देश के गरीब इन दिनोंे राजनेताओं के फोकस पर है। क्या सत्तापक्ष और क्या विपक्ष, सबकी एक ही चिंता है कि गरीबों के लिए ज्यादा से ज्यादा क्या किया जा सकता है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी तो खैर एक अरसे से देश के गरीबों को जानने-समझने के अपने अभियान पर है ही, अब उनके चचेरे भाई और भाजपा सांसद वरुण गांधी भी गरीबों की चिंता में दुबले होने शुरू हो गये है। यह चिंता एकाध बार तो बड़ी विरोधाभासी भी हो रही है, जब सरकार की तरफ से मोंटेक सिंह अहलुवालिया जैसे बड़े मुंह भी अचानक खुल जाते है। सरकारी योजनाओं में गरीबों के उत्थान की लगातार चर्चा है, तो गैर सरकारी स्तर पर तमाम संगठन इस बात का कयास लगा रहे है कि देश के इतने तीा- गति और विस्मयकारी विकास तथा करोड़ों टन अनाज फालतू (यानी सड़ने के लिए मौजूद) होने के बावजूद गरीबों और भुखमरों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है? देश में किस तरह की आर्थिक नीतियोंे को हमने अपनाया है, इसे दो रपटों से आसानी से समझा जा सकता है। पहली रपट जस्टिस अजरुन सेनगुप्ता आयोग की है जिसने लगभग दो वर्ष पूर्व यह खुलासा किया था कि देश में कुल 83 करोड़, 60 लाख लोग ऐसे है जिनकी औसत दैनिक कमाई मात्र 9 रुपये से लेकर 20 रुपये की ही है। दूसरी रपट नेशनल कौसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की है जिसने मार्च 2010 तक के दस वषोर्ं का अध्ययन कर गत दिनों एक तथ्य उजागर किया है कि मध्य वर्ग से छलांग लगाकर उच्च वर्ग में प्रवेश करने वालों की संख्या में चार गुने की अभूातपूर्व वृद्धि हो गई है। इस आंकड़ेबाजी का सीधा सा मतलब यह हुआ कि देश मेंे गरीब और गरीब हुआ है, तो अमीर और अमीर हुए है। दरअसल हमारी आर्थिक नीतियां ही ऐसी है कि उनसे पहले तो गरीब पैदा होते है, फिर उनको दांये-बांयें से मदद पहुंचाकर सरकार गरीब बनाकर रखती है। एक और उदाहरण देखिये - केंद्र की संप्रग सरकार ने फरवरी 2006 में रोजगार सम्बंधी दुनिया की सबसे अनोखी और एकमात्र योजना राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना प्रारम्भ की। सभी जानते है कि इसमें वर्ष में 100 दिनों का सुनिश्चित रोजगार या फिर भत्ता सरकार देती है। सरकार का मानना था कि ऐसा हो जाने से गांव के बेरोजगारों को घर पर ही रोजगार मिल जाएगा तथा देश के अन्य राज्यों की तरफ उनका पलायन भी रुक सकेगा। नि:संदेह ऐसा हुआ भी है, लेकिन अब एक बड़ा प्रश्न यह भी आ खड़ा हुआ है कि साल के बाकी 265 दिन ऐसे लोग क्या करें? क्योंकि स्थानीय स्तर पर उन्हें दूसरा कोई रोजगार सुलभ नहीं होता। नरेगा का कार्य ऐसा भी नहीं है कि पात्र लोगों को सौ दिन इकट्ठे ही मिल जाता हो और फिर वे किसी अन्य काम की तलाश में कहीं और जा सकें। लिहाजा ऐसे लोग सौ दिन के काम के चक्कर में पूरा साल बिता देते है। इस प्रकार नरेगा, जो कि अब महात्मा गांधी नरेगा कही जाती है, में एक व्यक्ति की औसत दैनिक आमदनी 30 रुपये से भी कम पड़ती है। इस योजना के साथ अगर यह सोचा गया होता कि ऐसे बेरोजगारों को उनके क्षेत्रों में कुटीर-उद्योग स्थापित कर उन्हें पार्ट टाइम कार्य करने की सहूलियत भी दी जाय तो यह औसत दैनिक आमदनी कम से कम सौ रुपये प्रतिदिन की जा सकती थी। कुटीर उद्योगों की स्थापना में असमर्थता के चलते ऐसे लोगों को गाय-भैस, बकरी पालन, कुक्कुट पालन, आदि छोटे-मोटे स्व-रोजगार करने को मदद दी जा सकती है, लेकिन यहां फिर वही नीतिगत बाधाएं आ जाती है कि सरकार ऐसे गरीबों को तो गाय-भैस पालने को कर्ज देगी और सारी सरकारी सहूलियत डेयरी कम्पनियों को दे देगी! इसका सबसे घातक नतीजा यह होता है कि ऐसे गरीबों और बड़ी कम्पनियों के बीच ग्राहक और बाजार को लेकर रस्साकसी छिड़ जाती है। नतीजा सबको पता है!
सरकारें शायद ही कभी इस तरह के तर्को को संज्ञान में लेती हों कि आखिर जिस रफ्तार से अमीरों की अमीरी बढ़ रही है उसी रफ्तार से गरीबों की गरीबी क्यों नहीं कम हो रही है। एक तरफ अजरुन सेनगुप्ता आयोग की रपट कहती है कि लगभग 85 करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी 20 रुपये से भी कम है, तो दूसरी तरफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया कहते है कि गांवों में अमीरी बढ़ रही है, इसलिए महंगाई पर काबू नहीं पाया जा रहा है! ऐसे में चाहिए तो यह कि या तो राहुल गांधी मोंटेक सिंह से जानकारी प्राप्त करने के बाद ही गांव और गरीबों के अभियान पर निकलें या फिर अहलुवालिया ही राहुल गांधी द्वारा गरीबों के बीच रहकर हासिल किये गये तजुब से कोई सबक लेकर अपना मंतव्य जाहिर किया करें। साधन होने भर से ही साध्य हासिल नहीं हो जाता। साधन के साथ-साथ सलाहियत भी होनी चाहिए
गरीबों की गरीबी दूर करने के तमाम प्रयास सरकारें करती हैं, लेकिन लाभ वे लोग उठा लेते हैं जिनके पास संसाधन होते हैं. इसे ऐसे समझा जा सकता है की देश में लम्बे समय से जातिगत आरक्षण व्यवस्था लागू है लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ वे लोग ही उठा रहे हैं जिनके पास ऐसे संसाधन यानि क्षमता मौजूद हैं. आखिर यही कारण तो है की सरकार इनमे से हमेशा क्रीमी लेएर छांटने की बात करती रहती है. सरकार गरीबों की एक पक्षीय मदद करती है, यही कारण है कि गरीबी ख़त्म नहीं होती.मसलन गरीबों को छोटे-छोटे कर्ज काम ब्याज पर देकर ही सरकार आपने कर्तब्यों कि इतिश्री समझ लेती है. उनके उत्पादों के लिए बाज़ार और वहाँ कि गलाकाट प्रतियोगिता के लिए संरक्षण भी चाहिए, इससे वह कोई मतलब ही नहीं रखती! किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं? सरकार कि मेहरबानी से पहले तो बाजार में हाईब्रिड बीज आ जायेंगें, और जब किसान उनसे अधिक मात्र में पैदावार कर लेगा, तो बाजार भाव ईतना गिर जायेगा कि उसका न बेचना भला! आखिर बाजार पर नियंत्रण रखना किसकी जिम्मेदारी है? हो सकता ही कि किसी दिन मोंटेक सिंह यह भी कह दें कि भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में जो 7000 टन अनाज सडा है (जैसा कि भारत के अतीरिक्त सालिसिटर जनरल मोहन परसन ने गत दिनों सर्वोच्च न्यायलय में बयान दिया ) वह भी किसानों के ज्यादा अनाज पैदा कर देने के कारण सडा है !
दुनिया के हर देश में गरीब हैं, लेकिन जो बिसंगति भारतीय ग़रीबों के साथ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है! पाकिस्तान बगल में ही है लेकिन उसकी गरीबी और दुर्व्यवस्था पर किसे हैरत होती है? किन्तु भारत में, जहाँ आमिर लोग साल भर में 2 लाख 50 हजार करोड़ रुपया भगवानों कि पूजा पर खर्च करते हों ( ध्यान रहे कि मनरेगा का पूरे देश का साल भर का बजट सिर्फ़ एक लाख करोड़ का ही है!), जहाँ 25 करोड़ लोग रोज भूखे सो जाते हों लेकिन 7000 टन अनाज यूँ ही सड़ जाता हो, जहाँ 78000 करोड़ रुपया एक झटके में ही कामनबेल्थ खेलों पर लुटा दिया जाता हो,और जहाँ 45000 करोड़ रुपया इंडियन एयर लाईन्स को घटे से उबरने के लिए दे दिया जाता हो ताकि आमिर लोग सस्ती हवाई यात्रायें कर सकें, वहां जब ऐसी रपटें आती हैं कि गरीब और गरीब ही नहीं बल्कि भुखमरी के कारण भी मर रहे हैं तो व्यवस्था पर अचरज नहीं क्रोध आता है, और क्रोध राहुल, वरुण और अहलुवालिया सरीखे मुन्गेरिलालों पर भी आता है ..
(Sunil Amar in Rashtriya Sahara Delhi on 10 Nov. 2010)
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