्व की हताशा और निष्क्रियता के कारण ज्यादा संकट में है। आम आदमी पार्टी के रुप में भाजपा को एक नये प्रकार की चुनौती मिली और इस चुनौती को भी उसके नेता और प्रधानमन्त्री मोदी ने वैसे ही बड़बोलेपन, हुल्लड़बाजी और सस्ते शब्दों से फिकरे कस कर जीतने की कोशिश की जैसा कि वे अबतक करते आ रहे थे। दिल्लीवासियों को उन्होने यह कहकर भी अप्रत्यक्ष रुप से चिढ़ाया कि जो सारा देश सोचता है, वही दिल्लीवासी भी सोचते हैं, जबकि अब तक प्रायः यह कहा जाता था कि दिल्ली का सन्देश देश भर में जाता है।
क्षतिपूर्ति की दिशा में पहला काम किया है प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने। बीती 17 फरवरी को दिल्ली में ईसाइयों की एक सभा में उन्होंने घोषणा की कि उनकी सरकार किसी भी धार्मिक समूह को नफरत फैलाने की इजाजत नहीं देगी और किसी भी तरह की धार्मिक हिन्सा के खिलाफ सख्ती से कार्यवाही करेगी। ध्यान रहे कि बीते दिनों पाॅच गिरजाघरों और दिल्ली के एक ईसाई स्कूल पर हमला किया गया था जिस पर विपक्षी दलों और बहुुत से ईसाई समूहों ने केन्द्र सरकार पर आॅंख मॅूदने का आरोप लगाया था। भारत यात्रा पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यात्रा के आखिरी दिन दिल्ली में तथा वापस अमेरिका जाकर वहाॅं की एक सामूहिक प्रार्थना सभा में आरोप लगाया था कि भारत में हाल के दिनों में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है तथा यह देश तभी विकास कर पाएगा जब साम्प्रदायिक सद्भाव बना रहेगा। मामला तब और गर्म हो गया जब एक समय में मोदी के प्रशंसक रहे अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने भी ओबामा जैसी ही सख्त टिप्पणी कर मोदी से उनकी इस मसले पर सतत चुप्पी का कारण पूछा। बराक ओबामा के बयान को मोदी सरकार के कार्यकाल में हो रहे अल्पसंख्यकों पर हमले तथा जबरन धर्म परिवर्तन के मसलों पर सख्त टिप्पणी माना गया था और सरकार ने तिलमिला कर इसका प्रतिरोध भी किया था लेकिन जब ऐसी ही सख्त सलाह भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी दिया तो प्रधानमन्त्री मोदी के लिए किसी उचित मन्च से इसका क्रियान्वयन जरुरी हो गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के बुरी तरह साफ हो जाने से हतप्रभ संघ ने कई सवाल उठाए हैं। यह सभी जानते हैं कि डाॅक्टर हर्षवर्धन जैसे साफ-सुथरे चरित्र वाले नेता की मोदी ने दुर्गति ही कर दी। पहले तो उन्हें केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से ही चलता कर दिया जबकि श्री हर्षवर्धन एक चिकित्सक होने के नाते अपने विभाग में प्रशंसनीय कार्य कर रहे थे तथा उनके पास जनहित की कई शानदार योजनाऐं थीं लेकिन उनका क्रियान्वयन होने से दवा तथा सिगरेट बनाने वाली कम्पनियों को नुकसान होना तय था तो उन्हें हटाकर श्री मोदी ने एक महत्त्वहीन विभाग में कर दिया। दिल्ली में पिछले चुनाव से ही श्री हर्षवर्धन भाजपा की तरफ से मुख्यमन्त्री पद के दावेदार थे लेकिन ऐन मौके पर मोदी-शाह की जोड़ी ने किरण बेदी को पार्टी पर थोप दिया। संघ ने अपने मुखपत्र मंे पूछा है कि क्या भाजपा को अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं था?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा का सफाया हुआ है उससे इस तर्क पर विश्वास करना कठिन है कि श्रीमती बेदी की जगह भाजपा या संघ कैडर का कोई नेता होता तो भाजपा ज्यादा सीटें निकाल ले जाती। हो सकता है कि संघ ने हताश कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए बेदी के चयन को हार का कारण बताया हो लेकिन सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से लगातार मोदी ने दोमुॅहापन का परिचय दिया और मर्यादाओं की धज्जियाॅं उड़ाने वाला ऐसा आचरण किया कि मानों वे एक लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री नहीं बल्कि पाकिस्तान सरीखे किसी देश के तख्तापलट तानाशाह हों। दिल्ली के चुनाव में अगर वे गली-गली भाषण करने को कूद न पड़े होते और वे इसे स्थानीय नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिए होते तो मतदाता शायद भाजपा पर कुछ और भरोसा दिखाते भी लेकिन दो-चार परिस्थितिजन्य चुनावी सफलताओं ने मोदी को ऐसे दर्प और अहंकार से भर दिया था कि वे अपने-आप को हर मर्ज की दवा समझने की भूल कर बैठे थे। मोदी और भाजपा-संघ के कारकुनों की कैसी मनःस्थिति थी इसका एक कार्टून में गज़ब का चित्रण किया गया था जिसमें एक तरफ मोदी सरकारी रेडियो पर ‘मन की बात’ कर रहे हैं तो बगल में खडे़ कुछ त्रिशूल-चिमटाधारी कह रहे हैं कि आप अपने मन की कर रहे हैं तो हमें भी अपने मन की करने दीजिए न! इस प्रवृत्ति का प्रतिकार तो होना ही था। दिल्ली की हार ने भाजपा को संभलने के लिए ठोकर दी है। कल्पना कीजिए कि भाजपा अगर दिल्ली चुनाव में इज्जत बचाने भर को भी सीटें पा जाती तो आज बिहार में क्या हुआ होता? क्या तब भी भाजपा वहाॅं इतने ही धैर्य से बैठी होती? क्या तब भी भाजपा इतने ही नर्म स्वर में जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से सरकार बनाने की बातचीत कर रही होती?
वर्ष 2014 के आम चुनाव में मोदी का अंधाधुन्ध विज्ञापनी प्रयोग काठ की हाॅड़ी सरीखा था जिसे बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता, इसे दिल्ली ने दिखा दिया। तो अब दूसरा रास्ता खोजना ही होगा। यह दूसरा रास्ता भी तभी कारगर होगा जब उस पर चलने को मतदाता भरोसा कर सकें। 2014 में जिस मोदी पर उन्होंने भरोसा किया था वह तो हवा-हवाई निकला। आम लोगों के लिए सिर्फ बातें-बातें-बातें और दुर्दशा तो खास लोगों के लिए देश का पूरा ख़जाना। ऐसे तो लोग दुबारा झाॅंसे में आऐंगें नहीं। तो अब भाजपा और उसके आइकन मोदी को धोने-पोंछने की तैयारी है। जिस नौलखे सूट को ओबामा के आने पर उन्होंने बड़े दर्प से पहना था, उसे नीलाम कर देना पड़ा है ताकि उस पैसे से थोड़ा भरोसा खरीदा जा सके। बहरहाल यह जाॅंच का विषय होना चाहिए कि किसके कहने पर ऐसा सूट मोदी ने बनवाया और किसके कहने पर उसे नीलाम कर दिया! अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जरा रोक दिया गया है, घर वापसी भाजपा को ही रिवर्स गियर में लेकर चली गयी है, स्त्रियों से दस बच्चे पैदा कर उन्हें विहिप व संघ को सौंप देने के आहवान का जो विकट विरोध स्त्री समाज द्वारा हुआ उससे आतंकित संघ प्रमुख ने खुद ही अब इस पर सख्ती कर दी है। यह तो भयभीत समूहों की शुरुआत है। इन्तजार तो अगले कदमों का है। (http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1694)

किसानों को मदद चाहिए, मधुर बोल नहीं ---सुनील अमर

बीते साल अक्तूबर में महाराष्ट्र के विदर्भ में एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने कहा था कि एक किसान सरकार से सिर्फ पानी माॅगता है और बदले में वह मिट्टी से सोना पैदा करने की क्षमता रखता है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो किसान पूरे देश को सन्तरे का जूस मुहैया करा रहा है वह खुद जहर पीने को विवश है! केन्द्र की भाजपा सरकार के अपने आॅंकड़े बताते हैं कि पहले 100 दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त 4600 किसान आत्महत्या कर चुके थे। यह सही है कि देश में किसान बीते कई वर्षों से आत्महत्या की राह पकड़े हुए हैं लेकिन सवाल यह है कि क्रिकेट मैच के दौरान 16 बार ट्वीट करने वाले प्रधानमन्त्री मोदी इस राष्ट्रीय त्रासदी पर क्या एक बार भी ट्वीट नहीं कर सकते थे?
विदर्भ के बारे में वरिष्ठ कृषि पत्रकार पी. साईंनाथ जो कहते हैं कि यह जगह किसानों के लिए ठीक नहीं है। वास्तव मंे उनका यही कथन पूरे देश के किसानों पर लागू हो रहा है। खेती वैसे भी प्रकृति के सहारे होने वाला कार्य है और इस लिहाज से बेहद अनिश्चित हालत रहती है। ऐसे में इसे पूर्णरुप से सरकारी संरक्षण मिलना ही चाहिए। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से आज तक सभी सरकारों ने किसानों की बदहाली और खाद्यान्न की कमी का रोना तो रोया लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसान अपनी बदहाली से उबर सकें। इस प्रकरण में सबसे कडुवा मजाक तो प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमन्त्री ने किया है। प्रधानमन्त्री ने उक्त बयान दिया तो हरियाणा के हालिया विधानसभा चुनाव की एक रैली में केन्द्रीय गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि देश के किसानों को प्रति कुन्तल पैदावार पर रु. 150 का मुनाफा जरुर मिले। हम सभी जानते हैं कि आज भी देश के प्रत्येक हिस्से में कर्ज से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अपनी उपज बिचैलियों को बेचने को विवश हैं। इस स्थिति में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ है और अब महाराष्ट्र से भाजपा के एक विधायक कह रहे हैं कि किसान मर रहे हैं तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि अब खेती वही किसान करेंगें जो खेती करने के लायक हैं। उनका इशारा साफ है कि छोटे और आर्थिक रुप से कमजोर किसान खेती छोड़कर मजदूरी करें और उनकी खेती बड़ी कम्पनियों को लीज पर दे दी जाय। सम्प्रग सरकार के समय से ही इस दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
सरकार की तरफ से किसानों को दी जाने वाली सहायता में उर्वरक सब्सिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग 73,000 करोड़ रुपये थी लेकिन इसमें दो बातों को प्रमुख रुप से समझ लेना चाहिए कि बाजार में मुक्त रुप से बिकने वाली अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है, उसका किसान होना जरुरी नहीं और दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तन्त्र का बहुत बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरुरत के समय किसानों को यही उर्वरक कालाबाजार में खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार को खरीदने की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान ही उठा पाते हैं। संप्रग सरकार द्वारा 65,000 करोड़ रुपये का जो कृषि ऋण माफ किया गया था उससे किसानों का ही नहीं बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ था। इसलिए जरुरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए। यह साफ है कि किसानों के नाम पर दी जा रही छूट कहीं और पहुॅंच रही है और उनकी दयनीय स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।
किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा सा जवाब है कि उसे उसके उत्पादन की लाभदायक कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम तरह की राहत के अलावा निर्यात सब्सिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात के मद मंे सरकार ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान मिलों को दिया था। अभी बीते सप्ताह केन्द्रीय खाद्य और आपूर्ति मन्त्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को 14 लाख टन चीनी पर निर्यात सब्सिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसकी सोच और प्राथमिकता को दर्शाते हैं। सरकार सब्सिडी की खाद और बीज क्यों देती है? क्योंकि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मन्त्री और आज के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के विभागों ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने पर बाजार में मॅहगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगें ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें! क्या इस दृष्टिकोण को बदले बिना किसानों का भला किया जा सकता है? उर्वरक सब्सिडी पर खर्च किए जा रहे अन्धाधुन्ध रकम को संयोजित करके किसानों की उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं दिया जा सकता। सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का प्रलोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फॅंस जाता है क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबन्धन करना आता ही नहीं। दुःखद तो यह है कि किसानों को खेती के अलावा कुछ और करने को सिखाया, बताया और कराया ही नहीं जाता। पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने एक महत्त्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाऐं की कल्पना की थी। यह योजना अगर ठीक से लागू की जाय तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले बल्कि वे अपने खाली समय में कुटीर-धन्धों से सम्बन्धित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। इसे आधी-अधूरी संप्रग सरकार ने कुछ जिलों में लागू भी किया था लेकिन असल में यह कोमा में ही पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या फसल बीमा को अनिवार्य रुप से लागू नहीं किया जा सकता? खासकर फसली ऋण के मामलों में? क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का प्रत्येक लघु और सीमान्त किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमा से आच्छादित हो? आखिर इसी देश में लाॅंच किए जाने वाले उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं। 
Link -- 
http://www.jansandeshtimes.in/index.php…    ( 23 Feb 2015)

किसानों को हवाई नहीं जमीनी मदद मिले ---सुनील अमर

किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में उर्वरक सब्सिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग 73,000 करोड़ रुपये थी लेकिन इसमें दो बातें समझ ली जानी चाहिए कि बाजार में मुक्त रूप से बिकने वाले अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है। उसका किसान होना जरूरी नहीं और दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तंत्र का बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरूरत के समय किसानों को यही उर्वरक काला- बाजार में खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार खरीदने की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान ही उठा पाते हैं। संप्रग सरकार द्वारा 65,000 करोड़ रुपये का जो कृषि ऋण माफ किया गया था उससे किसानों का ही नहीं, बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ था। इसलिए जरूरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए। साफ है कि किसानों के नाम पर दी जा रही छूट कहीं और पहुंच रही है और वह बदहाल हैं। प्रकृति पर निर्भर खेती की स्थिति बेहद अनिश्चित रहती है। ऐसे में इसे सरकारी संरक्षण मिलना ही चाहिए। अफसोस कि आजादी के बाद से आज तक सरकारें किसानों की बदहाली और खाद्यान्न की कमी का रोना तो रोती हैं लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे किसान बदहाली से उबर सकें। हम सभी जानते हैं कि आज भी देश में कर्ज तले दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अपनी उपज बिचौलियों को बेचने को विवश हैं। इस स्थिति में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। केन्द्र की भाजपा सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पहले सौ दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त 4600 किसान आत्महत्या कर चुके थे। यह सही है कि देश में किसान बीते कई वर्षों से आत्महत्या की राह पकड़े हैं लेकिन सवाल है कि इस राष्ट्रीय त्रासदी पर प्रधानंमंत्री क्या एक बार भी ट्वीट नहीं कर सकते थे? सवाल है कि किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा जवाब है, उसे उसके उत्पादन की लाभदायक कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम तरह की राहत के अलावा निर्यात सब्सिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात मद में सरकार ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान मिलों को दिया था। केन्द्रीय खाद्य और आपूत्तर्ि मन्त्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को 14 लाख टन चीनी पर निर्यात सब्सिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसकी सोच और प्राथमिकता दर्शाते हैं। सरकार सब्सिडी की खाद और बीज क्यों देती है? क्योंकि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मंत्री के विभागों ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने से बाजार में महंगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगें ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें! क्या इस दृष्टिकोण को बदले बिना किसानों का भला किया जा सकता है? उर्वरक सब्सिडी पर खर्च की जा रही अंधाधुंध रकम को संयोजित करके किसानों की उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं दिया जा सकता है! सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का पल्रोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फंस जाता है क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबन्धन करना आता ही नहीं। दु:खद यह है कि किसानों को खेती के अलावा कुछ और करने को सिखाया, बताया और कराया ही नहीं जाता। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने एक महत्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं की कल्पना की थी। यह योजना अगर ठीक से लागू की जाए तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले बल्कि वे खाली समय में कुटीर-धन्धों से सम्बन्धित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। इसे संप्रग सरकार ने कुछ जिलों में आधी-अधूरी लागू भी किया था लेकिन यह कोमा में पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या फसल बीमा को अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया जा सकता? खासकर फसली ऋण के मामलों में? क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का प्रत्येक लघु और सीमान्त किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमा से आच्छादित हो? आखिर इसी देश में लांच हो रहे उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं। 0 0 

Friday, January 16, 2015

कर्जमाफी से ही नहीं सुधरेंगे हालात -- सुनील अमर

केंद्र सरकार की हालिया किसान ऋणमाफी घोषणा के बीच भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ऐसी योजनाओं पर गंभीर सवाल उठाते हुए इसे निष्प्रभावी करार देते हुए कहा है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गहराई से अध्ययन की जरूरत है। बीते दिनों उदयपुर में आयोजित भारतीय आर्थिक संघ के सम्मेलन में उन्होंने कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि किसानों के कर्ज बोझ की स्थिति से कैसे निपटा जा सकता है और इसके लिए ऋणमाफी के अलावा और कौन-कौन से विकल्प हो सकते हैं। ध्यान रहे कि केन्द्र सरकार ने कहा था कि ऋणग्रस्त किसानों के लिए कर्जमाफी की योजनाएं बनायी जा रही हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि केन्द्रीय महालेखा परीक्षक की जांच रिपोर्ट में ऐसे तथ्य आए हैं कि ऋणमाफी योजना में बहुत से अपात्र किसानों को लाभ दिया गया जबकि जरूरतमन्द इससे वंचित रह गए। संप्रग-1 सरकार की किसान ऋणमाफी योजना नि:सन्देह जनहितकारी थी और इसने बहुत से किसानों को आत्महत्या के दबाव से मुक्त किया था। इस तथ्य को महज वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर महसूस नहीं किया जा सकता। इसके लिए किसानों के बीच जाकर उनकी आर्थिक, पारिवारिक व सामाजिक स्थितियों को समझना जरूरी है। यह और बात है कि देश में लागू होने वाली प्रत्येक योजना की तरह इसमें भी बाबूशाही और कमीशनखोरी जैसे भ्रष्टाचार व्याप्त हुए और रिजर्व बैंक के गवर्नर को इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाने का मौका मिला। 65,000 करोड़ रुपये की इस योजना को देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी के उद्धार के लिए लागू किया गया था। इसका लाभ लेने वाला तबका गरीब और दबा-कुचला था इसलिए भ्रष्टाचारियों द्वारा उसका बड़े पैमाने पर शोषण किया गया। देश में कल-कारखानों से लेकर हवाईजहाज कंपनी चलाने वाले उद्योगपतियों तक को कर्जमुक्त करने के लिए अरबों करोड़ रुपये की राहत और छूट दी जाती रही है लेकिन इस पर रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर ने न उंगली उठायी और न उसे अप्रासंगिक बताया। सब जानते हैं कि देश की सार्वजनिक वितरण पण्राली आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। जाहिर है, इसे रघुराम राजन भी जानते होंगे लेकिन क्या तंत्र के कमजोर होने से ऐसी जनहितकारी योजनाओं को बंद किया जा सकता है? आवश्यकता तंत्र के सुधार की है। किसान ऋण माफी में जिन खामियों की तरफ इशारा किया है, उसका सर्वाधिक दारोमदार उन बैंकों पर है जो रिजर्व बैंक के अधीन चलते हैं। उन्हें पहले बैंकों के परिमार्जन का उपाय करना चाहिए। यह बात सही है कि कर्जमाफी को स्थायी उपाय या किसानों की हालत सुधारने की योजना नहीं कहा जा सकता। सही उपाय यही हो सकता है कि ऐसे हालत बनाए जाएं कि कर्जदार व्यक्ति अपनी कमाई से कर्ज की वापसी कर सके। कर्ज की वापसी तभी संभव होती है जब कर्जदार को कामधंधे में इतना लाभ हो कि उसकी पारिवारिक जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसा न होने पर कर्जदार कर्ज के पैसे को अपनी जरूरतों पर खर्च कर डालता है। यही नहीं, कभी-कभी योजनाबद्ध तरीके से किया गया उद्यम भी प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाता है जैसा प्राय: किसानों के साथ होता है। व्यापार में तो ऐसे मामलों को बीमा कराकर संरक्षित किया जाता है लेकिन अफसोस, देश में फसल बीमा योजना दशकों से लागू होने के बाद भी जमीन पर नहीं उतर सकी है। बैंक किसानों को कर्ज देते समय जानवरों आदि के मामलों में पशुधन बीमा जरूर कराते हैं लेकिन इस योजना में जटिलता के कारण अपढ़ और सामथ्र्यहीन किसान इसका भी लाभ नहीं ले पाते। मूल प्रश्न है कि कृषि को आपदाओं से संरक्षित और लाभदायक कैसे बनाया जाए ताकि किसान बैंकों से लिए गए ऋण को वापस कर सकें। ऐसा करने के लिए दो बातें परम आवश्यक हैं- एक कृषि उपज के लिए देश में मौजूद महंगाई के समानान्तर लाभकारी विक्रय मूल्य तय हों- दूसरे, उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए व्यापक बीमा सुविधाएं दी जाएं। यह विडम्बना ही है कि किसान को अपनी उपज का विक्रय मूल्य स्वयं तय करने का भी अधिकार नहीं है। यह काम सरकारें करती हैं। किसान अपनी उपज को मनचाही जगह भी ले जाकर नहीं बेच सकता है। केन्द्र और राज्य सरकारें प्राय: रबी व खरीफ की फसल बोने से पहले उसका समर्थन मूल्य घोषित करती हैं। इसमें कभी भी दोतीन प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं की जाती बल्कि कई बार पिछले साल के मूल्य पर ही खरीद करती है जबकि इस दौरान देश में महंगाई कई गुना बढ़ चुकी होती है। उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों के साथ यही हो रहा है। वहां सरकार ने इस साल गन्ना क्रय मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की। किसानों ने महंगाई के कारण कृषि लागत बढ़ने का हवाला दिया लेकिन सरकार चीनी मिल मालिकों के दबाव के आगे झुक गई। इस प्रश्न पर रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी विचार करना चाहिए कि सरकार अपने कर्मचारियों को तो हर साल महंगाई भत्ता बढ़ाकर देती है जिससे वे बाजार में हुई कीमत वृद्धि को झेल लेते हैं लेकिन यही रवैया वह किसानों के लिए समर्थन मूल्य घोषित करने में क्यों नहीं अपनाती? रिजर्व बैंक को इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि देश के किसानों से जो अनाज सरकार एक हजार रुपये प्रति कुंतल में भी नहीं खरीदना चाहती उसी को विदेशों से ढाई हजार रुपये प्रति कुंतल के हिसाब से कैसे खरीद लेती है? सरकारें किसानों को समर्थन मूल्य और कर्जमाफी की बैसाखी लगा अपाहिज बनाए रखना चाहती हैं। कृषि आज भी देश का सबसे बड़ा क्षेत्र है और सबसे ज्यादा लोग इसी पर निर्भर हैं, इसके बावजूद इसे न उद्योग घोषित किया गया है और न उद्योगों जैसी सरकारी संरक्षा दी गई है। इसका एकमात्र कारण जान-बूझकर इसकी उपेक्षा करना है। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि देश का सहकारी क्षेत्र का उर्वरक कारखाना इफको की सहकारी समितियों से उर्वरक खरीदने पर सदस्य किसान को बीमा की संरक्षा अपने आप प्राप्त हो जाती है। उर्वरक खरीद कर घर जा रहे किसान की यदि रास्ते में दुर्घटनावश मौत हो जाती है तो उसके आश्रितों को बीमा राशि मिल जाती है। यह योजना सफलतापूर्वक चल रही है। सवाल है कि ऐसे ही प्राकृतिक आपदा या अचानक बाजारभाव गिरने से नुकसान पर किसानों को बीमित फसल का लाभ क्यों नहीं मिलता है? केन्द्र की सत्ता में आने से पहले चुनावी सभाओं में तथा सत्ता में आने के बाद भी भाजपा नेताओं ने किसानों को उनकी उपज को ड्योढ़े दाम पर बिकवाने की बात की थी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी यही बात की थी। सरकार अगर इतना भी कर दे तो किसान राहत की सांस ले सकेंगें लेकिन अभी कुछ होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में गवर्नर रामन को जानना चाहिए कि या तो बीमार को बालानशीं बनाइए या फिर उसे बैसाखी लगाइए। अफसोस कि देश में वोट की राजनीति के चलते सरकारें बैसाखी लगा वोट खरीदना ही फायदेमंद समझती रही हैं। 0 0  ( Rashtriya Sahara 16 January 2015)जनवरी 16, 2015,शुक्रवार

Rashtaya Sahara      ज नवरी 16, 2015,शुक्रवार




Sunday, January 11, 2015

डॉक्टरों की निष्ठा पर उठते सवाल -- सुनील अमर

बीते आठ नवम्बर को बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए देश के चिकित्सकों पर जो टिप्पणी की, वह इस ‘दैवीय सेवा’ में आ चुकी गंभीर गिरावट को रेखांकित करती है। अदालत ने तिक्त स्वर में कहा कि ‘हममें से हर आदमी को कभी न कभी डॉक्टरों के हाथ परेशान होना पड़ता है।’ अदालत के विचार में अब चिकित्सकों के काम को सेवा नहीं कहा जा सकता। प्रतिवादी (अस्पताल) के वकील की दलीलों से आजिज आकर अदालत ने उन्हें झिड़कते हुए कहा कि यह मामला ही जानने को पर्याप्त है कि डॉक्टरों को करना क्या चाहिए और वे करते क्या हैं। ज्ञात हो कि इस मामले में एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने वहां भर्ती मरीज को ‘विजिट’
किए बिना ही उससे फीस वसूल ली थी। इससे भी ज्यादा गंभीर मामला डॉक्टरों की सर्वशक्तिमान संवैधानिक संस्था ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ के संज्ञान में आया है। कुछ डॉक्टरों द्वारा एक दवा कंपनी से घूस लेकर उसकी अप्रत्याशित महंगी दवाओं को बिकवाने की शिकायत का संज्ञान लेते हुए काउंसिल ने प्रथम चरण में देश भर के ऐसे 300 दागी डॉक्टरों में से 150 को स्पष्टीकरण के लिए तलब किया जिसमें से 109 डॉक्टर बीते 17 नवम्बर को काउंसिल के समक्ष पेश हुए। तलब किए गए डॉक्टरों को उनके आयकर दाखिले, हालिया तीन साल के बैंक खातों के दस्तावेज तथा पासपोर्ट के साथ बुलाया गया। हैदराबाद की एक दवा कंपनी के विरुद्ध लगाए गए आरोप में कहा गया है कि इस कम्पनी ने उक्त डॉक्टरों को नकद रुपये, कार, मकान और सपरिवार विदेश यात्राओं की सुविधा मुहैया कराई। इतना ही नहीं, ऐसे डॉक्टरों के दवाखानों में टीवी लगाकर उस पर उक्त दवा कंपनी के विज्ञापन मरीजों को दिखाने को कहा गया और आरोपित डॉक्टरों ने ऐसा किया और इस सबके बदले में उन्होंने उक्त कम्पनी की ऐसी दवाएं मरीजों को लिखीं जो प्रतिष्ठित दवा कम्पनियों की दवाओं के मुकाबले तीन गुना ज्यादा महंगी थीं। जाहिर है, उक्त दवा कंपनी ने ऐसे डॉक्टरों पर खर्च किए अपने पैसों को कई गुना अधिक करके मरीजों से वसूल लिया। शिकायत में आंकड़े दिए गए हैं कि कैसे महज चार साल में ही इस नयी नवेली दवा कंपनी का कारोबार 400 करोड़ रुपयों का हो गया!
बदलते नियंतण्र परिवेश में स्वास्थ्य के लिहाज से शायद ही किसी व्यक्ति को पूरी तरह स्वस्थ कहा जा सके। दवा खरीदने में सक्षम हर व्यक्ति के घर में आज दवाएं रहती ही हैं और लोगों की डॉक्टरों के ऊपर निर्भरता बढ़ी है। ऐसे में धंधेबाज लोग मरीजों का गला काटने को पूरी निर्दयता के साथ तत्पर हैं। अब तो यहां तक कहा जाता है कि मरीज अपनी गरीबी के कारण नहीं, डॉक्टरों की लूट के कारण मर जाते हैं। यह ऐसा दुश्चक्र है जो डॉक्टरों की सहभागिता के बिना संभव नहीं। बम्बई उच्च न्यायालय की जो टिप्पणी अभी आयी है, कुछ वर्ष पूर्व इच्छा मृत्यु की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इससे भी सख्त रुख अपनाते हुए डॉक्टरों को कहा था कि इच्छा मृत्यु निर्धारित करने का काम हम आप पर नहीं छोड़ सकते। हम जानते हैं कि आप कैसे काम करते हैं!
भ्रष्ट डॉक्टरों को खरीदने के लिए दवा निर्माता कम्पनियां कैसे-कैसे हथकंडे अपना रही हैं, यह जानना दिलचस्प होगा। ऊपर घूस देने के जिन तरीकों के बारे में बताया गया है, उसके अलावा भी कई ऐसे रास्ते हैं जिनसे ऐसे डॉक्टरों को उपकृत कर कम्पनियां अपना मतलब हल करती हैं। इनमें से एक खतरनाक तरीका है- डॉक्टरों के नाम से प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नलों में शोध रपट छपवाना। ऐसी भी खबरें हैं कि बहुत सी दवा कंपनियां मेडिकल के छात्रों से शोधपरक लेख लिखवाकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नलों में ऐसे डॉक्टरों के नाम से छपवाती हैं जिसका लेख की तैयारी में कोई योगदान नहीं होता। ऐसे लेखों के प्रकाशित होने से निसन्देह डॉक्टरों की प्रतिष्ठा बढ़ती है और बदले में डॉक्टर वो सब करते हैं जो ऐसा करने वाली दवा कंपनी चाहती है। यह वैसे ही है जैसे देश के कई विविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के बारे में कहा जाता है कि यह पैसा देकर लिखवा ली जाती है। दवाओं के अलावा कंपनियां यही खेल स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरणों के मामले में भी करती हैं। खबरें बताती हैं कि प्राणरक्षक स्वास्थ्य उपकरणों (जैसे हृदय संबधी बीमारी में लगाया जाने वाला पेसमेकर आदि) की बिक्री में डॉक्टरों की मिलीभगत से कई-कई गुना ज्यादा लाभ कमाया जा रहा है। इस सम्बन्ध में हुई कतिपय शिकायतों पर एमएफडीए यानी महाराष्ट्र फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने अपनी ताजा जांच में पाया कि ऐसे उपकरण बनाने वाली कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने भारतीय वितरकों को कई गुना ज्यादा दाम वसूलने की अनुमति दे रखी है बशत्रे इस तरह प्राप्त धन को डॉक्टरों को प्रभावित करने में लगाया जाय। एमएफडीए की रिपोर्ट में अमेरिका की ऐसी एक कंपनी मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन के बारे में बताया गया है कि कैसे इसके द्वारा निर्मित स्वास्थ्य उपकरण, जिसे डीईएस कहा जाता है, को इसकी भारतीय शाखा इंडिया मेडट्रॉनिक प्रालि को 30,848 रुपये में बेचा गया। इस शाखा ने इस उपकरण को एक वितरक को 67,000 रुपये में बेचा और इस वितरक ने इसे एक अस्पताल को एक लाख रुपये से अधिक में बेच दिया। ध्यान रहे कि इस उपकरण पर अधिकतम विक्रय मूल्य एक लाख बासठ हजार रुपये मुद्रित है! ज्यादा संभावना है कि अस्पताल ने अपने मरीजों से अधिकतम मूल्य ही वसूला होगा। इस विधा के जानकार बताते हैं कि ऐसे उपकरणों की उत्पादन लागत महज चार- छह हजार रुपये ही आती है लेकिन उन्हें मरीजों को 40 गुना अधिक मूल्य पर बेचा जाता है! जाहिर है, लूट का यह खेल डॉक्टरों की सहमति के बिना संभव नहीं। यूं मरीजों से लूट का यह खेल पूरी दुनिया में जारी है और इसकी जडें़ उन देशों में हैं जो अपने को विकसित और ज्यादा सभ्य बताते हैं। महाराष्ट्र एफडीए की जॉच में पता चला कि अमेरिका की मेडट्रॉनिक, जॉनसन एंड जॉनसन तथा एबॉट जैसी फार्मा कंपनियां दुनिया के सामने बेशक लंबी-लंबी बातें करती हैं लेकिन अपने देश में डॉक्टरों और वितरकों को घूस देकर मरीजों के शोषण के मामले में कई- कई बार दंडित हो चुकी हैं। इसी वर्ष मई में मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन ने अमेरिकी डॉक्टरों को घूस देकर उपकरण बिकवाने के आरोप में लगे जुर्माने पर सरकार को 61 करोड़ रुपये दिया था। यह कंपनी ऐसा करने की आदी है और 2011 में भी इसने लगभग डेढ़ अरब रुपये का जुर्माना इन्हीं आरोपों के चलते भरा था। एबॉट ने भी इन्हीं आरोपों के चलते 34 करोड़ तथा जॉनसन की सहयोगी तथा चार अन्य कम्पनियों ने 2007 में पौने दो अरब रुपये का जुर्माना दिया था लेकिन भारत में ये कंपनियां अपना और अपने धंधेबाज सहयोगियोें की जेबें भरने में बेहिचक लगी हैं। 0 0 ( Rastriya Sahara 22 N0v 2014)

Rashtaya Sahara     नवंबर 22, 2नवंबर 22, 2014014

उच्च शिक्षण संस्थानों के निम्नस्तरीय हथकन्डे --- सुनील अमर

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याप्त स्तरहीनता और कौशलविहीन पढ़ाई-लिखाई पर उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक कई बार सख्त टिप्पणिया कर चुका है लेकिन यह सिलसिला थम नहीं रहा है। लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को उचित शिक्षा नहीं मिल रही है और हाल ही में
प्रधानमन्त्री ने भी स्वीकार किया है कि देश में आवश्यकता के अनुरुप योग्य छात्रों की कमी है। शिक्षा के क्षेत्र में आ रही इस गिरावट का सबसे चिन्तनीय पहलू यह है कि यह बहुत भयावह रुप में देश के तमाम मेडिकल कालेजों में भी व्याप्त है और वहां से बिना उचित संसाधन यानी अध्यापक और उपकरण बगैर ही शिक्षा पूरी कर छात्र बाहर निकल रहे हैं। जैसा कि एक अॅग्रेजी अखबार का दावा है कि ऐसे मेडिकल कालेज
ं के मानकों की जब मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया द्वारा समय-समय पर जांच की जाती है तो उस समय ये एक-दो दिन के लिए बाहर से डाॅक्टरों को बुला कर अपने यहां कार्यरत दिखा देते हैं और इस एवज में ऐसे डाक्टरों को दो से चार लाख रुपये तक दिए जाते हैं! जाहिर है कि ऐसे कालेज मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया के तन्त्र में अपना जुगाड़ रखने के कारण जाॅच टीम जाने के पहले ही सूचित होकर फैकल्टी की व्यवस्था कर लेते हैं। वहा पढ़ने वाले छात्र इसलिए इसकी शिकायत नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें कालेज प्रबन्धन द्वारा उत्पीडि़त किए जाने का डर होता है। ढि़ठाई का आलम तो यह है कि ऐसे कालेज अपनी वेबसाइट और विवरणिका आदि में संकाय यानी फैकल्टी को एकदम अप-टू-डेट दिखाते हैं! जैसी कि खबरें आती रहती हैं, ऐसे संस्थानों से छात्र अक्सर वांछित प्रयोग आदि किए बिना ही शिक्षा पूरी कर लेते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने व्यावहारिक जीवन में वे मरीजों का कैसा उपचार करते होंगें।
             भ्रष्टाचार की यही कहानी इंजीनियरिंग और प्रबन्धन के संस्थानों की भी है। इनकी वेबसाइट देखने पर तो लगता है कि ये कालेज न होकर किसी विश्वविद्यालय की फैकल्टीज हैं और उसी की तर्ज पर तमाम भारी-भरकम पदों का सृजन किए रहते हैं लेकिन सच्चाई, उपर वर्णित मेडिकल कालेजों जैसी ही है। ऐसे ज्यादातर संस्थानों में प्रैक्टिकल के लिए उपयुक्त प्रयोगशालाऐं और उपकरण ही नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो 767 संस्थान वहां के तकनीकी विश्वविद्यालय में पंजीकृत हैं! इनका हाल यह है कि वहां छात्रों से ज्यादा फीस लेने के अलावा उन्हें सरकार से मिलने वाली शुल्क वापसी की अरबों रुपये की धनराशि में भारी घपले की शिकायतें हैं और कई संस्थानों के खिलाफ मुकदमे भी चल रहे हैं। प्रबन्धतन्त्र की दबंगई का आलम यह रहता है कि वे अपने प्रभाव वाले बैंकों में अपने संस्थान के छात्रों के खाते खुलवा कर और उनसे हस्ताक्षर करवा कर चेक ले लेते हैं। शुल्क वापसी की धनराशि जब छात्र के बैंक खाते में आती है तो उसे प्रबन्धतंत्र निकाल लेता है! विश्वविद्यालय की परीक्षा व्यवस्था ऐसी है कि मूल्यांकन का आधा अधिकार संस्थान प्रबन्धन के पास होता है और वे छात्रों को भयभीत किए रहते हैं। फैकल्टी का आलम यह है कि जो अधकचरे लोग रखे भी जाते हैं वे शैक्षणिक सत्र के बीच में ही संस्थान छोड़कर चले जाते हैं और छात्रों की पढ़ाई बाधित होती रहती है। पर्सनैल्टी डेवलेपमेन्ट (व्यक्तित्व विकास) और लैंगुएज सरीखे विषयों के लिए तो अध्यापक ही नहीं रखे जाते। यही कारण है कि ऐसे संस्थानों से 7-8 लाख रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग या प्रबन्धन की पढ़ाई करने वाले छात्रों में ऐसी कुशलता आ ही नहीं पाती कि उन्हें कहीं नौकरी मिल सके।
             इसका नतीजा यह हुआ है कि अब ऐसे भी संस्थान अस्तित्व में आ गए हैं जो तकनीकी और प्रबन्धन की पढ़ाई कर निकले छात्रों से मोटी फीस के बदले चार-छह महीने का पाठ्यक्रम करवा कर उन्हें उनसे सम्बन्धित कार्य-अवसरों के लिए दक्ष बनाने का दावा करते हैं। बावजूद इसके न तो सम्बन्धित विश्वविद्यालय और न ही मन्त्रालय, कोई भी इन तकनीकी और प्रबन्धन संस्थानों से नहीं पूछता कि आखिर आपकी चार- पांच साल की पढ़ाई से छात्र दक्ष क्यों नहीं हो पा रहे हैं। वर्ष 2008 में आई वैश्विक मन्दी के बाद से हाल यह है कि कम्पनिया ऐसे छात्रों को चार- पांच हजार रुपये मासिक वेतन पर भी नौकरी देने को तैयार नहीं हो रही हैं क्योंकि ऐसे छात्रों की भारी भीड़ नौकरी के लिए मौजूद है। देश की एक प्र्रमुख उड्डयन कम्पनी तो ऐसे नवजात मेकैनिकल इन्जीनियरों को छह माह से लेकर साल भर तक बिना एक पैसा दिए काम पर रखती है और कहती है कि हम इन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं!
मानदण्डों के उल्लंघन और छात्रों के शोषण का यही सिलसिला बी.एड. कालेजों में भी चल रहा है।
              निर्धारित से दो गुना ज्यादा फीस और तमाम तरह के अघोषित शुल्क लेने के बावजूद शिक्षण-प्रशिक्षण का स्तर उपर वर्णित मेडिकल और तकनीकी संस्थानों जैसा ही है। छात्रों से हो रही खुलेआम लूट पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ वर्ष पूर्व व्यवस्था बनाई कि काउन्सिलिंग के समय ही निर्धारित फीस का बैंक ड्राट वहा मौजूद सम्बन्धित कालेज के स्टाफ को देना होगा लेकिन कालेज द्वारा लूट करने की गुंजाइश यहा भी छोड़ दी गई। आयोग ने यह व्यवस्था नहीं बनाई कि छात्र को ड्राट देने पर वहीं प्रवेश का प्रमाण पत्र भी दे दिया जाय ताकि वे कालेज प्रबन्धन के शोषण से बच सकें बल्कि उन्हें कालेज में जाकर प्रवेश लेने के लिए पाच दिन का समय दिया गया। वहां जाने पर कालेज प्रबन्धन छात्रों से अतिरिक्त धन की मांग करते हैं। छात्रों द्वारा अस्मर्थता व्यक्त करने पर उन्हें पांच दिन दौड़ा कर समय सीमा बीत जाने का भय दिखाकर वसूली की जाती है। इस स्थिति में इधर महज यह परिवर्तन आया है कि अब बी.एड. कालेजों की अधिकांश सीटें खाली जा रही हैं तो प्रबन्धन जैसे-तैसे भी प्रवेश ले ले रहा है। बहुत सारे बी.एड., तकनीकी और प्रबन्धन कालेज बन्द होने की कगार पर हैं।
               देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाऐं तीन चैथाई के करीब निजी क्षेत्र में ही हैं। इसलिए इनमें जाने वाले लोगों का बहुविधि शोषण स्वाभाविक ही है। निजी क्षेत्र का ध्येय वाक्य - ‘शुभ और लाभ’ होता है। वह अपने व्यवसाय का शुभ और उससे लाभ कमाना चाहता है। इन पर नियन्त्रण रखने की जिम्मेदारी सरकारी तन्त्र की होती है जो कि अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते खुद ही इस लूट में शामिल हो जाता है। देश में ऐसे विशिष्ट शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्होंने लाखों रुपए का बैंक ऋण लेकर पढ़ाई की है। बैंक ने एक निश्चित समयावधि यानी कोर्स पूरा होने तक के लिए ही ऋण देते हैं और उम्मीद करते हैं कि इसके बाद छात्र रोजगार प्राप्त कर ऋण लौटाना शुरु कर देगा लेकिन जिस तरह की उच्च शिक्षा छात्रों को मिल रही है उससे बेरोजगारी ही बढ़ रही है। बैंकों का ऋण भी फॅंस रहा है। इस स्थिति से निकालने की जिम्मेदारी सरकार पर ही आती है। ऐसी संस्थाओं की निगरानी की सख्त व्यवस्था ही छात्रों को कौशलपूर्ण शिक्षा दे सकती है जो अंततः उन्हें समय पर रोजगार दिला सकेगी। सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि बैंकों का बहुत सारा धन ऐसी हजारों संस्थाओं में लग चुका है और खबरें बताती हैं कि ऐसे अधिकांश संस्थान भारी घाटे में चल रहे हैं। इसलिए शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे कार्यक्रम बनाए जाने की जरुरत है जिससे स्थापित हो चुकी संस्थाओं और उनमें पढ़ने वाले छात्रों, दोनों का भला हो सके।
 
  संस्करण: 08 दिसम्बर2014

स्त्री अधिकारों की तस्वीर इतनी भयावह क्यों ? -- सुनील अमर

    कुछ ताजा खबरें हैं जिन्हें इकठ्ठा करके पढ़ना स्त्री अधिकारों के लिए भयकारी और मर्द जाति के लिए शर्मिन्दगी का बायस बनता है। ईरान में गत सप्ताह एक युवती को इसलिए फाॅंसी पर लटका दिया गया क्योंकि उससे बलात्कार की कोशिश कर रहे एक पूर्व सरकारी जासूस को उसने मार दिया था, हरियाणा में एक ऐसा व्यक्ति मुख्यमंत्री बन गया है जिसका सार्वजनिक रुप से मानना है कि बलात्कार के लिए औरतें खुद जिम्मेदार होती हैं, केन्द्र में सत्तारुढ भाजपा की मोदी सरकार ने अदालत को अपना नजरिया बताया है कि यदि किसी अविवाहित स्त्री के बच्चा है तो उसे यह बताना लाजिमी होगा कि यह बच्चा बलात्कार से तो नहीं पैदा हुआ है और उत्तर प्रदेश की पुलिस ने लिखित में स्वीकार किया है कि जीन्स पहनने और मोबाइल फोन इस्तेमाल करने के कारण ही लड़कियों के साथ ज्यादातर बलात्कार होता है! स्त्रियों के बारे में ऐसी ही राय बहुत से न्यायाधीशों, विचारकों तथा साधु-सन्तों की भी है। बलात्कार के कई मामलों में जेल में बन्द एक स्वयंभू बापू ने तो दिल्ली निर्भया कान्ड के बाद यह कह कर अपने चरित्र का परिचय दे दिया था कि- ‘लड़की को बलात्कारियों के पैरों में पड़ जाना चाहिए था तो उसकी हत्या न होती!’ हालांकि तब तक उनके बलात्कार के मामलों का खुलासा नहीं हुआ था।
 इस क्रम में ताजा विचार उत्तर प्रदेश पुलिस का प्राप्त हुआ है। सूचना के अधिकार के तहत जिला पुलिस प्रमुखों से जानकारी मांगी गई थी कि उनके जिले में बलात्कार के कितने मामले हैं, उनके निराकरण के लिए क्या कदम उठाए गए और इस अपराध के कारण क्या हो सकते हैं। जवाब में प्रदेश की लगभग सभी जिला पुलिस ने एक जैसा विचार व्यक्त करते हुए बताया है कि बलात्कार के कारणों में लड़कियों का पहनावा, पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण और मोबाइल फोन प्रमुख कारण है। चाहिए तो यह कि सूचना कार्यकर्ता लोकेश खुराना उत्तर प्रदेश पुलिस से एक जानकारी और मांगते कि जब पश्चिमी संस्कृति, पहनावा और मोबाइल फोन नहीं थे तब क्या बलात्कार नहीं होते थे? ‘तहलका’ पत्रिका ने भी गत वर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों पर दिल्ली के पुलिसवालों का साक्षात्कार प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि सिर्फ दो पुलिस वालों को छोड़कर शेष सभी की राय थी कि जो महिलाएं बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने आती हैं वे या तो अनैतिक, स्वच्छन्द स्वभाव की चरित्रहीन होती हैं या वेश्याएं होती हैं और वे पुरुषों को ब्लैकमेल करना चाहती हैं !
  स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों में तुलनात्मक रुप से सारी दुनिया में बढ़ोत्तरी हुई है। बचाव के नये और ज्यादा सक्षम कानूनों, आपराधिक जांच  प्रणाली में हुआ वैज्ञानिक विकास तथा समाज में आई जागरुकता और खुलेपन के बावजूद स्थिति का बयान प्रख्यात नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन के शब्दों में किया जा सकता है कि- ‘औरतों के लिए कोई भी देश सुरक्षित नहीं।’ कहने को तो हम पहले से कहीं ज्यादा सभ्य हुए हैं और दिनोंदिन ज्यादा सभ्य होते भी जा रहे हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति हमारा नजरिया और ज्यादा तंग होता जा रहा है। पिछले कई हजार वर्षों की तरह हम आज भी औरतों को दोयम दर्जे का इन्सान ही मानते-समझते हैं। ब्रिटेन को लोकतन्त्र की जननी कहा जाता है लेकिन वहां भी स्त्रियों को वोट देने का अधिकार अभी कुछ दशक पूर्व ही मिला है और इसी तरह अमेरिका में भी। ईसाई धर्म को बहुत उदार और परोपकारी बताकर प्रचार किया जाता है लेकिन उसका स्पष्ट मानना है कि स्त्री का कोई अलग अस्तित्व नहीं बल्कि उसे तो मर्द की पसली से बनाया गया है।
  बलात्कार अगर कमअक्ल, सिरफिरे या अपराधियों द्वारा ही किया जा रहा होता तो माना जाता कि इनकी शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन दुरुस्त किए जाने की जरुरत है लेकिन जैसा कि आॅकड़े उपलब्ध हैं, मर्दों के सारे प्रकार बलात्कार में शामिल पाए जाते हैं। न्यायाधीश, उच्च नौकरशाह, वरिष्ठ राजनेता, सांसद,विधायक, लेखक,पत्रकार, डाॅक्टर, प्रोफेसर, सफल उद्योगपति और दुनिया की बड़ी आबादी को मोहित और प्रभावित करने वाले साधु-सन्यासी भी बलात्कार के जुर्म में जेलों में बन्द हैं। इस प्रकार माना यह जाना चाहिए कि यह प्रवृत्ति व्यक्ति में विचारों के कारण पनपती है। विचार की जहां तक स्थिति है उसमें उपर गिनाई गई श्रेणी के लोगों के विचार ही इस कृत्य को पोषित करने का काम करते हैं। संत कहे जाने वाले कवि तुलसीदास का भी ऐसा ही मत है- ‘जिम स्वतन्त्र होय बिगरैं नारी।’ कल्याणी मेनन और शिवकुमार द्वारा वर्ष 1996 में लिखित पुस्तक ‘भारत में स्त्रियां’ में औरतों के खिलाफ हिंसा के बारे में 109 न्यायाधीशों के साक्षात्कार का निचोड़ दिया गया है जिसमें 48 प्रतिशत न्यायाधीशों का मानना था कि कुछ मौंकों पर पति द्वारा पत्नी को थप्पड़ जायज होता है, 74 प्रतिशत का मानना था कि परिवार को टूटने से बचाना औरत का पहला सरोकार होना चाहिए चाहे उसके लिए उसे हिंसा का सामना क्यों न करना पड़े। 68 प्रतिशत का मानना था कि औरतों का उत्तेजक कपड़े पहनना यौन हमले को बुलावा देना है तथा 55 प्रतिशत का मानना था कि बलात्कार के मामले में औरत के नैतिक चरित्र की अहमियत है ! हो सकता है कि इसी दृष्टिकोण के चलते देश की अदालतों में बलात्कार के एक लाख सात हजार एक सौ सैंतालिस से अधिक मुकदमें लटके पड़े हैं। 333 मामले तो सर्वोच्च न्यायालय में ही पड़े हैं। राजनेताओं की सोच तो और भी भयानक है। तृणमूल कांग्रेस के विधायक और अभिनेता चिरंजीत ने दो साल पूर्व बलात्कार की एक घटना पर अपनी राय व्यक्त की थी कि लड़कियों का बलात्कार उनकी छोटी स्कर्ट की वजह से होता है और इसके लिए महिलाऐं खुद ही जिम्मेदार होती हैं। दो साल पूर्व मध्य प्रदेश के उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने भी अपनी मानसिकता उजागर की थी कि महिलाऐं लक्ष्मण रेखा लाघेंगीं तो रावण आएगा ही तो गत वर्ष छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कॅवर ने एक सरकारी संरक्षणगृह में आदिवासी गरीब लड़कियों के साथ हुए बलात्कार के मामले पर कहा था कि बलात्कार के लिए ग्रह-नक्षत्र जिम्मेदार होते हैं! समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि लड़कों से गलती हो ही जाती है! इससे भी कमाल का दृष्टिकोण संघ प्रमुख मोहन भागवत का है कि ‘रेप भारत में नहीं इन्डिया में होता है’!
  दुनिया की आधी आबादी को आज भी इन्सान नहीं माना जाता। उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक शोषण भी कदम-कदम पर किया जाता है। एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि दिल्ली में 1669 स्कूली लड़कियों पर महज एक शौचालय की सुविधा है। ऐसे में जरुरत पड़ने पर लड़कियां खुले में नहीं तो और कहां जाऐंगी और फिर मर्दवादी सोच वाले कहेंगें कि ये बलात्कारियों को आमन्त्रित करती हैं! सरकारें महिला अधिकारों की बातें तो करती हैं लेकिन सच्चाई देखिए कि देश की पुलिस में महिलाऐं सिर्फ 5 प्रतिशत ही हैं। नागरिक अधिकारों की सबसे प्रबल पैरोकार और संरक्षक अदालतों के कार्यस्थल में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं और गत वर्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने महिला वकीलों और वादकारियों के साथ हो रही घटनाओं से चिन्तित होकर एक अधिकारी की तैनाती की जो ऐसे मामलों को दर्ज कर सके। जिस तरह कार्यस्थल पर महिलाओं को पुरुषों से भिन्न आवश्यकता की मानकर संसाधन मुहैया कराए जाते हैं उसी तरह उनके जीवनयापन के प्रत्येक क्षेत्र को जब तक उनके अनुकूल सुरक्षित नहीं किया जाता तब तक उनकी बेहतरी की बात करना महज किताबी ही होगी। 0 0           
   संस्करण: 10 नवम्बर2014