Sunday, April 10, 2011

कैसी कैसी बेगमें --- कृष्ण प्रताप सिंह

अवध के नवाबों का इतिहास उनकी बेगमों के बगैर पूरा नहीं होता। इसलिए कि जिस, अपनी तरह की अनूठी, तहजीब के कंधों पर उनकी पालकी ढोई जाती थी, उसमें बेगमें कहीं ज्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं। इस कदर कि उनसे जुड़े अनेक रोचक व रोमांचक और अच्छे व बुरे प्रसंग आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। उनकी बेरहम तुनुकमिजाजी के लिए कोई उनको वानरों व चोरों के साथ अवध के तीन दुष्टों में गिनता है तो कोई तत्कालीन पुरुषप्रधान सामन्ती समाज की बहुपत्नी/उपपत्नी प्रथा के हाथों पीडि़त ठहराकर उन पर तरस खाता है। बकौल अकबर इलाहाबादी-अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गये बेगम की नोज पेे! इस सिलसिले में सबसे काबिलेगौर बात यह है कि बेगमें किसी खास उम्र, ओहदे, हैसियत, कुल, खानदान, धर्म या वर्ग वगैरह से नहीं आतीं। उनके बेगम बनने की सबसे बड़ी योग्यता बस इतनी थी कि वे किसी तरह नवाब की निगाहों में चढ़ जाएं। कई नवाबों ने तो दिल आने पर अपनी बेगमों की कनीजों, मुलाजिमों की ब्याहताओं और कई-कई बच्चों की मांओं को भी अपनी बेगम बनाने से गुरेज नहीं किया। इसीलिए बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का प्राय: हर रूप व रंग नजर आता है। लखनवी तहजीब पर उनकी शोखी के असर का ही फल था कि उनके रहने की जगहें हुस्नबाग बनीं तो कब्रिस्तान ऐशबाग यानी आमोद-प्रमोद की जगहों की संज्ञा पाने लगे और श्मशानघाटों को गुलेलाला कहा जाने लगा यानी वह स्थान जहां शोलों के फूल खिलते हैं।
इन बेगमों में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देश की आन पर अंग्रेजों के लिए ‘आफत की परकाला’ बन जाने और ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहलाने वाली बेगम हजरतमहल शामिल है तो गम से बेजार वह मलिका-ए-किश्वर भी जो स्वतंत्रता संग्राम छिडऩे से पहले अपने अपदस्थ बेटे वाजिदअली शाह के राजपाट की वापसी के लिए महारानी विक्टोरिया के दरबार तक गई थीं और वहां से कभी नहीं लौटीं। किसी वक्त लखनऊ में अपनी कंजूसी के लिए प्रख्यात बेगम कंगलामहल की तूती बोलती थी तो एक वक्त उन नवाब बेगम का भी था जिन्होंने 1764 में अपने इकलौते बेटे नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर के ऐतिहासिक युद्ध के लिए विदा करते हुए उनके बाजू पर इमामजामिन बांधा तो माथा चूमकर कहा था कि लड़ाई में फिरंगियों को चुन-चुनकर मारना लेकिन खुदा के वास्ते मेरी पीनस उठाने के लिए उनमें से 12 को जरूर बचा लेना। नवाब बेगम का बचपन का नाम सदरुन्निसा था और वे पहले नवाब सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क की बेटी थीं। बेगम बनने से पहले उनकी मां खादिजाखानम की हैसियत सिर्फ एक बांदी की थी लेकिन पिता ने उनका निकाह, बांदी की बेटी होना छिपाकर, सफदरजंग से किया और बाद में दामाद को ही अपनी गद्दी सौंप दी। नवाब के तौर पर सफदरजंग ने 1739 से 1754 तक अवध की सत्ता संभाली और इस दौरान सदरुन्निसा, सदरेजहां नाम से उनकी इकलौती बेगम रहीं। बाद में उनके बेटे का राज आया तो उन्हें जनाबे आलिया (राजमाता) का खिताब मिला।
नवाब बेगम बेहद अकलमंद व होशियार थीं। 1754 में
शाह-ए-दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वे नवाब सफदरजंग के साथ वहां गयीं और लौट रही थीं तो सुल्तानपुर के पास घायल नवाब का अचानक निधन हो गया। लेकिन बेगम ने इस बात का तब तक किसी को पता नहीं चलने दिया जब तक कि वे फैजाबाद नहीं पहुंच गईं और नवाब के निधन से पैदा हुई बगावत की आशंका पर काबू नहीं पा लिया। लोग बताते हैं कि वे अपनी गरीब व लाचार रियाया के हर दु:ख-दर्द में भागीदार रहती थीं और कई बार अपनी सेविकाओं की बेईमानियों को भी यह कहकर माफ कर देती थीं कि लाचारी किसी के पास भी उसका ईमान नहीं रहने देती। उनकी एक सेविका सीलन से बचाने के बहाने चांदी के सिक्के सुखाने का काम करती तो उनमें से कुछ चुरा लेती और पूछने पर कह देती कि सूख जाने के बाद सिक्के कम हो गये हैं। बेगम इस पर भी उसे कुछ नहीं कहतीं। इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने फर्रुखाबाद की ऐतिहासिक जंग के लिए नवाब सफदरजंग को आड़े वक्त अपने पास से 11 लाख चार हजार अशरफियां दी थीं। लेकिन बाद में नवाब से अनबन हुई तो नवाब दिल्ली में
और बेगम बेटे शुजाउद्दौला के साथ फैजाबाद में रहने लगी थीं। फैजाबाद में ही 4 जून, 1766 को नमाज पढ़ते वक्त उनका देहान्त हो गया और वे गुलाबबाड़ी में दफन कर दी गईं।
अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला की बेगम उम्मत्-उल-जोहरा बाद मेें बहूबेगम के नाम से प्रसिद्ध हुईं और बेगमों की कतार में सबसे ऊंचा दर्जा पाया। उनका जन्म 1733 में हुआ और 1745 में शुजाउद्दौला को ब्याही गईं तो महज 12 वर्ष की थीं। शहंशाह्-ए-दिल्ली ने अपनी इस मुंहबोली बेटी के निकाह के लिए दिल्ली के दाराशिकोह महल में जो आयोजन किया, उस पर उन दिनोंं 46 लाख रुपये खर्च हुए थे। कहते हैं कि रसिकमिजाज शुजाउद्दौला अपनी इस बेगम से बहुत डरते थे और जो रात उसके महल के बाहर गुजारते, उसके लिए उसे 5 हजार रुपये का हर्जाना देते थे। लेकिन यह हर्जाना भी नबाव की ऐयाशी रोकने में कारगर नहीं हो पाया और बेगम की हर्जाने की आमदनी उनकी जागीरों की आमदनी से ज्यादा हो गई। इस आमदनी से उन्होंने अपने महल के सहन में चांदी का चबूतरा बनवाया। 1748 में उन्होंने इसी महल में अपने बेटे आसफुद्दौला को जन्म दिया। बक्सर के युद्ध में नवाब शुजाउद्दौला हारे और उनको एक लंगड़ी हथिनी पर बैठकर छुपकर भागना पड़ा तो अंग्रेजों ने उन पर 50 लाख रुपये का तावान-ए-जंग लगा दिया। इस तावान की अदायगी में नवाब का खजाना खाली हो गया तो 20 लाख रुपये बेगम ने अपने जेवर वगैरह बेचकर दिये। कहते हैं कि उन्होंने पने सुहाग की नथ तक दे दी। फिर भी रुपये पूरे नहीं पड़े
और इलाहाबाद व चुनारगढ़ का इलाका अंग्रेजों
के पास गिरवी रखना पड़ा। बेईमान अंग्रेजों ने
बाद में बकाया रकम अदा किये जाने पर भी
ये इलाके खाली नहीं किये।
उनके पुत्र आसफुद्दौला नवाब बने तो राजधानी फैजाबाद से लखनऊ ले गये। बेटे से बहूबेगम की कभी नहीं पटी और वे फैजाबाद में अपनी सास नवाब बेगम के साथ अलहदा हुकूमत करती रहीं। कभी कभार लखनऊ जातीं तो अपने खासमहल सुनहरा बुर्ज में रहतीं जो रूमी दरवाजे के निकट (किलाकोठी, राजघाट, गोमती के किनारे) स्थित था। वारेन हेस्टिंग्ज भारत आया तो नवाब बेगम की शुजाउद्दौला से कही बात (कि 12 फिरंगियों को मेरी पीनस उठाने के लिए बचा लेना) उसके कलेजे में सालती रहती थी। बहूबेगम ने बनारस के राजा चेत सिंह को, जो अंग्रेजों के विरुद्ध झंडा उठाये हुए थे, अपना भाई बना लिया तो हेस्टिंग्ज और जलभुन उठा। उसने बहूबेगम व आसफुद्दौला की अनबन का लाभ उठाकर इतिहासप्रसिद्ध बेगमों की लूट को अंजाम दिया जिसके लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट ने उस पर महाभियोग भी चलाया । अवध में इस लूट को एक बेटे द्वारा अपनी मां की लूट के रूप में याद किया जाता है। यह लुटेरा ऐसा बेटा था, जिसकी तंगहाली में मां ने उसकी फौज की दो बरस की तनख्वाह अपने पास से दी थी। यह रकम भी उसने अपने बचपन में अपनी गुडिय़ा की शादी के दहेज से इक_ा की थी। इस मां को 21 सितंबर, 1797 को अपने इस बेटे की मौत भी देखनी पड़ी। इस दिन आसफुद्दौला का देहान्त हुआ
तो बहूबेगम लखनऊ के सुनहरा बुर्ज में ही थीं। बहूबेगम का
देहान्त गाजीउद्दीन हैदर की नवाबी के दौरान 1816 में हुआ और उन्हें फैजाबाद में जवाहर बाग स्थित उनके मकबरे मेंं दफन
किया गया। यह मकबरा अभी भी विद्यमान है।
शुजाउद्दौला की एक और बेगम थीं छत्तर कुंअर, जो बहराइच के पास की बौड़ी रियासत के एक रैकवार ठाकुर की बेटी थीं। इन्हें खुर्दमहल कहा जाता था। बहूबेगम से सौतियाडाह के चलते विधवा होने के बाद वे बनारस चली गईं और वहीं दुर्गाकुण्ड में रहने लगी थीं। बाद में उनके पुत्र सआदत अली खां अवध के नवाब बने तो वे फिर लखनऊ आयीं और जनाब-ए-आलिया
का पद ग्रहण किया। नवाब ने उनके नाम
से छत्तरमंजिल बनवायी तो खुद उन्होंने अलीगंज
में एक हनुमान मंदिर व गोलागंज में मस्जिद।
बहूबेगम के बाद जिस बेगम का नाम इतिहासकार प्रमुखता से लेते हैं, उनका नाम शम्सुन्निसा बेगम उर्फ दुल्हन बेगम है। शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी। उनकी शादी में दिल्ली से शाह-ए-आलम व बेगम शोलापुरी भी आई थीं और खूब जश्न मना था। आसफुद्दौला की नवाबी (1775-1797) के दौरान दुल्हन बेगम की तूती बोलती थी। लेकिन वे देशकाल से कितनी परे थीं, इसे इस वाकये से समझा जा सकता है कि 1774 में अकाल पड़ा और रियाया मदद की गुहार लगाती हुई उनकी ड्यौढ़ी पर आई तो उनका भोला-सा प्रश्न था—क्या तुम लोगों को पेट भरने के लिए हलवा पूड़ी भी नसीब नहीं होता? एक बार होली के दिन आसफुद्दौला
शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो रियाया ने बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की। इस पर बेगम ने ख्वाहिश का मान रखते हुए एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिये और रंग वालों से उन कपड़ों पर जी भर रंग छिड़का, रंग सने कपड़े महल में ले जाये गये तो बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुई और दिनभर उन्हें ही पहने घूमती रहीं। वे दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं।
12 जुलाई, 1814 को अवध के नवाबों की परम्परा में एक नया मोड़ आया। इस दिन गाजीउद्दीन हैदर ने अंग्रेजों से मिलीभगत कर सत्ता संभाली और खुद को नवाब के बजाय बादशाह यानी दिल्ली के दबदबे से आजाद घोषित कर दिया। तब उनकी बेगम ‘पहली बादशाह बेगम’ कहलाई। इन बेगम को बादशाह की अंग्रेजों से मिलीभगत सख्त नापसन्द थीं। वे चतुर, शिक्षित, धार्मिक, रोबीली, अहंकारी व बहुत महत्वाकांक्षी महिला थीं और बादशाह को वश में करके जहांगीर की नूरजहां जैसी भूमिका निभाना चाहती थीं। लेकिन इतिहास ने उन्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। उन्हें शियापंथ में नवीनता लाने के लिए याद किया जाता है। उन्होंंने बारहवें इमाम मेंहदी की छठी मनाना शुरू किया था जिसमें 11 कुंवारी लड़कियों को 11 इमामों की पत्नियां बनाकर पेश किया जाता था। उन्हें अछूती कहा जाता था और बेगम सुबह उठकर सबसे पहले उनमें से किसी एक के मुबारक चेहरे का दीदार करती थीं। वे इन लड़कियोंं की शादी भी नहीं होने देती थीं। 7 जुलाई, 1837 को दूसरे बादशाह नसीरूद्दीन हैदर की मृत्यु हुई तो विधवा बादशाह बेगम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने फिर जोर मारा। उन्होंने अपने पौत्र मुन्नाजान को सत्तारूढ़ कराने के लिए जी तोड़ कोशिश की। लेकिन शातिर अंग्रेजों ने दादी पोते दोनों को कैदकर लखनऊ की रेजीडेन्सी में डाल दिया और बाद में कानपुर की परमट कोठी में नजरबन्द कर दिया। बेगम के अन्तिम दिन चुनारगढ़ किले में भारी बदहाली में बीते। इसी किले में 1847 में उन्होंने आखिरी सांस ली।
बादशाह गाजीउद्दीन हैदर की एक और बेगम थीं सुलतान मरियम, जिन्हें विलायती महल कहा जाता था। विलायती महल का पहले का नाम मिस शार्ट था और वे रोमन कैथोलिक थीं। 1822 में अपनी मां की जोर जबरदस्ती के आगे मजबूर होकर उन्होंने अपना धर्म बदल कर बादशाह से निकाह किया और लखनऊ के पूर्वी सिरे पर दिलकुशा गार्डन के आगे गोमती के दाहिने किनारे पर अपने ही नाम पर बने विलायती बाग में रहने लगीं। लेकिन अपनी मृत्यु से दो वर्ष पूर्व अंग्रेज रेजीडेन्ट को भेजे अपने वसीयतनामे में उन्होंने यह लिखकर सबको चौंका दिया कि वे सिर्फ नाम से मुसलमान बनी थीं और इसके बावजूद ईसा मसीह की ही बन्दी हैं। वह तो उसकी मां ने ऐश-व-इशरत के लालच में उनका निकाह बादशाह से करा दिया था। इसलिए वे चाहती हैं कि उनकी अन्त्येश्टि रोमन कैथोलिक दस्तूर से की जाये और सम्पत्ति उनके दोनों भाइयों के बीच बांट दी जाए। उनकी वसीयत का सम्मान किया गया और उन्हें उनकी बताई रीति से ही इमामबाड़ा
शाहनजफ में बादशाह के बगल में दफ्न किया गया। शाहनजफ
के इस इमामबाड़े को इस बात के लिए जाना जाता है कि
वहां बादशाह गाजीउद्दीन हैदर अपनी अलग-अलग धर्मों
की बेगमों के साथ चिरनिद्रा में सोये हुए हैं। इन बेगमों
में मुबारकमहल (ईसाई), बेगम सरफराजमहल (सुन्नी) और मुमताजमहल (हिन्दू) भी शामिल हैं जबकि बादशाह खुद
शिया थे। इसलिए कई लोग उसे चौरंगी चौघड़ा भी कहते हैं।
आगे चलकर नसीरूद्दीन हैदर (20 अक्तूबर, 1827 – 7 जुलाई, 1837) की बादशाहत आयी तो उनकी बेगम शाहजादमहल का राज चलने लगा। उन्हें मलिका-ए-जमानी की उपाधि दी गयी। उनका बचपन का नाम दुलारी था और वे बनारस के एक कुर्मी परिवार में जन्मी थीं। इस गरीब परिवार ने अपने ऊपर चढ़े कर्ज की अदायगी न कर पाने पर दुलारी को फतेह मुराद बजाज को सौंप दिया था। बजाज की बहन ने दुलारी को अपनी बेटी की तरह पाला और बाद में अपने बेटे रुस्तम खान से उसकी शादी कर दी थी। उन्नाव के रुस्तम नगर में अपने खाविन्द के साथ रहते हुए दुलारी ने एक बेटे और एक बेटी को जन्म दिया था कि एक दिन बेगम अफजलमहल के बेटे मुन्नाजान को दूध पिलाने के बहाने वह धाय बनकर उनके महल में पहुंची और युवराज नसीरूद्दीन की आंखों में चढ़ गयी। 1826 में इस 40 साल की विवाहिता से निकाह रचाकर युवराज ने उसे शाहजादमहल बना दिया और उसकी औलादों को भी अपना लिया। उनके शादी ब्याह भी बादशाही शान के साथ किये। बेटे कैवांजाह को तो अपना उत्तराधिकारी तक घोशित कर दिया। अलबत्ता इस सबकी कीमत दुलारी के पति रुस्तम खान को चुकानी पड़ी। उसे कैद करके बांगर के किले में भेज दिया गया और उसकी मुक्ति बादशाह की मौत के बाद ही हो पायी। पर शाहजादमहल का सितारा जैसे बुलन्द हुआ, वैसे डूबा भी। 1831 में उसकी बांदी बिस्मिल्लाह खानम से बादशाह नसीरूद्दीन के नैन लड़े तो वे उसी के होकर रह गये। उसको कुदूसिया बेगम बनाया और उसी के इशारों पर नाचने लगे। फिर तो कैवांजाह को राजपाट देने से भी इन्कार कर दिया।
विलासी नसीरूद्दीन ने बाद में अंग्रेज सेना के एक अधिकारी की बेटी मिस वाल्टर्स को मुखदरेआलिया या मखदरहआलिया बनाकर अपना लिया। कहते हैं कि मिस वाल्टर्स का व्यक्तित्व बड़ा कोमल और आकर्षक था। उन्होंने अपने खाविन्द को अंग्रेजी भी सिखायी। लेकिन बाद में जनरल इकबालुद्दौला से उनके अवैध सम्बन्ध की ऐसी चर्चा चली कि जनरल को बर्खास्त कर दिया गया। जुलाई, 1833 में नसीरूद्दीन की मृत्यु के बाद वे बादशाही हरम से भी भाग निकलीं और रेजीडेन्सी प्रांगण की बेगम वाली कोठी में रहने लगीं। लेकिन वहां भी खुद को अवैध सम्बन्ध से नहीं बचा पायीं। गर्भ ठहर गया तो उसे गिराने के लिए कोई तेज दवा खायी और उसके ही कुप्रभाव से 12 नवम्बर, 1840 को उनका देहान्त हो गया।
नसीरूद्दीन की बेगमों में एक और नाम बेगम नबावताजमहल (खुर्शीदमहल) का है। बेगम बनने से पहले उनका नाम हुसैनी था और वे एक तवायफ भाजू डोमनी की बेटी थी। वे विभिन्न अवसरों पर अपनी मां के साथ संगीत व नृत्य का प्रदर्शन भी करती थीं और लखनऊ केे जौहरी मोहल्ले की निवासिनी थीं। बादशाह की नजर उन पर पड़ी तो उन्होंने उनको बेगम बनाने के लिए उनकी जाति, नस्ल व नसब के सवालों को दरकिनार कर दिया। एक दिन तो उन्होंने अपना ताज ही अपनी प्यारी बेगम के सिर पर रख दिया और और उसे ताजमहल कहने लगे। लेकिन यह ताजमहल जल्दी ही ढह गया। आगे चलकर नसीरूद्दीन ‘बादशाह’ नामक एक अन्य बेगम पर मरने लगे। 10 सितंबर, 1931 को उन्होंने चुपचाप दौलतगंज चौक की एक और हुसैनी से निकाह कर लिया और उसे बादशाहमहल का खिताब दे दिया। बादशाह महल को कोई संतान नही हुई और 1839 में बेऔलाद ही वे इस दुनिया से उठ गयीं। दूसरी ओर वैधव्य में बेगम ताजमहल का सम्बन्ध मीर कल्वे हुसैन से हो गया और उन्होंने विधवा होने के बाद भी बच्चा जना। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों की अनुमति लेकर वे मक्का उमरा गयीं तो वहीं की होकर रह गयीं। वहीं अपने आशिक से शादी भी रचा ली। 1881 में वहीं उनकी मृत्यु हुई।
बेगम ताजमहल की बिस्मिल्ला खानम नाम की कनीज को अजीबोगरीब हालात में कुदसिया महल नाम से बेगम बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसकी सुंन्दरता पर मुग्ध बादशाह नसीरूद्दीन ने उसके पति मीर हैदर सितारबाज को शाही मुजरिम करार देकर उससे इस कनीज को तलाक दिलवाया और इद्दत की मुद्दत बीते बिना ही उससे निकाह रचा लिया। सितारबाज से इस कनीज को दो बेटे भी थे। बादशाह कुदसिया महल से अपने वारिस की दरकार रखते थे लेकिन वे गर्भवती हुर्इं तो मलिका-ए-जमानी (शाहजादमहल) ने साजिश रचकर एक महलदारनी की मार्फत उनका गर्भ गिरवा दिया। बादशाह ने चिढ़कर इस महलदारनी को मौत की सज़ा दे दी। कुदसिया बेगम दुबारा गर्भवती हुर्इं तो अफवाह उड़ा दी गयी कि उनके पेट का बच्चा बादशाह का न होकर उनके पहले पति का है। इस पर एतबार कर बादशाह इतने भिन्नाये कि उन्होंने कुदसिया महल की एक बार अकेले में मिल लेने की दरखास्त भी ठुकरा दी। अपमानित कुदसिया बेगम ने 21 अगस्त, 1834 को बादशाहबाग की कोठी में संखिया खाकर जान दे दी।
नसीरूद्दीन की एक और बेगम अपनी व अपनी मां की कन्जूसी के लिए जानी जाती थीं। बादशाह ने उन्हें कंगलामहल का खिताब देकर धिक्कारा और छोड़ दिया था। कंगला महल वजीर-ए-आजम रौशनउद्दौला की भांजी कमर तलअत थीं। सुर्ख सफेद रंगत, बड़ी-बड़ी फांकदार आंखें, पंखुडी जैसे गुलाबी होंठ और चांद जैसी नायाब सूरत की स्वामिनी कमर तलअत को ब्याहने बादशाह खुद गये थे। बादशाह ने ऐसा कमर तलअत के खानदान के बेहद गरीब होने के बावजूद किया था। हालांकि दूसरे व्याहों के मौकों पर आमचलन के मुताबिक सिर्फ उनकी तलवार और वकील जाते थे। 1835 में हजरत अली के जन्मदिन पर हुए इस ब्याह के बाद उन्होंने उसको बादशाहजहाँ मुमताज-उल-दहर की उपाधि दी थी। लेकिन बादशाह ने शादी के बाद नौकरों-चाकरों में बांटने के लिए दो हजार रुपये दिए तो इन कन्जूस मां-बेटी ने उन्हें अपने संदूक के हवाले कर दिया। एक दिन बादशाह इस बेगम के महल में पधारे और उसके साथ नाश्ता करने की इच्छा जाहिर की तो पता चला कि नियामतखाने में मेवा, मिठाई या नमकीन वगैरह कुछ नहीं है और दोनों मां-बेटी सूखी रोटियों पर गुजर कर रही हैं। एक दिन जौहरी आया तो बेगम ने सच्चे कमताब हीरों के झुमकों की जगह चमकदार नकली बुंदे ले लिए। एक बार बेगम बहुत बीमार पड़ीं तो बादशाह ने जी-जान लगाकर उनका इलाज कराया। उनके गुस्ल-ए-सेेहत के बाद ड्यौढी आगामीर के पास वाले महल के आंगन में चांदी के सिक्कों का चबूतरा चुनवाया। फिर बेगम को गोद में उठा कर वहां ले आये, चबूतरे पर बिठाया और कहा कि वे बांयें पैर की ठोकर से उसे तोड़ दें और सिक्के मोहताजों में बंटवा देंं। लेकिन उनके जाते ही बेगम और उनकी मां ने सारे सिक्के सन्दूकों में भरवा दिये। एक बार बादशाह ने उन्हें कई लाख के कालीन, दुशाले, रूमाल, जामदानी व कमखाब के थान दिये और कहा कि सारे के सारे अपने अजीजों व रिश्तेदारों में बांट दें ताकि लोग समझ सकें कि बादशाह के साथ रिश्ते के बाद उनकी कंगाली खत्म हो गयी है। लेकिन मां-बेटी ने सब कुछ तोशाखाने में रखवा दिया। बादशाह के पूछने पर उनकी सास का जवाब था- ऐ हजरत, हम आप का घर बनाने आये हैं, लुटाने नहीं।
बर्दाश्त की हद हो गयी तो नवाब ने अपनी इस प्यारी बेगम को कंगलामहल नाम देकर उसका तिरस्कार कर दिया। फिर तो उसे मात्र 1500/-रुपये महीने के खर्च पर गुजारा करना पड़ा। 1877 ई$ में उसने इसी हालत में दुनिया को अलविदा कह दिया।
बेगमों की यह चर्चा चौथे बादशाह अमजद अली शाह (17 मई, 1842-13 फरवरी, 1847) की बेगम मलिका-ए-किश्वर की चर्चा के बगैर अधूरी रहेगी। इनका एक और नाम ताज आरा बेगम था और खासियत यह थी कि वे ख्वाजासराओं (नपुंसकों, जो बेगमों के महलों में खिदमत व चौकसी के लिए रखे जाते थे) की खिदमत पसंद नहीं करती थीं। इसलिए उनके महल में सिर्फ कनीजें या बूढ़ी खादिमायें रहती थीं। अलग-अलग मौसम में वे लखनऊ में ही अपनी पसंद की अलग-अलग जगहोंं पर अपना आशियाना बना लेती थी। जाड़े में छत्तर मंजिल में रहती तो गर्मी में चौलक्खी कोठी में। बरसात हवेली बाग द्वारिकादास में गुजारतीं। तफरीह के लिए निकलतीं तो भी सैकड़ों खादिमाओं के साथ।
एक बार जो पोशाक उनके जिस्म को छू लेती, दुबारा उसे कभी नहीं पहनती थीं। ऐसी पोशाकें बांदियों व खवासों में बांट दिये बांट दी जाती थीं। लेकिन उन पर किया गया गंगा जमुनी काम और सिलाई की बखिया उधेड़ दी जाती थी। ताकि बेगम के सांचे में ढले जिस्म का किसी को अन्दाजा न हो सके। कहा जाता है कि वे खूब जेवर पहनतीं और मूड के मुताबिक कहानियां सुनती थीं। इसके लिए कई किस्सागो औरतें रखी गयी थीं।
इतिहासकारों की मानें तो इन बेगम को बिना जरूरत दरे दौलत से बाहर जाना सख्त नापसन्द था लेकिन 7 फरवरी 1856 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उनके बेटे वाजिदअली शाह का राजपाट हड़पा तो वे लंबी यात्रा कर मलिका विक्टोरिया से इसकी शिकायत करने लंदन गयीं। यह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले की बात है। उनको उम्मीद थी कि मलिका विक्टोरिया महिला हैं और मां भी, इसलिए उनकी दरखास्त पर जरूर पिघल जायेंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। वे लंदन में ही थीं कि स्वतंत्रता संग्राम छिड़ जाने की खबर वहाँ पहुँची और उनका सारा किया धरा बेकार कर गयी।
अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह की 365 बेगमें बतायी जाती हैं। लेकिन चूंकि तब तक नवाबी शान-व-शौकत का अन्त हो चुका था इसलिए उनकी चर्चा बहुत प्रासंगिक नहीं है। हां, 1857 के संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा देने वाली उनकी बेगम हजरतमहल को इतिहास कभी नहीं भुला सकता। ( Writer is senior journalist)

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