Monday, May 30, 2011

'' इस 'लोकतंत्र' पर कौन न मर जाय ये खुदा !


कर्नाटक के टूरिजम और इंफ्रास्ट्रक्चर मिनिस्टर जी. जनार्दन रेड्डी करीब 2.2 करोड़ की कीमत सोने की कुर्सी पर बैठते हैं.......









 



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बेंगलुरु। माइनिंग माफिया के नाम से मशहूर बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के ठाठ-बाट किसी महाराजा से कम नहीं है। कर्नाटक के टूरिजम और इंफ्रास्ट्रक्चर मिनिस्टर जी. जनार्दन रेड्डी करीब 2.2 करोड़ की कीमत सोने की कुर्सी पर बैठते हैं। 2.58 करोड़ रुपए मूल्य की कीमत वाली सोने से भगवान की मूर्ति की पूजा करते हैं और करीब 13.15 लाख रुपए की बेल्ट पहनते हैं।इतना ही नहीं उनके घर में जो कटलरी इस्तेमाल की जाती हैं, उनमें सोने की प्लेटस, कटोरियां, चम्मच-कांटे और चाकू हैं, जिनकी कीमत करीब 20.87 लाख है। यह सब हम नहीं कह रहे, बल्कि रेड्डी ने खुद लोकायुक्त के सामने पेश की गए दस्तावेज में इसकी जानकारी दी है। साथ ही कृषि भूमि, बिल्डिंग्स और पैतृक संपत्ति को छोड़कर जनार्दन रेड्डी के पास करीब 153.49 करोड़ रुपए की संपत्ति है। रेड्डी को अपने बिजनेस से करीब 31.54 करोड़ रुपए की सैलरी भी मिलती है.


Thursday, May 26, 2011

प्राथमिक स्कूलों में सुविधाऐं हैं या मजाक ? -- सुनील अमर


सरकारी यूनिफार्म तो है लेकिन बैठने के लिए टाट-पट्टी तक नही !


 एक गैर सरकारी संगठन की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश के 13राज्यों को आदेश दिया है कि वे आगामी 31मई तक अपने-अपने राज्य के प्राथमिक स्कूलों में पानी,बिजली,भवन,शौचालय और अध्यापक जैसी सुविधाऐं अवश्य उपलब्ध करा दें। न्यायाधीश द्वय ने आश्चर्य जताते हुए पूछा कि आखिर पीने के पानी और शौचालय के बिना स्कूल चल कैसे रहे हैं ?बाकी सुविधाऐं तो बाद में भी दी जा सकती हैं लेकिन पानी के बिना कैसे रहा जा सकता है ?याचिकाकर्ता के वकील ने न्यायालय को बताया था कि मध्यप्रदेश के साढ़े नौ हजार स्कूलों में पीने का पानी और पचास हजार स्कूलों में शौचालय की सुविधा नहीं है। न्यायालय ने इस सूचना पर सख्त रुख अपनाते हुए सरकारी वकील से कहा कि वे इस मामले को तुरन्त मुख्यमंत्री के समक्ष उठाऐं क्योंकि इससे ज्यादा जरुरी और कोई काम नहीं हो सकता।

               प्राथमिक शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव की कवायद एक दशक पूर्व प्रारम्भ की गई जब केन्द्र सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत राज्यों को अतिरिक्त मदद देकर विद्यालयों में मूलभूत सुविधाऐं यथा,भवन,शिक्षक भोजन,पानी,यूनीफार्म,फर्नीचर तथा पाठय पुस्तकें आदि उपलब्ध कराने को कहा। राज्यों में यह योजना डी.पी.ई.पी. यानी जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के तहत चलाई जा रही है। इस योजना ने निश्चित ही प्राथमिक स्कूलों की खस्ताहाली को सुधारा और प्रत्येक विद्यालय पर कई-कई लाख रुपये खर्च किए गए। आज प्राथमिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाऐं कहने को तो उपलब्ध हो गई हैं हालॉकि इसका दूसरा पहलू काफी हास्यास्पद है। मसलन,इन स्कूलों में पेयजल के लिए इंडिया मार्क-टू हैंड पम्प लगाकर पानी की टंकी तो स्थापित कर दी गई लेकिन यह व्यवस्था नहीं की गई कि इन हैंडपम्पों को चलाकर टंकी को भरेगा कौन ?अब स्थिति यह है कि स्कूल के अध्यापक छात्रों से ही जबरन हैंडपम्प चलवाकर टंकी भरवाते हैं और इसके लिए बाकायदा छात्रों का एक टाईम-टेबिल बना दिया जाता है कि कौन-कौन छात्र किस दिन हैंड पम्प चलाऐगें। यह हाल सभी स्कूलों का है। इस कार्य में प्राय:ही छात्र चोट खा जाते हैं। इसी प्रकार विद्यालयों में भवन तो पर्याप्त बना दिये गये हैं,जैसे अतिरिक्त कक्ष,रसोई कक्ष,ऑंगनवाड़ी कक्ष आदि लेकिन इस बात का प्राविधान नहीं किया गया कि इनकी सफाई कैसे होगी। अब यह कहर भी रोज नन्हे-मुन्ने बच्चों पर ही टूटता है। घर से साफ-सुथरा तैयार होकर स्कूल पहुचे बच्चे को पहले वहॉ झाडू लगानी पड़ती है क्योंकि प्राथमिक स्कूलों में कोई चपरासी नहीं है। समाचार माध्यमों में प्राय:ही ऐसी खबरें आती रहती हैं कि बच्चों से ही मिड-डे-मील के बर्तन तक धुलवाये जाते हैं क्योंकि बहुत बार खाना पकाने वाले सभी कर्मचारी नहीं आते। अभी बीते जनवरी माह में उ.प्र.के सुल्तानपुर जनपद में राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,कादीपुर की उप-प्रधानाचार्या को छात्राओं से जूठ्रे बर्तन धुलवाने के आरोप में सही पाये जाने पर राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पदावनत करने की सिफारिष की थी।

               अब यही हाल विद्यालय की सुरक्षा को भी लेकर है। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक दोनों स्तर के विद्यालयों में इधर के वर्षों में तमाम प्रकार की सम्पत्ति होने लगी है। मसलन,गैस सिलेन्डर,खाना पकाने के बर्तन,टेप रिकॉर्डर,लाउड स्पीकर,फर्नीचर,कम्प्यूटर और पंखे आदि। इतना सामान होने के बावजूद इन विद्यालयों में एक अदद चौकीदार की व्यवस्था नहीं है! प्राथमिक विद्यालयों में तो चपरासी भी नहीं हैं। प्राय:ही इन विद्यालयों में छिट-पुट चोरियॉ होती रहती हैं और यह ग्राम प्रधान तथा प्रधानाध्यापक के बीच कलह का कारण बनती हैं। यह बहुत आष्चर्यजनक है कि जब इस प्रकार की योजनाऐं बनाई जाती हैं तो क्या उनके हर पहलुओं पर विचार नहीं किया जाता? मसलन क्या यह संभव है कि सरकार ड्राइवर की तैनाती करने से पहले ही गाड़ी खरीद ले? नदी पर पुल बनाने से पहले ही सड़क बना दी जाय? यह तो स्पश्ट है कि योजनाकार आला दर्जे के दिमाग वाले होते हैं,फिर ऐसा करने के पीछे क्या मंशा हो सकती है कि चौकीदारी और शारीरिक श्रम के तमाम कार्यो को स्कूल के बच्चों के भरोसे छोड़ दिया जाय जबकि यह पता है कि छात्रों से इस तरह का कार्य कराना गैर-कानूनी है?

               उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ लाख तथा बिहार में सवा तीन लाख प्राथमिक शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं। यह स्थिति तब है जब लाखों की संख्या में रिक्त पदों को शिक्षा मित्रों से भरा गया है। सरकारें न्यायालय को बता रही हैं कि उनके पास प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी है इसलिए पद भरे नहीं जा सके हैं! यह हाल उ.प्र.,उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा,बिहार झारखंड,महाराष्ट्र,सिक्किम,त्रिपुरा,तमिलनाडु,कर्नाटक और जम्मू-कश्मीर का है। सिर्फ अरुणाचल प्रदेश और पंडुचेरी ही ऐसे राज्य हैं जहॉ के प्राथमिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाऐं उपलब्ध हैं। इससे जाहिर है कि बाकी प्रदेषों में यह सरकारों की काहिली और बदनीयती है कि वे स्कूलों में सुविधाऐं देना ही नहीं चाहते। एक तरफ देश में विकट बेरोजगारी की समस्या है जो दिनों-दिन विकराल होती जा रही है, दूसरी तरफ लाखों की संख्या में पद रिक्त पड़े हैं और सरकारें उन पर नियुक्ति नहीं कर पा रही हैं!प्राथमिक और उच्च विद्यालयों पर सरकार जिस तरह मुक्त हस्त धन व्यय कर रही है,उसमें चपरासी और चौकीदार के पदों पर नियुक्ति क्या नहीं की जानी चाहिए?या यह कार्य अलिखित रुप से बच्चों पर ही डाला जाता रहेगा? दोपहर के भोजन की योजना चल ही रही है और इसका उद्देष्य बच्चों को सिर्फ स्कूल तक लाना न होकर और व्यापक है जिसका अनुमान उन क्षेत्रों में गये बगैर नहीं हो सकता जहॉ विकट भुखमरी है और जहॉ रविवार या छुट्टी के अगले दिन स्कूल खुलने पर बच्चे ज्यादा खाना खाते हैं! ऐसे में क्या स्कूल में खाना पकाने वालों को स्थाई नहीं किया जा सकता?

                देश के सबसे बड़े राज्य उ.प्र. में लगभग एक दशक से प्राथमिक शिक्षकों का प्रशिक्षण कार्य बंद है। सरकार द्वारा कराये जाने वाले बी.टी.सी. नामक इस द्वि-वर्षीय पाठय क्रम की प्रवेश परीक्षा में कथित धाँधाली की शिकायत को लेकर उच्च न्यायालय ने स्थगनादेश दे रखा था जो कि अभी कुछ माह पूर्व रद्द हुआ है। बी.टी.सी. पर रोक लगने के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार ने बी.एड. डिग्री धारकों को एक संक्षिप्त प्रशिक्षण देकर प्राथमिक स्कूलों में नियुक्त करना शुरु किया जो अभी तक जारी है और इसने प्रदेश में एक नयी शिक्षा-माफिया संस्कृति को जन्म दिया है। देखते ही देखते प्रदेश में अर्ध्द-सहस्त्र निजी बी.एड. कालेज खुल गये हैं जो नाना प्रकार से छात्रों का षोशण कर रहे हैं। ये निजी कालेज सत्ता तंत्र में कितने प्रभावशाली हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि छात्रों के कल्याण के लिए घोषित नियमों को आधा दर्जन से अधिक बार अब तक वापस लिया जा चुका है!जिन राज्यों में अध्यापक तैयार करने का तंत्र ही उक्त प्रकार का है उनसे शिक्षा के अधिकार कानून के सफल क्रियान्वयन की उम्मीद कैसे की जा सकती है! ( हम समवेत फीचर्स में २३ मई २०११ को प्रकाशित --www.humsamvet.org.in )

Tuesday, May 24, 2011

सिर्फ़ लिख देने से इतिहास नहीं बन जाता राजनाथ जी ! - सुनील अमर



भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गत दिनों पटना के एक कार्यक्रम में ऐलान किया कि उनकी पार्टी अगर केन्द्र की सत्ता में वापस अएगी तो वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को फिर से लिखवायेंगें। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस आजादी की लड़ाई का सारा श्रेय अकेले ही लेती रही है जबकि उस दौरान उसकी भूमिका महज़ ‘सेफ्टी वाल्व’ की ही थी।
भाजपा की यह कसक नई नहीं है। अपने दर्जनों मुखपत्र-पत्रिकाओं और प्रतिबद्ध लेखकों की मार्फत वह और उसका पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी पसंद का इतिहास लेखन कराने में लगा ही रहता है। वैचारिक प्रतिबद्धता वाले सभी संगठन इस तरह का लेखन करते-कराते ही हैं, लेकिन सत्ता में आने पर देश के आमूल-चूल इतिहास को बदलने की सार्वजनिक घोषणा राजनाथ सरीखे लोग ही कर सकते हैं। भाजपा जितने समय तक केन्द्र की सत्ता में रही, इतिहास से छेड़-छाड़ का उसका अनवरत कार्यक्रम चलता रहा था। उस वक्त यह छेड़-छाड़ सरकारी पाठ्य-पुस्तकों तक ही थी। अब इधर श्री राजनाथ सिंह देश की आजादी के इतिहास का पुनर्लेखन कराने की मंशा जाहिर कर रहे हैं।
वर्ष 2001 में जब केन्द्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन यानी राजग की सरकार थी तो भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी उसके मानव संसाधन विकास मंत्री थे। उस वक्त राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एन.सी.ई.आर.टी. के निर्देश पर केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक अधिसूचना जारी कर देश भर में खुद से सम्बद्ध स्कूलों व संस्थाओं को कक्षा 6,8 व 11 की इतिहास की पुस्तक से कतिपय अंश निकालने का आदेश दिया था। 23 अक्तूबर 2001 को जारी इस अधिसूचना में साफ-साफ कहा गया था कि न सिर्फ फलां-फलां किताब के पृष्ठ संख्या फलां-फलां से निर्देशित पैराग्राफ हटा लिये जाएँ, बल्कि इन पर न तो कक्षाओं में बहस कराई जाय और न परीक्षाओं में प्रश्न ही पूछे जाएँ। इतिहास की पुस्तकों के उन पाठों को रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और अर्जुनदेव सरीखे देश के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकारों ने लिखा था। उस वक्त देश भर में इस रोक पर तीखी बहस छिड़ने के साथ ही संसद में भी इसको लेकर खासा हंगामा हुआ था। इस मुद्दे पर को लेकर साफ-साफ दो गुट बन गये थे और एक गुट अगर दूसरे पर इतिहास के भगवाकरण और तालिबानीकरण का आरोप लगा रहा था तो दूसरा भी उसे मार्क्स, मैकाले और मदरसा का गठजोड़ बता रहा था। अब जैसा कि इस देश में हमेशा ही होता आया है कैसी भी बहस हो या आन्दोलन, आपसी टकराव ही उसकी जीवन अवधि को खत्म कर देती है। बहरहाल 2004 में केन्द्र की सत्ता से हटने के बाद भाजपा का यह मंसूबा अधूरा ही रह गया। यह कसक राजनाथ सिंह को है।
इतिहास की किताबों को अपने अनुकूल करने की भाजपाई कोशिशें लगातार जारी हैं। अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब भाजपा शासित मध्य प्रदेश के सरकारी प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में प्रातःकालीन प्रार्थना के समय सूर्य नमस्कार को अनिवार्य किये जाने के आदेश को लेकर काफी बवाल मचा था। इसी मध्य प्रदेश में इन दिनों सरकारी स्कूलों में गीता-सार पढ़ाये जाने का शासनादेश हुआ है! देश भर में इस पर तीखी बहस चल रही है। श्री राजनाथ सिंह देश की आजादी का इतिहास अपने अनुकूल लिखवाने का ऐलान कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि इतिहास का उनके अनुकूल होने का क्या मतलब हो सकता है! आजादी के दशक भर बाद के वर्षों में देश में कई साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने इससे चिंतित होकर कारणों का पता लगाने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन किया। परिषद दंगों की पृष्ठभूमि का व्यापक अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि देश के स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास सेक्यूलर न होकर साम्प्रदायिक भेदभाव फैलाने वाला है। परिषद ने महात्मा गाँधी  को उद्धृत करते हुए कहा कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का इतिहास पढ़ाना जब तक बंद नहीं किया जाएगा तब तक समाज में सद्भाव नहीं आ सकता।
देश में एक चिंताजनक परम्परा यह शुरु हो गयी है कि तमाम राज्य सरकारें अपने-अपने राजनीतिक नफे-नुकसान को देखकर सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रमों का इतिहास रचने/बदलने लगी हैं। सभी लोग जानते हैं कि वीर शिवाजी का तोपची मुसलमान था, लेकिन जिन्हें छात्रों के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करनी है, वे ऐसे पाठों को भला क्यों पढ़ाने लगे? ऐसी साजिशें बालमन पर कैसा खतरनाक असर डालती हैं यह लाला लाजपतराय की आत्मकथा से  जाना जा सकता है जिसमें उनहोंने लिखा है कि पाठ्यक्रम में मुस्लिम शासकों के बारे में घृणास्पद बातें पढ़कर ही उनके मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा हुई।
वास्तव में अपना साम्राज्य येन-केन-प्रकारेण बरकरार रखने की नीयत से अंग्रेजों ने इस देश के हिन्दू और मुसलमानों  के बीच जबर्दस्त घृणा का माहौल बनाया तथा हर प्रकार से इस बात को प्रचारित किया कि मुस्लिम शासक हिन्दू विरोधी, शोषक, अन्यायी और जबरन धर्म परिवर्तन कराने वाले हैं। उन्होंने देश के हिन्दू जनमानस में यह भाव भरने का प्रयास किया कि यदि हम (अंग्रेज) भारत छोड़कर चले जाऐंगें तो यही मुसलमान फिर पहले की तरह आप पर शासन करेंगें। इसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। बाद में जब उन्होंने देखा कि आजादी की मांग जोर पकड़ने लगी है तो यही भय उन्होंने मुसलमानों में पैदा करना शुरु किया कि यदि हम चले जाऐंगें तो यहाँ  हिन्दू राज करेंगें और आप सबसे अपना बदला चुकाऐगें। देश के बॅटवारे की मानसिकता तैयार करने में यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारक था।
श्री राजनाथ सिंह भी इसी सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे इतिहास को अपने माफिक चाहते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश में बड़े पैमाने पर सरस्वती शिशु मंदिर नामक प्राथमिक व सरस्वती विद्यामंदिर नामक माध्यमिक विद्यालयों की श्रृंखला चलाता है। इन विद्यालयों में जो इतिहास की पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं उनमें और बाकी इतिहास की पुस्तकों में गजब का विरोधाभास रहता है। यह काफी कुछ उसी तरह है जैसा कि पाकिस्तान के कट्टरपंथी मदरसों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास, जो भारत के बारे में उसी तरह की जानकारी देता है जो उन कठमुल्लाओं को रास आती हो। श्री राजनाथ सिंह को आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका तो सेफ्टी वाल्व जैसी लगती है। अब यह नहीं समझ में आता कि जब वे इतिहास लिखवायेंगें तो क्या कांग्रेस  को हटाकर वहाँ जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम लिखवा देगें जिसका आजादी के आन्दोलन से कोई वास्ता ही नहीं था, जो अंग्रेजों का समर्थक था और जो कहता था कि हम तो संस्कृति के पैरोकार हैं, या फिर उस भाजपा का नाम लिखवा देंगें जिसका जन्म ही 1980 में हुआ है? एक दशक पहले ही यह बात सबूत के साथ उजागर हो चुकी है कि भाजपा के कर्णधार और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आजादी की लड़ाई के दौरान पत्र लिखकर स्वयं को अंग्रेजों का स्वामिभक्त बताया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में जब कलकत्ता पर बम गिराया गया था तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने संघ के सेवकों से सहायता ली थी! हो सकता है कि इतिहास में दर्ज ये तथ्य अब राजनाथ को शर्मिंदा करते हों।
हिन्दी साहित्य में जैसे वीरगाथा काल, रीतिकाल और भक्तिकाल का विभाजन है, उसी तरह एक समय में भारतीस इतिहास में भी हिन्दूकाल, मुस्लिमकाल और ब्रिटिशकाल को आधार बनाकर धर्म के आधार पर तथ्य रखे गये। यह लेखन साम्प्रदायिक सोच को उभारने में सहायक बना। राजनाथ सिंह यही प्रक्रिया फिर शुरु करना चाहते हैं लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि इतिहास पहले रचा जाता है, लिखा जाता है बाद में। सिर्फ लिख भर देने से इतिहास नहीं बल्कि कहानी बन जाती है। ( फ़ैजाबाद, इलाहाबाद व बरेली से छपने वाले दैनिक जनमोर्चा में दिनांक २४ मई २०११ को प्रकाशित )

इस साजिश को समझना जरुरी है -- सुनील अमर

कुछ बातें हैं जिन्हें थोड़ा बेहतर तालमेल के साथ अगर पढ़ा जाय तो दिलचस्प नतीजे निकलते हैं और पता चलता है कि देश की तीन चैथाई जनता के प्रति सरकारें क्या सोचती है। अभी कुछ माह पूर्व योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने एक बयान में कहा था कि देश में मॅंहगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गाँव अमीर हो रहे हैं। इसी बात को कुछ दिन पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने भी दोहराया है, लेकिन साथ में उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि अगर किसान अपनी पैदावार बढ़ा लें तो मॅहगाई पर प्रभावी ढ़ंग से काबू पाया जा सकता हैं, तथा बजट पेश करते हुए विख्यात अर्थशास्त्री कहे जाने वाले अपने वित्त मंत्री ने देश की संसद को जानकारी दी थी कि गरीब लोग अब मोटा नहीं बल्कि अच्छा भोजन करने लगे है इसलिए मंहगाई बढ़ रही है! दूसरी तरफ इस बात के दबाव सरकार पर बनाये जा रहे हैं कि वह देश की खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का रास्ता खोल दे ताकि उनकी वित्तीय साझेदारी से देसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां  वहां  कब्जा जमा सकें । गरीबों को दी जाने वाली तमाम तथाकथित सरकारी सहायताऐं और किसानों को दी जाने वाली कृषि सम्बन्धी राहतों को नकद या कूपन के तौर पर सीधे उनके हाथ में सौंपने की योजना को एक बार फिर टाल दिया गया है ताकि ये राहतें वास्तव में जिन हाथों में पहॅुंच रही हैं वहां अभी पहुँचती रहें। 
बीते नवम्बर माह में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने अपनी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी करते हुए बताया था कि देश में कृषि पर निर्भर रहने वालों की संख्या घटकर अब आधे से भी कम यानी कि सिर्फ साढ़े पैंतालिस प्रतिशत ही रह गई हैं और भारी संख्या में  लोग खेती छोड़ कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं। अभी बजट पूर्व संसद में कृषि समीक्षा पेश करते हुए केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया था कि बीते दो दशक में देश के भीतर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी आ चुकी है। इस तरह के आंकड़े और भी बहुत हैं लेकिन सरकारी हॅंड़िया का चावल परखने के लिए दो-चार दाने ही पर्याप्त हैं। देश का आधारभूत और प्राकृतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर कृषि ही है जिस पर अभी दो दशक पहले आबादी की 75 प्रतिशत निर्भरता बतायी जाती थी लेकिन जिसे कभी भी वास्तविक इन्फ्रास्ट्रक्चर में शामिल ही नहीं किया गया जबकि ताजा खबर यह है कि केन्द्र सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र को इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल करने जा रही है! घटती कृषि-जमीन, सरकारों द्वारा लगातार उपेक्षा, खेती छोड़कर भागते लोग, घाटे के कारण आत्महत्या करते लाखों किसान! जिस भारतीय कृषि का राष्ट्रीय सिनारियो इस तरह का हो, साजिश देखिये कि उसे ही दो वर्ष पूर्व आई वैश्विक मंदी में देश का उद्धारक बताया गया! खुद सरकार और कुछ बड़े समाचार पत्र समूह, इन दोनों ने षडयंत्रपूर्वक प्रचार किया कि भारत पर मंदी का असर इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि यहाँ तो देश का सारा दारोमदार कृषि पर टिका है न कि उद्योग-धंधों पर! अब वास्तव में तो उद्योग-धंधे ही चपेट में थे, लेकिन उन्हीं उद्योग-धंधों में ही तो सरकार के मंत्री, बड़े नेता, नौकरशाह और मीडिया घरानों का वैध-अवैध धन लगा हुआ है, इसलिए उसका बचाव करना जरुरी था ताकि शेयर धारक घबड़ाकर अपना पैसा निकालने न लगें!
हमारे अर्थशास्त्री वित्तमंत्री का चारण-वादन है कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का यह कमाल है कि गाँव के गरीब अब नियमित मजदूरी पाने के कारण बढ़िया और ज्यादा खाना खाने लगे हैं और यही कारण है कि मॅंहगाई बढ़ती ही जा रही है! दूसरी तरफ माननीय स्वच्छ छवि दो साल से लगातार कह रहे हैं कि आने वाले दो-तीन महीनों में मॅंहगाई काबू में आ जाएगी। कोई इनसे पूछे कि कैसे भाई? क्या आने वाले दिनों में मनरेगा बन्द करने जा रहे हो ? मनरेगा के रहते मॅहगाई बढ़ी है तो इसके रहते घटेगी कैसे? अभी मनरेगा का हाल यह है कि देश के अधिकांश राज्य न्यूनतम दैनिक मजदूरी भी नहीं दे रहे हैं। स्वयं केन्द्र सरकार की नीयत इस मामले में साफ नहीं क्योंकि उसने खुद ही न्यूनतम दैनिक मजदूरी 100 रूपया तय कर दिया था। इघर 19 रूपये से लेकर 79 रूपये तक की बढ़ोत्तरी मनरेगा के तहत राज्यवार की गई है। यह बढ़ोत्तरी उसी संसद ने की है जिसने अभी चंद दिनों पहले ही अपने सांसदों का वेतन 300 से 400 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है और भ्रष्टाचार की पर्याय बन चुकी सांसद निधि को ढ़ाई गुना बढ़ाकर पांच करोड़ रू. सालाना कर दिया है। अब अगर न्यूनतम मजदूरी 100 रूपये के बजाय 120 या 180 मिलने लगेगी तो फिर प्रणव, आहलूवालिया और सुब्बाराव के हिसाब से तो मंहगाई और बढ़ जायेगी! यानी कि यहाँ भी सारा दोष गरीबों का !
केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री अरुण यादव ने बजट पूर्व संसद को बताया था कि 2001 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिक हैं जिनमें से 58 प्रतिशत से अधिक खेती में ही समायोजित हैं। इसके बावजूद खेती के प्रति सरकार का रवैया देखिए कि यह क्षेत्र न तो देश के मूल ढ़ॅाचे में गिना जाता है और न ही इसके लिए अलग से बजट पेश होता है। जिस सेक्टर पर देश की आधे से अधिक आबादी आज भी निर्भर करती हो, उसके लिए तो कायदे से भारतीय कृषि सेवा जैसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि पिछले चार-पांच वर्षों से देश में किसान आयोग ही नहीं गठित है जबकि औसतन दो किसान प्रति घंटे आत्महत्या कर रहे हैं! देश के एक हजार कृषि विशेषज्ञों के पदों पर ब्यूरोक्रेट्स का कब्जा है! आप समझ सकते हैं कि सरकार जो गेंहूँ विदेशों से 2000रू. कुन्तल खरीद सकती है उससे अच्छी किस्म के घरेलू गेंहूँ का वह 1200रू. कुन्तल भी नहीं देती! अभी ताजा मामला देखिये- आलू पर प्रति कुन्तल लागत 350रू. आई है क्योंकि इधर डीजल, उर्वरक व कीटनाशक के दाम काफी बढ़ गये हैं लेकिन सरकार ने समर्थन मूल्य घोषित किया है 325रू. प्रति कुन्तल!
 सरकार कृषि ऋण और सस्ते ब्याज की बात करती हैं। ताजा बजट में घोषणा की गई है कि कृषि ऋण पर चार प्रतिशत की दर से ब्याज लिया जाएगा, लेकिन इसमें एक पुछल्ला है जो इस लुभावने खेल की पोल खोल देता है। वह है कि अगर निर्धारित समयावधि में किसान ऋण चुका देता है तो! नहीं तो आठ से बारह प्रतिशत तक। सभी जानते हैं (और वित्त मंत्री भी) कि भूखों मर रहे किसान समय पर किश्त नहीं चुका सकते! दूसरी तरफ बैंकों को सरकारी निर्देश हैं कि वे अपनी सकल ऋण राशि का 17 प्रतिशत कृषि कार्यों के लिए सुरक्षित करें। अब इस निर्देश पर खेल इस तरह हो रहा है कि कृषि के नाम का यह रियायती ऋण अधिकांश में वे लोग झटक रहे हैं जो कृषि उपकरणों का उद्योग लगाये हैं, ठेका-खेती करने वाली बड़ी कम्पनियां हैं, या सैकड़ों हेक्टेयर वाले किसान हैं। सच्चाई यह है कि छोटे किसान तो बैंक से कर्ज ही नहीं पाते।
मौजूदा समय में देश के किसानों को किसी भी प्रकार की राजनीतिक और तकनीकी फंदेबाजी वाली घोषणा के बजाय सिर्फ एक राहत चाहिए और वह है उनकी कृषि योग्य भूमि पर सरकार द्वारा एक निश्चित आय की गारंटी। यह चाहे कृषि बीमा द्वारा आच्छादित हो या भौतिक आंकलन के पश्चात। किसान, खासकर लघु और मध्यम किसानों को यह सरकारी भरोसा मिलना ही चाहिए कि वे अगर एक बीघा जमीन बोयेंगें तो उन्हें एक निश्चित आय होनी ही है, चाहे कैसा भी प्राकृतिक या मानवीय प्रकोप हो। जिन देशों की नकल पर हम जी रहे हैं वहाँ ऐसा जाने कब से हो रहा है तो फिर यहाँ क्यों नहीं? ०० (राष्ट्रीय हिंदी दैनिक हरिभूमि के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक 24 मई 2011 को प्रकाशित ) 

Tuesday, May 17, 2011

The Justice Has Done !! --- Sunil Amar


शशि हत्याकांड:पूर्व मंत्री समेत तीनों आरोपियों को उम्रकैद

shashi murder case
फाइल फोटो

फैजाबाद के बहुचर्चित शशि हत्याकांड में अदालत ने बसपा विधायक व पूर्व मंत्री आनंद सेन को उम्रकैद की सजा सुनाई.
अदालत ने मंगलवार को शशि हत्याकांड में अपना फैसला सुनाते हुए तीनों आरोपियों बसपा विधायक और पूर्व मंत्री आनंद सेन, विजय सेन और सीमा आजाद को दोषी करार दिया.
कोर्ट ने तीनों दोषियों को आजीवन कारावास और 10-10 हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई.
हत्याकांड में मुख्य आरोपी पूर्व मंत्री आनन्द सेन पर दलित छात्रा शशि के अपहरण और हत्या का आरोप था.
मालूम हो कि फैजाबाद की लॉ की छात्रा शशि 22 अक्टूबर 2007 को लापता हो गई थी. उसके परिजनों ने अगले दिन शशि की गुमशुदगी का मामला दर्ज कराया था और आनंद सेन पर शक जताया था.
पुलिस ने 30 अक्टूबर को आनंद सेन और उसके ड्राइवर समेत तीन लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया.
पूर्व मंत्री आनंद सेन और उनका ड्राइवर अभी फैजाबाद जेल में हैं, जबकि तीसरी आरोपी सीमा आजाद जमानत पर है.

Thursday, May 12, 2011

ओसामा-ओबामा: सच्चाई क्या है? -- सुनील अमर


ओसामा-ओबामा कांड को लेकर कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जबाब कई रहस्यों पर से पर्दा हटा सकते हैं। इन सवालों के बेहतर जबाब या तो सिर्फ वे शख्स दे सकते हैं जो ओसामा के इर्द-गिर्द (पाकिस्तानी शासक भी) रहते थे या फिर ओबामा और उनकी सी.आई.ए. टीम। अभी तक जो समाचार अमेरिकी प्रशासन द्वारा धीरे-धीरे जारी किए जा रहे हैं वे बहुत बे-सिलसिले के और भ्रमकारी हैं। एक बहुत सोची-समझी और मकड़ी के जाल जैसी जो कहानी अंकल सैम द्वारा बतायी जा रही है वो यकीनन सब कुछ गड्ड-मड्ड कर देगी, और अमेरिका यही चाहता भी है।
पहले तो दुनिया की इस सर्वाधिक हाहाकारी घटना का वक्त। सारी दुनिया जानती है कि अपने लम्बे कार्यकाल के सबसे तकलीफदेह समय में इन दिनों ओबामा हैं। पिछले तीन वर्षों से अमेरिका मेे छाई मंदी, कमरतोड़ मॅहगाई ऐसी कि तमाम अमेरिकी अपना इलाज कराने भारत आ रहे हैं और ओबामा उन्हें भाषण देकर मना कर रहे हैं, बेहतर नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में अमेरिका गये लोग वापस अपने वतन लौट रहे हैं, स्वयं ओबामा भारत आकर तमाम नौकरियों का जुगाड़ अभी पिछले दिनों करके गये हैं और ऐसे में अमेरिकी जनता का जबर्दस्त दबाव कि अमेरिका अन्य देशों पर हो रहे फालतू खर्च को तत्काल बंद करे। राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया वहाँ शुरु हो चुकी है और सर्वेक्षणों में ओबामा की छवि में जोरदार गिरावट बतायी गयी है। अब ऐसे में कोई जादू की छड़ी ही हो सकती थी जिसे कि वे घुमाते और उनकी लोकप्रियता दुरुस्त हो जाती! 
लेकिन अचानक सब कुछ ऐन मौके पर ऐसे सही हो गया है जैसे कि यह सब कुछ बिल्कुल अपने हाथ में ही था कि जब चाहेंगें तब कर लेंगे। पिछले एक दशक से जिस शख्स को अमेरिका जी-जान से खोज रहा था और दुनिया के लगभग आधे उपग्रह सिर्फ ओसामा की ही जासूसी में लगे थे वह एक साधारण से खबरी की मार्फत खोज लिया गया। वह खबरी कौन है इसे सिर्फ अमेरिका जानता है और वह किसी को बताएगा नहीं, ऐसा वह पहले ही कह चुका। आप गौर कीजिए तो पायेंगे कि वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमले के बाद से ही ओसामा का तो कहीं कोइ अता-पता मिल नहीं रहा था लेकिन उससे भी ज्यादा बयानबाजी, धमकी और क्रियान्वयन तो अल-जवाहिरी कर रहा था और आज भी कर रहा है तो असल खतरा आज की तारीख में किससे है? लेकिन जवाहिरी को मारने पर वह सार्थक प्रतिक्रिया ओबामा को न मिलती जो ओसामा को मार कर मिल रही है। कई बार मुर्दे को भी मारना जरुरी हो जाता है। कई बार मरे सांप  पर भी लाठी भांजी  जाती है।
दूसरा, ओसामा के मरने की खबर जब ओबामा ने जारी की तो एक फोटो दिखाई गयी कि सील कमांडो के हेलमेट में लगे कैमरे से सारे शूट-आउट का सजीव प्रसारण ह्वाइट हाउस में बैठकर ओबामा की उच्च स्तरीय कमेटी ने साथ-साथ देखी। आज यह बताया जा रहा है कि वह तो सिर्फ शुरुआती 15 मिनट का प्रसारण ही देखा जा सका था और ओसामा को मारे जाते दृश्य को ओबामा देख नहीं सके थे! यह सुधार भला क्यो? कही यह डर तो नहीं कि विश्व बिरादरी देर-सबेर वह वीडियो मांगने  न लगे?
ओसामा ऐबटाबाद में आधी रात के बाद मारा गया। सील का एक हेलीकाप्टर ओसामा के एक गार्ड ने अपनी साधारण रायफल से मार गिराया लेकिन कोई मुठभेड़ नहीं हुई! उस गार्ड ने या अन्य गार्डों ने अमेरिकी सील पर गोली नहीं चलाई। क्यों? जिस इमारत को अमेरिका बार-बार अति सुरक्षित कह रहा है वो कैसी सुरक्षित थी कि वहां कोई प्रतिरोध ही नहीं होता था? और ओसामा, दुनिया का वह खूंखार  आतंकी जो बिना एक रायफल लिए अपना फोटो तक न खिंचाता रहा हो वह बिना किसी असलाह के अपने घर में रहता था? ऐबटाबाद से आ रही खबरे बता रही हैं कि उसके घर के चारों तरफ क्लोज सर्किट कैमरे लगे हैं, जो कि स्वाभाविक ही है, तो क्या वे कैमरे दिखावटी थे? या ओसामा के सारे स्टाफ को ओबामा एन्ड कम्पनी ने खरीद लिया था? क्या इन्हीं बिकाऊ (?) साथियों के भरोसे वह इतने दिनों से अजेय बना हुआ था? 
अमेरिका ने इस हत्याकांड की शूटिंग करा रखी है लेकिन किसी को दिखाएगा नहीं, अमेरिका ने ओसामा को अरब सागर में जल समाधि दे दी है लेकिन किसी को इसका सबूत देगा नहीं, अमेरिका ने ओसामा का डी.एन.ए. नमूना लिया हुआ है लेकिन वह दिखाया नहीं जा सकता, अमेरिका ने ओसामा को 2 मई की उसी तथाकथित मुठभेड़ में मारा(?) है, इसे ही दुनिया सच माने और इसके लिए वह कोई भी सबूत नहीं देगा। अमेरिका इधर कई वीडियो जारी कर रहा है लेकिन इसमें वो वीडियो नहीं है जिसमें ओसामा को पकड़ते या मारते दिखाया गया हो ! ऐसा क्यों? ऐबटाबाद के उस किलेनुमा मकान से ओसामा नामक शख्स पकड़ा ही नहीं गया या उसे अभी तक मारा नहीं गया है? एक फोटो अमेरिका ने जारी किया है जो उसके चेहरे का क्लोज-अप है और जिसमें उसकी बायीं आँख में  गोली लगी दिखती है लेकिन यह हू-ब-हू वही फोटो है जो 100 में से 90 अवसरों पर अलकायदा की तरफ से आज तक जारी होता रहा है। बस इसमें आँख  में गोली लगने को जोड़ सा दिया गया है जो कि आजकल कोई नौसिखिया ‘फोटो शॉप ’ जानने वाला भी कर सकता है ! तो फिर सच्चाई क्या है?
कानाफूसियों में अगर कुछ दम है तो अमेरिका जबर्दस्त घरेलू दबाव के चलते अफगानिस्तान से हटना चाहता है, भले ही उसे वहां  की सत्ता तालिबानियों को ही क्यों न सौंपनी पड़े! अब तालिबानी और अलकायदा, दोनो एक साथ तो रह नहीं सकते। इनमें से एक का बाजा बजाना जरुरी था। कटौती पाकिस्तान को दी जाने वाली भारी रकम में भी करनी है, इसलिए उसे भी एक बहुत बड़ी अमेरिकी जिम्मेदारी यानी ओसामा की खोज से मुक्त करना जरुरी हो गया था! अमेरिका पाकिस्तान को मदद जारी रखेगा क्योंकि वह तो कई दशकों से ऐसा कर रहा है। 
यह सोचना भी जरुरी है कि पाकिस्तान में ओसामा को मारकर (?) अमेरिका ने एक तीर से कितने शिकार किए! अपनी जनता को खुश किया, भारत को भी खुश कर दिया, और भारत को संदेश भी दिया कि जो कुछ भी करेंगें हम ही करेगें, तुम कोई शरारत करने की न सोचना! सारी दुनिया में अपनी धाक का नवीनीकरण कर दिया कि हम जिसे मारना चाहेंगें उसे कहीं भी जाकर मार आएगें - धरती में धॅसहु या पतालहु चीरौं! 
इस ओसामा प्रसंग में अमेरिका ने या तो पाकिस्तान को साथ  रखा है या फिर अलकायदा को। इसके बगैर ओसामा काण्ड  होना नामुमकिन था। अलकायदा को भी यकीन आ गया है कि ओसामा मार डाला गया है! इतनी जल्दबाजी क्यों? तो क्या यह उड़ती खबर सच है कि जवाहिरी अलकायदा प्रमुख बनने के लिए बहुत उतावला है? क्या इस सारे घटनाक्रम में उसका पर्दे के पीछे से कोई रोल हो सकता है? और आखिरी शंका यह कि क्या ओसामा अमेरिकी बहादुरी से नहीं अपने किसी साथी की गद्दारी से इस अंजाम तक पहॅुचा?
अमेरिका के बहुत से संगीन दुश्मन दुनिया के और भी देशों में हैं। अभी गत वर्ष चीन ने ही 5 अमेरिकियों को एक हेलीकाप्टर को मार - गिराकर पकड़ लिया था और अमेरिका की सारी धौंस और अकड़ निकाल लेने के बाद ही चीन ने उन्हें छोड़ा था। यह नाटक लगभग महीने भर चला था। क्या तब अमेरिका के पास ‘सील कमांडो’ नहीं थे? 
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान तो अमेरिका के लिए अपने घर के पिछवाड़े जैसी अहमियत मात्र रखता है जहाँ  जब मर्जी चारपाई डालकर बैठो या जरुरत पडे तो दिशा-मैदान भी हो लो। क्या अमेरिका उपर्युक्त शंकाओं का जबाब कभी देगा?  00

Wednesday, May 11, 2011

ज़िद में दलितों पर कमजोर फिल्म मत बनाइयेगा ---शीबा असलम फहमी

( मोहल्ला लाइब, जनतंत्र और पेंगुइन इंडिया ने '' बहसतलब '' नामक एक श्रृंखला का आयोजन दिल्ली में इंडिया हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर सभागार में किया था, उसी में हिंदी फिल्म के दलित चरित्रों पर बहस हुई थी.बहस में निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप भी शामिल थे.इसी बहस में शीबा असलम फहमी के प्रतिभाग का यह प्रस्तुतिकरण है, और उसके ऐन नीचे पत्रकार दिलीप मंडल की टिपण्णी और फिर  शीबा असलम फहमी का  जबाब है  --)
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    अनुराग कश्यप की बाद की दलीलों से लगा कि वह और विश्व दीपक आमने-सामने नहीं बल्कि एक ही पाले में खड़े हैं। यही बात अहम् है क्यूंकि विश्व दीपक के सवाल ‘बाज़ार की सत्ता’ की उसी विडंबना को नकारने का आग्रह करते हैं जिसे ख़ुद अनुराग कश्यप अपनी बात में बार-बार उजागर कर रहे हैं. और दिख रहा है की उनके माध्यम पर बाज़ार की तानाशाही ख़ुद उनके आड़े कितनी आई है. बस फ़र्क़ इतना है कि बाज़ार की ‘मजबूरी’ हम सब से जो करवा रही है उसको सही ठहराने में और आत्मसात कर लेने में ख़तरा है की वैकल्पिक मॉडल की तलाश या अविष्कार की उम्मीद दम तोड़ देती है जो किसी भी ज़िन्दा समाज के लिए शर्मनाक है. अनुराग कश्यप ने ये महसूस किया होगा की वे जिस छोटी सी हिंदी की दुनिया से रूबरू थे उनमें किसी ने उनसे वो चटपटे, मसालेदार, स्कैंडल और ग्लेमर से अभिभूत सवाल नहीं पूछे.
मेरे सवाल- मुंबइया फिल्मों में दलित! काल्पनिक किरदार कितने काल्पनिक!’ के जवाब में जो भी कुछ कहा गया उसमें भी कम से कम ये छिछलापन नदारद रहा. यहाँ पर किसी ने उन महा-सफल मनमोहन देसाईयों, प्रकाश मेहराओं, टीनू आनंदों, करन जोहरों या दादा कोंडके जैसे फिल्मकारों का नाम नहीं लिया जो शायद फ़िल्मी दुनिया के अर्थतंत्र की धुरी हों. अनुराग कश्यप ने अगर ये चुना है की वह कुछ अलग हटकर करेंगे तो ये सवाल उसी चुनाव का सीधा प्रतिफल है जो उनकी ही झोली में गिरना था किसी करन जोहर की झोली में तो ‘आपकी ‘अंडरवियर” का रंग क्या वाकई गुलाबी है, या आप की यौन वरियेता क्या है’, जैसे सवाल ही आते हैं.
पता नहीं इस बात का उनके लिए कुछ मतलब है या नहीं लेकिन जिस बहेस में शांताराम, राज कपूर, महबूब, गुरूदत्त, बी.आर. चोपड़ा, बिमल राय, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों का नाम लिया जाए, और उसी सांस में अनुराग कश्यप जैसे निस्बतन नए फ़िल्मकार का नाम भी अपनी जगह बनाए ये इज्ज़त की बात है. हाँ जो सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए आया हो उसके लिए ये झुंझलाहट की बात हो सकती है.
जहाँ तक गाली का सवाल है ‘बहेसतलब’ सेमिनार श्रंखला एक बौधिक प्रयोजन ही है, इसके विषय, वक्ता, प्रतिभागी आदि सभी विमर्श की दुनिया के लोग हैं. अगर अनुराग कश्यप केवल 5 -6 फिल्मों में योगदान दे कर त्रिपुरारी शर्मा, नामवर सिंह, अजय ब्रम्ह्मात्म्ज जैसे मनीषियों के साथ एक ‘बोलनेवाले’ की हैसियत से इसमें शामिल होते हैं और उनकी तरफ़ कुछ सवाल आते हैं तो विचलित हो कर गालियों पर उतरना बचकाना है और उनके इस मंच पर होने की पात्रता पर भी सवाल खड़े करता है. और उससे भी बेवकूफ़ाना है गाली बकने की छूट मांगना ये कह कर की, “गाली गलौज के बिना मैंने बात करना नहीं सीखा…”. मोहल्ला लाइव पर बहेसतलब-2 में उनका कहा मौजूद है, वहां तो उन्होंने कहीं गाली नहीं दी? उस मंच पर वे सभ्य कैसे बने रहे? क्यों ना माना जाए की ‘मोहल्ला लाइव’ के मंच पर प्रतिक्रिया करने वालों के प्रति तुच्छ भावना से वे शुरू हुए, शायद उन्हें बुरा लगा की ये दलित और उनके मुद्दे उठानेवाले भी अब हमसे सवाल करेंगे?
अगर ऐसा नहीं है तो वे अपने से बड़ी हैसियत के किसी आदमी को इन्हीं गालियों से नवाज़ कर दिखाएँ. कल को वे किसी आमिर खान, सलमान खान, अक्षय खन्ना जैसी फ़िल्मी हस्ती के साथ काम करेंगे, निर्माता-निर्देशक का माई-बाप वाला दर्जा होने के बावजूद क्या वे ऐसी जुर्रत किसी आमिर खान के साथ तो क्या ‘उनके सामने’ किसी और से भी कर सकते हैं? मोहल्ला लाइव पर ये छूट क्या वे इसलिए ले रहे हैं कि यहाँ उन्हें बाक़ी सब तुच्छ लग रहे हैं?
‘चीजों को बदलने की बात मत करिए, उन्‍हें बदलिए’ का जहाँ तक सवाल है तो फिर सभी अखबार, पत्रिकाएँ, किताबें, सेमिनार, गोष्ठी, वर्कशॉप, साहित्यकार, कवि, बे-ईमान ठहरे? एक राजशाही में जीते हुए, राजशाही के विरुद्ध और प्रजातंत्र की कल्पना पर बोलने-लिखने-पढ़ने वालों को हम आज यूंहीं सजदा नहीं करते हैं. उन सब ने कभी राजशाही से सीधे मोर्चा नहीं खोला बस समाज को वो वाजिब सवाल दिए जिनकी डोर पकड़ कर तमाम क्रांतियाँ हुईं. सुकरात, रूसो, वोल्टेयर, मार्क्स, फुले, आम्बेडकर, गाँधी, सभी अपने ‘बोलने’ और सिर्फ़ बोलने के लिए जानेजाते हैं. आम्बेडकर बोले ना होते तो कभी इस लायक़ ना हो पाते की देश का आम आदमी उनके पीछे चल देता और अँगरेज़ और ‘द्विज’ नेहरु-गाँधी उन्हें अपने साथ टेबल पर बिठाते.
आख़िर ये समाज पर सोचने-बोलनेवाले करें क्या? अनुराग कश्यप आपका वाजिब तर्क है कि फलां-फलां ने कोशिश की, एक फ़िल्म बनाई, नहीं चली और वे ज़मीन पर आ गए. आपकी दलील फ़िल्म कि आर्थिक कामयाबी कि अहमियत को बताती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. ज़ाहिर है आप मैदान में होंगे तभी ना अच्छा या बुरा कुछ करेंगे, लेकिन आपकी इस बात का समर्थन करनेवाले टिप्पणीकार जब लिखने-बोलनेवालों को ये उलाहना देते हैं कि ‘तुमने दलितों आदि आदि के मुद्दे उठाकर सिर्फ़ निजी तौर पर कामयाबी हासिल की, तुम बिकने-छपने लगे, सभाओं में बुलाए जाने लगे’, तो ऐसी हालत में समझ में नहीं आता की सही रास्ता कौन सा है? कोई वक्ता अगर अपने तर्कों-विचारों के बल पर लोकप्रिय हो जाए, मिसाल के तौर पर दोनों बहेसतलब का संचालन करनेवाले विनीत कुमार ही को देखिये. मीडिया पर उनकी समझ और बेबाक बोलने के अंदाज़ के कारण वे लोकप्रिय युवा विश्लेषक के तौर पर जाने जाते हैं. उन्हें मंच, मगज़ीन, मुद्रा सभी मिलती है तो अब ये उनका अपराध है क्या? सामाजिक समझ को आर्थिक बदहाली से तभी क्यूँ जोड़ा जाता है जब कोई दिलीप मंडल या अनीता भारती वही तन्ख्वाह ले रहा होता है जो कोई भी दूसरा उसी संस्थान में? ये लोग किस अपराध के तहत चुप करवाए जा रहे हैं? आप कहेंगे की ये सवाल आप उन्ही से कीजिये जो चुप करवा रहे हैं, तो उसका जवाब ये है की आपके पक्ष में खड़े ये लोग आपके तर्क को सिर्फ़ आप तक ही सीमित रखना चाहते हैं और आप इस पर ख़ामोश हैं, क्या आपको नाजायज़ तर्कों से अपना बचाव मंज़ूर है?
अरे विचार-विमर्श की कामयाबी अगर जायज़ आर्थिक मज़बूती भी लाती है तो वह किसी हाशियाग्रस्त समाज के सदस्य के लिए ‘भ्रष्टाचार का प्रमाणपत्र’ बना कर क्यूँ पेश की जाती है? किसी मनेजर पाण्डे, नामवर सिंह, गौतम नौलखा, निर्मला जैन, जैसों से ये सवाल क्यूँ नहीं किया जाता? क्या दिलीप मंडलों और अनीता भारतियों से ये नहीं कहा जा रहा है की नौकरी ‘दे दी’, तन्ख्वाह ‘खा’ रहे हो, अब और ‘क्या’ चाहिए? चुप कर के बैठो, शांति से!
अजीब हाल है हमारी सोच का ! इसी नौकरी-तन्ख्वाह के साथ साथ जब कोई द्विज मंचों-मंचों ‘बोलता’ फिरता है तो वह देश-विश्व स्तर का बुद्धिजीवी, प्रकांड विद्वान्, शिखर पुरुष हो जाता है. जब कोई ग़ैर-द्विज इसका पासंग भी करे तो वह मौक़ापरस्त, भ्रष्ट, छदम, गल्थोथरी करनेवाला, बुद्धिहीन हो जाता है?
आखरी बात ये कि सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ‘सौन्दर्यबोध-कैटरीना’ से परे जा कर सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है. एक सवर्ण हीरो में गुणों-ख़ूबियों की अथाह मौजूदगी हाशियाग्रस्त दुनिया के आत्मसम्मान और नैतिकता को ध्वस्त कर पैदा की जाती है. मेरा मक़सद हिंदी फिल्मों की इस प्रवृत्ति की तरफ़ ध्यान दिलाना था नाकि फिल्मों में आरक्षण लागू करने की वकालत करना या ‘दलित हीरो’ को लेकर ‘दलित विषय’ पर फ़िल्म बनाना का आग्रह करना.
आप सही हैं कि फ़िल्म एक महंगा माध्यम है, आर्थिक कामयाबी उसकी बुनियादी शर्त है. आप ऐसे सिस्टम में कुछ नया कर के दिखाने की जद्दोजहद में लगे हैं, और दुनिया आपकी इस कोशिश को मान रही है. इसीलिए आपसे ही सवाल भी किये गए. आप फिल्मी दुनिया में उस नई सोच के प्रतिनिधि के तौर पर मंचासीन होते हैं. साझा समझ विकसित करने की जगह बहेस मत ‘जीतिए’, क्यूंकि हम नहीं आप विशेषज्ञ हैं इस विधा के, और इस ‘बहेसतलब-2 ‘ में जो हुआ उस ज़िद में कोई दलित फ़िल्म ना बना डालियेगा. दलित समस्या पर फ़िल्म जब भी बनाइएगा, तभी बनाइएगा जब अच्छी कहानी, पटकथा, निर्देशक, और पैसा हो. क्यूंकि चैलेन्ज यही है की जब अनुराग कश्यप दलित समस्या पर फ़िल्म बनाएं तो वो हिट भी हो और किसी बहेसतलब सेमिनार का मुद्दा भी बने. डिब्बा-बंद ना पड़ी रहे!
शुभकामनाएँ!
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दिलीप मंडल (पत्रकार ) --------
भारत में इस तरह का विमर्श शुरू हो रहा है, यही हमारे दौर की बड़ी उपलब्धि है। इस बारे में बातचीत हो और बिना कड़वाहट के हो और इसमें हर किसी का हिस्सा हो, इसके को-ऑर्डिनेट्स तय करने में अगर यात्रा, मोहल्ला और जनतंत्र डॉट कॉम कोई भूमिका निभाता है तो यह महत्वपूर्ण होगा।
सभी यह महसूस कर रहे होंगे कि कुछ असहज सवाल अब पूछे जाने लगे हैं। ये सवाल कई सदियों से स्थगित थे। इससे पहले एस आनंद क्रिकेट में जाति प्रश्न को लेकर अपनी बहुचर्चित किताब लिख चुके हैं। ऐसे सवालों को हल करके समाज आगे बढ़ पाएगा, ऐसी उम्मीद है।
एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहां लोकजीवन के हर अंग में पूरा भारत अपनी तमाम विविधताओं के साथ नजर आए। यह कोई बेजा मांग नहीं है। ऐसा भारत ज्यादा सुंदर दिखेगा और शायद इस तरह भारत की तरक्की का कोई रास्ता ही खुल जाए। आखिर हर किसी को लगे तो कि देश उसका भी है।
शीबा जी ने अपनी बात तार्किक तरीके से रखी है। इन सवालों का जवाब यह नहीं हो सकता कि – क्या फिल्मों में भी आरक्षण लागू कर दिया जाए। बेहतर समाज बनाए बगैर ऊपर से थोपकर ऐसे बदलाव नहीं हो सकते और हुए भी तो वे टिकाऊ नहीं होंगे। उम्मीद है यह चर्चा जारी रहेगी।
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शीबा असलम फहमी ---
मैंने अनुराग कश्यप के किसी बयान पर प्रतिक्रिया कभी नहीं दी!
मैंने दिलीप मंडल के उठाए सवाल पर दो मिसालें पेश की थीं, क्योंकि कुछ लोगों ने दलित चरित्रों के सवाल पर ‘फिल्मों में आरक्षण’ जैसे तंज़ से उस सवाल को नाकारा था की हमारी फिल्मों में संवेदनशीलता और प्रगतिशीलता दोनों की कोई जगह नहीं. और मेरा सवाल भी अनुराग कश्यप से नहीं था. सिर्फ़ 4 या 5 फ़िल्म पुराने फिल्मकार से, भले ही वोह कितना भी प्रतिभाशाली हो, साहित्य-फ़िल्म-मीडिया की दशकों पुरानी सोच और नज़रिए में सुधार की उम्मीद कौन कर सकता है? (इत्तेफ़ाक से अभी तक अनुराग कश्यप की कोई फ़िल्म देखी भी नहीं है, बस सुना ही है उनके बारे में).
मेरा सवाल अभी भी वहीँ है और उस सामाजिक समझ से है जो दलित चरित्रों को ‘agency-less’ और स्वाभाविक रूप से तिरस्कार-ग्राही दिखाते-बताते हैं. अभी तक सशक्त दलित किरदार का इंतज़ार है, जो उतना ही ‘आम’ हो जितना एक फ़िल्मी किरदार होता है और उतना ही ‘ख़ास’ हो जितना एक ‘हीरो’ होता है! ००

हमारी फिल्‍मों के दलित चरित्र इतने निरीह क्‍यों हैं? ♦ शीबा असलम फहमी


बात हिंदी फिल्मों की हो रही है तो इधर-उधर भटके बिना दो मिसालें पेश है, जहां दलित चरित्र हैं और साहब, ‘वाह-वाह’ क्या खूब हैं। आशुतोष गोवारिकर की बहुचर्चित फिल्म ‘लगान’, जिसे पता नहीं किस आशावाद के तहत ‘ऑस्कर’ तक भेजा गया था, में भी एक सशक्त दलित किरदार है, जिसका नाम है ‘कचरा’। तो साहेबान ‘कचरा’ बहुत काम का गेंदबाज है। इसलिए नहीं कि उसमें प्रतिभा है बल्कि इसलिए की उसमें एक ‘नुक्स’ है, जिसकी वजह से उसका हाथ टेढ़ा है और गेंद कुछ ऐसे फिरकती है कि बस!
उसमें यही प्रतिभा बिना ‘नुक्स’ के भी हो सकती थी, अगर वो भुवन होता। उसका नाम ‘कचरे’ की जगह ‘भुवन’ हो सकता था अगर वो दलित न होता और वो आखरी शॉट उसके हिस्से में भी आ सकता था, अगर वो आशुतोष-आमिर की फिल्म न होती। इसी फिल्म में गोरी-मेम ‘भुवन’ का समर्थन करते हुए कहती है की ‘at least give him a fair chance…’ मतलब ये एक ‘fair-chance’ या ‘एक अवसर मात्र’ पर ही तो सारा दारोमदार टिका था न???
और वही एक अवसर ही तो नहीं देता है शासक-शोषक वर्ग।
तो साहेबान हमारी फिल्मों में तो कल्पना भी नहीं की जाती एक ‘कम-जात’ के प्रतिभावान होने की! अगर इसके बर-अक्स आप को कोई ऐसी फिल्म याद आ रही हो, तो मेरी जानकारी में इजाफा कीजिएगा… हां खुदा न खासता अगर कोई प्रतिभा होगी तो तय-शुदा तौर पर अंत में वो कुलीन परिवार के बिछड़े हुए ही में होगी।
एक और मिसाल… ‘सुजाता’ याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या ‘सुजाता’ को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार ‘इन लोगों में यही होता है’। पूरी फिल्म में ब्राह्मण-दलित संवाद स्थापित ही नहीं हो पाता। बस ब्राह्मण-ब्राह्मण का ही द्वंद्व है, जिसमें दयालु-दाता मॉडर्न ब्राह्मण और ‘संस्कारी ब्राह्मण’ का डिस्कोर्स उभरता है। दलित कन्या में कोई गुण नहीं निकल पाता, बस सामाजिक जिम्मेदारी के तहत ही वह स्वीकार्य होती है… फिल्म इस संभावना के साथ खत्म होती है कि अगर अपने बेटों की बात नहीं मानी और उनके प्रेम विवाह में रोड़े अटकाये तो वे बगावत कर देंगे। पिता पुत्र की आधुनिकता एक गुण के तौर पर उभरती है और हां, खून सबका एक है – ये मेडिकल फैक्‍ट भी स्थापित होता है। जहां तक सुजाता का सवाल है, उसका संस्कृतिकरण पूर्ण है। वो चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका ही बन पाती है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है।
क्या वाचाल, मन-मर्जी जीनेवाली और आत्म-सम्मानी ‘सुजाता’ है कहीं बंबइया फिल्मों में आज तक?
(शीबा असलम फहमी।  जेएनयू में रिचर्स फेलो। इस्‍लामिक फेमिनिज्‍म पर शोध। मशहूर साहित्यिक पत्रिका हंस में नियमित स्‍तंभ लिखती हैं। उनसे sheebaasla@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।) ( जनतंत्र.कॉम से )

Tuesday, May 10, 2011

किसान पहले पेट भरें या पर्यावरण की सोचें ? -- सुनील अमर


भारतीय कृषि शोध संस्थान ने अपनी एक ताजा रपट में बताया है कि देश की कुल 14 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य जमीन में से 12करोड़ हैक्टेयर की उत्पादकता काफी घट चुकी है और इसमें से भी 84लाख हैक्टेयर जमीन जलभराव और खारेपन की समस्या से ग्रस्त है। इस सरकारी शोध संस्थान ने अपनी 'विजन 2030' नामक रपट में इस तथ्य का खुलासा किया है। उधर संसद में बजट पेश होने से पूर्व पेश की गई एक रपट में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया था कि बीते दो दशक में देश की कुल कृषि योग्य जमीन में 28लाख हैक्टेयर की कमी विभिन्न कारणों से आई है। एक तरफ ताजा जनगणना से प्राप्त ऑंकड़े कि देश की कुल आबादी सवा अरब के करीब हो गई है और दूसरी तरफ कृषि योग्य जमीन और उसकी उत्पादन क्षमता में हो रही निरन्तर कमी,ये स्थितियॉ आने वाले दिनों में खाद्यान्न संकट का कारण बन सकती हैं।

              समाचार माध्यमों में एक ही मुद्दे पर जितने तरह के समाचार आते हैं वे वस्तुत: एक भ्रम की स्थिति बना देते हैं। मसलन एक तरफ ये खबर हैं कि कृषि योग्य जमीन और उत्पादकता दोनों घट रही है तो दूसरी तरफ ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि पैदावार बहुत बम्पर हुई है और सरकार के पास उसे रखने की जगह तक नहीं है। कृषि मंत्री का यह भी दबाव है कि गेहू का काफी दिनों से बंद पड़ा निर्यात फिर से शुरु कर दिया जाय,हालाँकि बढ़ती खाद्य मुद्रा स्फीति को देखते हुए सरकार अभी इसके पक्ष में नहीं है। यहॉ यह जान लेना उचित होगा कि जिस प्रकार मानव उपभोग या उपयोग की बहुत सी वस्तुऐं एक ही स्थान या देश में उपलब्ध नहीं होतीं और जरुरतमंद देश उनका आयात-निर्यात करते रहते हैं,खाद्यान्न भी उसी श्रेणी में हैं। अविखंडित सोवियत रुस जैसे विशाल भौगोलिक क्षेत्रफल वाले देशों में भी कृषि योग्य जमीन बहुत कम थी और अपनी खाद्य जरुरतों के लिए वह भारत जैसे देशों पर निर्भर रहता था और विखंडन के बाद आज भी उसकी यही स्थिति है।
             
               दुनिया में तमाम ऐसे देश हैं जहॉ औद्योगिक प्रगति तो बहुत ज्यादा है लेकिन कृषि वहाँ उनकी घरेलू जरुरत भर को भी नहीं है। ऐसे तमाम देश अपनी खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए भारत जैसे विशाल कृषि क्षेत्र वाले देशों पर आश्रित रहते हैं। यह अपनी जरुरत और भूमंडलीकरण का तकाजा है कि हम ऐसे देशों को खाद्यान्न देने से एकदम से इनकार नहीं कर सकते। मौजूदा दौर में जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही है,भारत और चीन जैसे विशाल कृषि क्षेत्र वाले देशों की तरफ पूरी दुनिया की निगाह लगी हुई है। तमाम विकसित देशों में उनके अपने धन से इस तरह की रिसर्च हो रही है कि भारत की जलवायु और मिट्टी में अधिकतम पैदावार कैसे ली जा सकती है! स्पष्ट है कि अनाज का कोई स्थायी विकल्प नहीं होता।

               देश में आज कृषि के सामने सबसे बड़ी बिडम्बना है- निरन्तर छोटी और अलाभकारी होती जा रही काश्त। ऊपर से उस पर भारी आबादी की निर्भरता। आज भी देश के कुल श्रमिकों में से आधे से अधिक यानी 58.2प्रतिशत खेती पर निर्भर हैं। आज से साढ़े तीन दशक पूर्व जब देश में हरित क्रांति की शुरुआत की गई तब कृषि में रासायनिक खादों का प्रयोग यह सोचकर किया गया कि इससे पैदावार बढ़ेगी। लघु सिंचाई योजना और रासायनिक खादों पर भारी अनुदान ये दो ऐसे सरकारी कारक थे जिन्होंने खाद्यान्न के मामले में देश को न सिर्फ आत्मनिर्भर बनाया बल्कि शीघ्र ही हम निर्यातक भी बन गये। एक बार किसानों के सिर चढ़ चुका रासायनिक खाद का भूत फिर उतर नहीं सका और विषेशकर नेत्रजन यानी यूरिया का तो अंधाधुंधा इस्तेमाल आज तक हो रहा है। जैसे-जैसे किसान की जमीन घटती जा रही है,वह कम जमीन से अधिकतम पैदावार लेने के लिए ऑंख मूदकर रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहा है। आज तमाम कृषि विषेशज्ञ भले ही यह चेतावनी दे रहे हों कि हाईब्रिड सीड और यूरिया का असंतुलित प्रयोग खेती व स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है,लेकिन उनकी सुनने वाला कोई है नहीं। एक छोटी सी काश्त पर निर्भर किसान परिवार पहले अपने पेट भरने का उपाय करे या कृषि-विज्ञान की जानकारी के लिए अपनी खेती को प्रयोगशाला बनाए?सरकार यूरिया पर सबसे ज्यादा छूट देती है और किसान भी यूरिया ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता है। यही कारण है कि देश में बिकनेवाली समस्त रासायनिक खाद में से आधी मात्रा सिर्फ यूरिया की है!

               नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन ने अपनी 2004-05 की रपट में बताया था कि देश के औसत किसान परिवार की मासिक आय महज 2115रुपये है। आज भी इन परिस्थितियों में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। हो सकता है कि अब यह आय जरा बढ़कर 2500 रुपये मासिक हो गयी हो। ध्यान रखें कि यह आय सकल परिवार की है न कि एक व्यक्ति की! इस प्रकार औसत दैनिक आय महज 85 रुपये ही हुई। यहॉ यह जानना जरुरी है कि जेल में बंद एक कैदी के भोजन पर सरकार लगभग 100 रुपये प्रतिदिन खर्च करती है! देश के तीन चौथाई किसान छोटी जोत वाले हैं। ये किसान अपनी उपलब्ध जमीन से हर हाल में अधिकतम पैदावार लेना चाहेंगें,इस बात की परवाह किये बगैर कि उनके द्वारा प्रयोग की जा रही रासायनिक खाद और कीटनाशक जमीन या पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेंगें। आज इस बात पर तमाम चिन्ताऐं प्रकट की जा रही हैं कि हमारे परम्परागत देसी बीज विलुप्त होते जा रहे हैं और उनका स्थान विदेशी हाईब्रिड बीज लेते जा रहे हैं। यह चिन्ता वाजिब है लेकिन क्या देसी बीज और तकनीक के भरोसे आज की विशाल आबादी का पेट भरा जा सकता है?क्या यह संभव है कि हम नीम की खली और पत्तियों का इस्तेमाल कर फसलों को कीटों के प्रकोप से बचा लें? इतनी मात्रा में क्या नीम के पेड़ उपलब्ध हैं देश में?

               जिस प्रकार अब हम जेट युग को छोड़कर वापस बैलगाड़ी युग में नहीं जा सकते उसी प्रकार अब यह कल्पना करना कि किसान सावाँ,कोदौ,देसी गेहू और धान के बीज बोयेंगें तथा ढ़ेर सारे जानवर पालकर खेतों में गोबर की खाद डालेंगें,समय चक्र को वापस घुमाने सरीखा ही होगा। समाज के अन्य हिस्से की तरह खेती-किसानी में भी अब जो नई पीढ़ी आ गई है,वह पुरानी खेती को जानना-करना नहीं चाहती। जोत छोटी होने के कारण जानवर पालने की गुंजाइश पहले ही खत्म हो चुकी है और स्वास्थ्य संबन्धी कारणों से मेहनत करने की क्षमता में भी ह्रास हो रहा है। यही कारण है कि खेती में भी मशीनीकरण का विस्तार धीरे-धीरे होता जा रहा है। इसे रोकने के उपाय हो सकते हैं लेकिन उसके लिए खेती को पूरी तरह सरकारी संरक्षण की आवश्यकता होगी। मसलन कृषि उपज का दाम प्रभावी ढ़ॅंग से लाभकारी बनाकर तथा पशुपालन को प्रोत्साहित कर ज्यादा पैदावार हेतु रासायनिक खाद के अंधाधुंधा इस्तेमाल को रोका जा सकता है,लेकिन यह कार्य इसलिए संभव नहीं क्योंकि तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाऐं विकासशील देशों की सरकारों को कृषि पर अनुदान देने से मना करती हैं। उनका लक्ष्य दूसरा है। वे ऐसे देशों की कृषि को पूरी तरह अलाभकारी और हानिकारक बनाने के बाद अपने देश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वहॉ ठेके पर खेती दिलाने की परिस्थितियॉ पैदा कर रही हैं। ( हम समवेत फीचर्स में 10 मई 2011 को प्रकाशित )

Sunday, May 08, 2011

आखिर बोझ क्यों हैं लडकियां ? --- सुनील अमर


 देश में  जनगणना के जो ताजा आंकड़े  आये हैं उनसे हमारे सामाजिक चरित्र का यह बर्बर पक्ष एक बार फिर उजागर हुआ है कि लड़कियों की संख्या को हम और तेजी से कम करने में लगे हुए हैं। यह तथ्य इस जानकारी के आलोक में और हैरतअंगेज लगता है कि देश के जिस हिस्से में जितने ज्यादा पढ़े-लिखे और धन कुबेर मौजूद हैं, वहाँ एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या सिर्फ 300 के ही करीब है! इन तथ्यों ने निश्चित ही हमारी इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है कि शिक्षा और सम्पन्नता आने से हमारे रुढ़िवादी विचारों में बदलाव आ जाएगा। हालिया जनगणना से यह भी साफ हो चुका है कि इसके पीछे गरीबी नहीं बल्कि दूषित मानसिकता ही मुख्य कारण है। सच्चाई तो यह है कि अति गरीबों की बेटियाँ  उनके लिए बोझ हैं ही नहीं क्योंकि वहाँ  पेट भरने की दैनिक जुगत के आगे दहेज या खर्चीली शादी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। एक भयावह तथ्य यह भी सामने आ रहा है कि देश के जिन दक्षिणी राज्यों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति शुरु से ही दमदार थी, वहाँ भी अब दहेज की कुप्रवृत्ति तेजी से पाँव पसार रही है। 
बीते दो दशक में देश में  सामाजिक, राजनीतिक व शैक्षिक चेतना का काफी विस्तार होने के बावजूद कुंठाओं, वर्जनाओं और रुढ़ियों से हमारा भारतीय समाज ज्यों का त्यों  चिपका हुआ है। मूंछों  की नकली और बेवजह शान के लिए लडकियां पहले भी मारी जाती रही हैं और आज भी उनकी ‘आनर किलिंग’ सार्वजनिक रुप से हो ही रही है, और जब तक नहीं मारी जा रही हैं तब तक उनके उठने-बैठने, चलने-फिरने से लेकर कपड़े पहनने और मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल करने तक पर मर्दों द्वारा जबर्दस्त अंकुश लगाया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि मर्द अगर भ्रष्ट हैं तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ औरत है! देश में कहने को तमाम कानून हैं जो लड़कियों /औरतों को संरक्षण देते हैं लेकिन उनका सकल क्रियान्वयन मर्दों के हाथ में है और ये वही मर्द हैं जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे होने के बावजूद खाप पंचायतों के आदेशों को समर्थन देते हैं! प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका लांसेट का अनुमान है कि भारत में  प्रतिवर्ष 5,00,000 से अधिक कन्या-भ्रूण हत्याऐं होती हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इसका उपाय क्या हो?
 जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की फेलो और चर्चित महिलावादी लेखिका सुश्री शीबा असलम फ़हमी इसका सीधा और सपाट त्रि-सूत्री उपाय बताती हैं- लड़कियों को लड़कों की तरह उच्च शिक्षा, लड़कों जितनी ही आजादी और पारिवारिक सम्पत्ति में हक़ बराबर हिस्सा। शीबा कहती हैं कि ये तीन उपाय कर दीजिए तो फिर आपकी लड़की आप के उपर बोझ नहीं रह जाएगी और जैसे आपका लड़का पढ़-लिखकर अपना जीवन जीने का रास्ता खोज लेता है, आपकी लड़की उससे भी अच्छी तरह अपना रास्ता बना लेगी। उनका  मानना है कि शिक्षा से योग्यता, आजादी से आत्मविश्वास व समाज को ठीक से समझने की कूबत तथा सम्पत्ति में हिस्से से जीवन यापन का मजबूत आधार एक लडकी को मिलता है। शीबा गिनाती हैं कि समाज में इस तरह के तमाम सफल उदाहरण हैं भी लेकिन वे मानती हैं कि सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति या सामाजिक जागरुकता के बिना ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं, और यह तो एक बाप को खुद ही चाहिए कि वह अपनी लड़की को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाये और उसे उसका हक़ दे। अगर आप खुद अपनी बेटी को उसका हक़ नहीं देना चाहते तो किसी और (उसके ससुर या पति) से क्यों उम्मीद करते हैं कि वह उसे अपनी सम्पत्ति में हिस्सा दे?
देश में बालिका-हत्या का सबसे बुरा इतिहास और रिकार्ड राजस्थान का रहा है, जहां  दहेज नहीं मूछों की फर्जी शान के लिए बेटियों की हत्या को एक पारिवारिक रिवाज में तब्दील कर दिया गया! इसी राजस्थान में  बेटियों की रक्षा हेतु सामाजिक चेतना की अलख जगाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों की धनराशि स्वयं सेवी संस्थाओं को दी गई लेकिन नतीजा शून्य है। वैसे तो यह प्रकृति की ही व्यवस्था है कि मादा की संख्या हमेशा नर से कम होती है लेकिन यह प्रतीकात्मक या नाममात्र को ही होती है (इस कमी को मादा लिंग की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का प्राकृतिक निर्णय भी माना जा सकता है) लेकिन देश के आठ राज्यों में तो यह अंतर बहुत ही चिंताजनक स्तर तक आ गया है और आश्चर्य इस बात का है कि ऐसे सभी आठ राज्य आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर देश में सबसे ऊॅंची पायदान पर हैं। ऐसे में  यह चिन्ता होनी स्वाभाविक ही है कि यदि धनी और शिक्षित लोग भी अपनी बेटियों से भयभीत हैं तो उनका भय कैसे दूर हो? 
देश के तमाम राज्यों में सरकारें लड़कियों  के जन्म पर कुछ धनराशि, स्कूलों में सायकिल, माध्यमिक शिक्षा पूरी करने पर कुछ हजार रुपये तथा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी पर भी आर्थिक मदद दे रही हैं लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि यह सब वोट लेने का नाटक भर होकर रह गया है। वास्तव में आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता आर्थिक आत्मनिर्भरता है और अगर सरकारें इसी एक समस्या को हल करने की गारन्टी दे दें तो लडकियां  जन्म भी ले सकती हैं और दीर्घायु भी हो सकती हैं। इस प्रकार यही एक विकल्प बचता है कि पुराने कानूनों की समीक्षा कर ऐसे नये और कठोर कानून बनाये जायॅ जो बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में न सिर्फ हक़ बराबर हिस्सा दिलायें बल्कि उनकी सारी शिक्षा और शैक्षणिक व्यय को सरकार द्वारा वहन किये जाने की गारण्टी भी दें।
कन्या भ्रूणहत्या रोकने के लिए आज से डेढ़ दशक पहले देश में भ्रूण परीक्षण कानून बना तथा दो साल बाद इसमें आवश्यक संशोधन कर इसे और सख्त बनाया गया लेकिन क्रियान्वयन की लचर मानसिकता के चलते नौबत आज यहाँ  तक आ पहुंची  है कि न सिर्फ पोर्टेबुल अल्ट्रासाउन्ड मशीन को सायकिल पर लादकर गाँव-गाँव, गली-गली मात्र 400-500 रुपयों में भ्रूण परीक्षण किए जा रहे हैं बल्कि संचार क्रान्ति के चलते अब इन्टरनेट पर भी चंद रुपयों में ऐसी सामाग्री उपलब्ध है जिसे खरीद कर कोई भी अपने घर पर ही ऐसा परीक्षण कर सकता है। जाहिर है कि सिर्फ रोक लगाने के कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकते। यह समस्या तभी हल हो सकती है जब इसे समस्या ही न रहने दिया जाय। लड़कियों से धार्मिक कर्म कांड और माँ-बाप का अंतिम संस्कार कराने जैसे कार्यो को राजकीय प्रोत्साहन और संरक्षण मिलना ही चाहिए। बराबरी सिर्फ खोखले शब्दों से ही नहीं आ सकती।    
 बीते दिनों एक सार्वजनिक कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि अगर लड़कियों की संख्या इसी रफ्तार से कम होती रही तो एक दिन हम सब को ‘होमोसेक्सुअल’ होना पड़ सकता है। तमाम लोगों को इस पर आपत्ति है लेकिन यह दशकों से सार्वजनिक जीवन जी रहे एक राजनेता द्वारा बिना किसी बनावट के दी गयी चेतावनी है। भले ही हमारे नेता वोट की राजनीति में आकंठ डूबे हों लेकिन वे मतदाताओं के लिए लड़कियों को आयात नहीं कर पाऐगें। लड़कियांे की कमी का कहर भी हमेशा की तरह गरीबों और निम्न जाति के युवकों पर ही टूटना तय है, क्योंकि हमारे समाज की मानसिकता लड़की को अमीर घर में ब्याहने की है और अमीरों की शादियाॅ तो कई रास्तों से हो जाती हैं। इसलिए सरकार को अब इस समस्या के निदान के लिए पूरी तरह से कमर कस लेने का वक्त आ गया है। ( राष्ट्रीय हिंदी दैनिक हरिभूमि -- दिल्ली, हरियाणा,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ -- में 06 मई 2011 को प्रकाशित)