Tuesday, May 24, 2011

सिर्फ़ लिख देने से इतिहास नहीं बन जाता राजनाथ जी ! - सुनील अमर



भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गत दिनों पटना के एक कार्यक्रम में ऐलान किया कि उनकी पार्टी अगर केन्द्र की सत्ता में वापस अएगी तो वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को फिर से लिखवायेंगें। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस आजादी की लड़ाई का सारा श्रेय अकेले ही लेती रही है जबकि उस दौरान उसकी भूमिका महज़ ‘सेफ्टी वाल्व’ की ही थी।
भाजपा की यह कसक नई नहीं है। अपने दर्जनों मुखपत्र-पत्रिकाओं और प्रतिबद्ध लेखकों की मार्फत वह और उसका पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी पसंद का इतिहास लेखन कराने में लगा ही रहता है। वैचारिक प्रतिबद्धता वाले सभी संगठन इस तरह का लेखन करते-कराते ही हैं, लेकिन सत्ता में आने पर देश के आमूल-चूल इतिहास को बदलने की सार्वजनिक घोषणा राजनाथ सरीखे लोग ही कर सकते हैं। भाजपा जितने समय तक केन्द्र की सत्ता में रही, इतिहास से छेड़-छाड़ का उसका अनवरत कार्यक्रम चलता रहा था। उस वक्त यह छेड़-छाड़ सरकारी पाठ्य-पुस्तकों तक ही थी। अब इधर श्री राजनाथ सिंह देश की आजादी के इतिहास का पुनर्लेखन कराने की मंशा जाहिर कर रहे हैं।
वर्ष 2001 में जब केन्द्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन यानी राजग की सरकार थी तो भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी उसके मानव संसाधन विकास मंत्री थे। उस वक्त राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एन.सी.ई.आर.टी. के निर्देश पर केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक अधिसूचना जारी कर देश भर में खुद से सम्बद्ध स्कूलों व संस्थाओं को कक्षा 6,8 व 11 की इतिहास की पुस्तक से कतिपय अंश निकालने का आदेश दिया था। 23 अक्तूबर 2001 को जारी इस अधिसूचना में साफ-साफ कहा गया था कि न सिर्फ फलां-फलां किताब के पृष्ठ संख्या फलां-फलां से निर्देशित पैराग्राफ हटा लिये जाएँ, बल्कि इन पर न तो कक्षाओं में बहस कराई जाय और न परीक्षाओं में प्रश्न ही पूछे जाएँ। इतिहास की पुस्तकों के उन पाठों को रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और अर्जुनदेव सरीखे देश के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकारों ने लिखा था। उस वक्त देश भर में इस रोक पर तीखी बहस छिड़ने के साथ ही संसद में भी इसको लेकर खासा हंगामा हुआ था। इस मुद्दे पर को लेकर साफ-साफ दो गुट बन गये थे और एक गुट अगर दूसरे पर इतिहास के भगवाकरण और तालिबानीकरण का आरोप लगा रहा था तो दूसरा भी उसे मार्क्स, मैकाले और मदरसा का गठजोड़ बता रहा था। अब जैसा कि इस देश में हमेशा ही होता आया है कैसी भी बहस हो या आन्दोलन, आपसी टकराव ही उसकी जीवन अवधि को खत्म कर देती है। बहरहाल 2004 में केन्द्र की सत्ता से हटने के बाद भाजपा का यह मंसूबा अधूरा ही रह गया। यह कसक राजनाथ सिंह को है।
इतिहास की किताबों को अपने अनुकूल करने की भाजपाई कोशिशें लगातार जारी हैं। अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब भाजपा शासित मध्य प्रदेश के सरकारी प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में प्रातःकालीन प्रार्थना के समय सूर्य नमस्कार को अनिवार्य किये जाने के आदेश को लेकर काफी बवाल मचा था। इसी मध्य प्रदेश में इन दिनों सरकारी स्कूलों में गीता-सार पढ़ाये जाने का शासनादेश हुआ है! देश भर में इस पर तीखी बहस चल रही है। श्री राजनाथ सिंह देश की आजादी का इतिहास अपने अनुकूल लिखवाने का ऐलान कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि इतिहास का उनके अनुकूल होने का क्या मतलब हो सकता है! आजादी के दशक भर बाद के वर्षों में देश में कई साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने इससे चिंतित होकर कारणों का पता लगाने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन किया। परिषद दंगों की पृष्ठभूमि का व्यापक अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि देश के स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास सेक्यूलर न होकर साम्प्रदायिक भेदभाव फैलाने वाला है। परिषद ने महात्मा गाँधी  को उद्धृत करते हुए कहा कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का इतिहास पढ़ाना जब तक बंद नहीं किया जाएगा तब तक समाज में सद्भाव नहीं आ सकता।
देश में एक चिंताजनक परम्परा यह शुरु हो गयी है कि तमाम राज्य सरकारें अपने-अपने राजनीतिक नफे-नुकसान को देखकर सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रमों का इतिहास रचने/बदलने लगी हैं। सभी लोग जानते हैं कि वीर शिवाजी का तोपची मुसलमान था, लेकिन जिन्हें छात्रों के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करनी है, वे ऐसे पाठों को भला क्यों पढ़ाने लगे? ऐसी साजिशें बालमन पर कैसा खतरनाक असर डालती हैं यह लाला लाजपतराय की आत्मकथा से  जाना जा सकता है जिसमें उनहोंने लिखा है कि पाठ्यक्रम में मुस्लिम शासकों के बारे में घृणास्पद बातें पढ़कर ही उनके मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा हुई।
वास्तव में अपना साम्राज्य येन-केन-प्रकारेण बरकरार रखने की नीयत से अंग्रेजों ने इस देश के हिन्दू और मुसलमानों  के बीच जबर्दस्त घृणा का माहौल बनाया तथा हर प्रकार से इस बात को प्रचारित किया कि मुस्लिम शासक हिन्दू विरोधी, शोषक, अन्यायी और जबरन धर्म परिवर्तन कराने वाले हैं। उन्होंने देश के हिन्दू जनमानस में यह भाव भरने का प्रयास किया कि यदि हम (अंग्रेज) भारत छोड़कर चले जाऐंगें तो यही मुसलमान फिर पहले की तरह आप पर शासन करेंगें। इसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। बाद में जब उन्होंने देखा कि आजादी की मांग जोर पकड़ने लगी है तो यही भय उन्होंने मुसलमानों में पैदा करना शुरु किया कि यदि हम चले जाऐंगें तो यहाँ  हिन्दू राज करेंगें और आप सबसे अपना बदला चुकाऐगें। देश के बॅटवारे की मानसिकता तैयार करने में यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारक था।
श्री राजनाथ सिंह भी इसी सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे इतिहास को अपने माफिक चाहते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश में बड़े पैमाने पर सरस्वती शिशु मंदिर नामक प्राथमिक व सरस्वती विद्यामंदिर नामक माध्यमिक विद्यालयों की श्रृंखला चलाता है। इन विद्यालयों में जो इतिहास की पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं उनमें और बाकी इतिहास की पुस्तकों में गजब का विरोधाभास रहता है। यह काफी कुछ उसी तरह है जैसा कि पाकिस्तान के कट्टरपंथी मदरसों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास, जो भारत के बारे में उसी तरह की जानकारी देता है जो उन कठमुल्लाओं को रास आती हो। श्री राजनाथ सिंह को आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका तो सेफ्टी वाल्व जैसी लगती है। अब यह नहीं समझ में आता कि जब वे इतिहास लिखवायेंगें तो क्या कांग्रेस  को हटाकर वहाँ जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम लिखवा देगें जिसका आजादी के आन्दोलन से कोई वास्ता ही नहीं था, जो अंग्रेजों का समर्थक था और जो कहता था कि हम तो संस्कृति के पैरोकार हैं, या फिर उस भाजपा का नाम लिखवा देंगें जिसका जन्म ही 1980 में हुआ है? एक दशक पहले ही यह बात सबूत के साथ उजागर हो चुकी है कि भाजपा के कर्णधार और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आजादी की लड़ाई के दौरान पत्र लिखकर स्वयं को अंग्रेजों का स्वामिभक्त बताया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में जब कलकत्ता पर बम गिराया गया था तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने संघ के सेवकों से सहायता ली थी! हो सकता है कि इतिहास में दर्ज ये तथ्य अब राजनाथ को शर्मिंदा करते हों।
हिन्दी साहित्य में जैसे वीरगाथा काल, रीतिकाल और भक्तिकाल का विभाजन है, उसी तरह एक समय में भारतीस इतिहास में भी हिन्दूकाल, मुस्लिमकाल और ब्रिटिशकाल को आधार बनाकर धर्म के आधार पर तथ्य रखे गये। यह लेखन साम्प्रदायिक सोच को उभारने में सहायक बना। राजनाथ सिंह यही प्रक्रिया फिर शुरु करना चाहते हैं लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि इतिहास पहले रचा जाता है, लिखा जाता है बाद में। सिर्फ लिख भर देने से इतिहास नहीं बल्कि कहानी बन जाती है। ( फ़ैजाबाद, इलाहाबाद व बरेली से छपने वाले दैनिक जनमोर्चा में दिनांक २४ मई २०११ को प्रकाशित )

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