Tuesday, April 26, 2011

सरकार ही कर रही है छात्रों का शोषण -- सुनील अमर


उत्तर प्रदेश में यह बसपा की चौथी सरकार है और इस बार लगता है जैसे मुख्यमंत्री मायावती ने प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की जड़ों में मठ्ठा डालने का संकल्प कर लिया है। बीते चार वर्षों में सुश्री मायावती ने जितने भी फैसले शिक्षा को लेकर किये हैं उनका घातक असर अब प्रदेश में साफ-साफ दिखने लगा है। प्राथमिक शिक्षा में अगर दो वर्षों के भीतर दस लाख बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है तो उच्च शिक्षा में जितनी सीटें प्रदेश में हो गयी हैं उतने छात्र ही परीक्षा में नहीं बैठ रहे हैं तथा प्रवेश परीक्षा और काउन्सिलिंग दोनों ही बेमानी साबित होने लगी है। सरकार ने भ्रष्टाचार की तमाम शिकायतों, मुकदमों और सुधार सम्बन्धी सुझावों को दरकिनार करते हुए फीस प्रतिपूर्ति सम्बन्धी अपने ही एक पूर्व फैसले को गत दिनों पलटकर छात्रों को बहुत हताश कर दिया है। इस फैसले ने प्रदेश में उच्च शिक्षा के लाखों छात्रों को एक बार फिर स्कूल प्रबन्धातंत्र का बंधुआ मजदूर बना दिया है।

      प्रदेश में दसवीं कक्षा के बाद पढ़ने वाले छात्रों को प्रतिवर्ष उतनी फीस वापस कर दी जाती है जो शिक्षण शुल्क के नाम पर सरकार लेती है। इसे दशमोत्तर शुल्क प्रतिपूर्ति कहा जाता है। इसमें छात्रों का बैंक खाता खुलवाकर शासन उतने धन का एकाउन्टपेयी चेक छात्र को दे देता है। प्रदेश के उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थान के छात्रों के साथ भी गत वर्ष यह शुरुआत की गई। इसके पूर्व छात्रों को दी जाने वाली शुल्क प्रतिपूर्ति की राशि संस्थान प्रबंधकों को दी जाती थी और वे उसका न सिर्फ मनमाना उपयोग करते थे बल्कि बड़े पैमाने पर उसमें धोखाधाड़ी भी करते थे। इन संस्थानों के छात्र क्योंकि प्रायोगिक परीक्षाओं से भी संबध्द रहते हैं इसलिए वे प्रैक्टिकल में फेल कर दिये जाने के डर से प्रबंधतंत्र के खिलाफ मुह नहीं खोलते और प्रबंधतंत्र कई प्रकार से उनका शोषण करता रहता है। अभी पिछले वर्ष ही प्रदेश के कई प्रबंधन व तकनीकी संस्थानों के विरुध्द इस सम्बन्ध में मुकदमें भी दर्ज कराये गये जिस पर घबड़ाकर सरकार ने घोषित किया कि अब इन संस्थानों की धनराशि भी छात्रों के खाते में ही भेजा जाएगा। गत शिक्षा सत्र में ऐसा हुआ भी कि शुल्क प्रतिपूर्ति राशि सीधो छात्रों के बैंक खातों में गई और मँहगी फीस के बोझ से दबे हुए अभिभावकों को जरा राहत मिल गयी थी लेकिन प्रबंधकों के दबाव में आकर अंतत: सरकार ने अपने ही इस फैसले को गत दिनों बदल दिया। अब इस मद का अरबों रुपया एक बार फिर संस्थान प्रबंधकों के हाथ में है, और छात्र उनके रहमो-करम पर हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि प्रदेश में ऐसे भी शिक्षण संस्थान हैं जिन्होंने तीन वर्ष पहले की शुल्क प्रतिपूर्ति राशि अभी तक अपने छात्रों को नहीं दी है!

          इससे भी बुरा हाल प्रदेश में बी.एड. छात्रों का है। वर्ष 2002 में यहाँ प्राथमिक शिक्षकों की ट्रेनिंग के लिए होने वाली बी.टी.सी. प्रवेश परीक्षा को किन्हीं कारणों से उच्च न्यायालय ने स्थगित कर दिया और गरीब छात्रों की फीस का करोड़ों रुपया सरकारी जेब में चला गया। उस वक्त प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और श्री राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे। चूकि प्रदेश में प्राथमिक शिक्षकों के करीब 60,000 पद रिक्त थे और शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा था इसलिए श्री राजनाथ सिंह ने इससे निपटने का एक विचित्र रास्ता निकाला कि बी.एड. किये हुए लोगों को उनकी मेरिट के आधार पर चयनित कर उन्हें छह महीने की एक संक्षिप्त बी.टी.सी. ट्रेनिंग के पश्चात प्रायमरी स्कूलों में बतौर सहायक अधयापक नियुक्त कर दिया जाय! आदेश होते ही इसमें शिक्षा माफिया और दलालों का खेल शुरु हो गया। प्रदेश में धाड़ाधाड़ बी.एड. कॉलेज खुलने लगे। उनकी मान्यता आदि के नाम पर सरकारी अधिाकारियों की भी जेबें भरने लगीं। स्ववित्त पोषित योजना के नाम पर चलने वाले इस कोर्स की सरकार द्वारा नियत फीस अलग-अलग कालेजों के लिए यद्यपि 15 से 20 हजार रुपये ही थी और सरकारी वेबसाइट पर इसका उल्लेख भी था लेकिन अधिकारियों की मिलीभगत से प्रबंधाकों ने प्रति छात्र 75,000 से 1,00,000 रुपये तक वसूलना शुरु किया, जबकि ये सब छात्र सरकार द्वारा करायी गयी बी.एड. प्रवेश परीक्षा पासकर काउन्सिलिंग की मार्फत प्रवेश लेने के अर्ह होते थे! इन छात्रों को रसीद उतनी ही धनराशि की मिलती थी जितनी उस कालेज के लिए शासन द्वारा निधर्रित होती थी।

          इस लूट पर जब काफी हल्ला मचा तो और सरकार को लगा कि उसका सर्वजन समाज का नारा फेल हो रहा है तो गतवर्ष सरकार ने इसे पारदर्शी बनाने की घोषणा की, हालाँकि छात्रों को बाद में पता चला कि यह पारदर्शीनहीं बल्कि लूट का नया तरीका था। वर्ष 2002 में बी.टी.सी. प्रवेश परीक्षा पर लगी उच्च न्यायालय की रोक हटा ली जाने के बाद कायदे से बी.टी.सी. की ही प्रवेश परीक्षा शुरु होनी थी लेकिन उसमें चूँकि लूटपाट का खेल नहीं हो पाता, इसलिए सरकार ने उसे कोमा में ही रखा और बी.एड. का खेल जारी रखा। शासनादेश यह हुआ कि इस बार काउन्सिलिंग केन्द्रों यानी विश्वविद्यालय पर ही छात्रों से शासन द्वारा निधार्रित फीस का ड्राफ्ट लेकर उन्हें प्रवेश के लिए सम्बन्धित कालेज का पत्र दे दिया जाएगा। पत्र में यह निधार्रित था कि एक सप्ताह के अन्दर ही प्रवेश ले लेना है।

         ऐसे पत्र लेकर छात्र जब प्रवेश लेने सम्बन्धित कालेज पहुँचे तो वहॉ उनसे अतिरिक्त धन की माँग की गई। जिन छात्रों ने देने से इनकार किया उन्हें ठंढ़े से समझा दिया गया कि पैसा तो देना ही पड़ेगा नहीं तो एक सप्ताह यू ही दौड़ा कर उनकी सीट कैन्सिल करा दी जाएगी जिसे बाद में मैनेजमेंट कोटे से भर लिया जाएगा! भुक्तभोगी छात्रों का कहना था कि यदि सरकार को निधार्रित फीस में ही प्रवेश सुनिश्चित कराना था तो उसे काउन्सिलिंग स्थल पर ही सम्बन्धित कालेजों के स्टाफ को भी बुलाकर रखना चाहिए था ताकि छात्रों को वहीं एडमिशन कार्ड भी मिल जाता। लेकिन शासन ने ऐसा न कर छात्रों को लुटने के लिए फिर से प्रबंधकों के ही पास भेज दिया। अभी आगामी सत्र के लिए तो मायावती सरकार ने और कमाल करते हुए बी.एड. की फीस को ही दुगना कर दिया है!
          मानव संसाधान विकास मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट बताती है कि दो साल के भीतर देश भर में करीब 26 लाख बच्चे प्राथमिक स्कूल नहीं गये हैं जिसमें 10 लाख बच्चे सिर्फ उत्तर प्रदेष से ही हैं! तकनीक और प्रबंधान के छात्रों का शोषण लगातार हो ही रहा है। बी.एड. वालों का हाल बेहाल है। माघ्यमिक शिक्षा पूरी तरह शिक्षा माफियों के हाथ में है और एक कमरे वाले मकान के पते पर आधा-आधा दर्जन स्कूलों की मान्यता शासन ने दी हुई है। कई कालेजो का तो अस्तित्व ही नहीं है। ये सब सिर्फ प्रवेश और परीक्षा लेते हैं। मीडिया में हल्ला मचने पर दो-चार कालेजों के खिलाफ थानों में प्राथमिकी दर्ज करा दी जाती है लेकिन असली खेल पुलिस की चार्जशीट में हो जाता है और दागी लोग बेदाग होकर एक और संस्थान खोलने में लग जाते हैं। हास्यास्पद तो यह है कि एक साल जिस पैटर्न पर उच्च शिक्षा के छात्रों को उनके बैंक खाते में शुल्क प्रतिपूर्ति की राशि दी गई और सब कुछ ठीक-ठाक रहा उसे ही अब नाकाफी बताकर रद्द कर दिया गया है। वास्तव में निजी कालेजों के प्रबंधको का उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त संगठन है और ये येन-केन-प्रकारेण शासन को प्रभावित कर ले जाते हैं। ( हम समवेत फीचर्स में 25 अप्रैल 2011 को प्रकाशित )

Monday, April 25, 2011

राजनीति का बेशर्म विदूषक --- सुनील अमर

राजनीति का बेशर्म विदूषक


राजनीति! कितनी उबाऊ, नीरस, प्रपंची और आपराधिक रुप से तिलस्मी है, इसके बारे में अब किसी को बताना क्या, सभी जानते ही हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि अगर इसमें अमर सिंह जैसे लोग न होते तो यह जंगल कितना बियाबान होता? जेठ की तपती दुपहरिया में मीलों फैले निर्जन और वृक्षहीन रास्ते में, एक पथिक को जो राहत किसी पेड़ को देखकर होती है, भले ही वो पेड़ बबूल का क्यों न हो, वही नखलिस्तानी सुकून देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल में अमर सिंह की बचकानी हरकतों से मिल रहा है।
घर के सदस्यों के बीच में कैसा भी तनाव क्यों न हो, लेकिन एक छोटा बच्चा अगर है तो वह अपनी बाल सुलभ हरकतों से सबका मन हल्का कर ही देता है। यह देखने में आता है कि कई बार बच्चे जवान ही नहीं होते! भले ही उनका शरीर भारी भरकम क्यों न हो जाय। कुछ चीजें शायद जन्मजात होती हैं। प्रयास करने पर भी उनसे पिण्ड नहीं छूटता। जैसे मैं एक सज्जन को जानता हूं जिनको देखकर लगता है कि वे अब हॅंसे कि तब लेकिन यह जन्मजात है कि चू पड़ने को आतुर एक सलज्ज मुस्कान उनके चेहरे पर हमेशा खिली रहती है और इसी मुस्कान के साथ रोज वे दर्जनों मुर्गों, बकरियों व कुछ बड़े जानवरों को इस भवसागर से मुक्ति दिलाते रहते हैं। आप अपनी लोकसभा को देखिए-इतना मुस्कान रस का माहौल क्या पहले भी कभी था? तो यह सब ‘गॉड गिफ्टेड’ है। इसमें कोई चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। इसी तरह अमर सिंह भी कुछ नहीं कर सकते। वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने आप हो जाता है। असल में वे बने ही इसी तरह के हैं।
आजकल कई विश्लेषक उन्हें राजनीतिक विदूषक साबित करते हैं और उन्हें भड़ैंती कला का विशेषज्ञ बताते हैं। मैं विनम्रतापूर्वक उनसे कहना चाहता हूं कि यह विषय-वस्तु का एक पक्षीय आंकलन है। ऐसा करते समय आप अमर सिंह के उन राजनीतिक अवदानों को भूल जाते हैं, जो समय-समय पर उन्होंने देश को दिये हैं! क्या आप भूल गये हैं कि संप्रग-1 में परमाणु करार मुद्दे को लेकर कैसी विकट तनातनी के दिन थे? और संयोग देखिए कि लगभग उसी दौरान सोनिया जी का जन्म दिन भी आ पड़ा था! अब जन्म दिन मार्का आयोजनों को तो आगे पीछे किया नहीं जा सकता। सो एक बेहद तनाव भरे माहौल में जन्म दिन का आयोजन था कि लोग हॅसें भी तो अगल-बगल देखकर, लेकिन लोग उस वक्त मुस्कराये बिना न रह सके जब श्री अमर सिंह बिना निमंत्रण के ही वहॉं पहंच गये! और उस वक्त तो (टी.वी. देख रहा) पूरा देश ही बेसाख्ता हॅंस पड़ा जब उन्होंने सोनिया जी को देखकर नमस्कार किया और सोनिया जी ने अनिच्छापूर्वक मुंह ही फेर लिया! आप सोचकर बताइये कि उस वक्त और कोई था उस महफिल में जो तनावग्रस्त पूरे देश का हॅंसा सकता था?
आगे चलकर तो ऐसे बहुत से अवसर आये जब देश के मनोरंजन की खातिर श्री अमर सिंह ने अपनी इज्ज़त (जो कुछ भी बची रह गई थी!) और राजनीतिक कैरियर की भी परवाह नहीं की। देश में सी.डी. संस्कृति फैलाने में श्री अमर सिंह का उल्लेखनीय योगदान है। अभी गत दिनों एक सुन्दर महिला ने अनायास ही नहीं कहा है कि सबसे बड़े सी.डी. निर्माता स्वयं श्री अमर सिंह हैं। सुन्दरियॉं, श्री अमर सिंह की कमजोरी हैं। एक सुन्दर महिला साथ लिए बगैर वे कभी कोई काम करते नहीं, चाहे काम असुन्दर ही क्यों न हो। मुलायम सिंह भी पहले सिर्फ नाम के ही मुलायम थे। वो तो जब कभी कोई शोधार्थी लगेगा तो पता चलेगा कि मुुलायम सिंह को मुलायम बनाने में सारा योगदान अमर सिंह का ही था। यह अमर सिंह की ही माया थी कि उन्होंने दशकों से सोये पड़े टेलीफोन टेपकांड को एकबार फिर जिन्दा कर दिया था। यह अमर सिंह ही थे जिन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताया कि उन्होंने अब एक 16 साल के लड़के का गुर्दा लगवा लिया है और अब वे 16 साल के हो गये हैं! गुर्दा बहुत से नेता लगवाये हैं लेकिन ऐसी लड़कपन की बात करने का दिल-गुर्दा है किसी के पास? इस पर भी जो लोग श्री अमर सिंह की बातों को लड़कपन में नहीं लेते वे वास्तव में उनके साथ अन्याय कर रहे होते हैं।
यह ‘टीन एज’ वाला जुनून ही है कि साथ छूटने के बाद भी श्री अमर सिंह अपने दोस्त रहे मुलायम सिंह को भूल नहीं पा रहे हैं। हमारे सजग पाठक बतायें कि छोटे से छोटा कोई कार्यक्रम भी अमर सिंह ने बिना मुलायम सिंह का नाम लिए किया हो? रावण ने जब राम-प्रेम के कारण विभीषण को लात मारकर दरबार से निकाला तब भी विभीषण राम-राम कहते हुए ही निकले! ऐसी लगन भी बहुत दुलर्भ ही होती है। अमर सिंह जब तक सपा में थे, तब भी मुलायम-मुलायम ही भजते रहते थे और जब सपा से निकाल उठे तब भी रोज मुलायम-मुलायम ही भज रहे हैं। उनकी प्रत्येक प्रेस कॉफ्रेस मुलायम के ही नाम से शुरु और उसी पर खत्म होती है। कोई और मैदान होता तो अमर सिंह मॅंजनू की उपाधि पाते लेकिन यह राजनीति की बिडम्बना ही है कि यहॉ ऐसे गुणों को कोढ़ में खाज़ सरीखा समझा जाता है! क्या तजुर्बा था सूरदास को जो उन्होंने लिखा -‘ लरिकइयॉं कौ प्रीति, कहौ अलि कैसे छूटै? ’
आज के समय में सबसे कठिन काम किसी को हॅसाना है। श्री अमर सिंह इस कला में सराबोर हैं। जैसे पुरानी फिल्मों में जॉनी वॉकर, जगदीप, क्रेस्टो मुखर्जी, असरानी और महमूद आदि को देखते ही लोग हॅंस पड़ते थे कि अब ये आ गये हैं तो हास्य रस का सीन होगा ही, बिल्कुल वही दर्जा श्री अमर सिंह ने अपने लिए रिजर्व कर लिया है। वे टी.वी. पर दिखें या मंच पर, लोग जानते ही हैं कि अब हॅसना ही है। क्या यह आप सबको कोई उपलब्धि नहीं लगती? इसके बावजूद लोग हैं कि उन्हें गिनने को ही तैयार नहीं! सारे देश में इन दिनों भ्रष्टाचार पर संग्राम छिड़ा हुआ है और भ्रष्टाचार में थोड़ा बहुत दखल रखने वाले रामदेव या भूषण आदि की भी काफी पूछ है लेकिन इसमे महारत रखने वाले श्री अमर सिंह को कोई पूछ ही नहीं रहा है? क्या अन्ना साहब को यह नहीं पता है कि कॉटे से ही कॉटा निकलता है और भ्रष्टाचार का कॉटा निकालने के लिए श्री अमर सिंह से विकट कॉटा दूसरा कौन हो सकता है? लेकिन हद है अनदेखी की भी। वो तो गुर्दा जवान है, सह ले रहा है, किसी बुढ्ढे़ का होता तो........।








Thursday, April 14, 2011

उर्दू की यह दुर्दशा क्यों ? -- सुनील अमर

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि उर्दू को देश के प्रत्येक स्कूल में पढ़ाये जाने की योजना बन रही है। उन्होंने कहा कि यह मुसलमानों की भाषा न होकर भारत की भाषा है और किसी इलाके या प्रान्त से जुड़ी नहीं है। उन्होंने चिन्ता व्यक्त की कि उर्दू में शिक्षण व अनुवाद के कार्य तो हो रहे हैं लेकिन शोध नहीं हो रहा है। श्री सिब्बल गत दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। उन्होंने कहा कि उर्दू देश की स्वतंत्रता के साथ जुड़ी हुई है और अब इसे रोजगार के साथ जोड़ना है।

जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग तथा जस्टिस राजेन्द्र सच्चर समिति ने भी अपनी बहुचर्चित रपटों में उर्दू को गुरबत और गर्दिश से निकालने के लिए इसी तरह की कई अहम सिफारिशें की हैं। यह एक सच्चाई है कि आजादी के पहले तक जो भाषा सरकारी काम-काज और रोजगार का जरिया बनी र्हुई थी वह स्वातंत्रयोत्तर भारत में एक तरह से हाशिए पर पहुँच गई है। वैसे कहने को तो देश के प्राय: हर राज्य में एक उर्दू अकादमी है लेकिन वह महज राजनीतिक इस्तेमाल की चीज बनकर रह गई है। उ.प्र. जैसे एकाध राज्यों में उर्दू को यद्यपि तीसरी सरकारी भाषा के रुप में रखा गया है लेकिन वह कर्यालयों व अधिकारियों के साइन बोर्डों के आगे नहीं बढ़ सकी है। राज्य सरकारें उर्दू के मदरसों को आर्थिक सहायता तो दे सकती हैं लेकिन सरकारी प्राथमिक स्कूलों में उर्दू पढ़ाये जाने की शुरुआत नहीं करती, जबकि यह यहीं हिन्दुस्तान में पैदा हुई और पली-बढ़ी भाषा है।

उर्दू के साथ सबसे बड़ी ज्यादती यह हुई कि इसे एक खास समुदाय की पहचान मानकर प्राथमिक स्तर पर मौलवियों और मदरसों के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया। ये मदरसे यहाँ पढ़ने वालों को अपनी जरुरत और उद्देश्य के हिसाब से तैयार करने लगे और यह मानने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ऐसे छात्रों को मुस्लिम समुदाय का प्रतीक बनाया जाने लगा। उर्दू पढ़ने वाले छात्रों के साथ आज सबसे बड़ी विड़म्बना यही है कि प्राथमिक स्तर पर उन्हें मदरसों के हवाले रहना पड़ता है और आगे चलकर सरकारी स्तर पर उच्च शिक्षा में तो उनके लिए शोध तक की व्यवस्था है लेकिन बीच में कुछ है ही नहीं! यह उच्च शिक्षा और शोध भी ऐसे ही उस्तादों पर आश्रित है जो खुद भी मदरसों से ही निकल कर आये हुए हैं। अब व्यवहार में इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त युवक जब नौकरी तलाशने लगते हैं तो उन्हें मदरसे या मदरसे जैसी सोच और जरुरत वाले संस्थान ही मिलते हैं। अपनी ऊंची पढ़ाई-लिखाई का यह हश्र देखकर उनमें और उनसे सबक लेने वालों का पस्त हो जाना लाजिमी ही है! मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अरसा पहले ठीक ही कहा था कि मुसलमानों को अपनी रुढ़वादिता छोड़कर नये युग के अनुरुप अपनी नई पहचान बनानी चाहिए तभी वे सफल हो सकते हैं। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यूरोप के देशों में रहने वाले मुसलमानों की पढ़ाई-लिखाई और सोच तथा उसी के अनुरुप आर्थिक स्थिति के मुकाबले मुस्लिम देशों में रहने वाले मुसलमान प्राय: ही पिछड़ेपन का शिकार हैं। लेकिन यहाँ तो सबसे बड़ा धोखा ही यही हुआ है कि सरकार और मदरसे, दोनो एक ही सोच के हो गये!

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली की फेलो, समाजशास्त्री व पत्रकार सुश्री शीबा असलम फ़हमी का कहना है कि ''आजादी के बाद से ही उर्दू को सेक्युलर प्रायमरी स्कूलों से रवाना कर दिया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि स्कूलों से गायब उर्दू सिर्फ इस्लामी मदरसों में ही बची रह गई। एक 'फंक्षनल लैंग्वेज' के तौर पर उर्दू के वजूद पर यह जानलेवा ही साबित हुआ क्योंकि उर्दूदां तबके के सामने अपनी-अपनी औलादों को यह भाषा सिखाने का एक ही रास्ता बचा था कि वे उन्हें इस्लामी मदरसों में भेजें। इसका सबसे घातक नुकसान यह हुआ कि इस प्रकार मुसलमानों के सेक्युलर सरोकार ही सवालों के घेरे में आ गये। ये मदरसे फिरकापरस्त तो बिल्कुल ही नहीं लेकिन आखिरतपरस्त (यानी भवसागर से मुक्ति की विचारधारा वाले) जरुर हैं। शीबा कहती हैं कि इससे एक और संकट पैदा हुआ कि या तो अपने बच्चे को किसी बढ़िया स्कूल में भेजकर डाक्टर-इंजीनियर बना लो या फिर मदरसे में भेजकर अपनी जबान पढ़ा लो। ''

किसी भी भाषा के जीवित रहने और परवान चढ़ने के दो प्रमुख कारण होते हैं-एक, लोगों का उससे लगाव और दूसरा, उसमें रोजगार और जीवन-यापन की संभावनाऐं। इन दोनों कारणों के न रहने पर भाषाऐं समाप्त हो जाती हैं। अपने देश में ही कई भाषाऐं अब तक इन्हीं कारणों से समाप्त हो चुकी हैं। यहाँ यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस घोर पूजीवाद-बाजारवाद के युग में ये दोनों कारण सरकार पर ही निर्भर करते हैं। उर्दू एक बहुत समृध्द और शानदार अतीत वाली भाषा है। श्री कपिल सिब्बल का यह आश्वासन काबिले-तारीफ़ है कि देश के सभी प्रायमरी स्कूलों में उर्दू की पढ़ाई फिर से शुरु कर दी जाएगी लेकिन इतने भर से किसी भाषा का संरक्षण नहीं हो जाता जब तक कि उससे जीवन यापन की संभावनाऐं भी न जुड़ें।

पढ़ाई के साथ-साथ उर्दू के द्वारा रोजगार के अवसर भी पैदा किये जाने का आश्वासन सरकार को देना चाहिए तभी वांछित संख्या में छात्र उसकी तरफ आकर्षित होंगें। इसके बजाय अगर मुसलमानों की भाषा मानकर उनके अहं को तुष्ट करने हेतु उर्दू को प्राथमिक स्कूलों में सरकार शुरु करना चाहती है तो यह काम तो मदरसे कर ही रहे हैं। आज अंग्रेजी का जगत-व्यापी प्रसार महज इसीलिए संभव हुआ है क्योंकि वह अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क और व्यवसाय सर्जक भाषा बन गई है। देश की कुछ अन्य भाषाओं के साथ गनीमत यह है कि किसी न किसी राज्य विशेष से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त है लेकिन उर्दू के साथ यह मदद भी संभव नहीं क्योंकि यह किसी राज्य विशेष की भाषा नहीं है। इसलिए इसे रोजगारोन्मुख बनाना ही इसकी बहबूदी का कारण बन सकता है। सिर्फ प्राथमिक स्कूलों में इसे लागू कर देना तो इसे ऑक्सीजन पर रखने जैसा ही होगा।

सुश्री शीबा कहती हैं कि ''उर्दू को मदरसों के भरोसे छोड़ देने का नतीजा यह हुआ कि 'इंकिलाब-बगावत-आजादी-इश्क और सूफियों की बानी' यानी 'उर्दू जबान' के मुहाफ़िज (रखवाले) 'देओबंदी-बरेलवी' मदरसे बना दिये गये जहाँ उन्हें हिन्दुस्तानियत से लबरेज़ (भरपूर) उर्दू की जगह अरबी-ज़दा दीनी डिस्कोर्स (धार्मिक विचारधारा) की जबान रटायी गयी जो कि समाजयात-हिसाब-साइंस और जबान में भी दीनी हवालों (सन्दर्भो) से पुर थी और जिसमें मीर-गालिब का अजीम उर्दू अदब (महान उर्दू साहित्य), ज़ो कि खालिस सेक्युलर अदब था, नदारद रहा।''

सिर्फ उर्दू ही नहीं बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में श्री कपिल सिब्बल द्वारा अभी तक किये गये प्रयास नि:सन्देह काबिले-तारीफ़ हैं। उच्च शिक्षा में सुधार के लिए तो उन्होंने काफी प्रयास किया है, लेकिन शिक्षा के अधिकार कानून की बात अगर छोड़ दें तो शिक्षा संम्बन्धी करीब आधा दर्जन विधोयक अभी तक संसद में लटके पड़े हैं और कई तो अभी संसद का मुह भी नहीं देख पाए हैं। संसद के इस बार के बजट सत्र में एक भी शिक्षा-विधोयक परित ही नहीं हो सका, जबकि दो वर्षों से विदेशी विश्वविद्यालय, कॉलेजों में कदाचार रोकने, शैक्षणिक न्यायाधिकरण विधोयक व राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जैसे महत्त्वपूर्ण विधोयक अभी प्रतीक्षारत ही हैं। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि उर्दू के विकास के लिए संकल्पबद्व सरकार ठोस कदम उठाएगी।

बाबा रामदेव : मन न भये दस-बीस ! --- सुनील अमर

अचानक सूरदास याद आने लगे हैं! ऑंख के अन्धे एक संत ने ऑंख वालों के लिए कैसा बढ़िया-बढ़िया उपदेश दिया है -‘उधो! मन न भये दस-बीस।’ कुछ लोग निश्चित ही बहुत पछताते होंगें कि उनके 10-20 मन क्यों नहीं हुआ! एक इसकी वफादारी में लगाए रहते तो एक श्रद्धापूर्वक अगले की जड़ काटने में। एक इधर मामला सेट करता तो एक उधर भी लाइन फिट किए रहता। वैसे बहुत से लोग ऐसा कर भी लेते हैं, लेकिन बाबा रामदेव ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।
बेचारे रामदेव! इनके तो है भी दस-बीस मन और उनको अलग-अलग लगाया भी लेकिन जब अपना मन ही दगा देने पर उतारु हो तो क्या हो सकता है! मेरे कई जानने वालों ने मेरी इस बात पर आपत्ति भी की कि मन दस-बीस कैसे हो सकता है? लेकिन वे मेरे इस जबाब पर दंग रह गये कि जो आदमी आसान से नुस्खे से गंजे के सिर में बाल उगा देता हो उसके लिए अपने ही मन को दस-बीस करना कौन सा मुश्किल होगा!
कैरियर की शुरुआत में बाबा जी ने संघ का हाथ थामा। संध ने भाजपा का भी हाथ थमा दिया। सब दूधो नहाओ,पूतो फलो मार्का चला। खूब लेन-देन भी हुआ। चंदा-चुटकी का भी काम हुआ। इस आधुनिक समय में प्रेम तक में लेना-देना हो रहा है तो बाबा तो खालिस व्यवसाय कर रहे हैं। लेकिन गुदगुदी भी कई बार रुलाने लगती है। सो मॉग जब तकलीफ देने लगी तो एक दिन योगी बाबा का संयम भी डोल गया और उन्होंने निस-वासर दौड़ पड़ने को आतुर अखबारवालों के सामने ही कह दिया कि हमारे यहॉ की भाजपा सरकार तो हमसे दो करोड़ रुपया घूस मॉग रही है। हा-हा! बेचारे बाबा!
वे शायद समझ रहे थे कि ऐसा बयान देकर वे भाजपा की अस्मिता पर ही कीचड़ उछाल देंगें लेकिन उन्हें संभवतः यह नहीं याद था कि जिस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने समय में सिर्फ एक लाख रुपये का घूस लेते हुए तहलका वालों से वीडियो फिल्म भी बनवा लेने की दिलेरी रखता हो उस पार्टी के लिए तो दो करोड़ रुपये का मामला निश्चित ही अत्यधिक गौरव का होगा! सो गौरव यहॉं फॅंसा भी तो बाबा का, न कि भाजपा का।
यह दो करोड़ की बात सबसे ज्यादा बुरी लगी टाटा को! उन्होंने सोचा कि यह बाबा लोगों को क्या बताना चाहता है कि सबसे ज्यादा पैसा उसी के पास हो गया है? उन्होंने अगले ही दिन कह दिया कि उनसे तो 15 करोड़ रुपया घूस मॉगा जा रहा था! फिर अम्बानी-वम्बानी भी अपनी प्रतिष्ठा बचाने में लग गये कि ढ़ेर सारा करोड़ तो उनसे भी मॉगा गया था। बाद में टाटा ने तो फोन-वोन का भी तमाम पुख्ता सबूत दिया कि उन्होंने तो करोड़ों का घूस सबको सही से देने के लिए ही राडिया नामक एक सिस्टम की बाकायदा तैनाती कर दी थी।
फिर बाबा ने एक मन कॉग्रेस की तरफ दौड़ाया कि चलो कॉंग्रेसी ही हो जॉय। उनका भाव यह रहा होगा कि उनके राज्य में भाजपा की काट कॉग्रेस ही है। लेकिन कॉग्रेस भी क्या करे! नारायणदत्त जैसे खेले-खाये बुजुर्गों ने भी वहॉ वह लौंडई फैला रखी है कि सुप्रीम कोर्ट तक हैरान है। सो कॉग्रेस ने बाबा से साफ-साफ कह दिया कि-‘‘आपन जोबना सम्हारी कि तुहैं बालमा ?’’
राजनीति, देखने में भले ही मुम्बई-पूना जैसा आठ लेन का सीधा-सपाट और चिकना राजमार्ग लगे कि इस पर चढ़ जाएगें तो फिर दिल्ली दूर नहीं है, लेकिन पॉव धरते ही पता चल जाता है कि यह तो हम झारखंड के नक्सलियों वाली बीहड पगडंडी पर आ गये हैं। बाबा रामदेव को भी अचानक इल्हाम हुआ कि सारा देश भ्रष्टाचारियों से भर गया है और इसे भ्रष्टाचार मुक्त करना अब बहुत जरुरी है। असल में बाबा, रोग, सुन्दरता और जवानी बढ़ाने-टिकाने की मॅंहगी दवा बनाने वाली विदेशी-देशी कम्पनियों के मालिक हैं। उनके मजदूर, मजदूरी बढ़ाने को लेकर अरसे से हड़ताल पर हैं और पुलिस भी अब उन्हें काबू में नहीं कर पा रही है। सो उन्होंने भ्रष्टाचार दूर करने का संकल्प लेकर एक देश व्यापी स्वाभिमान यात्रा शुरु कर दी ताकि लोगों का घ्यान फैक्ट्री-मजदूर तथा भाजपा-कॉग्रेस से हटकर उनकी तरफ आकर्षित हो और इसी बहाने एक जन-मानस अपने पक्ष में बना लिया जाय जो जरुरत पड़ने पर साथ खड़ा हो सके।
मोहल्ले में नई दुल्हन आ जाय तो उसकी एक झलक पाने को भला कौन लालायित नहीं हो जाता? यही हाल बाबा का हुआ। भारत में भ्रष्टाचार पर आन्दोलन! सबके कान खड़े हो गये-क्या करना चाहता है यह बाबा? बाबा के इर्द-गिर्द तमाम लोग इकट्ठा होने लगे कि देखें कौन सा माल अलग बॉधकर रखा है बाबा ने जनता को दिखाने के लिए। अब बाबा ने कभी कोई आन्दोलन तो किया नहीं था। भीड़ बटोरने का हुनर तो है उनके पास लेकिन भीड़ से आन्दोलन कराना तो वे जानते नहीं। सो किसी ने अन्ना का नाम सुझाया। बाबा को भी लगा कि यह तो स्टार आदमी है। साथ आ जाए तो ठीक है। कल को राजनीतिक पार्टी भी बनानी है तो बढ़िया रहेगा। बाबा नहीं जानते थे कि अनजाने ही वे धीरे-धीरे अमीर खुसरो की तरफ खिसक रहे थे-‘‘खीर पकाई जतन से चरखा दिया चलाय.......’’ आगे मैं नहीं कहूगा। आप कह लीजिए, आपकी मर्जी! यह दॉंव भी गया बाबा के हाथ से। एक दॉव टाटा ले गये तो दूसरा अन्ना।
बेचारे रामदेव! जो आदमी सारी दुनिया को बताता रहा हो कि शरीर अगर ब्याधि है तो शरीर ही दवाओं का कारखाना भी है, वह ब्याधि और कारखाना दोनों में ही उलझकर रह गया। नाखून रगड़कर बाल उगाने और उसे काला करने की अद्भुत तरकीब बताने वाले बाबा की दाढ़ी के बाल पक रहे हैं! हो सकता है कि बाबा के नाखूनों में कोई तकलीफ हो और वे उन्हें रगड़ न पा रहे हों। दुनिया को हॅंसाने वाले अक्सर अवसाद के मरीज होते हैं। जय हो!!( Also Posted on visfot.com )

Tuesday, April 12, 2011

प्राथमिक स्कूलों से भागते बच्चे ! -- सुनील अमर

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते दो वर्षों के दौरान देश के प्रायमरी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 26 लाख से अधिक की गिरावट आई है! और भी हैरतअंगेज तथ्य यह है कि इसमें से आधी संख्या सिर्फ उत्तर प्रदेश से है! स्कूल न जाने के इस आंकड़ों को इस परिवर्तन की रोशनी के बावजूद देखा जाना चाहिए कि साल भर से अधिक समय से ही सरकार ने पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया हुआ है! उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पढ़ाई छोड़कर भाग रहे बच्चों का कारण तो इसी एक आंकड़े में निहित है कि वहां बाल श्रमिकों की संख्या में इधर के वर्षों में तेजी से इजाफा हुआ है। स्पष्ट है कि बच्चे पढ़ाई क्यों छोड़ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं!
देश के प्रायमरी स्कूलों को आज जो कोई भी देखता है उसके मन में सिर्फ एक प्रश्न आता है कि इतनी सुविधाओं के बाद अब यहाँ किस चीज की कमी है जो न तो यहाँ पढ़ाई का स्तर सुधर पा रहा है और न ही बच्चे टिक रहे हैं। इन विद्यालयों की हकीकत यह है कि यहाँ पढ़ाने वाले अध्यापक अपने खुद के बच्चों को किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हैं और छात्र संख्या आधे से अधिक फर्जी होती है ताकि ग्राम प्रधान और अध्यापक मिलकर मध्यान्ह भोजन व छात्रवृत्ति में प्रति छात्र के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा धन का बंदर बाँट कर सकें और छात्र संख्या कम होने के कारण अध्यापकों में से किसी का स्थान्तरण न हो जाय। स्कूल छोड़कर भागने वाले बच्चों में हालांकि ऐसे बच्चे कम ही होते हैं जो बेहतर पढ़ाई के लिए अभिभावकों द्वारा निकाल लिए जाते हों । अधिकांश बच्चे ऐसे ही हैं जो कहीं मजदूरी कर चार पैसे कमाने के लिए ही माँ -बाप द्वारा स्कूल से निकाल लिए जाते हैं या स्कूल भेजे ही नहीं जाते। यही वह एकमात्र कारण है जिसके आगे मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा, मुफ्त भोजन, किताब-कापी, युनीफार्म और वार्षिक वजीफा भी इन बच्चों के अभिभावकों को इनकी पढ़ाई के लिए प्रेरित नहीं कर पाता।
वर्ष 2000 में केन्द्र सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान शुरु किया जिसका उद्देश्य स्कूल जाने योग्य हर बच्चे को अनिवार्य रुप से स्कूल तक पहुॅचाना था। इससे भी पहले विश्व बैंक की सहायता से डी.पी.ई.पी. नामक जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम चल रहा था। यह जानकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि सिर्फ प्राथमिक स्कूलों तक हर बच्चे तक पहॅुंचाने के लिए एक दर्जन से भी अधिक कार्यक्रम प्रत्येक जिले मंे चल रहे हैं और शायद ही शिक्षा विभाग का कोई अधिकारी या बाबू हो जिसे सारे कार्यक्रमों का नाम तक याद हो! हाल यह है कि बर्ष 2008-09 और 2009-10 में पहले के वर्षों की अपेक्षा 26 लाख कम बच्चों का नाम लिखा गया। इसी अवधि में सबसे बुरी गति उत्तर प्रदेश की रही जहाॅ स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में 10 लाख की गिरावट आई! यानी 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष स्कूल जाने से वंचित रहे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब यह सोचकर हैरान है कि इन बच्चों को अब किस तरकीब से स्कूल तक पहॅुंचाया जाय। यही हाल राजस्थान, बिहार, असम, और महाराष्ट्र में भी है।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अब सिर्फ गरीब बच्चे पढ़ते हैं। सरकार भी इस तथ्य से वाकिफ है और इसीलिए ऐसी योजनाऐं इन विद्यालयों में लागू की जाती हैं जिससे भूखे-नंगे बच्चे न सिर्फ आकर्षित हों बल्कि विद्यालय पहुचकर वहा टिकें भी। वजीफा, दोपहर का भोजन और किताब-काॅपी, आदि मुफ्त में देना इसी योजना का अंग है, लेकिन हैरत उनकी सोच पर होती है, जो लोग इन योजनाओं का खाका तैयार करते हैं। उन्हें या तो गावों के बारे में जमीनी हकीकत का पता नहीं होता या फिर वे येन-केन-प्रकारेण अपने सिर से बला टाल देते हैं। इस सन्दर्भ में एक उदाहरण पर्याप्त होगा- प्राथमिक स्कूलों में सरकार ने शौचालय बनवाये हैं ताकि बच्चे खुले में शौच न जाॅय। शासन को रिपोर्ट मिली कि बच्चे इन शौचालयों का इस्तेमाल करने के बजाय खुले मे जाना ही पसंद कर रहे हैं। जानते हैं कि नौकरशाही ने इसका कौन सा उपाय बताया? विद्यालयों में शासनादेश आ गया कि प्रत्येक शौचालय में खूब रंगीन पेन्टिंग करके चिड़ियों आदि के चित्र बनाये जाॅय तो बच्चे उन्हें देखने के बहाने शौचालय में टिकेंगें! करोड़ों रुपये का निपटारा इस बहाने हो गया लेकिन नतीजा शून्य।
केन्द्रीय योजना मनरेगा के साइड-इफेक्ट्स भी गरीब बच्चों के स्कूल न जाने या छोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। असल में मनरेगा की वजह से एक तो गाॅव में ही काम के अवसर बढ़े और दूसरे मजदूरी भी बढ़ी। मनरेगा में निश्चित काम की निश्चित मजदूरी होने के कारण होता यह है कि काम चाहे परिवार के किसी एक सदस्य के नाम ही मिला हो लेकिन उसे सब मिलकर जल्दी से निपटा लेते हैं। मसलन 100 घनफुट मिट्टी निकालने की मजदूरी 119 रुपये मिलती है। अब होता यह है कि परिवार के कई सदस्य मिलकर इसे जल्दी से निपटाकर दूसरे काम में लग जाते हैं। गरीब लोग अपने बच्चों को भी इस काम मंे लगा लेते हैं। मनरेगा ने चूॅकि सामान्य मजदूरी की दर भी बढ़ा दी है इसलिए भी गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल जाना छोड़कर बालश्रमिक बन रहे हैं। आखिर स्कूल में उन्हें सड़ा-गला खाना और साल भर में 250 रुपये का वजीफा ही तो मिलता है! जाहिर है कि मजदूरी करने पर एक बच्चा इससे बहुत अधिक तो कमा ही लेता है। यही कारण तो है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हाल के 2-3 वर्षों में बहुत तेजी से बाल श्रमिक बढ़े हैं। वर्ष 1991 से लेकर 2001 तक के दस वर्षों में जिन बाल श्रमिकोें की संख्या में 12.5 से 15.2 यानी तीन प्रतिशत से भी कम का इजाफा हुआ वही बाल श्रमिक 2001 से 2011 के बीच दो गुना बढ़कर 30 प्रतिशत हो गये हैं!
देश की तीन चैथाई आबादी की औसत दैनिक आमदनी लगभग 20 रुपये है। यह सरकारी आॅकड़ा है। इसी आबादी के बच्चे प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। इनके सामने पहली प्राथमिकता पढ़ाई नहीं पेट भरने की होती है। जब तक इनका पेट भरने का उपाय नहीं होगा, इनके बच्चे स्कूल नहीं जायेंगें। ये माॅ-बाप जानते हैं कि बच्चा पाॅचवीं या आठवीं तक पढकर भी क्या कर लेगा। जो उसे कल करना है उसे आज से ही शुरु करे तो ज्यादा बेहतर। दरअसल हमने जो व्यवस्था बनाई है वह साफ-साफ चुगली खाती है कि इसमें सारी गरज सरकार की है। साक्षरता का प्रतिशत किसी तरह बढ़ जाय, ज्यादा से ज्यादा आबादी के बैंक खाते हो जाॅय और ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास आयकर के पैन-काॅर्ड हो जाॅय! इन सबसे सरकार उन वैश्विक संस्थाओं के सामने अपनी ‘फेस-सेविंग’ करती है जहाॅ से वह अनुदान ले आती है। उन्हें दिखाना पड़ता है कि आपके धन का सदुपयोग हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में आधे से अधिक बैंक खाते बंद पड़े रहते हैं। जिस साक्षरता को सरकार 70 प्रतिशत के करीब बताती है, सभी जानते हैं कि उसमें काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो किसी तरह अपनी दस्तखत की एक डिजाइन बना लेते हैं और इन्हीं को सरकारें साक्षर बताती हैं! वास्तव में बच्चे अपने माॅ-बाप की गरीबी के बंधक हैं! सरकार पहले उन्हें वहा से मुक्त कराये तो वे स्कूल जाँय ! (राष्ट्रीय सहारा में 11 अप्रैल 2011 को प्रकाशित)

Sunday, April 10, 2011

कैसी कैसी बेगमें --- कृष्ण प्रताप सिंह

अवध के नवाबों का इतिहास उनकी बेगमों के बगैर पूरा नहीं होता। इसलिए कि जिस, अपनी तरह की अनूठी, तहजीब के कंधों पर उनकी पालकी ढोई जाती थी, उसमें बेगमें कहीं ज्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं। इस कदर कि उनसे जुड़े अनेक रोचक व रोमांचक और अच्छे व बुरे प्रसंग आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। उनकी बेरहम तुनुकमिजाजी के लिए कोई उनको वानरों व चोरों के साथ अवध के तीन दुष्टों में गिनता है तो कोई तत्कालीन पुरुषप्रधान सामन्ती समाज की बहुपत्नी/उपपत्नी प्रथा के हाथों पीडि़त ठहराकर उन पर तरस खाता है। बकौल अकबर इलाहाबादी-अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गये बेगम की नोज पेे! इस सिलसिले में सबसे काबिलेगौर बात यह है कि बेगमें किसी खास उम्र, ओहदे, हैसियत, कुल, खानदान, धर्म या वर्ग वगैरह से नहीं आतीं। उनके बेगम बनने की सबसे बड़ी योग्यता बस इतनी थी कि वे किसी तरह नवाब की निगाहों में चढ़ जाएं। कई नवाबों ने तो दिल आने पर अपनी बेगमों की कनीजों, मुलाजिमों की ब्याहताओं और कई-कई बच्चों की मांओं को भी अपनी बेगम बनाने से गुरेज नहीं किया। इसीलिए बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का प्राय: हर रूप व रंग नजर आता है। लखनवी तहजीब पर उनकी शोखी के असर का ही फल था कि उनके रहने की जगहें हुस्नबाग बनीं तो कब्रिस्तान ऐशबाग यानी आमोद-प्रमोद की जगहों की संज्ञा पाने लगे और श्मशानघाटों को गुलेलाला कहा जाने लगा यानी वह स्थान जहां शोलों के फूल खिलते हैं।
इन बेगमों में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देश की आन पर अंग्रेजों के लिए ‘आफत की परकाला’ बन जाने और ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहलाने वाली बेगम हजरतमहल शामिल है तो गम से बेजार वह मलिका-ए-किश्वर भी जो स्वतंत्रता संग्राम छिडऩे से पहले अपने अपदस्थ बेटे वाजिदअली शाह के राजपाट की वापसी के लिए महारानी विक्टोरिया के दरबार तक गई थीं और वहां से कभी नहीं लौटीं। किसी वक्त लखनऊ में अपनी कंजूसी के लिए प्रख्यात बेगम कंगलामहल की तूती बोलती थी तो एक वक्त उन नवाब बेगम का भी था जिन्होंने 1764 में अपने इकलौते बेटे नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर के ऐतिहासिक युद्ध के लिए विदा करते हुए उनके बाजू पर इमामजामिन बांधा तो माथा चूमकर कहा था कि लड़ाई में फिरंगियों को चुन-चुनकर मारना लेकिन खुदा के वास्ते मेरी पीनस उठाने के लिए उनमें से 12 को जरूर बचा लेना। नवाब बेगम का बचपन का नाम सदरुन्निसा था और वे पहले नवाब सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क की बेटी थीं। बेगम बनने से पहले उनकी मां खादिजाखानम की हैसियत सिर्फ एक बांदी की थी लेकिन पिता ने उनका निकाह, बांदी की बेटी होना छिपाकर, सफदरजंग से किया और बाद में दामाद को ही अपनी गद्दी सौंप दी। नवाब के तौर पर सफदरजंग ने 1739 से 1754 तक अवध की सत्ता संभाली और इस दौरान सदरुन्निसा, सदरेजहां नाम से उनकी इकलौती बेगम रहीं। बाद में उनके बेटे का राज आया तो उन्हें जनाबे आलिया (राजमाता) का खिताब मिला।
नवाब बेगम बेहद अकलमंद व होशियार थीं। 1754 में
शाह-ए-दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वे नवाब सफदरजंग के साथ वहां गयीं और लौट रही थीं तो सुल्तानपुर के पास घायल नवाब का अचानक निधन हो गया। लेकिन बेगम ने इस बात का तब तक किसी को पता नहीं चलने दिया जब तक कि वे फैजाबाद नहीं पहुंच गईं और नवाब के निधन से पैदा हुई बगावत की आशंका पर काबू नहीं पा लिया। लोग बताते हैं कि वे अपनी गरीब व लाचार रियाया के हर दु:ख-दर्द में भागीदार रहती थीं और कई बार अपनी सेविकाओं की बेईमानियों को भी यह कहकर माफ कर देती थीं कि लाचारी किसी के पास भी उसका ईमान नहीं रहने देती। उनकी एक सेविका सीलन से बचाने के बहाने चांदी के सिक्के सुखाने का काम करती तो उनमें से कुछ चुरा लेती और पूछने पर कह देती कि सूख जाने के बाद सिक्के कम हो गये हैं। बेगम इस पर भी उसे कुछ नहीं कहतीं। इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने फर्रुखाबाद की ऐतिहासिक जंग के लिए नवाब सफदरजंग को आड़े वक्त अपने पास से 11 लाख चार हजार अशरफियां दी थीं। लेकिन बाद में नवाब से अनबन हुई तो नवाब दिल्ली में
और बेगम बेटे शुजाउद्दौला के साथ फैजाबाद में रहने लगी थीं। फैजाबाद में ही 4 जून, 1766 को नमाज पढ़ते वक्त उनका देहान्त हो गया और वे गुलाबबाड़ी में दफन कर दी गईं।
अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला की बेगम उम्मत्-उल-जोहरा बाद मेें बहूबेगम के नाम से प्रसिद्ध हुईं और बेगमों की कतार में सबसे ऊंचा दर्जा पाया। उनका जन्म 1733 में हुआ और 1745 में शुजाउद्दौला को ब्याही गईं तो महज 12 वर्ष की थीं। शहंशाह्-ए-दिल्ली ने अपनी इस मुंहबोली बेटी के निकाह के लिए दिल्ली के दाराशिकोह महल में जो आयोजन किया, उस पर उन दिनोंं 46 लाख रुपये खर्च हुए थे। कहते हैं कि रसिकमिजाज शुजाउद्दौला अपनी इस बेगम से बहुत डरते थे और जो रात उसके महल के बाहर गुजारते, उसके लिए उसे 5 हजार रुपये का हर्जाना देते थे। लेकिन यह हर्जाना भी नबाव की ऐयाशी रोकने में कारगर नहीं हो पाया और बेगम की हर्जाने की आमदनी उनकी जागीरों की आमदनी से ज्यादा हो गई। इस आमदनी से उन्होंने अपने महल के सहन में चांदी का चबूतरा बनवाया। 1748 में उन्होंने इसी महल में अपने बेटे आसफुद्दौला को जन्म दिया। बक्सर के युद्ध में नवाब शुजाउद्दौला हारे और उनको एक लंगड़ी हथिनी पर बैठकर छुपकर भागना पड़ा तो अंग्रेजों ने उन पर 50 लाख रुपये का तावान-ए-जंग लगा दिया। इस तावान की अदायगी में नवाब का खजाना खाली हो गया तो 20 लाख रुपये बेगम ने अपने जेवर वगैरह बेचकर दिये। कहते हैं कि उन्होंने पने सुहाग की नथ तक दे दी। फिर भी रुपये पूरे नहीं पड़े
और इलाहाबाद व चुनारगढ़ का इलाका अंग्रेजों
के पास गिरवी रखना पड़ा। बेईमान अंग्रेजों ने
बाद में बकाया रकम अदा किये जाने पर भी
ये इलाके खाली नहीं किये।
उनके पुत्र आसफुद्दौला नवाब बने तो राजधानी फैजाबाद से लखनऊ ले गये। बेटे से बहूबेगम की कभी नहीं पटी और वे फैजाबाद में अपनी सास नवाब बेगम के साथ अलहदा हुकूमत करती रहीं। कभी कभार लखनऊ जातीं तो अपने खासमहल सुनहरा बुर्ज में रहतीं जो रूमी दरवाजे के निकट (किलाकोठी, राजघाट, गोमती के किनारे) स्थित था। वारेन हेस्टिंग्ज भारत आया तो नवाब बेगम की शुजाउद्दौला से कही बात (कि 12 फिरंगियों को मेरी पीनस उठाने के लिए बचा लेना) उसके कलेजे में सालती रहती थी। बहूबेगम ने बनारस के राजा चेत सिंह को, जो अंग्रेजों के विरुद्ध झंडा उठाये हुए थे, अपना भाई बना लिया तो हेस्टिंग्ज और जलभुन उठा। उसने बहूबेगम व आसफुद्दौला की अनबन का लाभ उठाकर इतिहासप्रसिद्ध बेगमों की लूट को अंजाम दिया जिसके लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट ने उस पर महाभियोग भी चलाया । अवध में इस लूट को एक बेटे द्वारा अपनी मां की लूट के रूप में याद किया जाता है। यह लुटेरा ऐसा बेटा था, जिसकी तंगहाली में मां ने उसकी फौज की दो बरस की तनख्वाह अपने पास से दी थी। यह रकम भी उसने अपने बचपन में अपनी गुडिय़ा की शादी के दहेज से इक_ा की थी। इस मां को 21 सितंबर, 1797 को अपने इस बेटे की मौत भी देखनी पड़ी। इस दिन आसफुद्दौला का देहान्त हुआ
तो बहूबेगम लखनऊ के सुनहरा बुर्ज में ही थीं। बहूबेगम का
देहान्त गाजीउद्दीन हैदर की नवाबी के दौरान 1816 में हुआ और उन्हें फैजाबाद में जवाहर बाग स्थित उनके मकबरे मेंं दफन
किया गया। यह मकबरा अभी भी विद्यमान है।
शुजाउद्दौला की एक और बेगम थीं छत्तर कुंअर, जो बहराइच के पास की बौड़ी रियासत के एक रैकवार ठाकुर की बेटी थीं। इन्हें खुर्दमहल कहा जाता था। बहूबेगम से सौतियाडाह के चलते विधवा होने के बाद वे बनारस चली गईं और वहीं दुर्गाकुण्ड में रहने लगी थीं। बाद में उनके पुत्र सआदत अली खां अवध के नवाब बने तो वे फिर लखनऊ आयीं और जनाब-ए-आलिया
का पद ग्रहण किया। नवाब ने उनके नाम
से छत्तरमंजिल बनवायी तो खुद उन्होंने अलीगंज
में एक हनुमान मंदिर व गोलागंज में मस्जिद।
बहूबेगम के बाद जिस बेगम का नाम इतिहासकार प्रमुखता से लेते हैं, उनका नाम शम्सुन्निसा बेगम उर्फ दुल्हन बेगम है। शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी। उनकी शादी में दिल्ली से शाह-ए-आलम व बेगम शोलापुरी भी आई थीं और खूब जश्न मना था। आसफुद्दौला की नवाबी (1775-1797) के दौरान दुल्हन बेगम की तूती बोलती थी। लेकिन वे देशकाल से कितनी परे थीं, इसे इस वाकये से समझा जा सकता है कि 1774 में अकाल पड़ा और रियाया मदद की गुहार लगाती हुई उनकी ड्यौढ़ी पर आई तो उनका भोला-सा प्रश्न था—क्या तुम लोगों को पेट भरने के लिए हलवा पूड़ी भी नसीब नहीं होता? एक बार होली के दिन आसफुद्दौला
शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो रियाया ने बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की। इस पर बेगम ने ख्वाहिश का मान रखते हुए एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिये और रंग वालों से उन कपड़ों पर जी भर रंग छिड़का, रंग सने कपड़े महल में ले जाये गये तो बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुई और दिनभर उन्हें ही पहने घूमती रहीं। वे दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं।
12 जुलाई, 1814 को अवध के नवाबों की परम्परा में एक नया मोड़ आया। इस दिन गाजीउद्दीन हैदर ने अंग्रेजों से मिलीभगत कर सत्ता संभाली और खुद को नवाब के बजाय बादशाह यानी दिल्ली के दबदबे से आजाद घोषित कर दिया। तब उनकी बेगम ‘पहली बादशाह बेगम’ कहलाई। इन बेगम को बादशाह की अंग्रेजों से मिलीभगत सख्त नापसन्द थीं। वे चतुर, शिक्षित, धार्मिक, रोबीली, अहंकारी व बहुत महत्वाकांक्षी महिला थीं और बादशाह को वश में करके जहांगीर की नूरजहां जैसी भूमिका निभाना चाहती थीं। लेकिन इतिहास ने उन्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। उन्हें शियापंथ में नवीनता लाने के लिए याद किया जाता है। उन्होंंने बारहवें इमाम मेंहदी की छठी मनाना शुरू किया था जिसमें 11 कुंवारी लड़कियों को 11 इमामों की पत्नियां बनाकर पेश किया जाता था। उन्हें अछूती कहा जाता था और बेगम सुबह उठकर सबसे पहले उनमें से किसी एक के मुबारक चेहरे का दीदार करती थीं। वे इन लड़कियोंं की शादी भी नहीं होने देती थीं। 7 जुलाई, 1837 को दूसरे बादशाह नसीरूद्दीन हैदर की मृत्यु हुई तो विधवा बादशाह बेगम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने फिर जोर मारा। उन्होंने अपने पौत्र मुन्नाजान को सत्तारूढ़ कराने के लिए जी तोड़ कोशिश की। लेकिन शातिर अंग्रेजों ने दादी पोते दोनों को कैदकर लखनऊ की रेजीडेन्सी में डाल दिया और बाद में कानपुर की परमट कोठी में नजरबन्द कर दिया। बेगम के अन्तिम दिन चुनारगढ़ किले में भारी बदहाली में बीते। इसी किले में 1847 में उन्होंने आखिरी सांस ली।
बादशाह गाजीउद्दीन हैदर की एक और बेगम थीं सुलतान मरियम, जिन्हें विलायती महल कहा जाता था। विलायती महल का पहले का नाम मिस शार्ट था और वे रोमन कैथोलिक थीं। 1822 में अपनी मां की जोर जबरदस्ती के आगे मजबूर होकर उन्होंने अपना धर्म बदल कर बादशाह से निकाह किया और लखनऊ के पूर्वी सिरे पर दिलकुशा गार्डन के आगे गोमती के दाहिने किनारे पर अपने ही नाम पर बने विलायती बाग में रहने लगीं। लेकिन अपनी मृत्यु से दो वर्ष पूर्व अंग्रेज रेजीडेन्ट को भेजे अपने वसीयतनामे में उन्होंने यह लिखकर सबको चौंका दिया कि वे सिर्फ नाम से मुसलमान बनी थीं और इसके बावजूद ईसा मसीह की ही बन्दी हैं। वह तो उसकी मां ने ऐश-व-इशरत के लालच में उनका निकाह बादशाह से करा दिया था। इसलिए वे चाहती हैं कि उनकी अन्त्येश्टि रोमन कैथोलिक दस्तूर से की जाये और सम्पत्ति उनके दोनों भाइयों के बीच बांट दी जाए। उनकी वसीयत का सम्मान किया गया और उन्हें उनकी बताई रीति से ही इमामबाड़ा
शाहनजफ में बादशाह के बगल में दफ्न किया गया। शाहनजफ
के इस इमामबाड़े को इस बात के लिए जाना जाता है कि
वहां बादशाह गाजीउद्दीन हैदर अपनी अलग-अलग धर्मों
की बेगमों के साथ चिरनिद्रा में सोये हुए हैं। इन बेगमों
में मुबारकमहल (ईसाई), बेगम सरफराजमहल (सुन्नी) और मुमताजमहल (हिन्दू) भी शामिल हैं जबकि बादशाह खुद
शिया थे। इसलिए कई लोग उसे चौरंगी चौघड़ा भी कहते हैं।
आगे चलकर नसीरूद्दीन हैदर (20 अक्तूबर, 1827 – 7 जुलाई, 1837) की बादशाहत आयी तो उनकी बेगम शाहजादमहल का राज चलने लगा। उन्हें मलिका-ए-जमानी की उपाधि दी गयी। उनका बचपन का नाम दुलारी था और वे बनारस के एक कुर्मी परिवार में जन्मी थीं। इस गरीब परिवार ने अपने ऊपर चढ़े कर्ज की अदायगी न कर पाने पर दुलारी को फतेह मुराद बजाज को सौंप दिया था। बजाज की बहन ने दुलारी को अपनी बेटी की तरह पाला और बाद में अपने बेटे रुस्तम खान से उसकी शादी कर दी थी। उन्नाव के रुस्तम नगर में अपने खाविन्द के साथ रहते हुए दुलारी ने एक बेटे और एक बेटी को जन्म दिया था कि एक दिन बेगम अफजलमहल के बेटे मुन्नाजान को दूध पिलाने के बहाने वह धाय बनकर उनके महल में पहुंची और युवराज नसीरूद्दीन की आंखों में चढ़ गयी। 1826 में इस 40 साल की विवाहिता से निकाह रचाकर युवराज ने उसे शाहजादमहल बना दिया और उसकी औलादों को भी अपना लिया। उनके शादी ब्याह भी बादशाही शान के साथ किये। बेटे कैवांजाह को तो अपना उत्तराधिकारी तक घोशित कर दिया। अलबत्ता इस सबकी कीमत दुलारी के पति रुस्तम खान को चुकानी पड़ी। उसे कैद करके बांगर के किले में भेज दिया गया और उसकी मुक्ति बादशाह की मौत के बाद ही हो पायी। पर शाहजादमहल का सितारा जैसे बुलन्द हुआ, वैसे डूबा भी। 1831 में उसकी बांदी बिस्मिल्लाह खानम से बादशाह नसीरूद्दीन के नैन लड़े तो वे उसी के होकर रह गये। उसको कुदूसिया बेगम बनाया और उसी के इशारों पर नाचने लगे। फिर तो कैवांजाह को राजपाट देने से भी इन्कार कर दिया।
विलासी नसीरूद्दीन ने बाद में अंग्रेज सेना के एक अधिकारी की बेटी मिस वाल्टर्स को मुखदरेआलिया या मखदरहआलिया बनाकर अपना लिया। कहते हैं कि मिस वाल्टर्स का व्यक्तित्व बड़ा कोमल और आकर्षक था। उन्होंने अपने खाविन्द को अंग्रेजी भी सिखायी। लेकिन बाद में जनरल इकबालुद्दौला से उनके अवैध सम्बन्ध की ऐसी चर्चा चली कि जनरल को बर्खास्त कर दिया गया। जुलाई, 1833 में नसीरूद्दीन की मृत्यु के बाद वे बादशाही हरम से भी भाग निकलीं और रेजीडेन्सी प्रांगण की बेगम वाली कोठी में रहने लगीं। लेकिन वहां भी खुद को अवैध सम्बन्ध से नहीं बचा पायीं। गर्भ ठहर गया तो उसे गिराने के लिए कोई तेज दवा खायी और उसके ही कुप्रभाव से 12 नवम्बर, 1840 को उनका देहान्त हो गया।
नसीरूद्दीन की बेगमों में एक और नाम बेगम नबावताजमहल (खुर्शीदमहल) का है। बेगम बनने से पहले उनका नाम हुसैनी था और वे एक तवायफ भाजू डोमनी की बेटी थी। वे विभिन्न अवसरों पर अपनी मां के साथ संगीत व नृत्य का प्रदर्शन भी करती थीं और लखनऊ केे जौहरी मोहल्ले की निवासिनी थीं। बादशाह की नजर उन पर पड़ी तो उन्होंने उनको बेगम बनाने के लिए उनकी जाति, नस्ल व नसब के सवालों को दरकिनार कर दिया। एक दिन तो उन्होंने अपना ताज ही अपनी प्यारी बेगम के सिर पर रख दिया और और उसे ताजमहल कहने लगे। लेकिन यह ताजमहल जल्दी ही ढह गया। आगे चलकर नसीरूद्दीन ‘बादशाह’ नामक एक अन्य बेगम पर मरने लगे। 10 सितंबर, 1931 को उन्होंने चुपचाप दौलतगंज चौक की एक और हुसैनी से निकाह कर लिया और उसे बादशाहमहल का खिताब दे दिया। बादशाह महल को कोई संतान नही हुई और 1839 में बेऔलाद ही वे इस दुनिया से उठ गयीं। दूसरी ओर वैधव्य में बेगम ताजमहल का सम्बन्ध मीर कल्वे हुसैन से हो गया और उन्होंने विधवा होने के बाद भी बच्चा जना। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों की अनुमति लेकर वे मक्का उमरा गयीं तो वहीं की होकर रह गयीं। वहीं अपने आशिक से शादी भी रचा ली। 1881 में वहीं उनकी मृत्यु हुई।
बेगम ताजमहल की बिस्मिल्ला खानम नाम की कनीज को अजीबोगरीब हालात में कुदसिया महल नाम से बेगम बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसकी सुंन्दरता पर मुग्ध बादशाह नसीरूद्दीन ने उसके पति मीर हैदर सितारबाज को शाही मुजरिम करार देकर उससे इस कनीज को तलाक दिलवाया और इद्दत की मुद्दत बीते बिना ही उससे निकाह रचा लिया। सितारबाज से इस कनीज को दो बेटे भी थे। बादशाह कुदसिया महल से अपने वारिस की दरकार रखते थे लेकिन वे गर्भवती हुर्इं तो मलिका-ए-जमानी (शाहजादमहल) ने साजिश रचकर एक महलदारनी की मार्फत उनका गर्भ गिरवा दिया। बादशाह ने चिढ़कर इस महलदारनी को मौत की सज़ा दे दी। कुदसिया बेगम दुबारा गर्भवती हुर्इं तो अफवाह उड़ा दी गयी कि उनके पेट का बच्चा बादशाह का न होकर उनके पहले पति का है। इस पर एतबार कर बादशाह इतने भिन्नाये कि उन्होंने कुदसिया महल की एक बार अकेले में मिल लेने की दरखास्त भी ठुकरा दी। अपमानित कुदसिया बेगम ने 21 अगस्त, 1834 को बादशाहबाग की कोठी में संखिया खाकर जान दे दी।
नसीरूद्दीन की एक और बेगम अपनी व अपनी मां की कन्जूसी के लिए जानी जाती थीं। बादशाह ने उन्हें कंगलामहल का खिताब देकर धिक्कारा और छोड़ दिया था। कंगला महल वजीर-ए-आजम रौशनउद्दौला की भांजी कमर तलअत थीं। सुर्ख सफेद रंगत, बड़ी-बड़ी फांकदार आंखें, पंखुडी जैसे गुलाबी होंठ और चांद जैसी नायाब सूरत की स्वामिनी कमर तलअत को ब्याहने बादशाह खुद गये थे। बादशाह ने ऐसा कमर तलअत के खानदान के बेहद गरीब होने के बावजूद किया था। हालांकि दूसरे व्याहों के मौकों पर आमचलन के मुताबिक सिर्फ उनकी तलवार और वकील जाते थे। 1835 में हजरत अली के जन्मदिन पर हुए इस ब्याह के बाद उन्होंने उसको बादशाहजहाँ मुमताज-उल-दहर की उपाधि दी थी। लेकिन बादशाह ने शादी के बाद नौकरों-चाकरों में बांटने के लिए दो हजार रुपये दिए तो इन कन्जूस मां-बेटी ने उन्हें अपने संदूक के हवाले कर दिया। एक दिन बादशाह इस बेगम के महल में पधारे और उसके साथ नाश्ता करने की इच्छा जाहिर की तो पता चला कि नियामतखाने में मेवा, मिठाई या नमकीन वगैरह कुछ नहीं है और दोनों मां-बेटी सूखी रोटियों पर गुजर कर रही हैं। एक दिन जौहरी आया तो बेगम ने सच्चे कमताब हीरों के झुमकों की जगह चमकदार नकली बुंदे ले लिए। एक बार बेगम बहुत बीमार पड़ीं तो बादशाह ने जी-जान लगाकर उनका इलाज कराया। उनके गुस्ल-ए-सेेहत के बाद ड्यौढी आगामीर के पास वाले महल के आंगन में चांदी के सिक्कों का चबूतरा चुनवाया। फिर बेगम को गोद में उठा कर वहां ले आये, चबूतरे पर बिठाया और कहा कि वे बांयें पैर की ठोकर से उसे तोड़ दें और सिक्के मोहताजों में बंटवा देंं। लेकिन उनके जाते ही बेगम और उनकी मां ने सारे सिक्के सन्दूकों में भरवा दिये। एक बार बादशाह ने उन्हें कई लाख के कालीन, दुशाले, रूमाल, जामदानी व कमखाब के थान दिये और कहा कि सारे के सारे अपने अजीजों व रिश्तेदारों में बांट दें ताकि लोग समझ सकें कि बादशाह के साथ रिश्ते के बाद उनकी कंगाली खत्म हो गयी है। लेकिन मां-बेटी ने सब कुछ तोशाखाने में रखवा दिया। बादशाह के पूछने पर उनकी सास का जवाब था- ऐ हजरत, हम आप का घर बनाने आये हैं, लुटाने नहीं।
बर्दाश्त की हद हो गयी तो नवाब ने अपनी इस प्यारी बेगम को कंगलामहल नाम देकर उसका तिरस्कार कर दिया। फिर तो उसे मात्र 1500/-रुपये महीने के खर्च पर गुजारा करना पड़ा। 1877 ई$ में उसने इसी हालत में दुनिया को अलविदा कह दिया।
बेगमों की यह चर्चा चौथे बादशाह अमजद अली शाह (17 मई, 1842-13 फरवरी, 1847) की बेगम मलिका-ए-किश्वर की चर्चा के बगैर अधूरी रहेगी। इनका एक और नाम ताज आरा बेगम था और खासियत यह थी कि वे ख्वाजासराओं (नपुंसकों, जो बेगमों के महलों में खिदमत व चौकसी के लिए रखे जाते थे) की खिदमत पसंद नहीं करती थीं। इसलिए उनके महल में सिर्फ कनीजें या बूढ़ी खादिमायें रहती थीं। अलग-अलग मौसम में वे लखनऊ में ही अपनी पसंद की अलग-अलग जगहोंं पर अपना आशियाना बना लेती थी। जाड़े में छत्तर मंजिल में रहती तो गर्मी में चौलक्खी कोठी में। बरसात हवेली बाग द्वारिकादास में गुजारतीं। तफरीह के लिए निकलतीं तो भी सैकड़ों खादिमाओं के साथ।
एक बार जो पोशाक उनके जिस्म को छू लेती, दुबारा उसे कभी नहीं पहनती थीं। ऐसी पोशाकें बांदियों व खवासों में बांट दिये बांट दी जाती थीं। लेकिन उन पर किया गया गंगा जमुनी काम और सिलाई की बखिया उधेड़ दी जाती थी। ताकि बेगम के सांचे में ढले जिस्म का किसी को अन्दाजा न हो सके। कहा जाता है कि वे खूब जेवर पहनतीं और मूड के मुताबिक कहानियां सुनती थीं। इसके लिए कई किस्सागो औरतें रखी गयी थीं।
इतिहासकारों की मानें तो इन बेगम को बिना जरूरत दरे दौलत से बाहर जाना सख्त नापसन्द था लेकिन 7 फरवरी 1856 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उनके बेटे वाजिदअली शाह का राजपाट हड़पा तो वे लंबी यात्रा कर मलिका विक्टोरिया से इसकी शिकायत करने लंदन गयीं। यह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले की बात है। उनको उम्मीद थी कि मलिका विक्टोरिया महिला हैं और मां भी, इसलिए उनकी दरखास्त पर जरूर पिघल जायेंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। वे लंदन में ही थीं कि स्वतंत्रता संग्राम छिड़ जाने की खबर वहाँ पहुँची और उनका सारा किया धरा बेकार कर गयी।
अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह की 365 बेगमें बतायी जाती हैं। लेकिन चूंकि तब तक नवाबी शान-व-शौकत का अन्त हो चुका था इसलिए उनकी चर्चा बहुत प्रासंगिक नहीं है। हां, 1857 के संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा देने वाली उनकी बेगम हजरतमहल को इतिहास कभी नहीं भुला सकता। ( Writer is senior journalist)

Monday, April 04, 2011

अपना खेल दिखा चुके लोगों की नसीहतें --- सुनील अमर

कभी भारतीय जनता पार्टी व संघ के वरिष्ठ नेता रहे श्री के.एन. गोविंदाचार्य ने कहा है कि देश की राजनीति में अब सत्ता दल और विपक्ष में कोई अन्तर नहीं रह गया है। अब सभी दल अमीर व विदेश परस्त होने के साथ-साथ साम्राज्यवाद के पुजारी हो गये हैं। भाजपा को स्मृति लोप का शिकार बताते हुए उन्होंने कहा कि देष की राजनीति को स्व्च्छ बनाने के लिए मुद्दों व मूल्यों को वापस पटरी पर लाना होगा। वे उ.प्र. के फिरोजाबाद शहर में एक निजी कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दोनों श्री गोविंदाचार्य से पिछले 10 वर्षों से किनारा किये हुए हैं। इन दोनों संगठनों से उनके रिश्ते तभी टूट गये थे जब दस साल पहले उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 'मुखौटा' कह दिया था।

यह भारतीय राजनीति की विडम्बना ही है कि जो इसे नहीं जानते हैं वो और जो इसे भोग चुके हैं वो भी, दोनों इसकी बॉह मरोड़ने का ही काम किया करते हैं। इधर के एकाध दशक में तो देश में ऐसे काफी लोग हो गये हैं जो, जब तक उनके लिए कैसी भी गुंजाइश बनी रही तब तक तो वे किसी भी राजनीतिक दल में बने रहे और जब वे हर तरफ से 'अनफिट' हो गये तब उन्होंनें राजनीतिक दलों की दुदर्शा पर उपदेश देना शुरु कर दिया। समाजवादी पार्टी से निष्कासित उसके महासचिव अमर सिंह हों, योग गुरु से नेता के चोले में रुपान्तरित हो रहे स्वामी रामदेव या फिर भाजपा-संघ निष्कासित श्री गोविंदाचार्य, इन सबकी लालसा और वासनाऐं एक जैसी ही हैं।

श्री गोविंदाचार्य अपने छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े और 1988 में संघ ने उन्हें भाजपा में भेज दिया। भाजपा में जाकर उन्होंने देष का साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाली (और अपने ढ़ॅंग की अनोखी) श्री आडवाणी की रथ यात्रा तथा बाद में बाबरी मस्जिद विधवंस की गाथा लिखी और पार्टी के भीतर 'थिंक टैंक' की उपाधि पाई। आज मुद्दों व मूल्यों की बातें करने वाले श्री गोविंदाचार्य को पहले यह बताना चाहिए कि वर्ष 1965 से संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बनकर और 1988 से लेकर 2000 तक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव रहकर रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद विधवंस के अलावा तीसरा कौन सा राष्ट्रीय मुद्दा उन्होंने तैयार किया और इन सबके द्वारा उन्होंने किन सामाजिक मूल्यों की स्थापना की? वे किन्हीं मुद्दों और मूल्यों को पटरी पर लाने की बात प्राय: करते हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं करते कि वे मूल्य और मुद्दे हैं क्या-क्या? उनका मुद्दा अगर भारत को कट्टर हिन्दू राष्ट्र बनाना और मूल्य, मुसलमानों को डरा-धमका कर उनकी मस्जिदों पर मंदिर बनाना है तो इस विचार को तो देश की जनता ने काफी पहले ही खारिज कर दिया है, और इस पर एक ताजा मुहर बीते 30 सितम्बर 2010 को आये अदालती फैसले के बाद दोनों समुदाय के लोगों की आपसी सहिष्णुता ने लगा दी है। आज जिन मुद्दों और मूल्यों की बात वे करते हैं, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते उन्होंने कभी नहीं की। आज वे सारे राजनीतिक दलों पर साम्राज्यवाद का पुजारी होने का आरोप लगाते हैं, लेकिन जीवन भर वे अखंड भारत के नाम पर जिस वृहत्तर भारत की कल्पना को धार देते रहे हैं, क्या वह साम्राज्यवाद नहीं है? भाजपा को स्मृति लोप का शिकार बताकर क्या वे उसे एक बार फिर से बाबरी मस्जिद और रथ यात्रा जैसे कार्यक्रमों की याद दिलाना चाहते हैं?

श्री गोविंदाचार्य की ही तरह समाजवादी पार्टी के बर्खास्त राष्ट्रीय महासचिव अमर सिंह भी आजकल पूर्वी उत्तर प्रदेश में सड़क-सड़क भ्रमण कर उस राजनीतिक दल के कुकर्मों का भंडाफोड़ करने की धमकी रोज दे रहे हैं, जिसके सबसे खास सिपहसालार वह 15 वर्षों तक रह चुके हैं। उनके पार्टी में रहने के दौरान सपा ने जो कुछ भी किया उसके सबसे बड़े कशीदाकार वे स्वयं ही रहे लेकिन आज वे समाजवादी पार्टी के तथाकथित कुकर्मो की कुछ इस तरह चर्चा करते हैं जैसे उन 15 वर्षों के दौरान उनका काम महज पार्टी की बैठकों में दरी बिछाना और बटोरना ही था! समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी कार्य-संस्कृति के कारण पार्टी जनों में 'धरती पुत्र' कहे जाते थे लेकिन श्री अमर सिंह ने उन्हें सप्रयास ए.सी. और हेलीकॉप्टर संस्कृति वाला बना दिया। आज अमर सिंह पूर्वांचल राज्य बनाने की बात करते हैं और इस हेतु यात्राऐं कर रहे हैं, लेकिन सपा के साथ अपनी लम्बी राजनीतिक युगलबंदी (जिसमें पार्टी दो बार सत्ता में भी रही) के दौरान वे इसके विरोध में मुलायम सिंह के स्वर में स्वर मिलाते रहे।

सभी लोग जानते हैं कि सपा प्रमुख अपने राजनीतिक स्वार्थां के कारण पूर्वांचल राज्य बनने का शुरु से ही विरोध करते हैं। सपा से अपने निष्कासन के बाद से ही श्री अमर सिंह मुलायम और उनके परिवार पर राजनीतिक रुप से हमलावर हैं। आज अमर सिंह के पूर्वांचल अभियान को लोग महज इतना ही समझ रहे हैं कि यह मुलायम सिंह को परेशान करने का एक और स्टंट मात्र है। यह बात आईने की तरह साफ है कि वे एक बार फिर सपा में वापसी के लिए उतावले हैं और बीच-बीच में इस आशय में लिपटे हुए बयान भी वे जारी करते रहते हैं। ऐसे में उनके पूर्वांचल राज्य गठन के इस अभियान को कोई कितनी गंभीरता से ले सकता है? आज अमर सिंह सार्वजनिक सभाओं में बार-बार स्वीकार करते हैं कि उन्होंने पूर्वांचल के लोगों के साथ छल किया है। लोगों पर असर जमाने के लिए वे अपने कई और राजनीतिक कुकर्मों को भी स्वीकार करते हैं, और यह सब करके वे यह समझते हैं कि अब भोली जनता उनका पुनर्जन्म स्वीकार कर लेगी।

देश में एक स्वामी रामदेव हैं जो समस्त व्याधियों का उपाय अभी तक योग में ही बताते रहे हैं और कहा जा रहा है कि इसी योग की बदौलत वे न सिर्फ अरबपति बल्कि उद्योगपति भी हो गये हैं। आज तक वे सभी लोगों को काम, क्रोध, मद व लोभ त्यागकर सादा व संयत जीवन जीने का ही उपदेष देते रहे हैं। अब जबकि उनके पास ऐसी तमाम भौतिक वस्तुओं का अम्बार लग गया है जो कायदे-कानून की जद में आ रही हैं तो उन्हें लगने लगा है कि अब देश का दु:ख तकलीफ राजनीति में आये बिना दूर नहीं किया जा सकता। आजकल वे जोरों से राजनीति में आने व चुनाव लड़ने की तैयारियाँ कर रहे हैं। अब ये भी पता चल रहा है कि पक्षपात रहित जीवन बिताने का उपदेश देने वाले ये बाबा काफी अरसे से भारतीय जनता पार्टी को भारी-भारी रकमें चंदे के रुप में देते रहे हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व स्वामी जी ने अपने ही श्रीमुख से यह रहस्योद्धटन किया था कि उत्तराखंड सरकार के एक मंत्री ने उनसे एक भारी रकम की घूस ली थी। ज्ञात रहे कि स्वामी जी के कई कारखाने हैं जो आम बीमारियों की दवा बनाने से लेकर स्तन सुडौल करने और जवानी बरकरार रखने की दवा भी बनाते और प्र्रचार सहित बेचते हैं। स्वामी जी के कारखाने में बनी दवाऐं कोई धर्मार्थ नहीं हैं बल्कि बाजार में अपने समतुल्य दवाओं से मँहगी ही होती हैं। स्वामी जी के कारखाने में भी श्रमिकों व कर्मचारियों का बदस्तूर शोषण होता है और अभी बीते दिनों काफी समय तक इनके श्रमिक धरना-प्रदर्शन पर आमादा थे।

तो ये वे लोग हैं जो कायदे से तो अपनी पारी का पूरा खेल हमें-आपको दिखा चुके हैं और हम-आप इनके सारे हुनर से वाकिफ़ हैं लेकिन इन्हें लगता है कि एक बार फिर से राजनीतिक प्लास्टिक सर्जरी कराकर ये जनता को अपनी हवस का शिकार आसानी से बना सकत हैं।
(Published in Humsamvet Features on 04 APR. 2011, humsamvet.org.in)