बीते आठ नवम्बर को बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए देश के चिकित्सकों पर जो टिप्पणी की, वह इस ‘दैवीय सेवा’ में आ चुकी गंभीर गिरावट को रेखांकित करती है। अदालत ने तिक्त स्वर में कहा कि ‘हममें से हर आदमी को कभी न कभी डॉक्टरों के हाथ परेशान होना पड़ता है।’ अदालत के विचार में अब चिकित्सकों के काम को सेवा नहीं कहा जा सकता। प्रतिवादी (अस्पताल) के वकील की दलीलों से आजिज आकर अदालत ने उन्हें झिड़कते हुए कहा कि यह मामला ही जानने को पर्याप्त है कि डॉक्टरों को करना क्या चाहिए और वे करते क्या हैं। ज्ञात हो कि इस मामले में एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने वहां भर्ती मरीज को ‘विजिट’
किए बिना ही उससे फीस वसूल ली थी। इससे भी ज्यादा गंभीर मामला डॉक्टरों की सर्वशक्तिमान संवैधानिक संस्था ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ के संज्ञान में आया है। कुछ डॉक्टरों द्वारा एक दवा कंपनी से घूस लेकर उसकी अप्रत्याशित महंगी दवाओं को बिकवाने की शिकायत का संज्ञान लेते हुए काउंसिल ने प्रथम चरण में देश भर के ऐसे 300 दागी डॉक्टरों में से 150 को स्पष्टीकरण के लिए तलब किया जिसमें से 109 डॉक्टर बीते 17 नवम्बर को काउंसिल के समक्ष पेश हुए। तलब किए गए डॉक्टरों को उनके आयकर दाखिले, हालिया तीन साल के बैंक खातों के दस्तावेज तथा पासपोर्ट के साथ बुलाया गया। हैदराबाद की एक दवा कंपनी के विरुद्ध लगाए गए आरोप में कहा गया है कि इस कम्पनी ने उक्त डॉक्टरों को नकद रुपये, कार, मकान और सपरिवार विदेश यात्राओं की सुविधा मुहैया कराई। इतना ही नहीं, ऐसे डॉक्टरों के दवाखानों में टीवी लगाकर उस पर उक्त दवा कंपनी के विज्ञापन मरीजों को दिखाने को कहा गया और आरोपित डॉक्टरों ने ऐसा किया और इस सबके बदले में उन्होंने उक्त कम्पनी की ऐसी दवाएं मरीजों को लिखीं जो प्रतिष्ठित दवा कम्पनियों की दवाओं के मुकाबले तीन गुना ज्यादा महंगी थीं। जाहिर है, उक्त दवा कंपनी ने ऐसे डॉक्टरों पर खर्च किए अपने पैसों को कई गुना अधिक करके मरीजों से वसूल लिया। शिकायत में आंकड़े दिए गए हैं कि कैसे महज चार साल में ही इस नयी नवेली दवा कंपनी का कारोबार 400 करोड़ रुपयों का हो गया!
बदलते नियंतण्र परिवेश में स्वास्थ्य के लिहाज से शायद ही किसी व्यक्ति को पूरी तरह स्वस्थ कहा जा सके। दवा खरीदने में सक्षम हर व्यक्ति के घर में आज दवाएं रहती ही हैं और लोगों की डॉक्टरों के ऊपर निर्भरता बढ़ी है। ऐसे में धंधेबाज लोग मरीजों का गला काटने को पूरी निर्दयता के साथ तत्पर हैं। अब तो यहां तक कहा जाता है कि मरीज अपनी गरीबी के कारण नहीं, डॉक्टरों की लूट के कारण मर जाते हैं। यह ऐसा दुश्चक्र है जो डॉक्टरों की सहभागिता के बिना संभव नहीं। बम्बई उच्च न्यायालय की जो टिप्पणी अभी आयी है, कुछ वर्ष पूर्व इच्छा मृत्यु की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इससे भी सख्त रुख अपनाते हुए डॉक्टरों को कहा था कि इच्छा मृत्यु निर्धारित करने का काम हम आप पर नहीं छोड़ सकते। हम जानते हैं कि आप कैसे काम करते हैं!
भ्रष्ट डॉक्टरों को खरीदने के लिए दवा निर्माता कम्पनियां कैसे-कैसे हथकंडे अपना रही हैं, यह जानना दिलचस्प होगा। ऊपर घूस देने के जिन तरीकों के बारे में बताया गया है, उसके अलावा भी कई ऐसे रास्ते हैं जिनसे ऐसे डॉक्टरों को उपकृत कर कम्पनियां अपना मतलब हल करती हैं। इनमें से एक खतरनाक तरीका है- डॉक्टरों के नाम से प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नलों में शोध रपट छपवाना। ऐसी भी खबरें हैं कि बहुत सी दवा कंपनियां मेडिकल के छात्रों से शोधपरक लेख लिखवाकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नलों में ऐसे डॉक्टरों के नाम से छपवाती हैं जिसका लेख की तैयारी में कोई योगदान नहीं होता। ऐसे लेखों के प्रकाशित होने से निसन्देह डॉक्टरों की प्रतिष्ठा बढ़ती है और बदले में डॉक्टर वो सब करते हैं जो ऐसा करने वाली दवा कंपनी चाहती है। यह वैसे ही है जैसे देश के कई विविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के बारे में कहा जाता है कि यह पैसा देकर लिखवा ली जाती है। दवाओं के अलावा कंपनियां यही खेल स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरणों के मामले में भी करती हैं। खबरें बताती हैं कि प्राणरक्षक स्वास्थ्य उपकरणों (जैसे हृदय संबधी बीमारी में लगाया जाने वाला पेसमेकर आदि) की बिक्री में डॉक्टरों की मिलीभगत से कई-कई गुना ज्यादा लाभ कमाया जा रहा है। इस सम्बन्ध में हुई कतिपय शिकायतों पर एमएफडीए यानी महाराष्ट्र फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने अपनी ताजा जांच में पाया कि ऐसे उपकरण बनाने वाली कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने भारतीय वितरकों को कई गुना ज्यादा दाम वसूलने की अनुमति दे रखी है बशत्रे इस तरह प्राप्त धन को डॉक्टरों को प्रभावित करने में लगाया जाय। एमएफडीए की रिपोर्ट में अमेरिका की ऐसी एक कंपनी मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन के बारे में बताया गया है कि कैसे इसके द्वारा निर्मित स्वास्थ्य उपकरण, जिसे डीईएस कहा जाता है, को इसकी भारतीय शाखा इंडिया मेडट्रॉनिक प्रालि को 30,848 रुपये में बेचा गया। इस शाखा ने इस उपकरण को एक वितरक को 67,000 रुपये में बेचा और इस वितरक ने इसे एक अस्पताल को एक लाख रुपये से अधिक में बेच दिया। ध्यान रहे कि इस उपकरण पर अधिकतम विक्रय मूल्य एक लाख बासठ हजार रुपये मुद्रित है! ज्यादा संभावना है कि अस्पताल ने अपने मरीजों से अधिकतम मूल्य ही वसूला होगा। इस विधा के जानकार बताते हैं कि ऐसे उपकरणों की उत्पादन लागत महज चार- छह हजार रुपये ही आती है लेकिन उन्हें मरीजों को 40 गुना अधिक मूल्य पर बेचा जाता है! जाहिर है, लूट का यह खेल डॉक्टरों की सहमति के बिना संभव नहीं। यूं मरीजों से लूट का यह खेल पूरी दुनिया में जारी है और इसकी जडें़ उन देशों में हैं जो अपने को विकसित और ज्यादा सभ्य बताते हैं। महाराष्ट्र एफडीए की जॉच में पता चला कि अमेरिका की मेडट्रॉनिक, जॉनसन एंड जॉनसन तथा एबॉट जैसी फार्मा कंपनियां दुनिया के सामने बेशक लंबी-लंबी बातें करती हैं लेकिन अपने देश में डॉक्टरों और वितरकों को घूस देकर मरीजों के शोषण के मामले में कई- कई बार दंडित हो चुकी हैं। इसी वर्ष मई में मेडट्रॉनिक इनकापरेरेशन ने अमेरिकी डॉक्टरों को घूस देकर उपकरण बिकवाने के आरोप में लगे जुर्माने पर सरकार को 61 करोड़ रुपये दिया था। यह कंपनी ऐसा करने की आदी है और 2011 में भी इसने लगभग डेढ़ अरब रुपये का जुर्माना इन्हीं आरोपों के चलते भरा था। एबॉट ने भी इन्हीं आरोपों के चलते 34 करोड़ तथा जॉनसन की सहयोगी तथा चार अन्य कम्पनियों ने 2007 में पौने दो अरब रुपये का जुर्माना दिया था लेकिन भारत में ये कंपनियां अपना और अपने धंधेबाज सहयोगियोें की जेबें भरने में बेहिचक लगी हैं। 0 0 ( Rastriya Sahara 22 N0v 2014)

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