Tuesday, March 29, 2011

भारतीय राजनीति में ईमानदारी की संभावना --- सुनील अमर

एक पैंसठ साल पुराने संप्रभु राष्ट्र में अगर चारो तरफ से यह शंका उठे कि क्या देश की राजनीति में अब भी ईमानदारी की कोई गुंजाइश बची हुई है, तो नि:संकोच मान लेना चाहिए कि यह हताशा की पराकाष्ठा ही है। साथ ही यह भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि बीमारी इलाज की सामान्य सीमाओं को पार कर चुकी है। यह त्रासदी और मारक हो जाती है जब वह देश भारत जैसा तीव्र गति से विकास कर रहा देश हो! तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार भी उतनी ही तेजी से पॉव पसारता है, यह हम अपने देश में देख ही रहे हैं। बीते सप्ताह राजधानी दिल्ली में देश की एक अग्रणी साप्ताहिक पत्रिका द्वारा आयोजित उक्त विषयक संगोष्ठी में वक्ताओं द्वारा जो विचार व्यक्त किए गए, यद्यपि वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाते, फिर भी समस्या का गंभीर विश्लेषण तो करते ही हैं।

हम एक लोकतांत्रिक देश हैं जहाँ राजनीतिक दल जनता से वोट प्राप्त कर सरकारें बनाते हैं। यह वोट प्राप्त करने की समूची प्रक्रिया जितनी साफ-सुथरी होती है, उतनी ही साफ-सुथरी और जबाबदेह सरकार हमें मिलती है। संगोष्ठी में भी वक्ताओं का ज्यादा जोर चुनाव सुधार और उसमें धन का प्रयोग कम करने पर ही था। लेकिन विचार करने की आवश्यकता यह है कि क्या राजनीति में बढ़ती बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए महज धन ही जिम्मेदार है? क्या दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में, जहाँ कि भारत जितना भ्रष्टाचार नहीं है, चुनाव में धन का इस्तेमाल नहीं होता? इस बात पर भी चिन्ता जताई गयी कि तमाम बड़े औद्योगिक घराने अरबों रुपये का चंदा राजनीतिक दलों को विभिन्न प्रकार से देते हैं, और बाद में उसका प्रतिफल प्राप्त करते हैं।

जिस तरह की शासन प्रणाली और चुनाव व्यवस्था हमने अपना रखी है, उसमें धन के उपयोग से बचा नहीं जा सकता। आज जब यह कहा जाता है कि चुनाव सरकारी खर्चे से कराये जॉय तो यह वास्तव में समस्या को सिर्फ एक पहलू से देखना भर ही होता है। चुनाव सरकारी खर्चे से कराने का मतलब यही इतना तो है कि समस्त नामांकन प्रक्रिया, प्रचार सामाग्री, प्रचार वाहन और कार्यकर्ता खर्च को सरकार वहन करे। किसी भी छोटे-बड़े चुनाव में मोटे तौर पर यही खर्च आते हैं, लेकिन चुनाव जैसे कार्यों की थोड़ी बहुत भी जानकारी रखने वाले यह जानते ही होंगें कि ये सारे खर्च तो सिर्फ हाथी के दिखाने वाले दाँत भर हैं। असल में तो इससे कई गुना अधिक और बहुत से रहस्यमय प्रकार के खर्च होते हैं, जिन्हें न तो सरकार पूरा कर सकती है और न कोई प्रत्याशी सरकार को बताना ही चाहेगा। इस प्रकार सरकारी खर्च की व्यवस्था होने के बावजूद यह कह पाना कठिन है कि प्रत्याशी चोर दरवाजों से रहस्यमय खर्चों को नहीं करेंगें।

अमेरिका व ब्रिटेन समेत कई विकसित और पुराने लोकतांत्रिक देशों में भी इसी तरह चुनाव होते हैं और वहॉ भी बड़े औद्योगिक घराने राजनीतिक दलों को उनके आकार और भविष्य के अनुरुप चंदा देते हैं। विश्व के दो प्रमुख और प्राचीन लोकतांत्रिक देश अमेरिका और ब्रिटेन के चुनावों में भी चंदे और स्त्री-देह के धंधो सहित ऐसा कोई अनैतिक कार्य नहीं है जो हर बार न हो रहा हो। ऐसे में यह सोचना कि सरकारी खर्च पर चुनाव कराने से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई क्रांतिकारी सुधार आ जाएगा, गलत ही है। किसी राजनीतिक दल के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ने वाला एक प्रत्याशी मान लीजिए कि पन्द्रह करोड़ रुपये खर्च करता है तो सरकार द्वारा चुनाव खर्च उठाने के बावजूद वह लगभग इतना ही पैसा खर्च करेगा और तब वह अनैतिक कार्यों पर ज्यादा खर्च करेगा।

तो क्या चुनाव सुधारों की चर्चा या कोशिशें की ही नहीं जानी चाहिए? राजधानी दिल्ली में सम्पन्न हुई उक्त गोष्ठी में हमेशा की तरह विश्व की कई नामचीन हस्तियों के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ नेता सहित देशी फिल्म उद्योग के सितारे आदि भी मौजूद थे। इनमें से बहुत सारे व्यक्तित्व ऐसे थे जो ऐसी राजनीतिक समस्या के लिए उपयुक्त उपाय सुझा सकते थे, लेकिन एक बँधो-बॅधाए कार्यक्रम और एक तयशुदा फ्रेम में कुछ नपा-तुला भर देने के अलावा कोई कर ही क्या सकता है! और जिस समस्या पर इतने हाहाकारी ढ़ॅंग से आयोजन किया गया, उसे दूर करने के लिए प्रमुख रुप से जिम्मेदार देश की दोनों राजनीतिक पार्टियॉ-काँग्रेस व भारतीय जनता पार्टी वहाँ मौजूद थी। वे दोनों ही एकमत थीं कि चुनाव में धन बल का प्रयोग रोका जाना चाहिए। इस पर वहॉ मौजूद देश के प्रमुख उद्योगपति और पूर्व सांसद राहुल बजाज ने कहा भी कि जब दोनों प्रमुख राजनीतिक दल एक ही राय के हैं तो फिर इस चुनाव सुधार को लागू करने में कोई अड़चन होनी ही नहीं चाहिए, लेकिन जैसा कि सभी जानते हैं कि उक्त गोष्ठी में व्यक्त किये गये विचार मंचीय भाषण से अधिक कीमत के नहीं है।

वास्तव में देश में जिस राजनैतिक ईमानदारी की बात की जा रही है वह बहुआयामी है। ऐसा नहीं है कि अगर सिर्फ राजनेता सुधर जाऐगें तो भ्रष्टाचार और अनैतिकता दूर हो जाएगी। आज सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि देष की जनता ने भी प्राय: भ्रष्टाचार को व्यवस्था के एक अंग की तरह स्वीकार कर लिया है। व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना ही इस नयी पीढ़ी से खत्म होती जा रही है। यही कारण है कि आज राजनीति में बाहुबल और धनबल का इतना व्यापक प्रभाव हो गया है कि हमारी विधायिकाऐं अपने अपराधी सदस्यों के भार से कराह रही हैं। चुनाव के दौरान हम में से सभी जानते हैं कि कौन प्रत्याशी कैसा है, लेकिन हमारे प्रभावित हो जाने के अब बहुत से कारण हो जाते हैं। दुनिया के जो देश हमारे लोकतंत्र के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं, वहॉ से हम अब उन प्रतिरोधक तत्त्वों को नहीं ग्रहण कर रहे हैं जो इस जन-शासन को साफ-सुथरा रखते हैं। अमेरिका-ब्रिटेन सरीखे देषों मे मतदाताओं की जागरुकता के कारण अपराधी या दागी तत्त्वों को राजनीतिक दल प्रत्याशी बनाने की हिम्मत नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें पता होता है कि मतदाता न सिर्फ ऐसे प्रत्याशी को नकार देगें बल्कि ऐसे राजनीतिक दलों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यह भय अपने देश के राजनीतिक दलों को नहीं है, इसलिए वे न सिर्फ अपराधियों को चुनाव जितवा रहे हैं बल्कि सार्वजनिक मंचों से उनकी शान में कसीदे भी पढ़ते हैं।

राजनीतिक दलों को धन मिलने का बड़ा स्रोत देश के उद्योगपति हैं। अभी गत दिनों संसद में पेश बजट में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बताया कि चालू वित्त वर्ष में कार्पोरेट घरानों को पॉच लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट मिली है, और सरकार की इस मद मे प्राप्ति कुल पौने आठ लाख करोड़ की ही है! उद्योगपति राजनीतिक दलों को चंदे देकर बाद में उनसे तमाम प्रकार की सहूलियतें हासिल करते हैं। यही हाल नेताओं व नौकरशाहों के परिजनों द्वारा बनाए गये तथाकथित ट्रस्टों का भी है जो एक तरफ तो भारी भरकम चंदा पाते हैं और दूसरी तरफ चंदा देने वाले न सिर्फ छूट पाते हैं बल्कि नेताओं व नौकरशाहों का अनुग्रह भी। यह एक बड़ा खेल है जो न सिर्फ राजनीति को बल्कि पूरे देश और समाज को प्रभावित करता है।

भारतीय राजनीति में ईमानदारी की संभावनाऐं तभी बन सकती हैं जब स्वच्छ छवि वाले लोग चुनाव मैदान में आयें। सारा दोष पैसे का ही नहीं है। पैसा तो माध्यम तलाशता है। मतदाताओं के आग्रह जब तक नहीं बदलेंगे, बदलाव की संभावना क्षीण ही रहेगी। अपने देश में जनता के हल्ला-गुल्ला मचाने के लिए तमाम अवसर जान-बूझ कर शासकों ने छोड़ दिये हैं ताकि उसका गुस्सा इकठ्ठा न होने पाये। यही अवसर जिन देशों में नहीं हैं वहॉ इन दिनों बदलाव की क्रांति आई हुई है। ( Also published in Hum Samvet Features on 28 March 2011)

Friday, March 25, 2011

ईमानदारों का भ्रष्टाचार--- सुनील अमर

वर्ष 1996 से लेकर अभी तक, देश को ऐसे प्रधानमंत्री मिले जिनकी योग्यता और ईमानदारी का समूचा विश्व कायल रहा है। जिस वक्त देश स्व. नरसिम्हाराव के शासनकाल की अभूतपूर्व राजनीतिक गिरावट से लज्जित और चिंतित था, श्री अटल बिहारी वाजपेयी के आगमन ने जबर्दस्त आशा का संचार किया था। कालान्तर में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सरदार मनमोहन सिंह ने देश की बागडोर संभाली। लेकिन इस बीते डेढ़ दशक की समयावधि ने शायद ही ऐसी कोई गिरावट, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन को बाकी छोड़ा हो, जो देश में घटित न हो गया हो! ऐसे में क्या यह उम्मीद अभी बाॅधी जानी चाहिए कि कोई अगला ईमानदार प्रधानमंत्री इन कालिखांे को पोंछ कर हममें नए हौसले जगाएगा?

भूमंडलीकरण के ख़तरे --- सुनील अमर

बीती सदी के उत्तरार्ध्द में हम अगर तेजी के साथ भूमंडलीकरण की तरफ बढ़े थे तो इस सदी के शुरुआती दशक से हम वैश्विक गाँव का आनन्द उठाने लगे हैं। वैचारिक समरसता ही नही, बल्कि रहन-सहन और खान-पान में भी हम विश्व बिरादरी का अंग बने हैं। पढ़ाई-लिखाई और कार्य-व्यापार का क्षेत्र सारी धरती पर फैल जाने के कारण ऐसा लगने लगा कि 'प्लानेट अर्थ' के हम सभी निवासी अब एक ही हैं। इस लिहाज से अगर हम सभी सुख और लाभ में भागीदार होते हैं तो निश्चित ही विपत्ति में भी सहभागी होना पड़ेग़ा। गत सप्ताह जापान में आई लघु प्रलय ने कम से कम यही संदेश दिया है। उस विनाशकारी भूकंप और जल-प्रलय के छीटे अपने देश तक पड़ने की आशंकाऐं तो व्यक्त की ही जा रही हैं, लेकिन शेयर मार्केट जैसे व्यवसाय और दैनिक जीवन की अन्य गतिविधियों पर तो उसका असर तत्क्षण ही पड़ना शुरु हो गया है। यह कहना असंगत न होगा कि आज एक देश की जलवायु भी दूसरे देश पर असर डालने लगी है।

जापान में जो त्रासदी आई हुई है, ऐसी कोई भी प्राकृतिक आपदा दूसरे देषों के व्यापार को ही सबसे पहले प्रभावित करती है। अपने देश में भी एक तरफ हताहतों पर दु:ख और अफसोस जताने के साथ-साथ मदद भेजने की तैयारियाँ हो रही हैं और दूसरी तरफ इस बात के ऑकलन भी किये जा रहे हैं कि वहाँ और यहाँ मिलाकर अपना कितना नुकसान हो रहा है। यहॉ यह समझने की बात है कि भूमंडलीकरण का मुख्य उद्देश्य ही आर्थिक है। बाकी जो कुछ भी सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या नैतिक-अनैतिक वहॉ से आया या आ रहा है वह इस आर्थिक अभियान की पीठ पर सवार होकर ही आ रहा है। विनाश की पहली खबर के साथ ही यह ऑंकलन देश की मीडिया में आने लगे थे कि जापान में पुनर्निमाण व नवनिर्माण के कार्यों में भारत को काफी बड़ा व्यवसाय मिल सकता है! ये आर्थिक उद्देश्य अगर खत्म कर दिये जाँय तो यकीन मानिये भूमंडलीकरण वापस 30 साल पहले की स्थिति में पहुँच जाय।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भूमंडलीकरण ने ज्ञान-विज्ञान और रोजगार के असीमित अवसर उपलब्ध कराये हैं। लेकिन इसे लिप्सा ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि देश के कार्य-व्यापार तो भूमंडलीकरण से पहले भी चल ही रहे थे। विश्व का शायद ही कोई ऐसा विकसित या विकासशील देश हो जहॉ भारतीय अच्छी-खासी संख्या में न हों। अभी मिस्र और लीबिया आदि देशों में चल रहे सत्ताविरोधी आन्दोलनों के कारण वहॉ संकट में फॅसे भारतीयों को लाने का सिलसिला चल ही रहा है कि इसी बीच जापान में हुई भयानक त्रासदी ने एक और संकट हमारे सामने खड़ा कर दिया। जापान में लगभग 25,000 भारतीय रहते हैं।

अब इधर जैसी कि खबरें आ रही हैं, जबर्दस्त भूकम्प और भयानक समुद्री तूफान यानी सुनामी आने के कारण जापान में भारी तबाही हुई है और जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। परमाणु रिएक्टर्स उड़ गये हैं और विद्युत व्यवस्था चरमरा गई है। इसकी वजह से उत्पादन भी ठप हो गये हैं। अपने देश में मीडिया बता रहा है कि कार, मोटर सायकिल, मशीनरी सामग्री, तथा दवा आदि की आपूर्ति पर भारी असर आने वाले दिनों में पड़ने वाला है। यह भूमंडलीकरण और अर्थ-प्रधान विचारधारा की देन है कि अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने कारखानों के तमाम हिस्सों को एक स्थान पर न लगाकर उन अलग-अलग देशों में लगाती हैं जहॉ वैसे उत्पादों के लिए सुविधा व रियायतें हों। मसलन अगर कोई जापानी कम्पनी भारत में कार बनाने का कारखाना लगाये हुए है तो इसका मतलब यह हरगिज नहीं होता कि वह समूची कार यहीं हिंदुस्तान में ही बन रही होगी! हो सकता है कि उसका इंजन जापान में बनता हो, पहिए हिंदुस्तान में, ढ़ाँचा अमेरिका में और आंतरिक सजावट के सामान किसी और देश में। कारखाना लगाने के शुरुआती दौर में तो प्राय: ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अन्य देशों में चल रहे अपने कारखानों का माल मँगाकर मात्र 'असेम्बलिंग' करके ही बेचना शुरु कर देती हैं।

यही हाल दवा कम्पनियों का भी है। आज वैश्विक परिस्थितियाँ जिस तरह हो गई हैं, उसमें यह कहा ही नहीं जा सकता कि कोई भी उत्पादक सिर्फ अपने ही देश के भरोसे काम चला सकता है। आज दवाओं पर खोज कहीं और हो रही है, उनका कच्चा माल कहीं और बन रहा है, दवाऐं कहीं और तैयार हो रही हैं और उनकी बिक्री सारी दुनिया में हो रही है। यह प्रक्रिया एक तरफ सुविधा तो देती है, लेकिन जैसा कि हम देख रहे हैं कि एक देश पर आया प्राकृतिक या मानवकृत संकट कैसे दूसरे अन्य देशों को भी तत्काल प्रभाव में ले लेता है। भूमंडलीकरण के इसी तरह के संकट हाल के डेढ़-दो दशक में हम संक्रामक बीमारियों के सन्दर्भ में देख रहे हैं कि कैसे एक देश में हुई संक्रामक बीमारी वायु-वेग से दुनिया के अन्य देषों में फैल जाती है! मैड काऊ डिजीज हो या बर्ड फ्लू, जापानी इंसेलायटिस हो स्वाइन लू, ऐसी तमाम संक्रामक बीमारियाँ अब देखते ही देखते एक देश से दूसरे देश में फैल जाती हैं और जब तक इनकी पहचान कर बचाव के उपाय तलाशे जाते हैं तब तक सैकड़ों-हजारों बेगुनाह अपनी जान खो बैठे होते हैं।

भूमंडलीकरण ने अपराध की न सिर्फ प्रकृति बदली बल्कि उसे विस्तृत फलक भी दिया है। आज जैसा कि हम अपने देश में देख रहे हैं इसने हर तरह के आर्थिक या अर्थ आधारित अपराध को फैलाने में कारगर भूमिका निभाई है। हालॉकि ऐसा कहने से इसके अन्य तमाम गुणों को अस्वीकृत नहीं किया जा रहा है, लेकिन जिस तरह से आर्थिक अपराधों को शरण देने और वैश्विक आतंकवाद को मदद करने की अंतर्राष्ट्रीय खबरें इन दिनों आती हैं, वह भूमंडलीकरण के ही कारण संभव हो सका है। यह भूमंडलीकरण ही है जो आज असफल, धोखाधड़ी या अपराध में तब्दील हो रहे वैवाहिक सम्बन्धों का पहाड़ खड़ा कर रहा है। खाद्यान्न की किल्लत हो, मँहगाई की सुरसा डायन हो, परमाणु विकिरण का पूरी दुनिया के सिर पर मंडराता खतरा हो या ईंधन का नित नया संकट, इसमें भूमंडलीकरण की भूमिका से कौन इनकार कर सकता है!

वास्तव में, जब हम बहुत तेज चलते हैं तो तेज दुर्घटना की संभावना भी बनी ही रहती है। आज जिस तेज रतार युग में हम प्रवेश कर चुके हैं, वहाँ से वापस लौटना तो मुमकिन नहीं, लेकिन इस बात की आवश्यकता जरुर महसूस होती है कि उड़ान भरने से पहले न सिर्फ अपने परों को तौल लिया जाय बल्कि कहॉ उतरा जायेगा, इसका भी निर्धारण कर लिया जाना चाहिए। विकास की धीमी गति उतनी तकलीफदेह नहीं होती जितनी कि तेज विकास की नियंत्रणहीनता। क्या यह सच नहीं है कि आज उपर वर्णित तमाम व्याधियों के हम स्वयं ही जनक हैं? जापान के ताजा घटनाक्रम के सिलसिले में देश के प्रधानमंत्री का संसद में यह आश्वासन बहुत राहतकारी रहा है कि न सिर्फ जापान में हमारे देश के सभी लोग सुरक्षित हैं, बल्कि देश के भीतर भी हमारे सभी परमाणु उपक्रम पूरी तरह नियंत्रण में हैं। यद्यपि यह एक प्राकृतिक सच है कि विकास हमेशा कीमत मॉगता है लेकिन सतत् सजगता से हम उस कीमत को भी प्राकृतिक बनाकर रख सकते हैं। जापान में विकास की जो कीमत चुकाई जाती हम देख रहे हैं वह बहुत ही आप्राकृतिक है और षायद इसीलिए रौद्र और भयावह भी। समय आ गया है कि विकास से भी पहले इस तरह के विनाश से बचने के उपाय खोजे जॉय।( Published in Humsamvet Features on 21 March 2011)

Thursday, March 17, 2011

पं. बृजनारायण चकबस्त (अल्लामा इकबाल के दोस्त शायर )  कृष्ण प्रताप सिंह

उर्दू में आधुनिक कवितास्कूल के संस्थापकों में से एक पं. बृजनारायण चकबस्त अल्लामा इकबाल के दोस्त तो थे ही, चकबस्त की रचनाओं के संग्रह ‘सुबह-ए-वतन’ के सम्पादक शशिनारायण ‘स्वाधीन’ की मानें तो ‘इकबाल से कम बड़े शायर भी नहीं थे।’स्वाधीन लिखते हैं, ‘यह अलग बात है कि जिन्दगी उनके लिए छोटी पड़ गयी और उन जैसे शायर की नोटिस जिस तरह से ली जानी चाहिए थी, नहीं ली गयी...... अब तक उनके बारे में बहुत कम लिखा गया है। वे उर्दू शायरी के भविष्य थे। उनमें गजब की सांस्कृतिक निष्ठा थी और उर्दू फारसी पर उन्हें समान अधिकार था।’
इकबाल और चकबस्त में एक और चीज कामन थी: दोनों का सम्बन्ध कश्मीर की जमीन से था। चकबस्त के कश्मीरी मूल के सारस्वत ब्राह्मण पुरखे पन्द्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में आ बसे थे। उनके पिता पं.उदितनारायण, जो स्वयं भी कविताएं करते थे, फैजाबाद(उ.प्र.) में डिप्टी कलेक्टर थे। अंग्रेजी राज में डिप्टी कलेक्टर वह सर्वोच्च पद था जो किसी भारतीय को मिल सकता था। फैजाबाद में ही 19 जनवरी, 1882 को चकबस्त का जन्म हुआ लेकिन पांच साल बीतते-बीतते 1887 में पिता के देहान्त ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि उनके परिवार को दर-बदर होकर लखनऊ चले जाना पड़ा। वहीं कश्मीरी मुहल्ले में रहते हुए चकबस्त ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कैनिंग कालेज से कानून की पढ़ाई पूरी की। 1905 में विवाह, 1906 में पत्नी की मृत्यु और 1907 में पुनर्विवाह उनके जीवन की इससे पहले की घटनाएं हैं।
जल्दी ही वे लखनऊ के सफल वकीलों में गिने जाने लगे। साहित्य के एक बहुचर्चित मामले में उन्होंने प्रसिद्ध कवि दयाशंकर कौल ‘नसीम’ का बचाव किया था। नसीम पर आरोप था कि वे झूठ-मूठ ही खुद को ‘गुलबकावली’ का रचयिता बताते हैं। वकालत करते हुए चकबस्त ने कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में खुलकर भागीदारी की। इनमें स्वराज का आंदोलन भी शामिल था। समाज सुधार के आंदोलनों में उनकी दिलचस्पी इस तथ्य से समझी जा सकती है कि कश्मीरी ब्राह्मणों के समुदाय में पहली बार आगरा में एक विधवा विवाह हुआ तो उन्होंने उसकी प्रशंसा में अपनी ‘बर्के-इस्लाह’ शीर्षक रचना में कहा - गम नहीं दिल को यहां दीन की बरबादी का। बुत सलामत रहे इंसाफ की आजादी का। और देश की आजादी क्या है? उन्हीं से सुनिए: तलब फिजूल है कांटों का फूल के बदले। न लें बहिश्त, मिले होम रुल के बदले।
इस संकल्प के चलते वकालत की सफलता उनको बांध कर नहीं रख सकी। वे स्वतंत्रता संघर्ष और उर्दू साहित्य के विशद अध्ययन में सक्रिय हो गये। खासकर मिर्जा गालिब, मीर अनीस और आतिश की कविताओं से वे बहुत प्रभावित थे। इकबाल तो खैर उनके दोस्त ही थे और इस दोस्ती की हद यह थी कि इकबाल मुम्बई में मालाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रेटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो चकबस्त को साथ ले जाते थे। वहीं धनराज महल में शाम की महफिलें जमतीं तो चकबस्त झूमझूम कर अपने कलाम सुनाते। तब मशहूर वकील तेजबहादुर ‘सप्रू’ अफसोस जताते कि सर मोहम्मद इकबाल और चकबस्त जैसे महानुभावों को अपना समय कानून व कविता के बीच बांटना पड़ता है।
जिन्दगी और मौत को परिभाषित करने वाला चकबस्त का एक शेर आज भी बहुत लोकप्रिय है - जिन्दगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब। मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशाँ होना। अवध में किसी को अपने ख्यालों की आजादी पर जोर देना होता है तो वह भी ‘चकबस्त’ को ही उद्घृत करता है-जुबां को बन्द करें या मुझे असीर करें मेरे ख्याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते। इसी सिलसिले में ‘चकबस्त’ आगे कहते हैं- चिराग कौम का रोशन है अर्श पर दिल के। इसे हवा के फरिश्ते बुझा नहीं सकते। और सच पूछिए तो उनकी काव्य प्रतिभा का उत्स उनकी राष्ट्रीयता की इस भावना में ही है। वे राष्ट्रीय चेतना से भर देने वाले ऐसे कवि हैं जो ‘तहजीब के दरख्तों के तवील सायों को’ अपनी कविताओं की शक्ल में हमारे लिए छोड़ गया है। उनके समकालीनों ने उन्हें इसके लिए बहुत सराहा है कि अपने लखनवी होने पर गर्व करने वाले चकबस्त के निकट मुल्क की बरबादी ही अफसोस का सबसे बड़ा वायस थी - गुरूरो जहल ने हिन्दोस्तां को लूट लिया। बजुज निफाक के अब खाक भी वतन में नहीं। देश प्रेम की धुन में उन्होंने पारम्परिक उर्दू कविता के मानकों को दरकिनार कर अपने पाठकों को भावप्रधान कविता का सर्वश्रेष्ठ रूप दिया। उनकी धूम भी मची।
चकबस्त ने मुख्य रूप से नज्में रची हैं, हालांकि गजलों के मश्क को वे मजहबे शायराना कहते थे और मसनवी रचने के साथ उनकी लेखनी से पचास गजलें भी निकलीं। उर्दू के गद्य में भी उन्होंने अपने हाथ आजमाए। उनकी कई रचनाएं अनीस के मर्सिये की याद दिलाती है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ट्रांसवाल में शासकों से दुखी भारतीयों की दशा सुधारने के प्रयत्नों में लगे हुए थे तो चकबस्त ने ‘फरियादे कौम’ की रचना की। यह रचना छोटी पुस्तिका के रूप में छपी जिस पर गांधी जी का नाम इस प्रकार दिया गया था - महात्मा मोहनदास करम चंद गांधी की सेवा में/निसार है दिले शायर तेरे करीने पर/किया है नाम तेरा नक्श इस नगीने पर।
इससे पहले पं.विशन नारायण दर की याद में लिखी उनकी नज्म ‘नजराना-ए-रूह’ प्रसिद्ध हो चुकी थी। लखनऊ में कश्मीर के नवयुवकों की सभा के आठवें अधिवेशन में उन्होंने अपनी नज्म ‘दर्दे दिल’ पढ़ी तो कहते हैं कि सारे नवयुवकों का दर्द उनकी आंखों में छलक आया था। 3 सितम्बर, 1911 को महामना मदन मोहन मालवीय और उनके समर्थक हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए चंदा मांगने लखनऊ आए और इस अवसर पर एक बड़ा अधिवेशन हुआ तो चकबस्त की नज्म ‘कौमी मुसद्दस’ ने समां बांध दिया था: जो अपने वास्ते मांगे ये वो फकीर नहीं। तमअ में दौलते दुनिया की ये असीर नहीं। तमाम दौलतें जाती लुटा के बैठे हैं। तुम्हारे वास्ते धूनी रमा के बैठे हैं। सवाल इनका है तालीम का बने मंदिर। कलश हो जिसका हिमाला से औज में बरतर। यहां से जायं तो जायें ये झोलियां भरकर। लुटायें इल्म की दौलत तुम्हारे बच्चों पर।
कई पुराने नेता कांग्रेस से अलग हुए तो चकबस्त ने एक शीर्षकहीन नज्म रची - आंसुओं से अपने जो सींचा किये बागे वतन, बेवफाई के उन्हें खिलअत अता होने को है । मादरे नाशाद रोती है कोई सुनता नहीं, दिल जिगर से भाई से भाई जुदा होने को हैं। कौम की लड़कियों से खिताब करते हुए तो वे अपनी भावनाओं को यह कहने से भी नहीं रोक पाये - हम तुम्हें भूल गये उसकी सजा पाते हैं। तुम जरा अपने तईं भूल न जाना हरगिज।
खाके हिन्द, गुलजार ए नसीम, रामायण का एक सीन (मुसद्दस), नाल ए दर्द, नाल ऐ यास और कमला (नाटक) चकबस्त की अन्य प्रमुख रचनाएं हैं। 1983 में उनकी जन्मशंती के अवसर पर उनका गद्य पद्य का समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। उम्र ने चकबस्त के साथ बड़ी नाइंसाफी की। 12 फरवरी, 1926 को वे रायबरेली रेलवे स्टेशन के निकट अचानक गिर पड़े तो फिर कभी नहीं उठे। कुछ ही घंटों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली। तब वे सिर्फ 44 वर्ष के थे। उनकी जन्मस्थली फैजाबाद में स्थित उनके घर के आधे हिस्से में एक स्कूल संचालित है और आधे हिस्से में उनसे नजदीकी का दावा करने वाले कुछ लोग रहते हैं। न स्कूल और न ही इन लोगों को चकबस्त की स्मृतियों और विरासत के संरक्षण से कोई लेना देना है। उनकी स्मृतियों को संजोने का सिर्फ एक उपक्रम है, वह लाइब्रेरी जिस पर मीर अनीस के साथ चकबस्त का नाम भी चस्पा है।
संपर्क- 5/18/35, बछड़ा सुलतानपुर, फैजाबाद-224001 मो.09838950948

Tuesday, March 15, 2011

भारतीय कृषि को पुनर्भाषित करने की जरुरत -- सुनील अमर

एक ऐसे समय में जब कृषि योग्य जमीन लगातार घट रही हो और उस पर निर्भर होने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो, यह जरुरी हो जाता है कि कृषि की ढाचागत व्यवस्था को नये सिरे से पारिभाषित किया जाय। देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हमें कृषि क्षेत्र में 5 प्रतिशत से अधिक विकास दर की आवश्यकता है, जबकि अभी हम इसके आधो से भी पीछे हैं। ताजा ऑंकलन बताते हैं कि चालू वेर्ष में यह स्थिति बेहतर हो सकती है। कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले 15 वर्षों में खाद्यान्न संकट और बढ़ सकता है तथा उसका मुकाबला करने के लिये कृषि क्षेत्र को सिर्फ पारम्परिक खेती के भरोसे ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें समावेषी कृषि तथा दुग्ध, फल और मांस जैसे कृषि आधारित कुटीर उद्योगों को शामिल किया जाना आवश्यक हो गया है। चालू बजट से पूर्व आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कृषि के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश करते हुए बताया गया है कि दो दशक के भीतर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी आ चुकी है। देश की आबादी के बड़े हिस्से की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए यह तथ्य चिंताजनक हैं।

भारतीय कृषि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ विविधीकरण संभव है। यहाँ अगर छह प्रकार की ऋतुऐं हैं तो दर्जनों प्रकार की मिट्टी भी है, जो प्राय: हर प्रकार की फसल का उत्पादन यहाँ सुगम बनाती हैं। भारतीय उप महाद्वीप को छोड़कर विश्व में अन्यत्र यह संभव नहीं। बावजूद इसके भारतीय कृषि अभी बहुत कुछ पारम्परिक तौर-तरीकों पर ही निर्भर है। हालाँकि पारम्परिक तरीकों ने कृषि को चिंतामुक्त और टिकाऊ बना रखा था लेकिन छोटी होती जा रही जोत, आबादी की विस्मयकारी वृध्दि से उत्पन्न आवश्यकताऐं तथा समाज में बढ़ते धन के महत्त्व के कारण किसान भी अब पारम्परिक खेती के भरोसे नहीं रह सकता। इसी क्रम में यह कहा जा सकता है कि कृषि का आधुनिकीकरण भी पूर्णत: सरकार पर ही निर्भर करता है। कृषि में हो रहे क्षरण और आने वाले दिनों की दिक्कतों का आभास तो बजट पूर्व आर्थिक समीक्षा में कराया गया है लेकिन उससे निपटने के उपायों के बारे में नहीं बताया गया है।

18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थॉमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणतीय तरीके से। मैल्थस के उक्त अनुमान की चाहे जितने तरीके से व्याख्या की जाय लेकिन दुनिया भर में इन दिनों जिस तरह खाद्यान्न संकट दिख रहा है, और जिस तरह इस संकट के हौव्वे की आड़ में मंहगाई बे-रोकटोक बढ़ती जा रही है, उससे निपटने का आधारभूत तरीका कृषि व कृषि आधारित सह-उत्पाद बढ़ाना ही हो सकता है। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विषेशज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त बीमारियों की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चौंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियॉ निर्धारित करनी वाली कुर्सियों पर कृषि विषेशज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए है! ऑल इन्डिया फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर एसोसियेशन के एक प्रवक्ता का दावा है कि देश में ऐसे एक हजार पदों पर नौकरशह काबिज हैं।

अभी पिछले पखवारे रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने एक बयान में कहा कि खाद्य वस्तुओं में आ रही मंहगाई को रोकने के लिये कृषि उत्पादों को बढ़ाना पड़ेगा और इसके लिये तत्काल कदम उठाये जाने की जरुरत है। इसके साथ उन्होंने एक और हरित क्रांति की वकालत करते हुए कहा कि कृषि में औसत उत्पादकता बढ़ाने की आवशयकता है। उन्होंने पंजाब का हवाला देते हुए कहा कि यदि देश के आधो राज्य भी पंजाब की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता को प्राप्त कर लें तो खाद्य वस्तुओं की किल्लत से प्रभावी ढ़ंग से निपटा जा सकता है। यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि जहाँ कृषि उत्पादकता का राष्ट्रीय औसत 1909 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है, वहीं पंजाब का खाद्यान्न उत्पादन 4231 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है! स्वाभाविक ही है कि यदि इतने बड़े अंतर को हम प्राप्त कर लें तो यह राष्ट्रीय कृषि क्रांति नहीं बल्कि विश्व कृषि क्रांति हो सकती है।

अब मूल प्रश्न यही है कि क्या राष्ट्रीय औसत को पंजाब के औसत तक पहुचाया जा सकता है? असल में कृषि उत्पादन और औद्योगीकरण बढ़ाने के जिस तरह के प्रयास पंजाब में आजादी के तुरन्त बाद से ही किये गये, देश के अन्य हिस्सों में उस तरह नहीं हो सका। दूसरे पंजाब में कृषि जोतों का आकार काफी बड़ा है, वहॉ के निवासियों की अन्यान्य स्रोतों से भी पर्याप्त आय है जिसका निवेश वे कृषि में करते हैं और खेती वहॉ उद्योग सरीखे की जाती है। इन तमाम कारणों में कृषि जोतों का बड़ा होना ही सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। पंजाब में खेती का पर्याप्त मशीनीकरण हो चुका है और आय अधिक होने के कारण वहाँ मानव श्रम पर भी देश के अन्य हिस्से के मुकाबले ज्यादा खर्च किया जाता है। इसके बजाय देश के अन्य हिस्से में स्थिति यह है कि तीन चौथाई से अधिक किसान लघु और सीमान्त कृषक की श्रेणी में आते हैं। इनके लिये खेती बमुश्किल अपने खाने के लिये धान व गेहूं पैदा कर लेना ही है। ऐसी खेती करने वाले अधिकांश किसान अपने खाली समय में मजदूरी भी करते हैं और गणना होते समय वे किसान और मजदूर या श्रमिक दोनो श्रेणियों में गिने जाते हैं! अभी बीते दिसम्बर माह में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने एक रपट जारी कर कहा कि अब आधे से भी कम लोग यानी सिर्फ साढ़े 45 प्रतिशत लोग ही कृषि पर निर्भर रह गये हैं। यह हालत कृषि के खोखलेपन को बताती है।

सह कृषि के रुप में बागवानी, मत्स्य पालन, पशुपालन, कुक्कुट पालन, मधुमक्खी पालन तथा फूड प्रोसेसिंग आदि अनेक कार्य शामिल हैं जिनसे न सिर्फ पारम्परिक कृषि पर बोझ कम होता है बल्कि वे उत्पादों में भिन्नता लाते हैं और कृषि का विकल्प भी बनते हैं। अफसोस है कि इनमें से अधिकांश पदों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्हें खेती-बारी का कोई ज्ञान ही नहीं है। कृषि आज भी देश की प्राथमिक आवश्यकता है और संसद में पेश ताजा ऑंकड़ों के अनुसार देश के कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिकों में लगभग 57 प्रतिशत लोग कृषि में ही समायोजित हैं ! स्थिति यह है कि देश में इस वक्त कोई किसान आयोग ही नहीं है। कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाँधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। भारतीय कृषि सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन योजना भर नहीं बल्कि एक समृध्द परम्परा रही है। इसे सामूहिक खेती के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता। राष्ट्र की सामाजिक समरसता इससे बनती है। आज भी देश के गाँवों में जाकर इस संस्कृति को देखा जा सकता है। ( Published in Humsamvet Features on 14 March 2011, humsamvet.org.in )

Thursday, March 10, 2011

मेरी लम्बी कविता - '' इस तरह कहानी बन जाती ....'' के कुछ अंश ---

''...तुम देते मुझको उम्र कैद, आजीवन कारावास मुझे,
मैं सब कुछ सह लेता लेकिन तुम दे डाले वनवास मुझे !
तुम अग्नि-परीक्षा ले लेते, मैं ख़ुशी-ख़ुशी से जल जाता |
इस तरह कहानी बन जाती , कुछ तुम कहती, कुछ मैं कहता |
एक उम्र बिता दी है हमने,दिल में घुट कर, मन में घुटकर,
न चैन तुम्हें, न चैन हमें, क्या कुछ पाए हम-तुम जुड़कर |
मैं गैर सही, पर तुम कहती, तो मैं रस्ते से हट जाता |
इस तरह कहानी ....
मैं लड़ा बहुत इस दुनिया से, सह गया बहुत कड़वे ठोकर,
तुम साथ रहे , मैं जीत गया, पर हार गया तुमको खोकर !
तुम पारस थे गर छू देते, मैं भी कंचन मन हो जाता ||
इस तरह कहानी बन.....'' ( सुनील अमर )

Wednesday, March 09, 2011

डाकघरों पर भी डालें जवाबदेही ----- सुनील अमर

विकास और जन कल्याणकारी योजनाओं के बेहतर और तेज क्रियान्वयन के लिए गत वर्ष केन्द्र सरकार ने यह तय किया था कि देश के ऐसे गांवों को जिनकी आबादी दो हजार से अधिक हो, वहाँ बैंकिंग सेवायें उपलब्ध करायी जांय। लगभग 60,000 ऐसे गांवों को चिन्हित कर सरकार ने बैंकों को हिदायत दी थी कि वे वित्तीय वर्ष 2011-12 की समाप्ति तक ऐसा कर लें। ताजा खबर यह है कि एक साल बीतने के बावजूद बैंकों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है। इसके विपरीत अभी गत माह केन्द्रीय वित्त मंत्री के साथ हुई बैठक में बैंकों ने यह कहते हुए हाथ उठा दिया कि इसमें भारी पूंजीनिवेश की दरकार है और यह कि अगर सरकार ऐसा कराना चाहती है तो पहले इसके संसाधन हेतु पर्याप्त धन उपलब्ध कराये।
मौजूदा समय में किसी भी प्रकार की योजना का क्रियान्वयन बैंकों के सहयोग बगैर संभव नहीं है। इसी के साथ यह भी सच है कि सरकार की मर्जी के बगैर किसी प्रकार की बैंकिंग भी देश के भीतर संभव नहीं है। जहाँ तक राष्ट्रीयकृत बैंकों की बात है, वे सरकार के ही उपक्रम हैं और सरकारी पूँजी से ही संचालित होते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस प्रसंग में किसकी मंशा खराब है? बैंक, विशेषकर सरकारी बैंक, अब सिर्फ पैसा जमा करने-निकालने या कर्ज देने के ही माध्यम नहीं रह गये हैं, बल्कि जनकल्याण की तमाम योजनाऐं जो केन्द्र या प्रदेश सरकारों द्वारा चलायी जा रही हैं, उनका क्रियान्वयन भी इन्हीं बैंकों द्वारा ही हो रहा है। बात अगर ग्रामीण और कृषि क्षेत्र की करें तो सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने जब 23 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो उसके बाद ही तमाम कृषि योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों की मार्फत हुआ और हरित क्रांति संभव हुई। ‘अधिक अन्न उपजाओ’ उस दौर का बहुत चर्चित सरकारी नारा था।
बीते एक दशक में न सिर्फ बैंकिंग के स्वरुप में आमूल-चूल परिवर्तन आया है, बल्कि सरकारी बैंकों को निजी और भारी भरकम विदेशी बैंकों से तगड़ी चुनौती भी मिली है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकारी बैकों ने भी अपने तौर-तरीकों में निजी क्षेत्र की तरह ही परिवर्तन किये हैं। ये परिवर्तन व्यावसायिक प्रवृत्ति के हैं और इनसे सरकारी मंशाओं को दिक्कत पहुँचती है। सरकारी योजनाऐं, प्रायः ही राजनीतिक लाभ से प्रेरित रहती हैं, इसलिये बैंक प्रबंधन और सरकार के बीच अपने हितों को लेकर अक्सर ही खींच-तान चलती रहती है। ताजा प्रसंग भी इसी नफे-नुकसान पर टिका हुआ है। असल में इधर के दो दशक में कृषि, स्व-रोजगार, लधु-उद्यम और जनकल्याण को लेकर दर्जनों सरकारी योजनाऐं शुरु की गयीं जिनका क्रियान्वयन सरकारी बैंकों की ही मार्फत हो रहा है।
हाल के वर्षों में ग्राम पंचायतों के बैंक खाते, मनरेगा में लाभार्थियों के बैंक खाते, छात्रों के वजीफे, शून्य धनराशि पर सबके खाते खोलने की सरकारी हिदायतें, विधवा और वृद्धावस्था पेंशन, गन्ना किसानों का भुगतान, तथा सरकारी कर्मचारियांे को वेतन और पेंशन आदि के कारण निःसन्देह बैकों की ग्रामीण शाखाओं पर कार्य भार बढ़ा है। इसके विपरीत शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण के बहाने शीर्ष प्रबन्धन ने स्टाफ काफी कम कर दिया है। जाहिर है कि इन सबका असर बैंकों के कामकाज पर पड़ रहा है और इधर बैंकों में निष्प्रयोज्य खाते, बिना लेन-देन वाले ऋण खाते (एनपीए- नान परफार्मिंग एकाउन्ट) तथा भारी संख्या में न्यूनतम धनराशि वाले खातों की संख्या में खासी वृद्धि हुई है। इससे बैंकों का काम तो बढ़ा लेकिन लाभ बढ़ने के बजाय घट गया, क्योंकि ऐसे ज्यादातर खातों में पैसा आते ही पूरा का पूरा निकाल लिया जाता है। ऐसे में जब सरकार उनसे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखा खोलने या गांवों को बैंकों से जोड़ने की बात करती है, तो जाहिर है कि यह घूम-फिर कर सरकार पर ही आयद होता है कि वह इन बैंकों से किस तरह काम लेना चाहती है!
यही हाल बीमा कम्पनियों का भी है। बीते एक दशक से कृषि, स्वास्थ्य, पेंशन और जीवन बीमा को लेकर तमाम सरकारी योजनायें चलायी गयी हैं। इस प्रकार बीमा कम्पनियांे की भी स्थिति बैंकों सरीखी ही हो गयी है। आगामी बजट की तैयारियों के सिलसिले में बीते माह केन्द्रीय वित्त मंत्री के साथ बैंक व बीमा कम्पनियों के शीर्ष अधिकारियों की बैठक में उक्त मसले उठाये गये और मांग की गयी कि आगामी बजट में इसके लिये सरकार प्रावधान करे, जिस पर वित्त मंत्री ने सधा हुआ जबाब दिया कि कुछ किया जाएगा। अब देखना यह है कि यह प्रावधान कृषि के लिए निर्धारित बजट से कटौती करके किया जाएगा या इसके लिये अलग से व्यवस्था की जायेगी। पिछले बजट में कृषि ऋण के लिये महज 3.7 लाख करोड़ की धनराशि का प्रावधान था। इस बार इसमें कुछ खास बढोत्तरी की उम्मीद नहीं है। अब अगर इसी में से सरकार बैंकों और बीमा कम्पनियों को गांवों में उतरने के लिये भी व्यवस्था करेगी तो निश्चित ही दोनों कार्य प्रभावित होंगें। कृषि के लिये बजट में निर्धारित की जाने वाली धनराशि का हाल भी असल में बेहाल ही होता है। इसका ‘किंग साइज’ हमेशा ही वे उद्योंगपति ले जाते है, जो कृषि व्यापार में लगे होते हैं, और जो कृषि में लगे हैं, उन्हें सिर्फ जूठन मिलती है।
बैंकों का तर्कं अपनी जगह सही हो सकता है कि नयी संस्थापनाओं पर खर्च तो आयेगा ही। देश में छह लाख के करीब गाँव हैं। सबको सर्विस उपलब्ध कराना एक बड़ा काम है और निश्चित ही यह सरकारी दखल के बगैर संभव नहीं हो सकता। बैंकों ने फिलहाल एक बीच का रास्ता निकाला है और वे गांवों में शाखा खोलने के बजाय कमीशन एजेन्ट के तौर पर ‘बिजनेस कारेस्पान्डेन्ट’ रख रहे हैं जो ग्रामीण ग्राहकों और बैंकों के बीच माध्यम का काम करेगा। जाहिर है कि अनपढ़ या बैंकिंग न जानने वाले ग्रामीणों के लिये यह शोषण का औजार ही बन जाएगा। इस एजेन्ट पद्धति से सरकारी मंशा फलने-फूलने से रही।
बैंकों की चूडियाँ कसने के बजाय सरकार वही काम डाकखानों से भी ले सकती है। वास्तव में डाकखानों का काम इधर के वर्षों में काफी कम हो गया है। इसका बड़ा कारण निजी कूरियर कम्पनिया और मोबाइल फोन हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में डाकखाने अभी भी मनीआर्डर पहुँचाने का काम बखूबी कर रहे थे, लेकिन मनीआर्डर का बेतहाशा शुल्क और बैंकों की सी.बी.एस. शाखाओं ने उनका यह काम भी हल्का कर दिया है। इधर ग्रामीण क्षेत्रों के डाकखाने भी कम्प्यूटर और डीजल जेनरेटर से लैस हो गये हैं। उनमें विश्वसनीयता है तथा उन्हें थोड़ा सा और ठीक करके सरकार गांवों के मतलब की बैंकिंग उनसे करा सकती है। आज भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में डाकखाने ही बैंक हैं और अल्प बचत योजनाओं का सबसे बढ़िया क्रियान्वयन कर रहे हैं। अभी बैंक जिस बिजनेस कारेस्पान्डेन्ट को रखने की योजना बना रहे हैं, वे दशकों से डाकखानों में काम कर रहे हैं। डाकखानों के घटते व्यवसाय से चिन्तित उसके हुक्मरानों ने एक अर्से से पोस्टमैनों की मार्फत मोबाइल सिम व टाप अप, गंगाजल, सोने-चाँदी के सिक्के और न जाने क्या-क्या धंधा करने का ऐलान कर रखा है लेकिन उनकी कोई भी योजना न तो जमीन से जुड़ी है और न परवान ही चढ़ रही है। डाकखाने घाटे में हैं। ऐसे में अगर उन्हें सरकार की ग्रामीण विकास व कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन से जोड़ा जा सके तो उचित ही होगा। ( राष्ट्रीय सहारा सम्पादकीय पृष्ठ -- 10 मार्च 2011 )

Tuesday, March 08, 2011

विखंडित होते समाज के खतरे -- सुनील अमर

खबर है कि ताइवान के एक युवा दम्पत्ति को इंटरनेट पर जुआ खेलने की ऐसी लत लग गई कि वे अपने नवजात की देखभाल ही भूल गये और पालने में पड़ी वो एक साल की बच्ची समय पर दूध न पाने की वजह से धीरे-धीरे सूखती हुई मर गयी। पड़ोसियों की शिकायत पर जब पुलिस वहाँ पहुची तो पाया कि मरी हुई बच्ची की बगल में ही उसके माँ-बाप कम्प्यूटर पर जुआ खेलने में खोये हुए थे! बच्ची की ऑखें गड्ढ़े में धँसी लग रही थी और वो सूख कर कंकाल सी हो गयी थी।

इसी के साथ कुछ ताजा देशी खबरें भी हैं - पंजाब पुलिस के एक बर्खास्त डी.एस.पी. ने अपने ही बेटों के साथ मिलकर 40 लड़कियों की अश्लील फिल्म बना डाली! दूसरी तरफ मथुरा के एक कथावाचक ने बीते महीने अपनी ही धर्मपत्नी के साथ अपनी ब्लू-फिल्म बना कर उसकी सीडी तैयार कर ली। पैसे की हवस का आलम यह है कि पंजाब के गुरदास जिले में अपने एन.आर.आई. पति की हत्या के लिये पत्नी ने ढ़ाई लाख रुपये की सुपारी बदमाशों को दे दी जो कि करतूत को अंजाम देने के पहले ही पुलिस के हत्थे चढ़ गये, और बुध्दिजीवियों के अभेद गढ़ कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के एक छात्र ने अपनी दोस्त छात्रा को धोखा देकर छात्रावास में ही उसके साथ अपने शारीरिक संबन्धों की फिल्म बनवा ली!

दैनिक जीवन के विनिमय आसान करने के लिये जिस मुद्रा का आविष्कार किया गया था, वो अब जीवन से भी बढ़कर हो गयी है, ऐसा लगने लगा है। कई बार यह सोचकर हताषा सी होती है कि क्या यह वही समाज है, जिसका निर्माण हम सबका अभीश्ट था? विकास के क्रम में यह अवधारणा मन में थी कि जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान का प्रसार होगा, हम और ज्यादा सभ्य और संवेदनशील होते जायेंगें और तदनुरुप हमारा समाज भी। ज्ञान-विज्ञान के विकास की स्थिति यह है कि आज अपनी ही आविष्कृत तमाम चीजों को हम स्वयं ही ऑख फाड़कर देखते रहते हैं। लेकिन कमोबेश यही हालत हमने अपने समाज की भी बना ड़ाली है। अब तो नित्य ऐसी खबरें आती रहती हैं कि उन पर सहज ही विश्वास नहीं होता। ताइवान में तो जिस बेपरवाही से माँ-बाप ने अपनी बच्ची की जान ली, वैसा तो पागल भी नहीं करते। पागलों को भी अपने बच्चों से प्यार करते देखा जाता ही है। दूसरी तरफ माँ-बाप ही अपने बच्चों की निर्मम हत्या कर डाल रहे हैं, ऐसी घटनायें भी देखने में आ ही रही हैं।

मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि लगभग पूरा समाज ही असामान्य मानसिक स्थिति में जी रहा है। भारतीय ग्रन्थों में तो कहा गया है कि 'महाजनो येन गत: स पंथ:' यानी बड़े लोग जिस राह चलें, वही सही राह है, लेकिन समाज के महाजन यानी संत-महात्मा, विचारक, अध्यापक, डाक्टर, वकील, न्यायाधीश, राजनेता और व्यापारी यही सब आज अधिकांश रुप मे जिस तरह का आचरण उपस्थित कर रहे हैं, वह चिन्तनीय है और उसी तरह की दिशा भी समाज को मिल रही है। समाज निर्माण की प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार और विद्यालयों को माना जाता रहा है क्योंकि वहीं से बच्चों को संस्कार व शिक्षा प्राप्त होती है, जिसे आगे चलकर वे अपने जीवन में व्यवहृत करते हैं। यह प्राथमिक चरण ही आज पूरी दुनिया में व्यवसाय की भेंट चढ़ चुका है। आज स्कूल जाने वाला नन्हा बच्चा भी जानता है कि पैसा क्या चीज है! स्कूल कारखानों में तब्दील हो गये हैं और उनसे निकलने वाले बच्चें एक प्रोडक्ट! पैसे के दम पर तैयार होने वाले अगर आगे चलकर सब कुछ पैसे से ही तौलें तो आश्चर्य कैसा?

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने पूरी दुनिया को एक गॉव सरीखा बना दिया है। इसमें अच्छाइयों का विकिरण तो कम हुआ लेकिन बुराइयाँ तेजी से फैलीं। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि समाज का जो वर्ग कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ है और जिसके बिगड़ने का खतरा ज्यादा समझा जाता रहा, उसकी बजाय हमने देखा कि हर प्रकार से वे लोग ज्यादा बिगड़ गये जो पढ़े-लिखे और सभ्य कहे जाते रहे। क्या यह हैरत की बात नहीं लगती कि डी.एस.पी. स्तर का एक अधिकारी, सैकड़ों लोगो को रोज धर्म-कर्म और संयम का उपदेश देने वाला मथुरा का कथावाचक और जे.एन.यू. जैसी संस्था का एक पोस्टग्रेजुएट छात्र! ये सब पैसा कमाने के लिये उक्त प्रकार के घृणित कार्य करें!

वास्तव में दिन-प्रतिदिन हो रहे आविष्कारों ने जहॉ एक तरफ दैनिक जीवन में सुविधाऐं व सहूलियतें उपलब्ध करायी वहीं उसे हर हाल में प्राप्त करने के लिये लोगो को उकसाया भी। आधुनिक जीवन की आपाधापी और एक-दूसरे से आगे निकल जाने की भावना ने आज तमाम लोगो के मन से उचित-अनुचित का भेद ही मिटा दिया है। विवेक प्राप्त करने के लिये बुध्दि को पहली सीढ़ी माना जाता है लेकिन एक डी.एस.पी., एक स्नातकोत्तर छात्र और एक कथावाचक को बुध्दिहीन तो नहीं कहा जा सकता? फिर इनमें विवेक क्यों नहीं आया?

समाजशास्त्री कहते हैं कि हाल के दो-तीन दशकों में भारतीय समाज में बहुत तेज बदलाव आया है, और इसने खासकर मध्यम वर्ग को तो आमूल-चूल बदल दिया है। इसमें भोगवादी प्रवृत्ति बढ़ी है और तमाम सामाजिक वर्जनाओं को इसने नकार दिया है। जिस सामाजिक दबाव के कारण व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करने से डरता था, वह दबाव ही अब प्राय: खत्म हो गया है। संचार क्रांति के कारण अब यह हवा सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक जा पहुँची है, और वहाँ भी अब नये और पुराने समाज में जबर्दस्त द्वन्द शुरु हो गया है। बहुत से मामलों में तो यह सरे-आम हत्याओं तक का रुप ले रहा है। समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे अपराध के मुकदमों के त्वरित गति से निस्तारित न होने या अभियोजन की कमी से सजा से बच जाने के कारण भी अन्य लोगों के मन में गलत रास्तों को शार्ट-कट की तरह इस्तेमाल करने ललक बनती है। अब तो यह भी देखने में आ रहा है कि अपराध करने वाले व्यक्तियों की भी स्वीकार्यता समाज में बन रही है। ऐसे लोग न सिर्फ चुनाव जीतकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सिरमौर बन रहे है बल्कि एक तरह से शरीफ और 'लॉ एबाउन्ड सिटिजन्स'' को इनके नेतृत्व में रहने को विवष होना पड़ रहा है।

आज के आधुनिक समाज में अपने पडोसी से भी कोई मतलब न रखने की प्रवृत्ति ही उपर उध्दृत की गयी घटनाओं को जन्म देने में मदद कर रही है। अत्यधिक सुविधाभोगी सोच ने हालत ये कर दी है एक ही छत के नीचे रहने वाले परिवार के सदस्य भी एक दूसरे की खबर रखना जरुरी नहीं समझ रहे हैं। आज सामाजिक जवाबदेही ही समाप्त होती जा रही है। इसे फिर से स्थापित करना ही होगा। सुनने में अटपटा भले लगे, लेकिन यह कार्य समाज के वरिष्ठ नागरिकों द्वारा ही बेहतर ढ़ॅंग से शुरु किया जा सकता है, विशेष रुप से सेवानिवृत्त लोगों द्वारा। जब एक आदमी समाज से कुछ लेता है तो उसे समाज को कुछ देना भी पड़ेगा, लेकिन इसके लिये जो बाध्यकारी सामाजिक दबाव था, अफसोस है कि वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा हैं। हम एक तरह से सामाजिक अराजकता की राह पर चल पड़े हैं। इस दिशा में कुछ करने के लिये आज भी देश की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था प्रेरणादायी हो सकती है। यह सुखद है कि वहाँ सार्थक सामाजिक हस्तक्षेप आज भी काफी हद तक सक्रिय है। (Published in Hum Samvet Features on 07 March 2011)

Monday, March 07, 2011

शर्म इनको मगर नहीं आती -- शीबा असलम फ़हमी

अगर किसी सामान्य अपराधी, व्यभिचारी, ज़लिम, हत्यारे, लोभी, झूठे से यह पूछना होता कि भाई तुम ख़ुद ही बता दो कि तुम्हारे साथ कैसे पेश आया जाय, तो उम्मीद थी कि वह थोड़ा-बहुत तो ख़ुद को समझते हुए जवाब देता, लेकिन कठमुल्लों से तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि वे कह देंगे कि हम तो अल्लाह की भेजी गई नेमत हैं इंसानियत के लिए, हमसे वही सुलूक हो जो अवतारों के साथ होता है।
यानी हम तो बे-रोक, बेधड़क दूसरे के विश्वासों की खिल्ली उड़ायेंगें, अपनी सुविधावादी दलीलों से अपने ‘विश्वास’ को ‘वैज्ञानिक’ बतायेंगें, अपनी धार्मिक पुस्तक को दैवीय साबित करेंगें, अपने पैग़म्बर को ही आख़िरी और ईश्वर का सबसे प्रिय बताएंगे, अपनी हिंसा को ‘जेहाद’ बताऐंगे, अपनी मक्कारियों को ‘तक़य्या’ कहेंगे लेकिन जब दूसरे धर्म के मानने वाले यही सब हमारे साथ करे तो हम सुविधावादियों को मानवाधिकार, प्रजातांत्रिक मूल्य, संविधान प्रदत्त अधिकार, इंसाफ़, समानता, स्वतंत्रता, बहुसंस्कृतिवाद, राष्ट्रीय संप्रभुता और इन सबसे बढ़कर ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द-स्वर याद आने लगते हैं। कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुर्क़ा-बैन पर टीवी, अख़बार आदि में अवतरित होकर फ़्रांस की सरकार को लोकतांत्रिक मूल्य की याद दिलाने लगता है। तब इन्हें ज़रा शर्म नहीं आती कि जिस मुंह से यह ज़बर्दस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं ‘चुनाव की आज़ादी’ के आधार पर, उसी मुंह से इन्हें अरब-ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुर्क़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिए, जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है। लेकिन नहीं, इन्हें अरब-ईरान पर उॅंगली उठाने की ज़रुरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है।
ये ख़ुद तो यह मानेंगें की इनके पैग़म्बर इस श्रृंखला के आख़िरी पैग़म्बर हैं और यदि कोई उनके बाद पैग़म्बरी का दावा करे तो उसे जान से मार देना चाहिए। लेकिन यहूदी-ईसाई भी अगर अपने मसीह और पैग़म्बर पर यही विश्वास रखें तो यह उन्हें ‘नामूस-ए-रिसालत’ के क़ानून में मौत की सज़ा सुना देंगें। अगर सरकार कोई रेआयत दिखाए तो इनके अपने फ़तवे तो हैं ही, मारने वाले को लाखों के इनाम की घोषणा के साथ।
ये अपने अल्पसंख्यकों के साथ तो एल्बर्ट ( गोजरा ) और आसिया बीबी वाला सुलूक करेंगे। वह इनके बर्तन में पानी पी ले तो उसे इसाई होने के आधार पर ‘अछूत’ कहकर उसके आत्म-सम्मान को रोंदेंगे, वह मुक़ाबला करे तो उसे झूठे केस में फॅंसाकर सज़ा-ए-मौत तक पहॅुंचा देंगे, लेकिन ख़ुद ये जहाँ अल्पसंख्यक हैं, वहाँ इन्हें अपने भले के लिए विशेष प्रावधान चाहिए।
यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया मे तो ये मैकडोनल्ड, के एफ़ सी, पित्ज़ा हट जहाँ ‘पेपरानी’, ‘सलामी’,‘बेकन’ बेचा जाता है, वहाँ नौकरी कर लेंगे लेकिन अपने मुल्क में एक इसाई को अछूत बनाकर रखेंगे।
दूसरों की इबादतगाहों को नेस्तनाबूद करने को इस दौर में भी एक बहादुरी के कारनामे की तरह शाबाशी के साथ दरसी किताबों में दर्ज करेंगे, लेकिन अगर इनकी इबादतगाह ख़त्म कर दी जाए तो ये उसे लोकतंत्र की हत्या और अक़लियत के अधिकारों का हनन बताएंगे। इन्हें ये नहीं समझ में आता कि भाई जो अपनी विजयगाथाऐं तुम मदरसों में पढ़ा रहे हो, वह दूसरे द्वारा इबादतगाह शहीद करने की ज़रा पुरानी कहानी है, और बाबरी मस्जिद वाली ज़रा नई। अगर पुरानी वाली को ग़लत नहीं कहोगे तो नई वाली को कैसे ग़लत कह सकते हो?

ये इतने भोले हैं कि ख़ुद तो यूरोप, अमरीका, दक्षिणपूर्व एशिया, अफ्रीक़ा में तबलीग़ के जत्थे के जत्थे लेकर जायेंगे और वहाँ के इसाइयों को बताएंगे कि ईसा मसीह आख़िरी पैगम्बर नहीं, मुहम्मद साहब आख़िरी हैं, लेकिन अगर इनके मुल्क में कोई मसीही अपने विश्वास को सर्वोच्च माने तो उसके ऊपर तहाफुज़-ए-नामूस-ए-रिसालत कानून ठोंककर उसे मौत के घाट उतार देंगें। इन लोगों की कैसी तार्किकता है जो यह नहीं समझ पाती कि भाई एक इसाई तो ईसा मसीह को ही सर्वोच्च मानेगा, न कि वह भी मुहम्मद साहब की तारीफ़ करेगा? वह तो अपने दीन और दीनी शख़स्यात को ही आला तरीन समझेगा न? इसके लिए उसे जेल, जुर्माना सज़ा-ए-मौत का मतलब तो यही हुआ कि जहाँ आप हुकूमत में हैं वहाँ ग़ैर-मुस्लिम को मज़हबी आज़ादी नहीं?

इनके अपने टाइप के इस्लाम (अल्लाह बेहतर जाने वो कौन-सा है?) के अलावा शिया, आग़ाख़ानी, बोहरा, अहले हदीस, देवबंदी, वहाबी, सलफ़ी सब आपस में सिर-फुटव्वल करेंगे लेकिन कानून बनाएंगे कि दूसरे मज़हब वालों को कुछ-कुछ ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। इसके पीछे का तर्क है कि हम सोसायटी में अमन चाहते हैं, इसलिए ‘एक मज़हब’ होगा और उसके अलावा कोई आएगा या होगा तो उसके लिए कुछ शर्तें होंगी। मतलब यह कि क़ादयानी, बहाई, हिंदू, सिक्ख, इसाई, पारसी क़ौमों को क़ानूनी हदबंदी मे रखा जाएगा और ये लोग अपनी इबादतगाहों, मज़हबी अरकान वगैरह को छुपा कर करें। वरना ब्लासफेमी क़ानून इन्हें ठिकाने लगा देगा। लेकिन सबसे मज़े की बात यह है कि यह अक़्ल के अंधे पाकिस्तान में ही मज़हबी-दीनी आज़ादी होने का दावा करते हैं। हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक मुसलमान-इसाई-हिंदू-सिक्ख सभी अपने-अपने दीन की तब्लीग़ कर सकते हैं, और इसे कहते हैं मज़हबी-दीनी-आज़ादी। लेकिन ईरान में बहाई-पारसी किस हाल में हैं या पाकिस्तान में शिया-क़ादयानी, बहाई, पारसी किस हाल में हैं, यह किसी से छुपा नहीं। इसमें एक मज़े की बात यह है की अगर आप हिन्दुस्तानी शिया कट्टरवादी से बात करें तो वह पाकिस्तान में चल रहे शिया-मुख़ालिफ़ हरकतों पर तो आंसू बहाएगा, लेकिन इरान में पारसियों, ईसाईयों, क़द्यानियों के प्रति जो असहिष्णुता है उस के पक्ष में तर्क देने लगेगा. यह अजीब समझ है इंसाफ़ और बराबरी की.?

पाकिस्तान का ब्लासफ़ेमी या कुफ्ऱ क़ानून में नामूस-ए-रिसालत का क़ानून इतना गै़र मुकम्मल है कि उसमें कोई भी ग़ैर मुस्लिम महज़ अपना अक़ीदा मानने के लिए कभी भी फंसाया जा सकता है। इसमें ‘तौहीन-ए-रिसालत’ टर्म (अभिव्यक्ति) की कोई परिभाषा या तारीफ़ नहीं बताई गई है। यानी कि हर केस में हर बार नई बहस और नए तर्कों से जुर्म साबित किया जाएगा। एक और बात यह कि आरोपी के कहे गए शब्द कभी दोहराए नहीं जाते इसलिए कोई नहीं जानता कि असल में कहा क्या गया है, जिससे सही फ़ैसला मुमकिन नहीं, तिस पर यह कि इस क़ानून में फंसने-फंसाए जाने वाले को अगर अदालत बरी भी कर दे तो समाजी तौर पर शिद्दतपसंद उसे जीने नहीं देते। वह या तो जेल में मार दिया जाता है, या अदालत के ठीक बाहर, या फिर रास्ता चलते। एक बार इस क़ानून में फंसने के बाद मुल्ज़िम की ज़िन्दिगी बहरहाल तबाह हो जाती है क्योंकि वह समाज से ख़ारिज कर दिया जाता है।
अगर वह ‘ग़ैर-मुस्लिम’ है तो उसके पूरे मुहल्ले-बस्ती पर ये आगज़नी, लूट, क़त्लेआम करते हैं। ख़ुद पाकिस्तान मानवाधिकार कमिशन की रिपोर्ट बताती है कि गोजरा (2010) में तो मस्जिद से एलान हुआ कि इसाइयों का ‘क़ीमा बना दो।’ और यह सब हुआ एक सरासर झूठे आरोप में, जब अख़बार के पन्नों को क़ुरान के पन्ने बताकर क़त्ल-ग़ारत शुरु की गई। ऐसे हालात में जब पूरी कौम एक मज़हब है और मुट्ठी भर लोग ग़ैर-मज़हबी, वहाँ क्या बहुसंख्यको को ही अपने दीन की हिफ़ाज़त के क़ानून चाहिए? ये कैसे तर्क हैं जो ज़ालिम को हिफ़ाज़त देते हैं और मज़लूम को बेबस छोड़ देते हैं?
इसमें एक तथ्य यह भी है कि 1986 में जब से कठमुल्ले राष्ट्रपति ज़ियाउलहक़ ने ये क़ानून बनाये तब से ही अचानक कुफ्ऱ के मुजरिम कैसे बढ़ गए? क्या सख़्त क़ानून बन जाने से कोई जुर्म बढ़ जाता है या घटता है?

सीधी सी बात है कि इस क़ानून का इस्तेमाल - जायदाद, पड़ोसी, कारोबारी रंजिशों का बदला लेने के लिए हो रहा है, लेकिन कठमुल्लों, तालिबानों, सिपाह-ए-सहाबा और अनगिनत इस्लामी जमातों की गिरफ़्त के अंधेरे कुंए में गिरता पाकिस्तान इस वक़्त लाचारी की मिसाल बन चुका है जहाँ सही-ग़लत का शऊर ही नहीं बचा। मक़्तूल गवर्नर सलमान तासीर ने क़त्ल से कुछ वक़्त पहले ही अपने 24 दिसम्बर, 2010 के ट्वीट में लिखा था कि ‘‘एक इंसान और मुल्क को इस बिना पर इंसाफ़-पसंद समझा जाएगा कि वह अपने से कमज़ोर के साथ कैसा था, न कि ताक़तवर के साथ।’’ इसी तरह के दूसरे मामलों के मद्देनज़र मौजूदा सरकार तो इस लचर और अन्यायी क़ानून में बदलाव चाहती है पर कूढ़मग़ज़ कठमुल्लों, जो अब वहां बहुसंख्या में हैं, के आगे वह नतमस्तक है।
इसलिए पाकिस्तान की मौजूदा सूरतेहाल का मामला क़ौमी न होकर सारी दुनिया के मुसलमानों को असरअंदाज़ करता है, ख़ासकर उन मुसलमानों को जो इस्लामी मुल्कों में नहीं रहते। और दूसरी कौमें, दीन, अक़ीदे उनकी इबादत में, रहन-सहन मे रोड़े नहीं अटकाते। लेहाज़ा हिंदुस्तानी मुसलमानों, ख़ासकर आलिमों का यह फ़र्ज़ बनता है कि कठमुल्लों द्वारा कुफ्ऱ के नाम पर जो गै़र इस्लामी हरकतें ताक़त के ज़ोर पर की जा रही हैं, उन पर खुलकर अपनी राय दें, उनकी इसलाह करें और इसे साबित करें कि कैसे यह ग़ैर मुकम्मल क़ानून इस्लाम को शर्मिंदा कर रहा है।
इन मसलों पर चुप रहना या बोलना अब अपनी सुविधा का मामला नहीं रह गया है। यह हर उस मुसलमान का फ़र्ज़ है, जो दूसरे मुल्कों में हर तरह की आज़ादी का फ़ायदा उठा रहा है। हिंदुस्तानी मुसलमान/उलेमा/इदारे/तन्ज़ीमें अगर इस पर ख़ामोश रहे तो उन्हें बाबरी मस्जिद, सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र आयोग, और आज़ादी, हक़, इंसाफ़ पर भी ख़ामोश हो जाना चाहिए।
हिंदुस्तानी मौलानाओं को यह समझना पड़ेगा कि पाकिस्तान में असहिष्णुता के इस दौर में उन्हें सीधे-सीधे हस्तक्षेप कर उस सहिष्णु इस्लाम को स्थापित करवाने में रोल अदा करना है जिसका हवाला वे भारत में सरकार, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मीडिया और सिविल सोसायटी को देते रहते हैं क्योंकि सेक्यूलरिज़्म यह नहीं होता कि आप जहां अल्पसंख्यक हैं वहां दूसरे मज़हबों के प्रति सहिष्णु हैं बल्कि सेक्यूलरिज़्म वह होता है जहां आप बहुसंख्यक हैं वहां दूसरे मज़हबों को कितनी जगह और इज़्ज़त देते हैं। आपके लिए यही समय है ख़ुद को, अपने मज़हब को सहिष्णु और इंसाफ़पसंद साबित करने का।

आसिया बीबी का मामला

आसिया बीबी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की एक इसाई मज़दूर महिला है, जो इस वक़्त कुफ्ऱ-क़ानून के तहत सज़ा-ए-मौत की ज़द में है। पंजाब की अदालत ने सज़ा-ए-मौत देकर उसके बेक़ुसूर होने की हर शक ओ शुब्हा की गुंजाइश ख़त्म कर दी।
आसिया बीबी का मामला यह है कि उसने एक आम कुएं से पानी लेकर उस प्याले में पिया जो वहां बहरहाल सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए रखा रहता था। उसके पानी पीने पर वहां मौजूद दूसरी औरतों ने सख़्त एतराज़ किया कि वह ग़ैर मज़हब है और काफ़िर है। इस बात का विरोध करते हुए आसिया ने प्रतिवाद में इस्लामी मान्यताओं का ज़िक्र किया। उन औरतों का आरोप है कि आसिया बीबी ने मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताख़ी की।
जबकि आसिया ने अपने दर्ज बयान में इसका खण्डन किया है और यह भी कहा कि उसको इस कानून में उसके इसाई होने की वजह से फंसाया जा रहा है।
ख़ैर, मामला दर्ज हुआ और मुकदमा चला। अदालत में उसे कुफ्ऱ का दोषी मानकर सज़ा-ए-मौत सुना दी गई। इस बीच ख़ुद पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने इस फ़ैसले के खि़लाफ़ तेज़ आवाज़ उठाई है।
लेकिन गवर्नर सलमान तासीर की जुर्रतमन्दाना हत्या की वजह से सेक्यूलर हलक़े दहशत में हैं। दूसरी तरफ़ कठमुल्लों के हौसले बुलंद हैं। मीडिया, इंटरनेट आदि पर इसके द्वारा बाक़ायदा अपील जारी की जा रही है कि पाकिस्तानी सरकार सेक्युलर जमातों और अल्पसंख्यकों के दबाव में आकर कहीं सज़ा-ए-मौत को कम न कर दे।
अल्पसंख्यकों और सेक्युलर जमातों की दलील है कि -
- आसिया बीबी और उस पर इल्ज़ाम लगाने वाले, दोनों ही ग़रीब, जाहिल और मज़दूर तबक़े से हैं इसलिए इनमें ब्लासफ़ेमी-ला की बारीकियों की बेदारी बहुत ज़्यादा नहीं रही होगी।
- दूसरे यह कि आसिया बीबी एक ग़रीब इसाई ख़ातून है, उसे अपने हालात का बेहतर अहसास है, भला वह कैसे बहुसंख्यक ग्रुप के सामने इतनी सीनाजोरी कर सकती है, जबकि वह ऐसा करने से इंकार भी कर रही है।
-तीसरी बात यह कि ख़ुद ब्लासफ़ेीम-ला अरसे से सवालों के घेरे में है क्योंकि वह न सिर्फ़ मज़हबी अल्पसंख्यकों बल्कि ख़ुद कमज़ोर सुन्नी मुसलमानों को भी क़ानूनी शिकंजे में फंसाने के लिए कई बार इस्तेमाल किया गया है।
यही नहीं, जायदाद हड़पने, ज़ाति-रंजिश और सियासी पटखनी देने के लिए भी इस क़ानून का बे-जा इस्तेमाल होता रहा है। आसिया बीबी की गुर्बत, माइनारिटी स्टेटस और महिला होने के नाते साफ़ ज़ाहिर है कि वह एक संगीन आरोप और हालात का सामना कर रही है।
इंसानियत-पसंद समाज को चाहिए कि वह न सिर्फ़ उसे सज़ा-ए-मौत से बचाने के इंतज़ाम करे बल्कि उसे जेल या बाहर जो भी ख़तरा है उसे देखते हुए, उसे, उसकी दो बेटियों व पति को किसी दूसरे सेक्युलर मुल्क में शरण लेने का भी बंदोबस्त करे, जिससे आसिया बीबी और उसके परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

गोजरा मामला

31 जुलाई 2009 को पंजाब के गोजरा इलाके़ में एक शादी में शराब पीकर हंगामा कर रहे युवक को रोकने से पैदा हुए बवाल को कुरान की बेहुर्मती का मामला बताकर ईसाई बस्ती के 50 से अधिक घर जला दिए गए, 9 ईसाइयों को मौत के घाट दिया गया। सरकार ने प्रभावशाली क़दम उठाते हुए 61 दंगाइयों को गिरफ़्तार किया और पीड़ितों को मुआवज़ा दिया।

हैदराबाद मामला

दिसंबर 2010, हैदराबाद के जाने-माने डॉक्टर नौशाद अली वलीयानी के पास मुहम्मद फ़ैज़ान नाम का मेडिकल रिप्रेज़ेनटेटिव अपने विज़िटिंग कार्ड पेश करता है। डाक्टर वलियानी उसे कूड़े के डिब्बे में डाल देते हैं। अगले दिन फ़ैज़ान और उस के साथी डॉक्टर के दफ़्तर पर ही उसे बुरी तरह पीटते हैं और फिर पुलिस के हवाले कर देते हैं कि इसने पैग़म्बर इस्लाम के नाम को कूड़े में डाला। लेकिन शहरी तन्ज़ीमों के दबाव के चलते उस पर ब्लासफ़ेमी के आरोप हटाने पड़े।

ब्लासफ़ेमी क़ानून से सम्बंधित आंकड़े-
1986 - 2005 तक के आंकड़े
धर्म..................आरोपी..............................मामले..................संदेहास्पद................कुल.................प्रतिशत
मुसलमान..........286................................170 ........................90.........................376.................... 50
अहमदी .............259 ................................79..........................04.........................263.....................35
इसाई................80..................................70............................09.........................89......................12
हिंदू..................12..................................07..........................................................12.......................2
अतिरिक्त..........04..................................04............................02...........................06......................1

इस क़ानून के बनने से पहले 1947 से 1985 तक महज़ 7 मामले ही आए थे, जिनमें तौहीन-ए-रिसालत का मामला उठा था।
-- प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका 'हंस' फ़रवरी 2011 से साभार.