Sunday, January 11, 2015

उच्च शिक्षण संस्थानों के निम्नस्तरीय हथकन्डे --- सुनील अमर

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याप्त स्तरहीनता और कौशलविहीन पढ़ाई-लिखाई पर उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक कई बार सख्त टिप्पणिया कर चुका है लेकिन यह सिलसिला थम नहीं रहा है। लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को उचित शिक्षा नहीं मिल रही है और हाल ही में
प्रधानमन्त्री ने भी स्वीकार किया है कि देश में आवश्यकता के अनुरुप योग्य छात्रों की कमी है। शिक्षा के क्षेत्र में आ रही इस गिरावट का सबसे चिन्तनीय पहलू यह है कि यह बहुत भयावह रुप में देश के तमाम मेडिकल कालेजों में भी व्याप्त है और वहां से बिना उचित संसाधन यानी अध्यापक और उपकरण बगैर ही शिक्षा पूरी कर छात्र बाहर निकल रहे हैं। जैसा कि एक अॅग्रेजी अखबार का दावा है कि ऐसे मेडिकल कालेज
ं के मानकों की जब मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया द्वारा समय-समय पर जांच की जाती है तो उस समय ये एक-दो दिन के लिए बाहर से डाॅक्टरों को बुला कर अपने यहां कार्यरत दिखा देते हैं और इस एवज में ऐसे डाक्टरों को दो से चार लाख रुपये तक दिए जाते हैं! जाहिर है कि ऐसे कालेज मेडिकल काउन्सिल आफ इन्डिया के तन्त्र में अपना जुगाड़ रखने के कारण जाॅच टीम जाने के पहले ही सूचित होकर फैकल्टी की व्यवस्था कर लेते हैं। वहा पढ़ने वाले छात्र इसलिए इसकी शिकायत नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें कालेज प्रबन्धन द्वारा उत्पीडि़त किए जाने का डर होता है। ढि़ठाई का आलम तो यह है कि ऐसे कालेज अपनी वेबसाइट और विवरणिका आदि में संकाय यानी फैकल्टी को एकदम अप-टू-डेट दिखाते हैं! जैसी कि खबरें आती रहती हैं, ऐसे संस्थानों से छात्र अक्सर वांछित प्रयोग आदि किए बिना ही शिक्षा पूरी कर लेते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने व्यावहारिक जीवन में वे मरीजों का कैसा उपचार करते होंगें।
             भ्रष्टाचार की यही कहानी इंजीनियरिंग और प्रबन्धन के संस्थानों की भी है। इनकी वेबसाइट देखने पर तो लगता है कि ये कालेज न होकर किसी विश्वविद्यालय की फैकल्टीज हैं और उसी की तर्ज पर तमाम भारी-भरकम पदों का सृजन किए रहते हैं लेकिन सच्चाई, उपर वर्णित मेडिकल कालेजों जैसी ही है। ऐसे ज्यादातर संस्थानों में प्रैक्टिकल के लिए उपयुक्त प्रयोगशालाऐं और उपकरण ही नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो 767 संस्थान वहां के तकनीकी विश्वविद्यालय में पंजीकृत हैं! इनका हाल यह है कि वहां छात्रों से ज्यादा फीस लेने के अलावा उन्हें सरकार से मिलने वाली शुल्क वापसी की अरबों रुपये की धनराशि में भारी घपले की शिकायतें हैं और कई संस्थानों के खिलाफ मुकदमे भी चल रहे हैं। प्रबन्धतन्त्र की दबंगई का आलम यह रहता है कि वे अपने प्रभाव वाले बैंकों में अपने संस्थान के छात्रों के खाते खुलवा कर और उनसे हस्ताक्षर करवा कर चेक ले लेते हैं। शुल्क वापसी की धनराशि जब छात्र के बैंक खाते में आती है तो उसे प्रबन्धतंत्र निकाल लेता है! विश्वविद्यालय की परीक्षा व्यवस्था ऐसी है कि मूल्यांकन का आधा अधिकार संस्थान प्रबन्धन के पास होता है और वे छात्रों को भयभीत किए रहते हैं। फैकल्टी का आलम यह है कि जो अधकचरे लोग रखे भी जाते हैं वे शैक्षणिक सत्र के बीच में ही संस्थान छोड़कर चले जाते हैं और छात्रों की पढ़ाई बाधित होती रहती है। पर्सनैल्टी डेवलेपमेन्ट (व्यक्तित्व विकास) और लैंगुएज सरीखे विषयों के लिए तो अध्यापक ही नहीं रखे जाते। यही कारण है कि ऐसे संस्थानों से 7-8 लाख रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग या प्रबन्धन की पढ़ाई करने वाले छात्रों में ऐसी कुशलता आ ही नहीं पाती कि उन्हें कहीं नौकरी मिल सके।
             इसका नतीजा यह हुआ है कि अब ऐसे भी संस्थान अस्तित्व में आ गए हैं जो तकनीकी और प्रबन्धन की पढ़ाई कर निकले छात्रों से मोटी फीस के बदले चार-छह महीने का पाठ्यक्रम करवा कर उन्हें उनसे सम्बन्धित कार्य-अवसरों के लिए दक्ष बनाने का दावा करते हैं। बावजूद इसके न तो सम्बन्धित विश्वविद्यालय और न ही मन्त्रालय, कोई भी इन तकनीकी और प्रबन्धन संस्थानों से नहीं पूछता कि आखिर आपकी चार- पांच साल की पढ़ाई से छात्र दक्ष क्यों नहीं हो पा रहे हैं। वर्ष 2008 में आई वैश्विक मन्दी के बाद से हाल यह है कि कम्पनिया ऐसे छात्रों को चार- पांच हजार रुपये मासिक वेतन पर भी नौकरी देने को तैयार नहीं हो रही हैं क्योंकि ऐसे छात्रों की भारी भीड़ नौकरी के लिए मौजूद है। देश की एक प्र्रमुख उड्डयन कम्पनी तो ऐसे नवजात मेकैनिकल इन्जीनियरों को छह माह से लेकर साल भर तक बिना एक पैसा दिए काम पर रखती है और कहती है कि हम इन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं!
मानदण्डों के उल्लंघन और छात्रों के शोषण का यही सिलसिला बी.एड. कालेजों में भी चल रहा है।
              निर्धारित से दो गुना ज्यादा फीस और तमाम तरह के अघोषित शुल्क लेने के बावजूद शिक्षण-प्रशिक्षण का स्तर उपर वर्णित मेडिकल और तकनीकी संस्थानों जैसा ही है। छात्रों से हो रही खुलेआम लूट पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ वर्ष पूर्व व्यवस्था बनाई कि काउन्सिलिंग के समय ही निर्धारित फीस का बैंक ड्राट वहा मौजूद सम्बन्धित कालेज के स्टाफ को देना होगा लेकिन कालेज द्वारा लूट करने की गुंजाइश यहा भी छोड़ दी गई। आयोग ने यह व्यवस्था नहीं बनाई कि छात्र को ड्राट देने पर वहीं प्रवेश का प्रमाण पत्र भी दे दिया जाय ताकि वे कालेज प्रबन्धन के शोषण से बच सकें बल्कि उन्हें कालेज में जाकर प्रवेश लेने के लिए पाच दिन का समय दिया गया। वहां जाने पर कालेज प्रबन्धन छात्रों से अतिरिक्त धन की मांग करते हैं। छात्रों द्वारा अस्मर्थता व्यक्त करने पर उन्हें पांच दिन दौड़ा कर समय सीमा बीत जाने का भय दिखाकर वसूली की जाती है। इस स्थिति में इधर महज यह परिवर्तन आया है कि अब बी.एड. कालेजों की अधिकांश सीटें खाली जा रही हैं तो प्रबन्धन जैसे-तैसे भी प्रवेश ले ले रहा है। बहुत सारे बी.एड., तकनीकी और प्रबन्धन कालेज बन्द होने की कगार पर हैं।
               देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाऐं तीन चैथाई के करीब निजी क्षेत्र में ही हैं। इसलिए इनमें जाने वाले लोगों का बहुविधि शोषण स्वाभाविक ही है। निजी क्षेत्र का ध्येय वाक्य - ‘शुभ और लाभ’ होता है। वह अपने व्यवसाय का शुभ और उससे लाभ कमाना चाहता है। इन पर नियन्त्रण रखने की जिम्मेदारी सरकारी तन्त्र की होती है जो कि अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते खुद ही इस लूट में शामिल हो जाता है। देश में ऐसे विशिष्ट शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्होंने लाखों रुपए का बैंक ऋण लेकर पढ़ाई की है। बैंक ने एक निश्चित समयावधि यानी कोर्स पूरा होने तक के लिए ही ऋण देते हैं और उम्मीद करते हैं कि इसके बाद छात्र रोजगार प्राप्त कर ऋण लौटाना शुरु कर देगा लेकिन जिस तरह की उच्च शिक्षा छात्रों को मिल रही है उससे बेरोजगारी ही बढ़ रही है। बैंकों का ऋण भी फॅंस रहा है। इस स्थिति से निकालने की जिम्मेदारी सरकार पर ही आती है। ऐसी संस्थाओं की निगरानी की सख्त व्यवस्था ही छात्रों को कौशलपूर्ण शिक्षा दे सकती है जो अंततः उन्हें समय पर रोजगार दिला सकेगी। सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि बैंकों का बहुत सारा धन ऐसी हजारों संस्थाओं में लग चुका है और खबरें बताती हैं कि ऐसे अधिकांश संस्थान भारी घाटे में चल रहे हैं। इसलिए शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे कार्यक्रम बनाए जाने की जरुरत है जिससे स्थापित हो चुकी संस्थाओं और उनमें पढ़ने वाले छात्रों, दोनों का भला हो सके।
 
  संस्करण: 08 दिसम्बर2014

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