मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते दो वर्षों के दौरान देश के प्रायमरी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 26 लाख से अधिक की गिरावट आई है! और भी हैरतअंगेज तथ्य यह है कि इसमें से आधी संख्या सिर्फ उत्तर प्रदेश से है! स्कूल न जाने के इस आंकड़ों को इस परिवर्तन की रोशनी के बावजूद देखा जाना चाहिए कि साल भर से अधिक समय से ही सरकार ने पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया हुआ है! उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पढ़ाई छोड़कर भाग रहे बच्चों का कारण तो इसी एक आंकड़े में निहित है कि वहां बाल श्रमिकों की संख्या में इधर के वर्षों में तेजी से इजाफा हुआ है। स्पष्ट है कि बच्चे पढ़ाई क्यों छोड़ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं!
देश के प्रायमरी स्कूलों को आज जो कोई भी देखता है उसके मन में सिर्फ एक प्रश्न आता है कि इतनी सुविधाओं के बाद अब यहाँ किस चीज की कमी है जो न तो यहाँ पढ़ाई का स्तर सुधर पा रहा है और न ही बच्चे टिक रहे हैं। इन विद्यालयों की हकीकत यह है कि यहाँ पढ़ाने वाले अध्यापक अपने खुद के बच्चों को किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हैं और छात्र संख्या आधे से अधिक फर्जी होती है ताकि ग्राम प्रधान और अध्यापक मिलकर मध्यान्ह भोजन व छात्रवृत्ति में प्रति छात्र के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा धन का बंदर बाँट कर सकें और छात्र संख्या कम होने के कारण अध्यापकों में से किसी का स्थान्तरण न हो जाय। स्कूल छोड़कर भागने वाले बच्चों में हालांकि ऐसे बच्चे कम ही होते हैं जो बेहतर पढ़ाई के लिए अभिभावकों द्वारा निकाल लिए जाते हों । अधिकांश बच्चे ऐसे ही हैं जो कहीं मजदूरी कर चार पैसे कमाने के लिए ही माँ -बाप द्वारा स्कूल से निकाल लिए जाते हैं या स्कूल भेजे ही नहीं जाते। यही वह एकमात्र कारण है जिसके आगे मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा, मुफ्त भोजन, किताब-कापी, युनीफार्म और वार्षिक वजीफा भी इन बच्चों के अभिभावकों को इनकी पढ़ाई के लिए प्रेरित नहीं कर पाता।
वर्ष 2000 में केन्द्र सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान शुरु किया जिसका उद्देश्य स्कूल जाने योग्य हर बच्चे को अनिवार्य रुप से स्कूल तक पहुॅचाना था। इससे भी पहले विश्व बैंक की सहायता से डी.पी.ई.पी. नामक जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम चल रहा था। यह जानकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि सिर्फ प्राथमिक स्कूलों तक हर बच्चे तक पहॅुंचाने के लिए एक दर्जन से भी अधिक कार्यक्रम प्रत्येक जिले मंे चल रहे हैं और शायद ही शिक्षा विभाग का कोई अधिकारी या बाबू हो जिसे सारे कार्यक्रमों का नाम तक याद हो! हाल यह है कि बर्ष 2008-09 और 2009-10 में पहले के वर्षों की अपेक्षा 26 लाख कम बच्चों का नाम लिखा गया। इसी अवधि में सबसे बुरी गति उत्तर प्रदेश की रही जहाॅ स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में 10 लाख की गिरावट आई! यानी 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष स्कूल जाने से वंचित रहे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब यह सोचकर हैरान है कि इन बच्चों को अब किस तरकीब से स्कूल तक पहॅुंचाया जाय। यही हाल राजस्थान, बिहार, असम, और महाराष्ट्र में भी है।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अब सिर्फ गरीब बच्चे पढ़ते हैं। सरकार भी इस तथ्य से वाकिफ है और इसीलिए ऐसी योजनाऐं इन विद्यालयों में लागू की जाती हैं जिससे भूखे-नंगे बच्चे न सिर्फ आकर्षित हों बल्कि विद्यालय पहुचकर वहा टिकें भी। वजीफा, दोपहर का भोजन और किताब-काॅपी, आदि मुफ्त में देना इसी योजना का अंग है, लेकिन हैरत उनकी सोच पर होती है, जो लोग इन योजनाओं का खाका तैयार करते हैं। उन्हें या तो गावों के बारे में जमीनी हकीकत का पता नहीं होता या फिर वे येन-केन-प्रकारेण अपने सिर से बला टाल देते हैं। इस सन्दर्भ में एक उदाहरण पर्याप्त होगा- प्राथमिक स्कूलों में सरकार ने शौचालय बनवाये हैं ताकि बच्चे खुले में शौच न जाॅय। शासन को रिपोर्ट मिली कि बच्चे इन शौचालयों का इस्तेमाल करने के बजाय खुले मे जाना ही पसंद कर रहे हैं। जानते हैं कि नौकरशाही ने इसका कौन सा उपाय बताया? विद्यालयों में शासनादेश आ गया कि प्रत्येक शौचालय में खूब रंगीन पेन्टिंग करके चिड़ियों आदि के चित्र बनाये जाॅय तो बच्चे उन्हें देखने के बहाने शौचालय में टिकेंगें! करोड़ों रुपये का निपटारा इस बहाने हो गया लेकिन नतीजा शून्य।
केन्द्रीय योजना मनरेगा के साइड-इफेक्ट्स भी गरीब बच्चों के स्कूल न जाने या छोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। असल में मनरेगा की वजह से एक तो गाॅव में ही काम के अवसर बढ़े और दूसरे मजदूरी भी बढ़ी। मनरेगा में निश्चित काम की निश्चित मजदूरी होने के कारण होता यह है कि काम चाहे परिवार के किसी एक सदस्य के नाम ही मिला हो लेकिन उसे सब मिलकर जल्दी से निपटा लेते हैं। मसलन 100 घनफुट मिट्टी निकालने की मजदूरी 119 रुपये मिलती है। अब होता यह है कि परिवार के कई सदस्य मिलकर इसे जल्दी से निपटाकर दूसरे काम में लग जाते हैं। गरीब लोग अपने बच्चों को भी इस काम मंे लगा लेते हैं। मनरेगा ने चूॅकि सामान्य मजदूरी की दर भी बढ़ा दी है इसलिए भी गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल जाना छोड़कर बालश्रमिक बन रहे हैं। आखिर स्कूल में उन्हें सड़ा-गला खाना और साल भर में 250 रुपये का वजीफा ही तो मिलता है! जाहिर है कि मजदूरी करने पर एक बच्चा इससे बहुत अधिक तो कमा ही लेता है। यही कारण तो है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हाल के 2-3 वर्षों में बहुत तेजी से बाल श्रमिक बढ़े हैं। वर्ष 1991 से लेकर 2001 तक के दस वर्षों में जिन बाल श्रमिकोें की संख्या में 12.5 से 15.2 यानी तीन प्रतिशत से भी कम का इजाफा हुआ वही बाल श्रमिक 2001 से 2011 के बीच दो गुना बढ़कर 30 प्रतिशत हो गये हैं!
देश की तीन चैथाई आबादी की औसत दैनिक आमदनी लगभग 20 रुपये है। यह सरकारी आॅकड़ा है। इसी आबादी के बच्चे प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। इनके सामने पहली प्राथमिकता पढ़ाई नहीं पेट भरने की होती है। जब तक इनका पेट भरने का उपाय नहीं होगा, इनके बच्चे स्कूल नहीं जायेंगें। ये माॅ-बाप जानते हैं कि बच्चा पाॅचवीं या आठवीं तक पढकर भी क्या कर लेगा। जो उसे कल करना है उसे आज से ही शुरु करे तो ज्यादा बेहतर। दरअसल हमने जो व्यवस्था बनाई है वह साफ-साफ चुगली खाती है कि इसमें सारी गरज सरकार की है। साक्षरता का प्रतिशत किसी तरह बढ़ जाय, ज्यादा से ज्यादा आबादी के बैंक खाते हो जाॅय और ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास आयकर के पैन-काॅर्ड हो जाॅय! इन सबसे सरकार उन वैश्विक संस्थाओं के सामने अपनी ‘फेस-सेविंग’ करती है जहाॅ से वह अनुदान ले आती है। उन्हें दिखाना पड़ता है कि आपके धन का सदुपयोग हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में आधे से अधिक बैंक खाते बंद पड़े रहते हैं। जिस साक्षरता को सरकार 70 प्रतिशत के करीब बताती है, सभी जानते हैं कि उसमें काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो किसी तरह अपनी दस्तखत की एक डिजाइन बना लेते हैं और इन्हीं को सरकारें साक्षर बताती हैं! वास्तव में बच्चे अपने माॅ-बाप की गरीबी के बंधक हैं! सरकार पहले उन्हें वहा से मुक्त कराये तो वे स्कूल जाँय ! (राष्ट्रीय सहारा में 11 अप्रैल 2011 को प्रकाशित)
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