( मोहल्ला लाइब, जनतंत्र और पेंगुइन इंडिया ने '' बहसतलब '' नामक एक श्रृंखला का आयोजन दिल्ली में इंडिया हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर सभागार में किया था, उसी में हिंदी फिल्म के दलित चरित्रों पर बहस हुई थी.बहस में निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप भी शामिल थे.इसी बहस में शीबा असलम फहमी के प्रतिभाग का यह प्रस्तुतिकरण है, और उसके ऐन नीचे पत्रकार दिलीप मंडल की टिपण्णी और फिर शीबा असलम फहमी का जबाब है --)
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अनुराग कश्यप की बाद की दलीलों से लगा कि वह और विश्व दीपक आमने-सामने नहीं बल्कि एक ही पाले में खड़े हैं। यही बात अहम् है क्यूंकि विश्व दीपक के सवाल ‘बाज़ार की सत्ता’ की उसी विडंबना को नकारने का आग्रह करते हैं जिसे ख़ुद अनुराग कश्यप अपनी बात में बार-बार उजागर कर रहे हैं. और दिख रहा है की उनके माध्यम पर बाज़ार की तानाशाही ख़ुद उनके आड़े कितनी आई है. बस फ़र्क़ इतना है कि बाज़ार की ‘मजबूरी’ हम सब से जो करवा रही है उसको सही ठहराने में और आत्मसात कर लेने में ख़तरा है की वैकल्पिक मॉडल की तलाश या अविष्कार की उम्मीद दम तोड़ देती है जो किसी भी ज़िन्दा समाज के लिए शर्मनाक है. अनुराग कश्यप ने ये महसूस किया होगा की वे जिस छोटी सी हिंदी की दुनिया से रूबरू थे उनमें किसी ने उनसे वो चटपटे, मसालेदार, स्कैंडल और ग्लेमर से अभिभूत सवाल नहीं पूछे.
मेरे सवाल- ‘मुंबइया फिल्मों में दलित! काल्पनिक किरदार कितने काल्पनिक!’ के जवाब में जो भी कुछ कहा गया उसमें भी कम से कम ये छिछलापन नदारद रहा. यहाँ पर किसी ने उन महा-सफल मनमोहन देसाईयों, प्रकाश मेहराओं, टीनू आनंदों, करन जोहरों या दादा कोंडके जैसे फिल्मकारों का नाम नहीं लिया जो शायद फ़िल्मी दुनिया के अर्थतंत्र की धुरी हों. अनुराग कश्यप ने अगर ये चुना है की वह कुछ अलग हटकर करेंगे तो ये सवाल उसी चुनाव का सीधा प्रतिफल है जो उनकी ही झोली में गिरना था किसी करन जोहर की झोली में तो ‘आपकी ‘अंडरवियर” का रंग क्या वाकई गुलाबी है, या आप की यौन वरियेता क्या है’, जैसे सवाल ही आते हैं.
पता नहीं इस बात का उनके लिए कुछ मतलब है या नहीं लेकिन जिस बहेस में शांताराम, राज कपूर, महबूब, गुरूदत्त, बी.आर. चोपड़ा, बिमल राय, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों का नाम लिया जाए, और उसी सांस में अनुराग कश्यप जैसे निस्बतन नए फ़िल्मकार का नाम भी अपनी जगह बनाए ये इज्ज़त की बात है. हाँ जो सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए आया हो उसके लिए ये झुंझलाहट की बात हो सकती है.
जहाँ तक गाली का सवाल है ‘बहेसतलब’ सेमिनार श्रंखला एक बौधिक प्रयोजन ही है, इसके विषय, वक्ता, प्रतिभागी आदि सभी विमर्श की दुनिया के लोग हैं. अगर अनुराग कश्यप केवल 5 -6 फिल्मों में योगदान दे कर त्रिपुरारी शर्मा, नामवर सिंह, अजय ब्रम्ह्मात्म्ज जैसे मनीषियों के साथ एक ‘बोलनेवाले’ की हैसियत से इसमें शामिल होते हैं और उनकी तरफ़ कुछ सवाल आते हैं तो विचलित हो कर गालियों पर उतरना बचकाना है और उनके इस मंच पर होने की पात्रता पर भी सवाल खड़े करता है. और उससे भी बेवकूफ़ाना है गाली बकने की छूट मांगना ये कह कर की, “गाली गलौज के बिना मैंने बात करना नहीं सीखा…”. मोहल्ला लाइव पर बहेसतलब-2 में उनका कहा मौजूद है, वहां तो उन्होंने कहीं गाली नहीं दी? उस मंच पर वे सभ्य कैसे बने रहे? क्यों ना माना जाए की ‘मोहल्ला लाइव’ के मंच पर प्रतिक्रिया करने वालों के प्रति तुच्छ भावना से वे शुरू हुए, शायद उन्हें बुरा लगा की ये दलित और उनके मुद्दे उठानेवाले भी अब हमसे सवाल करेंगे?
अगर ऐसा नहीं है तो वे अपने से बड़ी हैसियत के किसी आदमी को इन्हीं गालियों से नवाज़ कर दिखाएँ. कल को वे किसी आमिर खान, सलमान खान, अक्षय खन्ना जैसी फ़िल्मी हस्ती के साथ काम करेंगे, निर्माता-निर्देशक का माई-बाप वाला दर्जा होने के बावजूद क्या वे ऐसी जुर्रत किसी आमिर खान के साथ तो क्या ‘उनके सामने’ किसी और से भी कर सकते हैं? मोहल्ला लाइव पर ये छूट क्या वे इसलिए ले रहे हैं कि यहाँ उन्हें बाक़ी सब तुच्छ लग रहे हैं?
‘चीजों को बदलने की बात मत करिए, उन्हें बदलिए’ का जहाँ तक सवाल है तो फिर सभी अखबार, पत्रिकाएँ, किताबें, सेमिनार, गोष्ठी, वर्कशॉप, साहित्यकार, कवि, बे-ईमान ठहरे? एक राजशाही में जीते हुए, राजशाही के विरुद्ध और प्रजातंत्र की कल्पना पर बोलने-लिखने-पढ़ने वालों को हम आज यूंहीं सजदा नहीं करते हैं. उन सब ने कभी राजशाही से सीधे मोर्चा नहीं खोला बस समाज को वो वाजिब सवाल दिए जिनकी डोर पकड़ कर तमाम क्रांतियाँ हुईं. सुकरात, रूसो, वोल्टेयर, मार्क्स, फुले, आम्बेडकर, गाँधी, सभी अपने ‘बोलने’ और सिर्फ़ बोलने के लिए जानेजाते हैं. आम्बेडकर बोले ना होते तो कभी इस लायक़ ना हो पाते की देश का आम आदमी उनके पीछे चल देता और अँगरेज़ और ‘द्विज’ नेहरु-गाँधी उन्हें अपने साथ टेबल पर बिठाते.
आख़िर ये समाज पर सोचने-बोलनेवाले करें क्या? अनुराग कश्यप आपका वाजिब तर्क है कि फलां-फलां ने कोशिश की, एक फ़िल्म बनाई, नहीं चली और वे ज़मीन पर आ गए. आपकी दलील फ़िल्म कि आर्थिक कामयाबी कि अहमियत को बताती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. ज़ाहिर है आप मैदान में होंगे तभी ना अच्छा या बुरा कुछ करेंगे, लेकिन आपकी इस बात का समर्थन करनेवाले टिप्पणीकार जब लिखने-बोलनेवालों को ये उलाहना देते हैं कि ‘तुमने दलितों आदि आदि के मुद्दे उठाकर सिर्फ़ निजी तौर पर कामयाबी हासिल की, तुम बिकने-छपने लगे, सभाओं में बुलाए जाने लगे’, तो ऐसी हालत में समझ में नहीं आता की सही रास्ता कौन सा है? कोई वक्ता अगर अपने तर्कों-विचारों के बल पर लोकप्रिय हो जाए, मिसाल के तौर पर दोनों बहेसतलब का संचालन करनेवाले विनीत कुमार ही को देखिये. मीडिया पर उनकी समझ और बेबाक बोलने के अंदाज़ के कारण वे लोकप्रिय युवा विश्लेषक के तौर पर जाने जाते हैं. उन्हें मंच, मगज़ीन, मुद्रा सभी मिलती है तो अब ये उनका अपराध है क्या? सामाजिक समझ को आर्थिक बदहाली से तभी क्यूँ जोड़ा जाता है जब कोई दिलीप मंडल या अनीता भारती वही तन्ख्वाह ले रहा होता है जो कोई भी दूसरा उसी संस्थान में? ये लोग किस अपराध के तहत चुप करवाए जा रहे हैं? आप कहेंगे की ये सवाल आप उन्ही से कीजिये जो चुप करवा रहे हैं, तो उसका जवाब ये है की आपके पक्ष में खड़े ये लोग आपके तर्क को सिर्फ़ आप तक ही सीमित रखना चाहते हैं और आप इस पर ख़ामोश हैं, क्या आपको नाजायज़ तर्कों से अपना बचाव मंज़ूर है?
अरे विचार-विमर्श की कामयाबी अगर जायज़ आर्थिक मज़बूती भी लाती है तो वह किसी हाशियाग्रस्त समाज के सदस्य के लिए ‘भ्रष्टाचार का प्रमाणपत्र’ बना कर क्यूँ पेश की जाती है? किसी मनेजर पाण्डे, नामवर सिंह, गौतम नौलखा, निर्मला जैन, जैसों से ये सवाल क्यूँ नहीं किया जाता? क्या दिलीप मंडलों और अनीता भारतियों से ये नहीं कहा जा रहा है की नौकरी ‘दे दी’, तन्ख्वाह ‘खा’ रहे हो, अब और ‘क्या’ चाहिए? चुप कर के बैठो, शांति से!
अजीब हाल है हमारी सोच का ! इसी नौकरी-तन्ख्वाह के साथ साथ जब कोई द्विज मंचों-मंचों ‘बोलता’ फिरता है तो वह देश-विश्व स्तर का बुद्धिजीवी, प्रकांड विद्वान्, शिखर पुरुष हो जाता है. जब कोई ग़ैर-द्विज इसका पासंग भी करे तो वह मौक़ापरस्त, भ्रष्ट, छदम, गल्थोथरी करनेवाला, बुद्धिहीन हो जाता है?
आखरी बात ये कि सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ‘सौन्दर्यबोध-कैटरीना’ से परे जा कर सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है. एक सवर्ण हीरो में गुणों-ख़ूबियों की अथाह मौजूदगी हाशियाग्रस्त दुनिया के आत्मसम्मान और नैतिकता को ध्वस्त कर पैदा की जाती है. मेरा मक़सद हिंदी फिल्मों की इस प्रवृत्ति की तरफ़ ध्यान दिलाना था नाकि फिल्मों में आरक्षण लागू करने की वकालत करना या ‘दलित हीरो’ को लेकर ‘दलित विषय’ पर फ़िल्म बनाना का आग्रह करना.
आप सही हैं कि फ़िल्म एक महंगा माध्यम है, आर्थिक कामयाबी उसकी बुनियादी शर्त है. आप ऐसे सिस्टम में कुछ नया कर के दिखाने की जद्दोजहद में लगे हैं, और दुनिया आपकी इस कोशिश को मान रही है. इसीलिए आपसे ही सवाल भी किये गए. आप फिल्मी दुनिया में उस नई सोच के प्रतिनिधि के तौर पर मंचासीन होते हैं. साझा समझ विकसित करने की जगह बहेस मत ‘जीतिए’, क्यूंकि हम नहीं आप विशेषज्ञ हैं इस विधा के, और इस ‘बहेसतलब-2 ‘ में जो हुआ उस ज़िद में कोई दलित फ़िल्म ना बना डालियेगा. दलित समस्या पर फ़िल्म जब भी बनाइएगा, तभी बनाइएगा जब अच्छी कहानी, पटकथा, निर्देशक, और पैसा हो. क्यूंकि चैलेन्ज यही है की जब अनुराग कश्यप दलित समस्या पर फ़िल्म बनाएं तो वो हिट भी हो और किसी बहेसतलब सेमिनार का मुद्दा भी बने. डिब्बा-बंद ना पड़ी रहे!
शुभकामनाएँ!
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दिलीप मंडल (पत्रकार ) --------
भारत में इस तरह का विमर्श शुरू हो रहा है, यही हमारे दौर की बड़ी उपलब्धि है। इस बारे में बातचीत हो और बिना कड़वाहट के हो और इसमें हर किसी का हिस्सा हो, इसके को-ऑर्डिनेट्स तय करने में अगर यात्रा, मोहल्ला और जनतंत्र डॉट कॉम कोई भूमिका निभाता है तो यह महत्वपूर्ण होगा।
सभी यह महसूस कर रहे होंगे कि कुछ असहज सवाल अब पूछे जाने लगे हैं। ये सवाल कई सदियों से स्थगित थे। इससे पहले एस आनंद क्रिकेट में जाति प्रश्न को लेकर अपनी बहुचर्चित किताब लिख चुके हैं। ऐसे सवालों को हल करके समाज आगे बढ़ पाएगा, ऐसी उम्मीद है।
एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहां लोकजीवन के हर अंग में पूरा भारत अपनी तमाम विविधताओं के साथ नजर आए। यह कोई बेजा मांग नहीं है। ऐसा भारत ज्यादा सुंदर दिखेगा और शायद इस तरह भारत की तरक्की का कोई रास्ता ही खुल जाए। आखिर हर किसी को लगे तो कि देश उसका भी है।
शीबा जी ने अपनी बात तार्किक तरीके से रखी है। इन सवालों का जवाब यह नहीं हो सकता कि – क्या फिल्मों में भी आरक्षण लागू कर दिया जाए। बेहतर समाज बनाए बगैर ऊपर से थोपकर ऐसे बदलाव नहीं हो सकते और हुए भी तो वे टिकाऊ नहीं होंगे। उम्मीद है यह चर्चा जारी रहेगी।
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शीबा असलम फहमी ---
मैंने अनुराग कश्यप के किसी बयान पर प्रतिक्रिया कभी नहीं दी!
मैंने दिलीप मंडल के उठाए सवाल पर दो मिसालें पेश की थीं, क्योंकि कुछ लोगों ने दलित चरित्रों के सवाल पर ‘फिल्मों में आरक्षण’ जैसे तंज़ से उस सवाल को नाकारा था की हमारी फिल्मों में संवेदनशीलता और प्रगतिशीलता दोनों की कोई जगह नहीं. और मेरा सवाल भी अनुराग कश्यप से नहीं था. सिर्फ़ 4 या 5 फ़िल्म पुराने फिल्मकार से, भले ही वोह कितना भी प्रतिभाशाली हो, साहित्य-फ़िल्म-मीडिया की दशकों पुरानी सोच और नज़रिए में सुधार की उम्मीद कौन कर सकता है? (इत्तेफ़ाक से अभी तक अनुराग कश्यप की कोई फ़िल्म देखी भी नहीं है, बस सुना ही है उनके बारे में).
मेरा सवाल अभी भी वहीँ है और उस सामाजिक समझ से है जो दलित चरित्रों को ‘agency-less’ और स्वाभाविक रूप से तिरस्कार-ग्राही दिखाते-बताते हैं. अभी तक सशक्त दलित किरदार का इंतज़ार है, जो उतना ही ‘आम’ हो जितना एक फ़िल्मी किरदार होता है और उतना ही ‘ख़ास’ हो जितना एक ‘हीरो’ होता है! ००
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