Thursday, April 14, 2011

उर्दू की यह दुर्दशा क्यों ? -- सुनील अमर

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि उर्दू को देश के प्रत्येक स्कूल में पढ़ाये जाने की योजना बन रही है। उन्होंने कहा कि यह मुसलमानों की भाषा न होकर भारत की भाषा है और किसी इलाके या प्रान्त से जुड़ी नहीं है। उन्होंने चिन्ता व्यक्त की कि उर्दू में शिक्षण व अनुवाद के कार्य तो हो रहे हैं लेकिन शोध नहीं हो रहा है। श्री सिब्बल गत दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। उन्होंने कहा कि उर्दू देश की स्वतंत्रता के साथ जुड़ी हुई है और अब इसे रोजगार के साथ जोड़ना है।

जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग तथा जस्टिस राजेन्द्र सच्चर समिति ने भी अपनी बहुचर्चित रपटों में उर्दू को गुरबत और गर्दिश से निकालने के लिए इसी तरह की कई अहम सिफारिशें की हैं। यह एक सच्चाई है कि आजादी के पहले तक जो भाषा सरकारी काम-काज और रोजगार का जरिया बनी र्हुई थी वह स्वातंत्रयोत्तर भारत में एक तरह से हाशिए पर पहुँच गई है। वैसे कहने को तो देश के प्राय: हर राज्य में एक उर्दू अकादमी है लेकिन वह महज राजनीतिक इस्तेमाल की चीज बनकर रह गई है। उ.प्र. जैसे एकाध राज्यों में उर्दू को यद्यपि तीसरी सरकारी भाषा के रुप में रखा गया है लेकिन वह कर्यालयों व अधिकारियों के साइन बोर्डों के आगे नहीं बढ़ सकी है। राज्य सरकारें उर्दू के मदरसों को आर्थिक सहायता तो दे सकती हैं लेकिन सरकारी प्राथमिक स्कूलों में उर्दू पढ़ाये जाने की शुरुआत नहीं करती, जबकि यह यहीं हिन्दुस्तान में पैदा हुई और पली-बढ़ी भाषा है।

उर्दू के साथ सबसे बड़ी ज्यादती यह हुई कि इसे एक खास समुदाय की पहचान मानकर प्राथमिक स्तर पर मौलवियों और मदरसों के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया। ये मदरसे यहाँ पढ़ने वालों को अपनी जरुरत और उद्देश्य के हिसाब से तैयार करने लगे और यह मानने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ऐसे छात्रों को मुस्लिम समुदाय का प्रतीक बनाया जाने लगा। उर्दू पढ़ने वाले छात्रों के साथ आज सबसे बड़ी विड़म्बना यही है कि प्राथमिक स्तर पर उन्हें मदरसों के हवाले रहना पड़ता है और आगे चलकर सरकारी स्तर पर उच्च शिक्षा में तो उनके लिए शोध तक की व्यवस्था है लेकिन बीच में कुछ है ही नहीं! यह उच्च शिक्षा और शोध भी ऐसे ही उस्तादों पर आश्रित है जो खुद भी मदरसों से ही निकल कर आये हुए हैं। अब व्यवहार में इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त युवक जब नौकरी तलाशने लगते हैं तो उन्हें मदरसे या मदरसे जैसी सोच और जरुरत वाले संस्थान ही मिलते हैं। अपनी ऊंची पढ़ाई-लिखाई का यह हश्र देखकर उनमें और उनसे सबक लेने वालों का पस्त हो जाना लाजिमी ही है! मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अरसा पहले ठीक ही कहा था कि मुसलमानों को अपनी रुढ़वादिता छोड़कर नये युग के अनुरुप अपनी नई पहचान बनानी चाहिए तभी वे सफल हो सकते हैं। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यूरोप के देशों में रहने वाले मुसलमानों की पढ़ाई-लिखाई और सोच तथा उसी के अनुरुप आर्थिक स्थिति के मुकाबले मुस्लिम देशों में रहने वाले मुसलमान प्राय: ही पिछड़ेपन का शिकार हैं। लेकिन यहाँ तो सबसे बड़ा धोखा ही यही हुआ है कि सरकार और मदरसे, दोनो एक ही सोच के हो गये!

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली की फेलो, समाजशास्त्री व पत्रकार सुश्री शीबा असलम फ़हमी का कहना है कि ''आजादी के बाद से ही उर्दू को सेक्युलर प्रायमरी स्कूलों से रवाना कर दिया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि स्कूलों से गायब उर्दू सिर्फ इस्लामी मदरसों में ही बची रह गई। एक 'फंक्षनल लैंग्वेज' के तौर पर उर्दू के वजूद पर यह जानलेवा ही साबित हुआ क्योंकि उर्दूदां तबके के सामने अपनी-अपनी औलादों को यह भाषा सिखाने का एक ही रास्ता बचा था कि वे उन्हें इस्लामी मदरसों में भेजें। इसका सबसे घातक नुकसान यह हुआ कि इस प्रकार मुसलमानों के सेक्युलर सरोकार ही सवालों के घेरे में आ गये। ये मदरसे फिरकापरस्त तो बिल्कुल ही नहीं लेकिन आखिरतपरस्त (यानी भवसागर से मुक्ति की विचारधारा वाले) जरुर हैं। शीबा कहती हैं कि इससे एक और संकट पैदा हुआ कि या तो अपने बच्चे को किसी बढ़िया स्कूल में भेजकर डाक्टर-इंजीनियर बना लो या फिर मदरसे में भेजकर अपनी जबान पढ़ा लो। ''

किसी भी भाषा के जीवित रहने और परवान चढ़ने के दो प्रमुख कारण होते हैं-एक, लोगों का उससे लगाव और दूसरा, उसमें रोजगार और जीवन-यापन की संभावनाऐं। इन दोनों कारणों के न रहने पर भाषाऐं समाप्त हो जाती हैं। अपने देश में ही कई भाषाऐं अब तक इन्हीं कारणों से समाप्त हो चुकी हैं। यहाँ यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस घोर पूजीवाद-बाजारवाद के युग में ये दोनों कारण सरकार पर ही निर्भर करते हैं। उर्दू एक बहुत समृध्द और शानदार अतीत वाली भाषा है। श्री कपिल सिब्बल का यह आश्वासन काबिले-तारीफ़ है कि देश के सभी प्रायमरी स्कूलों में उर्दू की पढ़ाई फिर से शुरु कर दी जाएगी लेकिन इतने भर से किसी भाषा का संरक्षण नहीं हो जाता जब तक कि उससे जीवन यापन की संभावनाऐं भी न जुड़ें।

पढ़ाई के साथ-साथ उर्दू के द्वारा रोजगार के अवसर भी पैदा किये जाने का आश्वासन सरकार को देना चाहिए तभी वांछित संख्या में छात्र उसकी तरफ आकर्षित होंगें। इसके बजाय अगर मुसलमानों की भाषा मानकर उनके अहं को तुष्ट करने हेतु उर्दू को प्राथमिक स्कूलों में सरकार शुरु करना चाहती है तो यह काम तो मदरसे कर ही रहे हैं। आज अंग्रेजी का जगत-व्यापी प्रसार महज इसीलिए संभव हुआ है क्योंकि वह अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क और व्यवसाय सर्जक भाषा बन गई है। देश की कुछ अन्य भाषाओं के साथ गनीमत यह है कि किसी न किसी राज्य विशेष से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त है लेकिन उर्दू के साथ यह मदद भी संभव नहीं क्योंकि यह किसी राज्य विशेष की भाषा नहीं है। इसलिए इसे रोजगारोन्मुख बनाना ही इसकी बहबूदी का कारण बन सकता है। सिर्फ प्राथमिक स्कूलों में इसे लागू कर देना तो इसे ऑक्सीजन पर रखने जैसा ही होगा।

सुश्री शीबा कहती हैं कि ''उर्दू को मदरसों के भरोसे छोड़ देने का नतीजा यह हुआ कि 'इंकिलाब-बगावत-आजादी-इश्क और सूफियों की बानी' यानी 'उर्दू जबान' के मुहाफ़िज (रखवाले) 'देओबंदी-बरेलवी' मदरसे बना दिये गये जहाँ उन्हें हिन्दुस्तानियत से लबरेज़ (भरपूर) उर्दू की जगह अरबी-ज़दा दीनी डिस्कोर्स (धार्मिक विचारधारा) की जबान रटायी गयी जो कि समाजयात-हिसाब-साइंस और जबान में भी दीनी हवालों (सन्दर्भो) से पुर थी और जिसमें मीर-गालिब का अजीम उर्दू अदब (महान उर्दू साहित्य), ज़ो कि खालिस सेक्युलर अदब था, नदारद रहा।''

सिर्फ उर्दू ही नहीं बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में श्री कपिल सिब्बल द्वारा अभी तक किये गये प्रयास नि:सन्देह काबिले-तारीफ़ हैं। उच्च शिक्षा में सुधार के लिए तो उन्होंने काफी प्रयास किया है, लेकिन शिक्षा के अधिकार कानून की बात अगर छोड़ दें तो शिक्षा संम्बन्धी करीब आधा दर्जन विधोयक अभी तक संसद में लटके पड़े हैं और कई तो अभी संसद का मुह भी नहीं देख पाए हैं। संसद के इस बार के बजट सत्र में एक भी शिक्षा-विधोयक परित ही नहीं हो सका, जबकि दो वर्षों से विदेशी विश्वविद्यालय, कॉलेजों में कदाचार रोकने, शैक्षणिक न्यायाधिकरण विधोयक व राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जैसे महत्त्वपूर्ण विधोयक अभी प्रतीक्षारत ही हैं। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि उर्दू के विकास के लिए संकल्पबद्व सरकार ठोस कदम उठाएगी।

4 comments:

  1. अंग्रेजी के आगे तो हिन्दी और भारत की सभी भाषायें पिट रहीं हैं ऐसे में आपको उर्दू की पड़ी है। कपिल सिबब्ल की योजना तो अगले चुनावों में विशेष समुदाय के वोट बटोरने के लिये है। हिन्दी भाषा पढ़े लोगों को ही कौन से रोजगार मिल रहा है।

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  2. आप मेरे ब्लॉग पर आयीं, और कमेन्ट भी किया, यह अच्छा लगा. मनीषा जी , अंग्रेजी के आगे अगर देशी भाषाओं मतलब हिंदी तक को गुन्जाईश नही दिख रही है तो इसमें दोष इन भाषाओं का नही , हमारे तंत्र का है.चीन और रूस जैसे देश भी हैं जीनका काम उनकी अपनी ही भाषा में बखूबी चल रहा है. रही बात उर्दू की, तो ये तो एक बहुत मीठी और गज़ब की तहज़ीब वाली भाषा है जिसका कोई सानी ही नही है . इसे पर्याप्त सरकारी मदद चाहिए ही!
    आभार सहित -- सुनील अमर

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  3. उर्दू को जरूरत से ज्यादा पुचकारा गया है। उर्दू ने भारत के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने पाकिस्तान का भी विभाजन किया। न इसकी लिपि भारतीय है न अधिकांश शब्दावली। देश की मिट्टी से जुड़ने में इसको एलर्जी है। और अन्त में , कौन कहता है कि उर्दू सेक्युलर भाषा है? हाँथ कंगन को आरसी क्या? जरा खुले दिमाग से सोचिये तो!

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  4. अनुनाद जी ! देश की मिट्टी से जुड़ने में किसको एलर्जी है, इसे आप ख़ुद ज़रा खुले दिमाग से सोचिये. रही बात उर्दू की, तो उर्दू तो इस देश की मिट्टी में ऐसे रच-बस गयी है कि बहुत जगह तो आप उसे हिंदी ही समझ बैठते हैं! आप की रोजमर्रा की ज़िन्दगी में तमाम ऐसे उर्दू के शब्द हैं जिन्हें अगर आप हटाने पर ही आमादा हो जाएँ तो उसकी जगह आप को फिर अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल करने पड़ेंगें! अंग्रेजी मैं सिर्फ़ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आज कल प्रैक्टिस में वह अन्य किसी भी देसी भाषा से ज्यादा है. और ये भारतीय लिपि किसे कहते हैं, ज़रा बताइयेगा? उर्दू की ही तरह ज़रा हिंदी के शब्दों का वंश-बृक्ष भी बना कर देखिये कि तमाम शब्द कहाँ से अवतरित हुए हैं!

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