कुछ बातें हैं जिन्हें थोड़ा बेहतर तालमेल के साथ अगर पढ़ा जाय तो दिलचस्प नतीजे निकलते हैं और पता चलता है कि देश की तीन चैथाई जनता के प्रति सरकारें क्या सोचती है। अभी कुछ माह पूर्व योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने एक बयान में कहा था कि देश में मॅंहगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गाँव अमीर हो रहे हैं। इसी बात को कुछ दिन पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने भी दोहराया है, लेकिन साथ में उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि अगर किसान अपनी पैदावार बढ़ा लें तो मॅहगाई पर प्रभावी ढ़ंग से काबू पाया जा सकता हैं, तथा बजट पेश करते हुए विख्यात अर्थशास्त्री कहे जाने वाले अपने वित्त मंत्री ने देश की संसद को जानकारी दी थी कि गरीब लोग अब मोटा नहीं बल्कि अच्छा भोजन करने लगे है इसलिए मंहगाई बढ़ रही है! दूसरी तरफ इस बात के दबाव सरकार पर बनाये जा रहे हैं कि वह देश की खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का रास्ता खोल दे ताकि उनकी वित्तीय साझेदारी से देसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वहां कब्जा जमा सकें । गरीबों को दी जाने वाली तमाम तथाकथित सरकारी सहायताऐं और किसानों को दी जाने वाली कृषि सम्बन्धी राहतों को नकद या कूपन के तौर पर सीधे उनके हाथ में सौंपने की योजना को एक बार फिर टाल दिया गया है ताकि ये राहतें वास्तव में जिन हाथों में पहॅुंच रही हैं वहां अभी पहुँचती रहें।
बीते नवम्बर माह में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने अपनी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी करते हुए बताया था कि देश में कृषि पर निर्भर रहने वालों की संख्या घटकर अब आधे से भी कम यानी कि सिर्फ साढ़े पैंतालिस प्रतिशत ही रह गई हैं और भारी संख्या में लोग खेती छोड़ कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं। अभी बजट पूर्व संसद में कृषि समीक्षा पेश करते हुए केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया था कि बीते दो दशक में देश के भीतर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी आ चुकी है। इस तरह के आंकड़े और भी बहुत हैं लेकिन सरकारी हॅंड़िया का चावल परखने के लिए दो-चार दाने ही पर्याप्त हैं। देश का आधारभूत और प्राकृतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर कृषि ही है जिस पर अभी दो दशक पहले आबादी की 75 प्रतिशत निर्भरता बतायी जाती थी लेकिन जिसे कभी भी वास्तविक इन्फ्रास्ट्रक्चर में शामिल ही नहीं किया गया जबकि ताजा खबर यह है कि केन्द्र सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र को इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल करने जा रही है! घटती कृषि-जमीन, सरकारों द्वारा लगातार उपेक्षा, खेती छोड़कर भागते लोग, घाटे के कारण आत्महत्या करते लाखों किसान! जिस भारतीय कृषि का राष्ट्रीय सिनारियो इस तरह का हो, साजिश देखिये कि उसे ही दो वर्ष पूर्व आई वैश्विक मंदी में देश का उद्धारक बताया गया! खुद सरकार और कुछ बड़े समाचार पत्र समूह, इन दोनों ने षडयंत्रपूर्वक प्रचार किया कि भारत पर मंदी का असर इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि यहाँ तो देश का सारा दारोमदार कृषि पर टिका है न कि उद्योग-धंधों पर! अब वास्तव में तो उद्योग-धंधे ही चपेट में थे, लेकिन उन्हीं उद्योग-धंधों में ही तो सरकार के मंत्री, बड़े नेता, नौकरशाह और मीडिया घरानों का वैध-अवैध धन लगा हुआ है, इसलिए उसका बचाव करना जरुरी था ताकि शेयर धारक घबड़ाकर अपना पैसा निकालने न लगें!
हमारे अर्थशास्त्री वित्तमंत्री का चारण-वादन है कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का यह कमाल है कि गाँव के गरीब अब नियमित मजदूरी पाने के कारण बढ़िया और ज्यादा खाना खाने लगे हैं और यही कारण है कि मॅंहगाई बढ़ती ही जा रही है! दूसरी तरफ माननीय स्वच्छ छवि दो साल से लगातार कह रहे हैं कि आने वाले दो-तीन महीनों में मॅंहगाई काबू में आ जाएगी। कोई इनसे पूछे कि कैसे भाई? क्या आने वाले दिनों में मनरेगा बन्द करने जा रहे हो ? मनरेगा के रहते मॅहगाई बढ़ी है तो इसके रहते घटेगी कैसे? अभी मनरेगा का हाल यह है कि देश के अधिकांश राज्य न्यूनतम दैनिक मजदूरी भी नहीं दे रहे हैं। स्वयं केन्द्र सरकार की नीयत इस मामले में साफ नहीं क्योंकि उसने खुद ही न्यूनतम दैनिक मजदूरी 100 रूपया तय कर दिया था। इघर 19 रूपये से लेकर 79 रूपये तक की बढ़ोत्तरी मनरेगा के तहत राज्यवार की गई है। यह बढ़ोत्तरी उसी संसद ने की है जिसने अभी चंद दिनों पहले ही अपने सांसदों का वेतन 300 से 400 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है और भ्रष्टाचार की पर्याय बन चुकी सांसद निधि को ढ़ाई गुना बढ़ाकर पांच करोड़ रू. सालाना कर दिया है। अब अगर न्यूनतम मजदूरी 100 रूपये के बजाय 120 या 180 मिलने लगेगी तो फिर प्रणव, आहलूवालिया और सुब्बाराव के हिसाब से तो मंहगाई और बढ़ जायेगी! यानी कि यहाँ भी सारा दोष गरीबों का !
केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री अरुण यादव ने बजट पूर्व संसद को बताया था कि 2001 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिक हैं जिनमें से 58 प्रतिशत से अधिक खेती में ही समायोजित हैं। इसके बावजूद खेती के प्रति सरकार का रवैया देखिए कि यह क्षेत्र न तो देश के मूल ढ़ॅाचे में गिना जाता है और न ही इसके लिए अलग से बजट पेश होता है। जिस सेक्टर पर देश की आधे से अधिक आबादी आज भी निर्भर करती हो, उसके लिए तो कायदे से भारतीय कृषि सेवा जैसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि पिछले चार-पांच वर्षों से देश में किसान आयोग ही नहीं गठित है जबकि औसतन दो किसान प्रति घंटे आत्महत्या कर रहे हैं! देश के एक हजार कृषि विशेषज्ञों के पदों पर ब्यूरोक्रेट्स का कब्जा है! आप समझ सकते हैं कि सरकार जो गेंहूँ विदेशों से 2000रू. कुन्तल खरीद सकती है उससे अच्छी किस्म के घरेलू गेंहूँ का वह 1200रू. कुन्तल भी नहीं देती! अभी ताजा मामला देखिये- आलू पर प्रति कुन्तल लागत 350रू. आई है क्योंकि इधर डीजल, उर्वरक व कीटनाशक के दाम काफी बढ़ गये हैं लेकिन सरकार ने समर्थन मूल्य घोषित किया है 325रू. प्रति कुन्तल!
सरकार कृषि ऋण और सस्ते ब्याज की बात करती हैं। ताजा बजट में घोषणा की गई है कि कृषि ऋण पर चार प्रतिशत की दर से ब्याज लिया जाएगा, लेकिन इसमें एक पुछल्ला है जो इस लुभावने खेल की पोल खोल देता है। वह है कि अगर निर्धारित समयावधि में किसान ऋण चुका देता है तो! नहीं तो आठ से बारह प्रतिशत तक। सभी जानते हैं (और वित्त मंत्री भी) कि भूखों मर रहे किसान समय पर किश्त नहीं चुका सकते! दूसरी तरफ बैंकों को सरकारी निर्देश हैं कि वे अपनी सकल ऋण राशि का 17 प्रतिशत कृषि कार्यों के लिए सुरक्षित करें। अब इस निर्देश पर खेल इस तरह हो रहा है कि कृषि के नाम का यह रियायती ऋण अधिकांश में वे लोग झटक रहे हैं जो कृषि उपकरणों का उद्योग लगाये हैं, ठेका-खेती करने वाली बड़ी कम्पनियां हैं, या सैकड़ों हेक्टेयर वाले किसान हैं। सच्चाई यह है कि छोटे किसान तो बैंक से कर्ज ही नहीं पाते।
मौजूदा समय में देश के किसानों को किसी भी प्रकार की राजनीतिक और तकनीकी फंदेबाजी वाली घोषणा के बजाय सिर्फ एक राहत चाहिए और वह है उनकी कृषि योग्य भूमि पर सरकार द्वारा एक निश्चित आय की गारंटी। यह चाहे कृषि बीमा द्वारा आच्छादित हो या भौतिक आंकलन के पश्चात। किसान, खासकर लघु और मध्यम किसानों को यह सरकारी भरोसा मिलना ही चाहिए कि वे अगर एक बीघा जमीन बोयेंगें तो उन्हें एक निश्चित आय होनी ही है, चाहे कैसा भी प्राकृतिक या मानवीय प्रकोप हो। जिन देशों की नकल पर हम जी रहे हैं वहाँ ऐसा जाने कब से हो रहा है तो फिर यहाँ क्यों नहीं? ०० (राष्ट्रीय हिंदी दैनिक हरिभूमि के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक 24 मई 2011 को प्रकाशित )
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