Wednesday, November 24, 2010

''शर्म हमको मगर नहीं आती '' -- सुनील अमर

क़ाबलियत और हुनर नापने के पैमाने भी किस तरह राजनीति के मोहताज़ होते हैं, इसे TIMES पत्रिका के ताज़ा फ़ैसलों से जाना जा सकता है. लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं, क्योंकि वे पश्चिम में रहकर भी पूरब की तरफ नहीं देखते, और हम पूरब वालों को, पश्चिम के सिवा और कोई दिशा मालूम ही नहीं है!
इंदिरा गाँधी और हिलेरी क्लिंटन की भला क्या तुलना हो सकती है ? नेट पर तो बहुत से भाई विदेश मामलों के जानकर भी होंगे, उनसे मेरी गुज़ारिश है कि अगर हिलेरी, इंदिरा गाँधी से 20 ठहरती हों तो कृपया मेरा भी ज्ञानवर्धन करें! हिलेरी छठे स्थान पर और इंदिरा गाँधी 9वें स्थान पर ! बेशर्मी की भी हद होनी चाहिए या नहीं? जिस सदी की चर्चा की गयी है, उसमें क्या थीं हिलेरी ? याद है किसी को ? हाँ, उनकी एक बात ज़रूर याद है कि उन्होंने किस तरह चेहरे पर भारी शर्मिंदगी का भाव लिए हुए अमेरिकन टीवी पर अपने लम्पट पति (और तब राष्ट्रपति भी ) की लम्पटता को माफ़ कर अपने परिवार को टूटने से बचा लिया था !
लेकिन काहे की बेशर्मी ,जब अभी कुछ महीनों पहले इससे भी ज्यादा बेशर्मी करके नोबल वाले हटे हैं ! इराक,अफ़गानिस्तान को ठंडा करने, पाकिस्तान को उजाड़ने,भारत को अस्थिर करने और इरान तथा कोरिया आदि को लगातार हड्काने के कारण अमेरिका के राष्ट्रपति को उन्होंने विश्व शांति का नोबल दे दिया है ! अब इसके बाद भी शर्म नाम की चीज के लिए क्या कोई जगह बचनी चाहिए? ज़रा गौर करिए , मदर टेरेसा अगर भारत की न होकर किसी पश्चिमी देश में पैदा हुई होतीं तो क्या वे 22वें स्थान पर रखी गयी होतीं? यकीन मानिये,वे जेन अडम्स के स्थान यानि पहले नंबर पर होतीं, लेकिन क्या करें ये times वाले, कहाँ से लायें वह आँख जो सही देख सके !
और उनको ज़रूरत भी क्या है ऎसी परवाह करने की ? पाँव तक सर झुका कर उनके हर काम पर कोर्निश करने के लिए हम हमेशा तैयार जो रहते हैं!
शर्म तो, वास्तव में हमें आनी चाहिए, लेकिन आती ही नहीं ! शायद शरमाती है भारत आने में ! 00

Monday, November 22, 2010

किसी को भी बोलने से नहीं रोका जाना चाहिए ---- सुनील अमर

संघ परिवार वैसे तो अपने स्थापना-काल से ही मार-पीट और खून-खराबे में विश्वास रखता रहा है, लेकिन 06 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस और वहां प्रेस वालों से मार-पीट करने के बाद से संघ ने इसे अपना एक मात्र ट्रेंड ही बना लिया है. अब किसी भी वैचारिक विरोध के स्थान पर संघ के लठैत मार-काट पर ही उतारू हो जाते हैं, ऐसा देखने में आ रहा है. अब क्योंकि कोई भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल संघ के ऐसे गुंडों पर सख्ती नहीं करता, इसलिए यह गुंडागर्दी बढ़ती ही जा रही है.
इस देश में सुश्री अरुंधती रॉय को किसी भी विषय पर बोलने का उतना ही अधिकार है,जितना देश के किसी भी नागरिक को, और रॉय उतनी ही अपने क्रिया-कलापों के लिए स्वतंत्र हैं, जितना संघ प्रमुख मोहन भागवत अपने को समझते हैं. भागवत की मर्जी , वे चाहें तो अपने को कम स्वतंत्र समझें, लेकिन अरुंधती रॉय या जो कोई भी भारतीय अपने विचार प्रकट करना चाहे, उसे देश के संविधान ने यह आज़ादी दे रखी है, और वह ऐसी आज़ादी के लिए किन्हीं भागवतों का मोहताज नहीं है!
बुद्धि का जवाब बुद्धि से दिया जाना चाहिए, लेकिन जब बुद्धि ख़त्म हो जाती है तो स्वाभाविक ही हाथ-लात और डंडा-गोली चलने लगती है. सुश्री अरुंधती की बहुत सी बातों से बहुत से लोग सहमत नहीं हैं ( मैं खुद भी ) लेकिन संघ या कहीं के गुंडे अपने डंडे के बल पर किसी का बोलना या देश में कहीं आना-जाना रोक दें, यह प्रशासन के मुंह पर तमाचा है,और यह अगर शासन की मर्जी नहीं है तो बार-बार ऐसी वारदातें क्यों हो रही हैं देश भर में? जितना सुश्री अरुंधती बोलती हैं, उसका हज़ार गुना तो स्वयं संघ बोलता रहता है, और ऐसा नहीं है कि संघ को देशवासियों ने कोई अलग से अधिकार दे रखा है! संघ की स्थिति भी देश में वैसी ही है, जैसी कि सुश्री रॉय या देश के अन्य निवासियों की.
संघ को अगर गलत फ़हमी है कि वह एक बड़ा संगठन है, तो उसे जानना चाहिए कि देश और संविधान सबसे बड़े संगठन है. बोलने का हक़ ही तो लोकतंत्र है !

Wednesday, November 17, 2010

मोहल्ला ब्लॉग-- पुलिस की साजिश को आप साफ साफ देख सकते हैं

17 NOVEMBER 2010
♦ विनीता पांडे

(मेरे बचपन के साथी हेम चंद्र पांडे की हत्या को सरकार सही ठहराने की कोशिश कर रही है। खुफिया एजेंसियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये पत्रकार अपने काम में जुटे हैं। इसलिए हेम की पत्नी बबीता के बयानों को ज्यादा अखबारों में जगह नहीं मिल पायी। सभी दोस्तों से अपील है कि नीचे दिये गये बबीता के इस बयान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। अगर आप पत्रकार हैं, तो इसे जगह-जगह प्रकाशित करने की कोशिश भी करें : भूपेन)


आंध्रप्रदेश पुलिस मेरे पति हेम चंद्र पांडे के बारे में दुष्प्रचार कर फर्जी मुठभेड़ में की गयी उनकी हत्या पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस मामले में न्यायिक जांच किये जाने के बजाय लगातार मुझे परेशान करने की कोशिश की जा रही है। पुलिस ने शास्‍त्रीनगर स्थित हमारे किराये के घर में बिना मुझे बताये छापा मारा है और वहां से कई तरह की आपत्तिजनक चीजों की बरामदगी दिखायी है। आंध्रप्रदेश पुलिस का ये दावा बिल्कुल झूठा है कि मैंने उन्हें अपने घर का पता नहीं बताया। पुलिस के पास मेरे घर का पता भी था और मेरा फोन नंबर भी लेकिन उन्होंने छापा मारने से पहले मुझे सूचित करना जरूरी नहीं समझा।

मैं अपने पति हेमचंद्र पाडे के साथ A- 96, शास्त्री नगर में रहती थी। हेम एक प्रगतिशील पत्रकार थे। साहित्य और राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उनके पास मक्सिम गोर्की के उपन्यास और उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा जैसे रचनाकारों की ढेर सारी रचनाएं थीं। इसके अलावा मार्क्सवादी राजनीति की कई किताबें भी हमारे घर में थीं। मैं पूछना चाहती हूं कि क्या मार्क्सवाद का अध्ययन करना कोई अपराध है? पुलिस जिन आपत्तिजनक दस्तावेजों की बात कर रही है, उनके हमारे घर में होने की कोई जानकारी मुझे नहीं है। मेरे पति का एक डेस्कटॉप कंप्‍यूटर था लेकिन उनके पास कोई लैपटॉप नहीं था। उनके पास फैक्स मशीन जैसी भी कोई चीज नहीं थी। वहां गोपनीय दस्तावेज होने की बात पूरी तरह मनगढ़ंत है। मुझे लगता है कि पुलिस मेरे पति की हत्या की न्यायिक जांच की मांग को भटकाने के लिए इस तरह के काम कर रही है। मैं पूछना चाहती हूं कि सरकार क्यों नहीं न्यायिक जांच के लिए तैयार हो रही है?

मैं अपने पति की हत्या के बाद काफी दुखी थी, इस वजह से मैं शास्त्रीनगर के अपने किराये के घर में नहीं गयी। मैं कुछ दिन अपनी सास के साथ उत्तराखंड के हलद्वानी और अपनी मां के पास पिथौरागढ़ में थी। मकान मालकिन का फोन आने पर मैंने उन्हें बताया था कि मैं वापस आने पर उनका सारा किराया चुका दूंगी। अगर उन्हें जल्द घर खाली कराना है तो मेरा सामान निकालकर अपने पास रख लें। मैं बाद में उनसे अपना सामान ले लूंगी। अगर हमारे घर में कोई भी आपत्तिजनक सामान होता, तो मैं उनसे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहती।

मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि पुलिस इस तरह की अफवाह फैलाकर क्या साबित करना चाह रही है। मुझे शक है कि वो मेरे पति की हत्या को सही ठहराने के लिए ही ये सारे हथकंडे अपना रही है। मैं मीडिया से अपील करना चाहती हूं कि वो आंध्रप्रदेश पुलिस के दुष्प्रचार में न आएं और मेरे पति के हत्यारों को सजा दिलाने में मेरी मदद करे..

Monday, November 15, 2010

:- इसी बहाने -: आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस

आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है! तो इसी बहाने प्रेस की आज़ादी पर थोड़ी सी चर्चा क्यों न कर ली जाय? रिवाज भी पूरा हो जाय और फैशन तो आजकल ये है ही !
आज़ादी एक बहु आयामी शब्द है, लेकिन कुल मिला कर आज़ादी तो आज़ादी ही है और इसका कोई विकल्प नहीं होता!
इसी तरह ये भी समझ लेना जरूरी है कि आज़ादी दी नहीं जा सकती, हमेशा उसे लेना ही पड़ता है, बना कर रखना पड़ता है ! जहाँ तक प्रेस का सवाल है,तो अगर आप प्रेस के मालिक हैं,तो अलग चीज हैं, अगर मालिक नहीं हैं तो आपको भी अपनी आज़ादी लेनी पड़ेगी. मालिक आज़ादी दे ही नहीं सकता. आज़ादी ही देनी हो तो काहे का मालिक !
पाठक और पत्रकार, यही प्रेस की आज़ादी के पहलू हैं और ये खुद को आज़ाद कर लें तो फिर सभी मालिक बेचारे ही हो जाएँ. मालिक की अपनी आज़ादी बनी रहे, इसके लिए वह पाठक और पत्रकार के बीच तमाम तरह की दुरभिसंधियां करता रहता है. सरकारें भी मालिक ही होती हैं, और मालिक, मालिक का साथ देगा ही ! लेकिन इसके उलट प्राय: पत्रकार और पाठक का साथ बन नहीं पाता. और यही प्रेस की आज़ादी का वास्तविक संकट है !
पाठक जब तक पत्रकार की आज़ादी की रक्षा करता रहेगा, पत्रकार भी स्वाभाविक रूप से उसकी रक्षा करता रहेगा. लेकिन इसके लिए जागरूक पाठक होना जरूरी है, पाठकों को जागरूक करने के प्रयास चलते ही रहने चाहिए. और यही प्रेस की आज़ादी की वास्तविक चौकीदारी है ! इसमें अगर गफ़लत हुई तो कभी कुछ और भी सोचना पड़ सकता है .........
इस शे'र के साथ अपनी बात पूरी करना चाहूँगा-- '' वो धूप ही अच्छी थी इस छांव सुहानी से , वह जिस्म जलाती थी, यह रूह जलाती है !! आमीन !
---- सुनील अमर 09235728753

बेचारे अमर सिंह ! ---- -- सुनील अमर

पता नहीं त्रिशंकु की कथा सिर्फ़ मिथक ही है या कोई सच्चाई भी, लेकिन जिस किसी को भी त्रिशंकु का दर्द या छटपटाहट महसूस करने की ललक हो, उसे इन दिनों पूर्व सपा नेता अमर सिंह के भाषणों को जाकर सुनना चाहिए. यह उन लोगों के लिए भी सुअवसर है जो दुखांत कथानकों में रूचि लेते हैं. खीझ, गुस्सा, बेबसी, कुछ बिगाड़ न पाने की लाचारी और '' जो मेरे साथ नहीं वो मेरा दुश्मन '' मार्का अभियान इन दिनों चलाकर नि:संदेह अमर सिंह उन सब में सबसे ऊपर अपना मुकाम बना लिए हैं, जो अब तक तमाम राजनीतिक पार्टियों से निकाले गए हैं. इतना खर्चीला और इतना समर्पित जड़-खोदू कार्यक्रम अभी तक किसी भी निष्कासित नेता ने नहीं चलाया था, अमर सिंह के राजनीतिक पूर्वजों में अब तो शरद पवार, संगमा, नारायणदत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, कल्याण सिंह, उमा भारती, वेनी वर्मा, आज़म खां आदि पता नहीं कितने नाम हैं, लेकिन इन सबमें वह आग कहाँ जो अमर सिंह में है! और यदि आग थी भी तो उससे इन लोगों ने अपनी राह रोशन करने का काम किया, किसी को पलीता लगाने का नहीं. वैसे इन सबमें एक फ़र्क तो है जिसे मैं शायद अंडर इस्टीमेट कर रहा हूँ -- बाकी सबके मूंछें नहीं हैं, लेकिन अमर सिंह के बड़ी-बड़ी हैं! मेरे एक मित्र ने एक बार मूंछों की महत्ता के बारे में बताते हुए कहा था कि ब्रह्मा जी जब सबको अक्ल बाँट रहे थे, तो कुछ खूब बड़ी-बड़ी मूंछ वाले सज्जनों का नंबर आया. ब्रह्मा जी ने कहा कि आप सब भी अक्ल ले लीजिये. उन लोगों ने पूछा कि यह कहाँ रहेगी ? ब्रह्मा जी ने इशारे से बताया कि सिर में. इस पर वे सब बेहद खफ़ा हो गए! नाराज होकर बोले कि -- मूंछ के ऊपर कुछ नहीं. और वे सब क्रोध में भन्नाते हुए लौट गए. ( वैसे इस घटना की सत्यता परख कर ही आप सब बिश्वास कीजियेगा) .
कल इलाहाबाद में अमर सिंह ने जया भादुड़ी बच्चन की जम कर खिंचाई की और उन्हें बिगडैल बताया. उन्होंने क्रोध पूर्वक आश्चर्य व्यक्त किया कि उनके सपा छोड़ने (?) के बाद जया (अमिताभ वाली) ने भी सपा क्यों नहीं छोड़ दी? उन्होंने फैसला भी सुनाया कि इस जया का समर्पण रिश्तों में नहीं बल्कि राजनीति में है! बेचारे अमर सिंह! उनके सामान्य ज्ञान में शायद यह होगा कि जया नाम की सारी स्त्रियाँ एक जैसी ही होती हैं!
लोग कई तरह से अमर सिंह की आलोचना करते हैं, लेकिन उनकी एक खासियत को बिलकुल ही भूल जाते हैं कि वे सूरदास की काली कम्बली हैं जिस पर दूजा रंग नहीं चढ़ता ! 15 साल राजनीति में रहने के बाद भी वे राजनीतिक नहीं हो पाए ! क्या लड़कपन है उनके अन्दर! हालाँकि इसका रहस्य भी वे एक बार बता चुके हैं कि अभी पिछले दिनों उन्होंने एक 16 साल के लड़के का गुर्दा जो लगवा लिया है!
बेचारे अमर सिंह ! जितना श्रम-समय और साधन वे लगभग साल भर से मुलायम सिंह को गरियाने में लगा रहे हैं, उससे अब तक तो वे कोई Political - Outfit खड़ा कर रहे होते. पार्टी से निकाले गए हर नेता के साथ लोगों की सहानुभूति कुछ दिन रहती ही है, चतुर नेता इस समय का लाभ उठा कर अपना राजनीतिक आधार बनाते हैं, लेकिन अमर सिंह जैसे नेता इसका इस्तेमाल सौतिया -डाह निकलने में करते हैं, और जब तक वे इससे छुट्टी पाते हैं , जनता उनकी छुट्टी कर चुकी होती है ! 00

Sunday, November 14, 2010

अथ श्री सुदर्शन जी !! ----- सुनील अमर

महत्वाकांक्षा कितनी ख़राब चीज है, इसे अपने देश के सठियाये और कब्र में पैर लटकाए नेताओं को देख कर जाना जा सकता है. पूर्व संघ प्रमुख सुदर्शन ने भी वही किया है जो इसके पहले संघ ब्रिगांड भैरव सिंह शेखावत, कल्याण सिंह, उमा भारती, जसवंत सिंह और किन्हीं अर्थों में लौह पुरुष भी एक समय में कर चुके हैं. और तो और, कभी संघ के थिंक टैंक रहे (और अब दूध की मक्खी!) गोविन्दाचार्य भी ऐसे काफी काम कर चुके हैं जो संघ की निगाह में उसके लिए नुकसानदेह थे. सुदर्शन संघ जैसे ताकतवर संगठन के प्रमुख रहकर जो रुतबा और हनक भोग चुके हैं, उसकी ललक मन से आसानी से जाती नहीं है.बुढ्ढे हो गए, लेकिन देख रहे है कि उनसे भी ज्यादा बुढ्ढे अभी संगठन में मलाईदार पदों पर काबिज हैं, तो खीज होनी स्वाभाविक ही है.ग़ालिब ने यही तो कहा है कि--'' गो हाथ में जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है. रहने दो अभी सागरो-मीना मेरे आगे !'' अटल बिहारी बाजपेयी को कितने दिनों से आपने देखा-सुना नहीं है? उनकी स्मरण-शक्ति ख़त्म बताई जाती है, वे अब घर से निकलने की स्थिति में भी नहीं हैं लेकिन वे भी भाजपा में शीर्ष पदाधिकारी हैं इन दिनों!
ऐसा नहीं है कि सुदर्शन ने किसी सनक में बयान जारी कर दिया है! बयान जारी करते ही उनकी उम्र बीती है.कैसा असर पाने के लिए कैसा बयान जारी करना चाहिए,ये उनसे बेहतर तो भागवत भी नहीं जानते होंगे! और बात जब सोनिया जैसी महिला की हो, तो सुदर्शन का बयान तो संघ का स्टैंड ही माना जाना चाहिए ! आखिर इससे पहले सुब्रमण्यम स्वामी औए सुषमा स्वराज आदि यही सब तो कह कर हटे हैं !सुषमा तो अपनी सुन्दरता और अपने धर्म की परवाह किये बगैर ही सर घुटाने तक की शर्त लगा चुकी थीं !
एक मुद्दत हो गयी थी सुदर्शन को लाईम-लाईट से लापता हुए.आखिर कब तक वे गुमनामी बाबा बनकर रहते? अब उनके लाइट में आने से संघ को तकलीफ होती है तो उनकी बला से ! सुदर्शन अगर कभी दुष्यंत को पढ़े होंगें तो मन ही मन गुनगुना रहे होंगें -- '' हर तरफ ऐतराज होता है, जब भी मैं रौशनी में आता हूँ !''

Wednesday, November 10, 2010

जानिए इन रंगे सियारों की हकीकत ! -- सुनील अमर

कश्मीर पर इन दिनों नए सिरे से कुछ हल्ला मचाने की कोशिश हो रही है. '' नील: श्रंगाल:'' की कहानी आपने पढ़ी है? वही जिसमे एक सियार का रंग नील से भरे बर्तन में गिर जाने के कारण जब बदल गया तो उसे ये भ्रम हो गया कि अब वह कोई सुपर-नेचुरल चीज हो गया है. बाद में उसी के भाई बंधुओं ने पीट-पीट कर उसकी अक्ल ठिकाने की, और वह फिर से अपने को सियार समझने लगा. देश में इन दिनों कुछ '' नील: श्रंगाल:'' निकल आये हैं और वे अपनी समझ से कुछ बहुत उम्दा किस्म की आवाजें निकल रहे हैं, लेकिन सबको पता है कि वे हुआं-हुआं ही कर रहे हैं. इतिहास गवाह है कि इस तरह का हुआना देर तक नहीं चलता. अंग्रेज चले गए, लेकिन कुछ काले अंग्रेज अब भी इस भ्रम में हैं कि कश्मीर पर वार्ता करनी हो या हिंदुस्तान की सरहद तय करनी हो, खुदाई फौजदार यही लोग हैं !
सब जानते हैं कि कश्मीर की समस्या भारत की वजह से नहीं, पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्तों की वजह से है. कश्मीर का विलय भारत में कैसे और किन परिस्थितियों में हुआ, इस पर काफी श्रम-समय और साधन (यानि मीडिया ) खर्च किये जा चुके हैं. अब जिसे विलय का इतिहास पढ़ने का शौक हो , उसके लिए पर्याप्त load पुस्तकालयों में उपलब्ध है .विलय का इतिहास गिलानी और अरुंधती जैसों से पढ़ना तो ''नानी के आगे ननिहाल के बखान '' वाले मुहावरे जैसा ही है.
दुनिया में 200 के करीब देश हैं. आपको याद आता है कि कोई देश ऐसा हो जहाँ पूरी तरह से सुख-शांति और अमन-चैन हो? हिंदुस्तान के एकाध जिले जितने बड़े देश भी इस दुनिया में है,लेकिन वे भी अशांति और खूंरेजी से ग्रस्त हैं ! कश्मीर को आज़ाद करा कर जिनकी गोंद में उपहार स्वरुप डालने की कोशिश चंद '' नील: श्रंगाल:'' कर रहे हैं, उससे बदतर हालात अगर दुनिया में कहीं हो, तो ये सियार लोग ज़रा हुआं करके ही बताएं ! राष्ट्र विरोधी आन्दोलन चलाने के लिए ये जिन लोकतान्त्रिक देशों का हवाला देकर वहाँ से ऑक्सीजन प्राप्त कर रहे हैं,वहाँ भी शक के आधार पर गोली मार देने तथा जार्ज फर्नांडीज जैसे रक्षा मंत्री और शाहरुख़ खान जैसे सुपर स्टार की नंगी-तलाशी लेने का कार्यक्रम बाकायदा चलता रहता है, अब ये हो सकता है कि हुँवाने वालों को वहाँ कुछ छूट मिली हुई हो !
एक नया शिगूफा छोड़ा जा रहा है कि इस देश में अभी ''राष्ट्र'' की समझ विकसित नहीं हो पाई है! इनका मतलब है कि कश्मीर में जो सेना-पुलिस द्वारा हिंसा की जा रही है, वह एक राष्ट्र का परिचायक नहीं है, हम पूछते हैं कि ब्रिटेन, अमेरिका, श्रीलंका, नेपाल और खुद पाकिस्तान में क्या हो रहा है, दुनिया के और देशों की बात छोड़ ही दीजिये ! राष्ट्र तो है ही हिंसा का पर्याय ! जब आप राज्य की कल्पना करते हैं तो क्या वह हिंसा के बिना संभव है? जब आप किसी भी राष्ट्र-राज्य में रहने का निर्णय करते हैं, तो आप उसकी न्यूनतम-अधिकतम हिंसा को भी कबूल करते हैं, जिसे वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयोग करता है. परिवार को एक रखने के लिए घर का मुखिया भी तमाम यत्न करता ही है. और अगर कश्मीर की जनता अलग होने पर उतर ही आयेगी तो एक नहीं सौ हिंदुस्तान भी अपनी फ़ौज-फाटा लेकर उसे रोक नहीं पाएंगे ! जिनके राज में सूरज नहीं डूबता था, उंनसे लड़ कर एक नंगे फकीर ने हिंदुस्तान को आजाद करा लिया था, क्योंकि जनता भी ऐसा चाहने लगी थी ! लेकिन ये सब क्रांतिकारियों के बल पर होता है, khadyantrakariyon के बल पर पर नहीं !
किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि परिवर्तन करना हो, तो जनता-जनार्दन से अनुमति लेकर आप सही जगह पहुँचिए और फिर अपने विजन का इस्तेमाल करिए. लेकिन यह पैर का पसीना सर चढ़ाने वाला काम है, इतना आसान नहीं की कहीं से फंडिंग होती रहे और हवाई दौरे होते रहें. बीच-बीच में हुँवाने का काम भी होता रहे !
कई बार शक होता है कि कहीं यह भगवा ब्रिगेड की माया से तो नहीं हुंवा रहे हैं ? जिन लोगों ने राम को बेंच लिया, राम-मंदिर को बेंच लिया और अपने वर्तमान को भी बेंच खाए, उन्हें अब कश्मीर ही शायद बढ़िया दुकान दिख रही हो ! किसी तरह तो मुसलमान बरगलाये जाएँ ! कोर्ट के फैसले से तो मुसलमान लड़े नहीं, कश्मीर अलग कराने के नाम पर ही शायद लड़ पड़ें ! तीनों का भला हो जाये-- सपा,भाजपा और पाकिस्तान का ! '' नील: श्रंगाल:'' की तो पांचो घी में औए सर कढ़ाई में है ही ! और सबसे बड़ा मदारी तो कांग्रेस है , जिसने चादर फैला दी है और अब निगाह लगाये खामोश बैठी है कि देखें अपने हिस्से में कितना आता है !!

Tuesday, November 09, 2010

अमीरी बढ़ रही तो गरीबी क्यों नहीं घटती -- Sunil Amar in Rashtriya Sahara 10 Nov.2010

देश के गरीब इन दिनोंे राजनेताओं के फोकस पर है। क्या सत्तापक्ष और क्या विपक्ष, सबकी एक ही चिंता है कि गरीबों के लिए ज्यादा से ज्यादा क्या किया जा सकता है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी तो खैर एक अरसे से देश के गरीबों को जानने-समझने के अपने अभियान पर है ही, अब उनके चचेरे भाई और भाजपा सांसद वरुण गांधी भी गरीबों की चिंता में दुबले होने शुरू हो गये है। यह चिंता एकाध बार तो बड़ी विरोधाभासी भी हो रही है, जब सरकार की तरफ से मोंटेक सिंह अहलुवालिया जैसे बड़े मुंह भी अचानक खुल जाते है। सरकारी योजनाओं में गरीबों के उत्थान की लगातार चर्चा है, तो गैर सरकारी स्तर पर तमाम संगठन इस बात का कयास लगा रहे है कि देश के इतने तीा- गति और विस्मयकारी विकास तथा करोड़ों टन अनाज फालतू (यानी सड़ने के लिए मौजूद) होने के बावजूद गरीबों और भुखमरों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है? देश में किस तरह की आर्थिक नीतियोंे को हमने अपनाया है, इसे दो रपटों से आसानी से समझा जा सकता है। पहली रपट जस्टिस अजरुन सेनगुप्ता आयोग की है जिसने लगभग दो वर्ष पूर्व यह खुलासा किया था कि देश में कुल 83 करोड़, 60 लाख लोग ऐसे है जिनकी औसत दैनिक कमाई मात्र 9 रुपये से लेकर 20 रुपये की ही है। दूसरी रपट नेशनल कौसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की है जिसने मार्च 2010 तक के दस वषोर्ं का अध्ययन कर गत दिनों एक तथ्य उजागर किया है कि मध्य वर्ग से छलांग लगाकर उच्च वर्ग में प्रवेश करने वालों की संख्या में चार गुने की अभूातपूर्व वृद्धि हो गई है। इस आंकड़ेबाजी का सीधा सा मतलब यह हुआ कि देश मेंे गरीब और गरीब हुआ है, तो अमीर और अमीर हुए है। दरअसल हमारी आर्थिक नीतियां ही ऐसी है कि उनसे पहले तो गरीब पैदा होते है, फिर उनको दांये-बांयें से मदद पहुंचाकर सरकार गरीब बनाकर रखती है। एक और उदाहरण देखिये - केंद्र की संप्रग सरकार ने फरवरी 2006 में रोजगार सम्बंधी दुनिया की सबसे अनोखी और एकमात्र योजना राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना प्रारम्भ की। सभी जानते है कि इसमें वर्ष में 100 दिनों का सुनिश्चित रोजगार या फिर भत्ता सरकार देती है। सरकार का मानना था कि ऐसा हो जाने से गांव के बेरोजगारों को घर पर ही रोजगार मिल जाएगा तथा देश के अन्य राज्यों की तरफ उनका पलायन भी रुक सकेगा। नि:संदेह ऐसा हुआ भी है, लेकिन अब एक बड़ा प्रश्न यह भी आ खड़ा हुआ है कि साल के बाकी 265 दिन ऐसे लोग क्या करें? क्योंकि स्थानीय स्तर पर उन्हें दूसरा कोई रोजगार सुलभ नहीं होता। नरेगा का कार्य ऐसा भी नहीं है कि पात्र लोगों को सौ दिन इकट्ठे ही मिल जाता हो और फिर वे किसी अन्य काम की तलाश में कहीं और जा सकें। लिहाजा ऐसे लोग सौ दिन के काम के चक्कर में पूरा साल बिता देते है। इस प्रकार नरेगा, जो कि अब महात्मा गांधी नरेगा कही जाती है, में एक व्यक्ति की औसत दैनिक आमदनी 30 रुपये से भी कम पड़ती है। इस योजना के साथ अगर यह सोचा गया होता कि ऐसे बेरोजगारों को उनके क्षेत्रों में कुटीर-उद्योग स्थापित कर उन्हें पार्ट टाइम कार्य करने की सहूलियत भी दी जाय तो यह औसत दैनिक आमदनी कम से कम सौ रुपये प्रतिदिन की जा सकती थी। कुटीर उद्योगों की स्थापना में असमर्थता के चलते ऐसे लोगों को गाय-भैस, बकरी पालन, कुक्कुट पालन, आदि छोटे-मोटे स्व-रोजगार करने को मदद दी जा सकती है, लेकिन यहां फिर वही नीतिगत बाधाएं आ जाती है कि सरकार ऐसे गरीबों को तो गाय-भैस पालने को कर्ज देगी और सारी सरकारी सहूलियत डेयरी कम्पनियों को दे देगी! इसका सबसे घातक नतीजा यह होता है कि ऐसे गरीबों और बड़ी कम्पनियों के बीच ग्राहक और बाजार को लेकर रस्साकसी छिड़ जाती है। नतीजा सबको पता है!

सरकारें शायद ही कभी इस तरह के तर्को को संज्ञान में लेती हों कि आखिर जिस रफ्तार से अमीरों की अमीरी बढ़ रही है उसी रफ्तार से गरीबों की गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है। एक तरफ अजरुन सेनगुप्ता आयोग की रपट कहती है कि लगभग 85 करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी 20 रुपये से भी कम है, तो दूसरी तरफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया कहते है कि गांवों में अमीरी बढ़ रही है, इसलिए महंगाई पर काबू नहीं पाया जा रहा है! ऐसे में चाहिए तो यह कि या तो राहुल गांधी मोंटेक सिंह से जानकारी प्राप्त करने के बाद ही गांव और गरीबों के अभियान पर निकलें या फिर अहलुवालिया ही राहुल गांधी द्वारा गरीबों के बीच रहकर हासिल किये गये तजुब से कोई सबक लेकर अपना मंतव्य जाहिर किया करें। साधन होने भर से ही साध्य हासिल नहीं हो जाता। साधन के साथ-साथ सलाहियत भी होनी चाहिए
गरीबों की गरीबी दूर करने के तमाम प्रयास सरकारें करती हैं, लेकिन लाभ वे लोग उठा लेते हैं जिनके पास संसाधन होते हैं. इसे ऐसे समझा जा सकता है की देश में लम्बे समय से जातिगत आरक्षण व्यवस्था लागू है लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ वे लोग ही उठा रहे हैं जिनके पास ऐसे संसाधन यानि क्षमता मौजूद हैं. आखिर यही कारण तो है की सरकार इनमे से हमेशा क्रीमी लेएर छांटने की बात करती रहती है. सरकार गरीबों की एक पक्षीय मदद करती है, यही कारण है कि गरीबी ख़त्म नहीं होती.मसलन गरीबों को छोटे-छोटे कर्ज काम ब्याज पर देकर ही सरकार आपने कर्तब्यों कि इतिश्री समझ लेती है. उनके उत्पादों के लिए बाज़ार और वहाँ कि गलाकाट प्रतियोगिता के लिए संरक्षण भी चाहिए, इससे वह कोई मतलब ही नहीं रखती! किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं? सरकार कि मेहरबानी से पहले तो बाजार में हाईब्रिड बीज आ जायेंगें, और जब किसान उनसे अधिक मात्र में पैदावार कर लेगा, तो बाजार भाव ईतना गिर जायेगा कि उसका न बेचना भला! आखिर बाजार पर नियंत्रण रखना किसकी जिम्मेदारी है? हो सकता ही कि किसी दिन मोंटेक सिंह यह भी कह दें कि भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में जो 7000 टन अनाज सडा है (जैसा कि भारत के अतीरिक्त सालिसिटर जनरल मोहन परसन ने गत दिनों सर्वोच्च न्यायलय में बयान दिया ) वह भी किसानों के ज्यादा अनाज पैदा कर देने के कारण सडा है !
दुनिया के हर देश में गरीब हैं, लेकिन जो बिसंगति भारतीय ग़रीबों के साथ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है! पाकिस्तान बगल में ही है लेकिन उसकी गरीबी और दुर्व्यवस्था पर किसे हैरत होती है? किन्तु भारत में, जहाँ आमिर लोग साल भर में 2 लाख 50 हजार करोड़ रुपया भगवानों कि पूजा पर खर्च करते हों ( ध्यान रहे कि मनरेगा का पूरे देश का साल भर का बजट सिर्फ़ एक लाख करोड़ का ही है!), जहाँ 25 करोड़ लोग रोज भूखे सो जाते हों लेकिन 7000 टन अनाज यूँ ही सड़ जाता हो, जहाँ 78000 करोड़ रुपया एक झटके में ही कामनबेल्थ खेलों पर लुटा दिया जाता हो,और जहाँ 45000 करोड़ रुपया इंडियन एयर लाईन्स को घटे से उबरने के लिए दे दिया जाता हो ताकि आमिर लोग सस्ती हवाई यात्रायें कर सकें, वहां जब ऐसी रपटें आती हैं कि गरीब और गरीब ही नहीं बल्कि भुखमरी के कारण भी मर रहे हैं तो व्यवस्था पर अचरज नहीं क्रोध आता है, और क्रोध राहुल, वरुण और अहलुवालिया सरीखे मुन्गेरिलालों पर भी आता है ..
(Sunil Amar in Rashtriya Sahara Delhi on 10 Nov. 2010)

अब मीडिया पर स्यापा क्यों !--- Sunil Amar


अंग्रेजी की ख्यातिलब्ध लेखिका , सामाजिक कार्यकर्त्री (और साथ ही साथ अभिनेत्री भी !) सुश्री अरुंधती रॉय के घर पर एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया और जैसा कि रॉय कह रही हैं कि उन लोगों ने तोड़ - फोड़ भी की. उन्होंने सबूत के तौर पर एक फोटो भी ऊपर लेख में लगाया हुआ है , जिसमे मिटटी की एक हँड़िया टूटी हुई दिख भी रही है.हालाँकि कोई भी उस हँड़िया को देख कर कह सकता है कि वह तोड़ने से नहीं बल्कि गिर कर टूटी हुई ज्यादा लग रही है .खैर ! रॉय ने तोड़ - फोड़ और मीडिया द्वारा इस उपद्रव की अडवांस कबरेज की तैयारी , दोनों की निंदा तुरंत ही की. लेकिन अगले ही दिन से वे सिर्फ़ मीडिया पर फोकस हो गयीं, उन्होंने फैसला कर दिया कि मीडिया अब अपराध का औजार बन गया है. उनकी बड़ी भोली सी शिकायत है कि मीडिया को सब पता था कि कुछ लोग प्रदर्शन के बहाने तोड़-फोड़ करने आ रहे हैं, लेकिन मीडिया ने उन्हें पूर्व सूचना क्यों नहीं दी !
कोई राबड़ी देवी सरीखी महिला ऐसा भोलापन दिखाए, तो हंसी और तरस , दोनों एक साथ आ सकता है.आनी तो नही चाहिए , लेकिन अज्ञानता पर कभी-कभी बेसाख्ता हंसी आ ही जाती है, भले लोग बाद में पछताते भी हैं, तो क्या अरुंधती इतनी अज्ञानी हैं, कि उन्हें मीडिया के दायित्वों और क्रियाकलापों के बारे में कुछ भी पता नहीं है ? क्या मीडिया का काम यही है कि वह अपनी जानकारियों को अपने अख़बार या चैनल में इस्तेमाल करने से भी पहले भोंपू लगाकर चारों तरफ बाँट दे ? फ़र्ज कीजिये कि पुलिस किसी खूंखार अपराधी को पकड़ने जा रही है,और किसी अख़बार वाले को यह पता है तो उसका क्या फ़र्ज बनता है कि वह उस अपराधी को सचेत कर दे कि भाई निकल लो ,पुलिस आ रही है ? तमाम घटनाएँ ऐसी होती हैं, जहाँ पहले से ही मीडिया वाले अड्डा लगा कर बैठ जाते हैं. तो क्या यह बंद हो जाना चाहिए ? या अरुंधती रॉय ऐसा कोई कायदा सिर्फ़ अपने लिए चाहती हैं, कि उनके घर पर कोई प्रदर्शन होना हो, गिरफ़्तारी होनी हो या उनकी मर्जी के खिलाफ कोई बात होनी हो तो मीडिया का कुत्ता पहले ही भौं-भौं करके उन्हें सचेत कर दे ? आप जंग लड़ कर फतह का तमगा भी हासिल करना चाहती हैं और चाहती हैं कि धूल तक न लगे ! हिंदी तो आपको नहीं आती होगी फिर भी किसी से पाठ कराकर श्रद्धेय भगवती चरण वर्मा कि मशहूर कहानी -- दो बाँके -- सुन लीजिये !आप जैसे लोगों के लिए ही लिखा है उन्होंने. नक्सलियों और आदिवासियों जैसों चिरकुटों के बीच रहकर यह महारानियों वाली ठसक कहाँ से आ गयी आपके स्वभाव में ? या यही हकीकत है ? या अब आप अपनी निगाह में ऐसी शख्सियत बन गयी हैं कि हिंदुस्तान के मीडिया को आपका पी. आर . ओ. बन कर ख़ुशी महसूस करनी चाहिए !
मीडिया पेड न्यूज़ छाप रहा है, मीडिया अपराध का औजार बन गया है, मीडिया हर प्रकार से भ्रष्ट बन गया है, मीडिया बड़े लोगों का भोंपू बन गया है, ये सारी गालियाँ कबूल कर ली जाएँगी बस आप इतना भर बता दीजिये कि समाज के किस हिस्से को आपने आदर्श पैमाना मन कर मीडिया वालों को इतनी बेरहमी से नापा है ? सुश्री अरुंधती रॉय ! जिस प्रकार बड़ी पूँजी बिना अपराध के इकठ्ठा नहीं होती, उसी प्रकार बड़े मीडिया तंत्र भी गंगाजल से धुले रुपयों से नही खड़े किये जाते, और इन्ही बड़े मीडिया तंत्र में आपकी जान बसती है, क्योंकि यही आप जैसों को अरुंधती रॉय बनाते हैं, आप बाई-काट क्यों नहीं कर देती इस अपराधी मीडिया का ! आमीन !!

Sunday, November 07, 2010

आखिर चाहती क्या हैं अरुंधती राय ? sunil amar

'' अरुंधती राय को पढ़ने,जानने और उनकी हालिया गतिविधियाँ देखने के बाद अक्सर यह सवाल मन में आता है कि क्या वे दिग्भ्रमित हो गयी हैं ? उनकी पुस्तक ' द गाड ऑफ़ स्माल थिंग्स ' जिसे बुकर पुरस्कार मिला था, से पहले उन्हें लेखन ,समाज सेवा या अभिनय आदि हलकों में कोई जानता नहीं था .बुकर के बाद वे अचानक एक्टिविस्ट हो गयी ,अभिनेत्री हो गयी और इधर कुछ वर्षों से उन्होंने राष्ट्र,संप्रभुता , अखंडता और संविधान आदि पर नुकसान पहुँचाने वाला हमला बोलना शुरू कर दिया है .अरुंधती , जब नक्सलियों की हिमायत करती थी, तो उनके प्रति सहज आदर उत्पन्न हो जाता था कि वे शोषितों ,मजलूमों और बेदखल लोगों की लडाई को अपने रसूख और रुतबे की मदद दे रही हैं,और इक्त्फाक से हमारे हुक्मरान जिस जुबान को पढ़ते - समझते हैं , अरुंधती उसी भाषा में लिखती है !और ये भी कि, वे जिस जुबान की प्रोडक्ट हैं, उस जुबान के अख़बार और पत्रिकाएं उन्हें सर -माथे लेती हैं .
लेकिन ये सब बड़ी धीमी गति से प्रतिफल देने वाली क्रियाएं हैं ! उन्हें तो रातों-रात शोहरत की बलंदी चाहिए ,जिसकी कि उन्हें बुकर ने आदत डाल दी थी ! अब बुकर जैसे शाहाकार तो रोज हो नहीं सकते , उसके लिए खून - पसीना जो एक करना पड़ता है , वो तो है ही, उससे भी ज्यादा खून- पसीना उस जुगाड़ में लगाना पड़ता है , जो बुकर दिलाता है .और बुकर की भी तो एक सीमा है. भारत जैसे देश में बुकर और मैग्सेसे को जानने वाले कितने हज़ार लोग होंगे भला ! इससे वह प्यास नहीं मिटती जो बुकर और अंग्रेजी मीडिया ने जगा दी ! वो जैसा अभिनय करती हैं , उसका भी दायरा बुकर जैसा ही है. यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में कैसी हीरोइनों को लोकप्रियता मिलती है !
तो फिर लोकप्रियता कि भूख मिटे कैसे ? जाहिर है उलटवांसी करके ! बहुत से लोग चर्चा में आने के लिए ऐसा ऊट-पटांग करते ही रहते हैं- पढ़े - लिखे भी और मूर्ख भी . अभी पिछले ही साल तो हमने देखा , कि जसवंत सिंह ने नरसिम्हाराव के कार्यकाल में पीएमओ में सीआईए का जासूस होने की बात कही थी और प्रमाण देने को भी कहा था . जब उनकी खासी चर्चा हो गयी , तो वे प्रमाण देने से साफ मुकर गए .ऐसी कई कथाएं हैं इस देश में ! अरुंधती को भी ऐसा ही शार्ट-कट चाहिए ! पहले वे नक्सलियों पर लगीं , लेकिन नक्सलियों और भुक्खड़ आदिवासियों को समाज का वह तबका कोई भाव ही नहीं देता , जिस सोसायटी को वे बिलोंग करती हैं.आप सबमे से कोई बताये कि नक्सलियों - आदिवासियों पर काम करने से आज तक किसे और कौन सा पुरस्कार मिला है ?गोली के अलावा ! तो फिर ऐसा कोई मुद्दा होना चाहिए जिस पर समाज का प्रभु - वर्ग अस -अस कह उठे ! यह मुद्दा हो सकता है -- शासन -सत्ता -संविधान और भगवान को गरियाने का .
अरुंधती राय तो कश्मीर को इस देश का हिस्सा नहीं मान रही हैं ( कुछ दिन पूर्व उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक में भी सबसे बड़ा लेख ऐसा ही लिखा था , जैसा अभी वे बोली हैं , लेकिन उनकी वो कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी .) कश्मीर को अलग कराने के उनके अभियान का यह ताज़ा प्रयास है . इस तरह के अभियान का एक फायदा उन्हें यह भी मिल जाता है कि पाकिस्तान और अमेरिका तथा अमेरिका के कुछ पिछलग्गू देशों में भी वे चर्चा में आ जाती हैं ! लेकिन अरुंधती जैसी सोच रखने वाले अन्य लोगों को भी एक बात समझ लेनी चाहिए कि उन्ही की सोच वाले कई भाई - बन्धु ऐसे भी हैं जो इस देश का ही अस्तित्व मिटाने की कसम खाए बैठे हैं,और कामयाब नहीं हो रहे हैं ! किसी भी लोकतान्त्रिक देश में संसद से बड़ी जगह और क्या हो सकती है ? अलगाववादियों और आतंकवादियों ने उस पर भी हमला करके देख लिया . क्या बिगाड़ लिए वो भारत नामक इस देश का ?
अरुंधती की योजना एक बार गिरफ्तार होने की है , ऐसा मंतव्य वे कई बार प्रकट भी कर चुकी हैं .नक्सलियों के मुद्दे पर उन्होंने कहा ही था कि चाहे पुलिस उन्हें गिरफ्तार ही कर ले ! दरअसल वे नेताओं की जुबान बोलती हैं , वैसे ही जैसे कि मुलायम सिंह , मुख्यमंत्री मायावती से कहते हैं या मायावती मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से कहती हैं ! वे सब जानते हैं कि गिरफ्तार तो होना ही नही है ,और अगर हो भी गए तो बे-शुमार फायदा मिलेगा ! अरुंधती भारत के प्रभु-वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं , ये लोग जल्दी गिरफ्तार नहीं होते , होते भी हैं तो सोच-समझ कर , नफा- नुकसान का गुणा - भाग करके ! इनकी बातों को वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसे विभूति राय जैसे छिनरों को .कुछ दिन में ये अपनी गति को पहुँच ही जाते हैं !

Tuesday, November 02, 2010

विहिप और उसके संतों की संवैधानिकता ? सुनील अमर

अयोध्या पर हुए उच्च न्यायालय के फैसले का राजनीतिकरण करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर विश्व हिन्दू परिषद इन दिनों अयोध्या में संत समाज की बैठकें लगातार कर रही है। यही इतना नहीं बल्कि जिन पक्षकारों को विवादित जमीन का मालिकाना हक़ मिला हुआ है, उन पर वह दबाव भी बना रही है कि या तो वे अपने हिस्से की जमीन ही उसे सौंप दें या फिर उस पर मंदिर निर्माण करने का काम उसे करने दें। विहिप जो बैठकें करती है, उसमें मौजूद लोगों को वह संत और धर्माचार्य कहकर प्रचारित करती है तथा यह भी बताती है कि ऐसे लोगों की समिति उच्चाधिकार प्राप्त समिति है। विहिप और भाजपा के कई बड़े नेता बहुत बार यह कह चुके हैं कि उनका अदालती फैसले में कोई भरोसा नहीं है। कई बार वे यह भी कह चुके हैं कि इस विवाद को संसद में प्रस्ताव पास करके हल किया जाना चाहिए हालाँकि जब छह साल से अधिक समय तक उन्हीं (भाजपा गठबंधन) की सरकार थी तो उन्होंने कभी भी न तो अयोध्या विवाद को लेकर कोई उत्तेजक कार्यक्रम किया और न ही संसद में प्रस्ताव करने जैसी कोई माँग ही कभी की।

विहिप के उक्त प्रकार के बयानो को लेकर एक शंका प्राय: व्यक्त की जाती है कि क्या वह और उसके संतों की तथाकथित उच्चाधिकार प्राप्त समिति कोई संविधानेत्तर संस्था हैं या आतंकवादियों का संगठन, जिस पर इस संप्रभु राष्ट्र का नियम-कानून नहीं चलता? विहिप और भाजपा के कुछ नेता जब यह कहते हैं कि वे अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के अपने अभियान को बंद नहीं करेंगें तथा मुसलमानों को, जिन्हें की उक्त स्थल पर एक तिहाई जमीन मस्जिद निर्माण के लिए उच्च न्यायालय के फैसले ने दे रखी है, अयोध्या की शास्त्रीय सीमा के भीतर मस्जिद नहीं बनाने देगें, तो ऐसा वे किस संवैधानिक अधिकार से कहते हैं और क्या देश के एक समुदाय के प्रति इस तरह की भयकारी घोषणा करना कानून सम्मत है? अयोध्या की शास्त्रीय सीमा क्या है, इसे वे जान बूझकर स्पष्ट नहीं करते। यहाँ यह जान लेना जरुरी है कि अयोध्या की तीन शास्त्रीय सीमाऐं हिन्दू ग्रंथों में वर्णित हैं- एक, पंच कोसी दूसरी, चौदह कोसी तथा तीसरी चौरासी कोसी। पंच कोसी यानी लगभग 15 किलोमीटर की चौहद्दी ही इतनी अधिक है कि उसमें अयोध्या व मंडल मुख्यालय फैजाबाद के अलावा समस्त उपनगरीय क्षेत्र आ जाता है। और अगर चौरासी कोसी की सीमा की अवधारणा को माना जाय तब तो उसमें जनपद अम्बेडकर नगर, सुलतानपुर तथा बाराबंकी भी समाहित हो जाते हैं। विहिप के अतीत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर पांच कोसी पर बात करने को कोई तैयार होने लगेगा तो वह पलटी मारकर कह सकती है कि उसका शास्त्रीय सीमा से अभिप्राय तो चौरासी कोसी से है। अब बात विहिप के उस उच्चाधिकार प्राप्त समिति की जिसे वह बार-बार मंदिर निर्माण के लिए फैसला करने को अधिकृत बताती है। यह समिति है क्या बला और यह कहाँ से ऐसे कार्यों को करने का अधिकार प्राप्त करती है? क्या यह कोई निर्वाचित या संविधान के प्रारुपों के तहत गठित संस्था है? और अयोध्या या देश में कहीं और अगर कोई मंदिर बनना है तो क्या वह इन्हीं कथित संतों या उच्चाधिकार प्राप्त समिति की जिम्मेदारी है! क्या इस देष में हिन्दुओं का कोई जनमत संग्रह कभी कराया गया था कि सभी हिन्दू इन्हीं संतों को अपना प्रतिनिधि मानते हैं और धर्म सम्बन्धी अपने समस्त अधिकारों को इन्हें हस्तान्तरित कर चुके हैं? धर्म का प्रचार-प्रसार करना और बात है, लेकिन एक अत्यंत संवेदनशील धार्मिक मुद्दे पर सरकार और संविधान से परे जाकर मनमानी करना निश्चित ही संज्ञेय अपराधा है।

विहिप और भाजपा बार-बार अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर बनाने की घोशणा करते हैं और इस मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी ये दोनों संगठन लगातार हिन्दु श्रध्दालुओं को धोखा देने का काम कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि भाजपा और विहिप दोनों को अयोध्या में मंदिर बनाने का कोई अधिकार कहीं से भी नहीं है। अभी जो फैसला आया है उसने तो और स्पश्ट कर दिया है कि उक्त जमीन किन-किन लोगों की है। सच्चाई यह है कि अयोध्या के विवादित स्थल की कुल लगभग 70 एकड़ जमीन, जिसमें न सिर्फ कई मंदिर बल्कि तमाम गृहस्थ हिन्दुओं व मुसलमानों की आवासीय जमीन भी हैं, जनवरी 1993 से ही केन्द्र सरकार द्वारा अधिग्रहीत है, और संसद द्वारा पारित एक कानून के अनुसार वहाँ मंदिर-मस्जिद व सार्वजनिक उपयोग के स्थल आदि का निर्माण करना केन्द्र सरकार के ही जिम्मे है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब उक्त समस्त जमीन केन्द्र सरकार की सम्पत्ति है, तो उच्च न्यायालय से मालिकाना हक़ पाये पक्षकार हों या विहिप और भाजपा जैसे गाल बजाने वाली संस्थाऐं, कोई भी वहाँ जाने का अधिकार कैसे रखता है? और जो भी इस संवेदनशील मामले में झूठा प्रचार कर देशवासियों को गुमराह कर रहा है, क्या वह किसी विधिक कार्यवाही का पात्र नहीं है?

भारतीय जनता पार्टी छह साल से अधिक समय तक केन्द्रीय सत्ता में रही है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसे या विश्व हिन्दू परिषद को यह नहीं पता है कि अयोध्या के विवादित स्थल की वैधानिक स्थिति क्या है। जिस जमीन के टुकड़े के मालिकाना हक़ का फैसला न्यायालय ने किया है उसका कुल क्षेत्रफल सिर्फ 9 बिस्वा 15 धुर ही है। इसमें से एक-एक पक्षकार के हिस्से में 3 बिस्वा 5 धुर ही आता है! क्या इसी टुकड़े पर विहिप इतना भव्य और विशाल मंदिर बनाने की घोषणा आज तक करती आ रही है? क्या उसे या भाजपा को यह नहीं पता है कि यह हिस्सा भी अधिगृहीत है और केन्द्र सरकार की मिल्कियत है? केंद्र सरकार भी अगर वहाँ कोई निर्माण करना चाहे तो उसे कैबिनेट या सहयोगी दलों को विश्वास में लेना पड़ेगा।

वास्तव में विहिप और भाजपा का असल मंतव्य इस मुद्दे को गर्म कर इसके बहाने वोटों की फसल काटना है। उसे लगता है कि येन-केन-प्रकारेण वह एक बार फिर सन् 1992 के पहले वाले हालात पैदा कर सकती है। इसके लिए वह देश भर में हनुमान चालीसा का अनवरत पाठ तथा इसी तरह के हस्ताक्षर अभियान जैसे अन्य हवा-हवाई कार्यक्रम चलाने का प्रयास करती रहती है। वह धर्मभीरु हिन्दू जनता को यह समझाना चाहती है कि हिन्दू धर्म की असली ठेकेदार वही है और वह संविधान और न्यायालय से भी उपर है। अब उसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसे उसके हेड आफिस यानी अयोध्या में ही कोई भाव देने को तैयार नहीं है और अयोध्या में उठी आवाज ही इस प्रकरण में पूरे देश में सुनी और समझी जाती है। अयोध्या शांत तो पूरा देश शांत! और अयोध्या की चौथाई संत आबादी भी विहिप को सुनने को तैयार नहीं। विहिप का तो पूरा तबेला ही बाहरी है, उसमें स्थानीय तो कोई है ही नहीं! यही कारण है कि अगर एक हजार की भीड़ भी बटोरनी हो तो विहिप अयोध्या के किसी मेले-ठेले का अवसर ही अपने कार्यक्रम के लिए चुनती है ताकि कुछ भीड़ आसानी से मिल जाय।

विहिप अब संसद में कानून बना कर इस विवाद को सुलझाने की मांग कर रही है, क्योंकि वह जानती है कि ऐसा होना बेहद कठिन काम है। जो तरीका बेहद आसान है यानी बातचीत द्वारा हल का, उसे वह न सिर्फ सिरे से नकारती है बल्कि उसकी राह में यह कहकर रोड़े भी अटकाती है कि अयोध्या की शास्त्रीय सीमा में मंदिर ही नहीं बनने देगी। यही विहिप और भाजपा का असली चाल-चरित्र और चेहरा है।