Sunday, May 08, 2011

आखिर बोझ क्यों हैं लडकियां ? --- सुनील अमर


 देश में  जनगणना के जो ताजा आंकड़े  आये हैं उनसे हमारे सामाजिक चरित्र का यह बर्बर पक्ष एक बार फिर उजागर हुआ है कि लड़कियों की संख्या को हम और तेजी से कम करने में लगे हुए हैं। यह तथ्य इस जानकारी के आलोक में और हैरतअंगेज लगता है कि देश के जिस हिस्से में जितने ज्यादा पढ़े-लिखे और धन कुबेर मौजूद हैं, वहाँ एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या सिर्फ 300 के ही करीब है! इन तथ्यों ने निश्चित ही हमारी इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है कि शिक्षा और सम्पन्नता आने से हमारे रुढ़िवादी विचारों में बदलाव आ जाएगा। हालिया जनगणना से यह भी साफ हो चुका है कि इसके पीछे गरीबी नहीं बल्कि दूषित मानसिकता ही मुख्य कारण है। सच्चाई तो यह है कि अति गरीबों की बेटियाँ  उनके लिए बोझ हैं ही नहीं क्योंकि वहाँ  पेट भरने की दैनिक जुगत के आगे दहेज या खर्चीली शादी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। एक भयावह तथ्य यह भी सामने आ रहा है कि देश के जिन दक्षिणी राज्यों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति शुरु से ही दमदार थी, वहाँ भी अब दहेज की कुप्रवृत्ति तेजी से पाँव पसार रही है। 
बीते दो दशक में देश में  सामाजिक, राजनीतिक व शैक्षिक चेतना का काफी विस्तार होने के बावजूद कुंठाओं, वर्जनाओं और रुढ़ियों से हमारा भारतीय समाज ज्यों का त्यों  चिपका हुआ है। मूंछों  की नकली और बेवजह शान के लिए लडकियां पहले भी मारी जाती रही हैं और आज भी उनकी ‘आनर किलिंग’ सार्वजनिक रुप से हो ही रही है, और जब तक नहीं मारी जा रही हैं तब तक उनके उठने-बैठने, चलने-फिरने से लेकर कपड़े पहनने और मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल करने तक पर मर्दों द्वारा जबर्दस्त अंकुश लगाया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि मर्द अगर भ्रष्ट हैं तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ औरत है! देश में कहने को तमाम कानून हैं जो लड़कियों /औरतों को संरक्षण देते हैं लेकिन उनका सकल क्रियान्वयन मर्दों के हाथ में है और ये वही मर्द हैं जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे होने के बावजूद खाप पंचायतों के आदेशों को समर्थन देते हैं! प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका लांसेट का अनुमान है कि भारत में  प्रतिवर्ष 5,00,000 से अधिक कन्या-भ्रूण हत्याऐं होती हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इसका उपाय क्या हो?
 जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की फेलो और चर्चित महिलावादी लेखिका सुश्री शीबा असलम फ़हमी इसका सीधा और सपाट त्रि-सूत्री उपाय बताती हैं- लड़कियों को लड़कों की तरह उच्च शिक्षा, लड़कों जितनी ही आजादी और पारिवारिक सम्पत्ति में हक़ बराबर हिस्सा। शीबा कहती हैं कि ये तीन उपाय कर दीजिए तो फिर आपकी लड़की आप के उपर बोझ नहीं रह जाएगी और जैसे आपका लड़का पढ़-लिखकर अपना जीवन जीने का रास्ता खोज लेता है, आपकी लड़की उससे भी अच्छी तरह अपना रास्ता बना लेगी। उनका  मानना है कि शिक्षा से योग्यता, आजादी से आत्मविश्वास व समाज को ठीक से समझने की कूबत तथा सम्पत्ति में हिस्से से जीवन यापन का मजबूत आधार एक लडकी को मिलता है। शीबा गिनाती हैं कि समाज में इस तरह के तमाम सफल उदाहरण हैं भी लेकिन वे मानती हैं कि सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति या सामाजिक जागरुकता के बिना ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं, और यह तो एक बाप को खुद ही चाहिए कि वह अपनी लड़की को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाये और उसे उसका हक़ दे। अगर आप खुद अपनी बेटी को उसका हक़ नहीं देना चाहते तो किसी और (उसके ससुर या पति) से क्यों उम्मीद करते हैं कि वह उसे अपनी सम्पत्ति में हिस्सा दे?
देश में बालिका-हत्या का सबसे बुरा इतिहास और रिकार्ड राजस्थान का रहा है, जहां  दहेज नहीं मूछों की फर्जी शान के लिए बेटियों की हत्या को एक पारिवारिक रिवाज में तब्दील कर दिया गया! इसी राजस्थान में  बेटियों की रक्षा हेतु सामाजिक चेतना की अलख जगाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों की धनराशि स्वयं सेवी संस्थाओं को दी गई लेकिन नतीजा शून्य है। वैसे तो यह प्रकृति की ही व्यवस्था है कि मादा की संख्या हमेशा नर से कम होती है लेकिन यह प्रतीकात्मक या नाममात्र को ही होती है (इस कमी को मादा लिंग की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का प्राकृतिक निर्णय भी माना जा सकता है) लेकिन देश के आठ राज्यों में तो यह अंतर बहुत ही चिंताजनक स्तर तक आ गया है और आश्चर्य इस बात का है कि ऐसे सभी आठ राज्य आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर देश में सबसे ऊॅंची पायदान पर हैं। ऐसे में  यह चिन्ता होनी स्वाभाविक ही है कि यदि धनी और शिक्षित लोग भी अपनी बेटियों से भयभीत हैं तो उनका भय कैसे दूर हो? 
देश के तमाम राज्यों में सरकारें लड़कियों  के जन्म पर कुछ धनराशि, स्कूलों में सायकिल, माध्यमिक शिक्षा पूरी करने पर कुछ हजार रुपये तथा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी पर भी आर्थिक मदद दे रही हैं लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि यह सब वोट लेने का नाटक भर होकर रह गया है। वास्तव में आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता आर्थिक आत्मनिर्भरता है और अगर सरकारें इसी एक समस्या को हल करने की गारन्टी दे दें तो लडकियां  जन्म भी ले सकती हैं और दीर्घायु भी हो सकती हैं। इस प्रकार यही एक विकल्प बचता है कि पुराने कानूनों की समीक्षा कर ऐसे नये और कठोर कानून बनाये जायॅ जो बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में न सिर्फ हक़ बराबर हिस्सा दिलायें बल्कि उनकी सारी शिक्षा और शैक्षणिक व्यय को सरकार द्वारा वहन किये जाने की गारण्टी भी दें।
कन्या भ्रूणहत्या रोकने के लिए आज से डेढ़ दशक पहले देश में भ्रूण परीक्षण कानून बना तथा दो साल बाद इसमें आवश्यक संशोधन कर इसे और सख्त बनाया गया लेकिन क्रियान्वयन की लचर मानसिकता के चलते नौबत आज यहाँ  तक आ पहुंची  है कि न सिर्फ पोर्टेबुल अल्ट्रासाउन्ड मशीन को सायकिल पर लादकर गाँव-गाँव, गली-गली मात्र 400-500 रुपयों में भ्रूण परीक्षण किए जा रहे हैं बल्कि संचार क्रान्ति के चलते अब इन्टरनेट पर भी चंद रुपयों में ऐसी सामाग्री उपलब्ध है जिसे खरीद कर कोई भी अपने घर पर ही ऐसा परीक्षण कर सकता है। जाहिर है कि सिर्फ रोक लगाने के कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकते। यह समस्या तभी हल हो सकती है जब इसे समस्या ही न रहने दिया जाय। लड़कियों से धार्मिक कर्म कांड और माँ-बाप का अंतिम संस्कार कराने जैसे कार्यो को राजकीय प्रोत्साहन और संरक्षण मिलना ही चाहिए। बराबरी सिर्फ खोखले शब्दों से ही नहीं आ सकती।    
 बीते दिनों एक सार्वजनिक कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि अगर लड़कियों की संख्या इसी रफ्तार से कम होती रही तो एक दिन हम सब को ‘होमोसेक्सुअल’ होना पड़ सकता है। तमाम लोगों को इस पर आपत्ति है लेकिन यह दशकों से सार्वजनिक जीवन जी रहे एक राजनेता द्वारा बिना किसी बनावट के दी गयी चेतावनी है। भले ही हमारे नेता वोट की राजनीति में आकंठ डूबे हों लेकिन वे मतदाताओं के लिए लड़कियों को आयात नहीं कर पाऐगें। लड़कियांे की कमी का कहर भी हमेशा की तरह गरीबों और निम्न जाति के युवकों पर ही टूटना तय है, क्योंकि हमारे समाज की मानसिकता लड़की को अमीर घर में ब्याहने की है और अमीरों की शादियाॅ तो कई रास्तों से हो जाती हैं। इसलिए सरकार को अब इस समस्या के निदान के लिए पूरी तरह से कमर कस लेने का वक्त आ गया है। ( राष्ट्रीय हिंदी दैनिक हरिभूमि -- दिल्ली, हरियाणा,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ -- में 06 मई 2011 को प्रकाशित)   

1 comment:

  1. बहुत सुंदर और सारगर्भित लेख है सुनील जी. आधी आबादी की मूलभूत समस्या को इतने बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार. शीबा जी के सुझाव परिवर्तनकारी हैं. इस पर अमल किया जाना चाहिए.

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