बात हिंदी फिल्मों की हो रही है तो इधर-उधर भटके बिना दो मिसालें पेश है, जहां दलित चरित्र हैं और साहब, ‘वाह-वाह’ क्या खूब हैं। आशुतोष गोवारिकर की बहुचर्चित फिल्म ‘लगान’, जिसे पता नहीं किस आशावाद के तहत ‘ऑस्कर’ तक भेजा गया था, में भी एक सशक्त दलित किरदार है, जिसका नाम है ‘कचरा’। तो साहेबान ‘कचरा’ बहुत काम का गेंदबाज है। इसलिए नहीं कि उसमें प्रतिभा है बल्कि इसलिए की उसमें एक ‘नुक्स’ है, जिसकी वजह से उसका हाथ टेढ़ा है और गेंद कुछ ऐसे फिरकती है कि बस!
उसमें यही प्रतिभा बिना ‘नुक्स’ के भी हो सकती थी, अगर वो भुवन होता। उसका नाम ‘कचरे’ की जगह ‘भुवन’ हो सकता था अगर वो दलित न होता और वो आखरी शॉट उसके हिस्से में भी आ सकता था, अगर वो आशुतोष-आमिर की फिल्म न होती। इसी फिल्म में गोरी-मेम ‘भुवन’ का समर्थन करते हुए कहती है की ‘at least give him a fair chance…’ मतलब ये एक ‘fair-chance’ या ‘एक अवसर मात्र’ पर ही तो सारा दारोमदार टिका था न???
और वही एक अवसर ही तो नहीं देता है शासक-शोषक वर्ग।
तो साहेबान हमारी फिल्मों में तो कल्पना भी नहीं की जाती एक ‘कम-जात’ के प्रतिभावान होने की! अगर इसके बर-अक्स आप को कोई ऐसी फिल्म याद आ रही हो, तो मेरी जानकारी में इजाफा कीजिएगा… हां खुदा न खासता अगर कोई प्रतिभा होगी तो तय-शुदा तौर पर अंत में वो कुलीन परिवार के बिछड़े हुए ही में होगी।
एक और मिसाल… ‘सुजाता’ याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या ‘सुजाता’ को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार ‘इन लोगों में यही होता है’। पूरी फिल्म में ब्राह्मण-दलित संवाद स्थापित ही नहीं हो पाता। बस ब्राह्मण-ब्राह्मण का ही द्वंद्व है, जिसमें दयालु-दाता मॉडर्न ब्राह्मण और ‘संस्कारी ब्राह्मण’ का डिस्कोर्स उभरता है। दलित कन्या में कोई गुण नहीं निकल पाता, बस सामाजिक जिम्मेदारी के तहत ही वह स्वीकार्य होती है… फिल्म इस संभावना के साथ खत्म होती है कि अगर अपने बेटों की बात नहीं मानी और उनके प्रेम विवाह में रोड़े अटकाये तो वे बगावत कर देंगे। पिता पुत्र की आधुनिकता एक गुण के तौर पर उभरती है और हां, खून सबका एक है – ये मेडिकल फैक्ट भी स्थापित होता है। जहां तक सुजाता का सवाल है, उसका संस्कृतिकरण पूर्ण है। वो चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका ही बन पाती है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है।
क्या वाचाल, मन-मर्जी जीनेवाली और आत्म-सम्मानी ‘सुजाता’ है कहीं बंबइया फिल्मों में आज तक?
(शीबा असलम फहमी। जेएनयू में रिचर्स फेलो। इस्लामिक फेमिनिज्म पर शोध। मशहूर साहित्यिक पत्रिका हंस में नियमित स्तंभ लिखती हैं। उनसे sheebaasla@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।) ( जनतंत्र.कॉम से )
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