Thursday, May 26, 2011

प्राथमिक स्कूलों में सुविधाऐं हैं या मजाक ? -- सुनील अमर


सरकारी यूनिफार्म तो है लेकिन बैठने के लिए टाट-पट्टी तक नही !


 एक गैर सरकारी संगठन की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश के 13राज्यों को आदेश दिया है कि वे आगामी 31मई तक अपने-अपने राज्य के प्राथमिक स्कूलों में पानी,बिजली,भवन,शौचालय और अध्यापक जैसी सुविधाऐं अवश्य उपलब्ध करा दें। न्यायाधीश द्वय ने आश्चर्य जताते हुए पूछा कि आखिर पीने के पानी और शौचालय के बिना स्कूल चल कैसे रहे हैं ?बाकी सुविधाऐं तो बाद में भी दी जा सकती हैं लेकिन पानी के बिना कैसे रहा जा सकता है ?याचिकाकर्ता के वकील ने न्यायालय को बताया था कि मध्यप्रदेश के साढ़े नौ हजार स्कूलों में पीने का पानी और पचास हजार स्कूलों में शौचालय की सुविधा नहीं है। न्यायालय ने इस सूचना पर सख्त रुख अपनाते हुए सरकारी वकील से कहा कि वे इस मामले को तुरन्त मुख्यमंत्री के समक्ष उठाऐं क्योंकि इससे ज्यादा जरुरी और कोई काम नहीं हो सकता।

               प्राथमिक शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव की कवायद एक दशक पूर्व प्रारम्भ की गई जब केन्द्र सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत राज्यों को अतिरिक्त मदद देकर विद्यालयों में मूलभूत सुविधाऐं यथा,भवन,शिक्षक भोजन,पानी,यूनीफार्म,फर्नीचर तथा पाठय पुस्तकें आदि उपलब्ध कराने को कहा। राज्यों में यह योजना डी.पी.ई.पी. यानी जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के तहत चलाई जा रही है। इस योजना ने निश्चित ही प्राथमिक स्कूलों की खस्ताहाली को सुधारा और प्रत्येक विद्यालय पर कई-कई लाख रुपये खर्च किए गए। आज प्राथमिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाऐं कहने को तो उपलब्ध हो गई हैं हालॉकि इसका दूसरा पहलू काफी हास्यास्पद है। मसलन,इन स्कूलों में पेयजल के लिए इंडिया मार्क-टू हैंड पम्प लगाकर पानी की टंकी तो स्थापित कर दी गई लेकिन यह व्यवस्था नहीं की गई कि इन हैंडपम्पों को चलाकर टंकी को भरेगा कौन ?अब स्थिति यह है कि स्कूल के अध्यापक छात्रों से ही जबरन हैंडपम्प चलवाकर टंकी भरवाते हैं और इसके लिए बाकायदा छात्रों का एक टाईम-टेबिल बना दिया जाता है कि कौन-कौन छात्र किस दिन हैंड पम्प चलाऐगें। यह हाल सभी स्कूलों का है। इस कार्य में प्राय:ही छात्र चोट खा जाते हैं। इसी प्रकार विद्यालयों में भवन तो पर्याप्त बना दिये गये हैं,जैसे अतिरिक्त कक्ष,रसोई कक्ष,ऑंगनवाड़ी कक्ष आदि लेकिन इस बात का प्राविधान नहीं किया गया कि इनकी सफाई कैसे होगी। अब यह कहर भी रोज नन्हे-मुन्ने बच्चों पर ही टूटता है। घर से साफ-सुथरा तैयार होकर स्कूल पहुचे बच्चे को पहले वहॉ झाडू लगानी पड़ती है क्योंकि प्राथमिक स्कूलों में कोई चपरासी नहीं है। समाचार माध्यमों में प्राय:ही ऐसी खबरें आती रहती हैं कि बच्चों से ही मिड-डे-मील के बर्तन तक धुलवाये जाते हैं क्योंकि बहुत बार खाना पकाने वाले सभी कर्मचारी नहीं आते। अभी बीते जनवरी माह में उ.प्र.के सुल्तानपुर जनपद में राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,कादीपुर की उप-प्रधानाचार्या को छात्राओं से जूठ्रे बर्तन धुलवाने के आरोप में सही पाये जाने पर राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पदावनत करने की सिफारिष की थी।

               अब यही हाल विद्यालय की सुरक्षा को भी लेकर है। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक दोनों स्तर के विद्यालयों में इधर के वर्षों में तमाम प्रकार की सम्पत्ति होने लगी है। मसलन,गैस सिलेन्डर,खाना पकाने के बर्तन,टेप रिकॉर्डर,लाउड स्पीकर,फर्नीचर,कम्प्यूटर और पंखे आदि। इतना सामान होने के बावजूद इन विद्यालयों में एक अदद चौकीदार की व्यवस्था नहीं है! प्राथमिक विद्यालयों में तो चपरासी भी नहीं हैं। प्राय:ही इन विद्यालयों में छिट-पुट चोरियॉ होती रहती हैं और यह ग्राम प्रधान तथा प्रधानाध्यापक के बीच कलह का कारण बनती हैं। यह बहुत आष्चर्यजनक है कि जब इस प्रकार की योजनाऐं बनाई जाती हैं तो क्या उनके हर पहलुओं पर विचार नहीं किया जाता? मसलन क्या यह संभव है कि सरकार ड्राइवर की तैनाती करने से पहले ही गाड़ी खरीद ले? नदी पर पुल बनाने से पहले ही सड़क बना दी जाय? यह तो स्पश्ट है कि योजनाकार आला दर्जे के दिमाग वाले होते हैं,फिर ऐसा करने के पीछे क्या मंशा हो सकती है कि चौकीदारी और शारीरिक श्रम के तमाम कार्यो को स्कूल के बच्चों के भरोसे छोड़ दिया जाय जबकि यह पता है कि छात्रों से इस तरह का कार्य कराना गैर-कानूनी है?

               उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ लाख तथा बिहार में सवा तीन लाख प्राथमिक शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं। यह स्थिति तब है जब लाखों की संख्या में रिक्त पदों को शिक्षा मित्रों से भरा गया है। सरकारें न्यायालय को बता रही हैं कि उनके पास प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी है इसलिए पद भरे नहीं जा सके हैं! यह हाल उ.प्र.,उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा,बिहार झारखंड,महाराष्ट्र,सिक्किम,त्रिपुरा,तमिलनाडु,कर्नाटक और जम्मू-कश्मीर का है। सिर्फ अरुणाचल प्रदेश और पंडुचेरी ही ऐसे राज्य हैं जहॉ के प्राथमिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाऐं उपलब्ध हैं। इससे जाहिर है कि बाकी प्रदेषों में यह सरकारों की काहिली और बदनीयती है कि वे स्कूलों में सुविधाऐं देना ही नहीं चाहते। एक तरफ देश में विकट बेरोजगारी की समस्या है जो दिनों-दिन विकराल होती जा रही है, दूसरी तरफ लाखों की संख्या में पद रिक्त पड़े हैं और सरकारें उन पर नियुक्ति नहीं कर पा रही हैं!प्राथमिक और उच्च विद्यालयों पर सरकार जिस तरह मुक्त हस्त धन व्यय कर रही है,उसमें चपरासी और चौकीदार के पदों पर नियुक्ति क्या नहीं की जानी चाहिए?या यह कार्य अलिखित रुप से बच्चों पर ही डाला जाता रहेगा? दोपहर के भोजन की योजना चल ही रही है और इसका उद्देष्य बच्चों को सिर्फ स्कूल तक लाना न होकर और व्यापक है जिसका अनुमान उन क्षेत्रों में गये बगैर नहीं हो सकता जहॉ विकट भुखमरी है और जहॉ रविवार या छुट्टी के अगले दिन स्कूल खुलने पर बच्चे ज्यादा खाना खाते हैं! ऐसे में क्या स्कूल में खाना पकाने वालों को स्थाई नहीं किया जा सकता?

                देश के सबसे बड़े राज्य उ.प्र. में लगभग एक दशक से प्राथमिक शिक्षकों का प्रशिक्षण कार्य बंद है। सरकार द्वारा कराये जाने वाले बी.टी.सी. नामक इस द्वि-वर्षीय पाठय क्रम की प्रवेश परीक्षा में कथित धाँधाली की शिकायत को लेकर उच्च न्यायालय ने स्थगनादेश दे रखा था जो कि अभी कुछ माह पूर्व रद्द हुआ है। बी.टी.सी. पर रोक लगने के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार ने बी.एड. डिग्री धारकों को एक संक्षिप्त प्रशिक्षण देकर प्राथमिक स्कूलों में नियुक्त करना शुरु किया जो अभी तक जारी है और इसने प्रदेश में एक नयी शिक्षा-माफिया संस्कृति को जन्म दिया है। देखते ही देखते प्रदेश में अर्ध्द-सहस्त्र निजी बी.एड. कालेज खुल गये हैं जो नाना प्रकार से छात्रों का षोशण कर रहे हैं। ये निजी कालेज सत्ता तंत्र में कितने प्रभावशाली हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि छात्रों के कल्याण के लिए घोषित नियमों को आधा दर्जन से अधिक बार अब तक वापस लिया जा चुका है!जिन राज्यों में अध्यापक तैयार करने का तंत्र ही उक्त प्रकार का है उनसे शिक्षा के अधिकार कानून के सफल क्रियान्वयन की उम्मीद कैसे की जा सकती है! ( हम समवेत फीचर्स में २३ मई २०११ को प्रकाशित --www.humsamvet.org.in )

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