अगर किसी सामान्य अपराधी, व्यभिचारी, ज़लिम, हत्यारे, लोभी, झूठे से यह पूछना होता कि भाई तुम ख़ुद ही बता दो कि तुम्हारे साथ कैसे पेश आया जाय, तो उम्मीद थी कि वह थोड़ा-बहुत तो ख़ुद को समझते हुए जवाब देता, लेकिन कठमुल्लों से तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि वे कह देंगे कि हम तो अल्लाह की भेजी गई नेमत हैं इंसानियत के लिए, हमसे वही सुलूक हो जो अवतारों के साथ होता है।
यानी हम तो बे-रोक, बेधड़क दूसरे के विश्वासों की खिल्ली उड़ायेंगें, अपनी सुविधावादी दलीलों से अपने ‘विश्वास’ को ‘वैज्ञानिक’ बतायेंगें, अपनी धार्मिक पुस्तक को दैवीय साबित करेंगें, अपने पैग़म्बर को ही आख़िरी और ईश्वर का सबसे प्रिय बताएंगे, अपनी हिंसा को ‘जेहाद’ बताऐंगे, अपनी मक्कारियों को ‘तक़य्या’ कहेंगे लेकिन जब दूसरे धर्म के मानने वाले यही सब हमारे साथ करे तो हम सुविधावादियों को मानवाधिकार, प्रजातांत्रिक मूल्य, संविधान प्रदत्त अधिकार, इंसाफ़, समानता, स्वतंत्रता, बहुसंस्कृतिवाद, राष्ट्रीय संप्रभुता और इन सबसे बढ़कर ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द-स्वर याद आने लगते हैं। कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुर्क़ा-बैन पर टीवी, अख़बार आदि में अवतरित होकर फ़्रांस की सरकार को लोकतांत्रिक मूल्य की याद दिलाने लगता है। तब इन्हें ज़रा शर्म नहीं आती कि जिस मुंह से यह ज़बर्दस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं ‘चुनाव की आज़ादी’ के आधार पर, उसी मुंह से इन्हें अरब-ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुर्क़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिए, जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है। लेकिन नहीं, इन्हें अरब-ईरान पर उॅंगली उठाने की ज़रुरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है।
ये ख़ुद तो यह मानेंगें की इनके पैग़म्बर इस श्रृंखला के आख़िरी पैग़म्बर हैं और यदि कोई उनके बाद पैग़म्बरी का दावा करे तो उसे जान से मार देना चाहिए। लेकिन यहूदी-ईसाई भी अगर अपने मसीह और पैग़म्बर पर यही विश्वास रखें तो यह उन्हें ‘नामूस-ए-रिसालत’ के क़ानून में मौत की सज़ा सुना देंगें। अगर सरकार कोई रेआयत दिखाए तो इनके अपने फ़तवे तो हैं ही, मारने वाले को लाखों के इनाम की घोषणा के साथ।
ये अपने अल्पसंख्यकों के साथ तो एल्बर्ट ( गोजरा ) और आसिया बीबी वाला सुलूक करेंगे। वह इनके बर्तन में पानी पी ले तो उसे इसाई होने के आधार पर ‘अछूत’ कहकर उसके आत्म-सम्मान को रोंदेंगे, वह मुक़ाबला करे तो उसे झूठे केस में फॅंसाकर सज़ा-ए-मौत तक पहॅुंचा देंगे, लेकिन ख़ुद ये जहाँ अल्पसंख्यक हैं, वहाँ इन्हें अपने भले के लिए विशेष प्रावधान चाहिए।
यूरोप-अमरीका-आस्ट्रेलिया मे तो ये मैकडोनल्ड, के एफ़ सी, पित्ज़ा हट जहाँ ‘पेपरानी’, ‘सलामी’,‘बेकन’ बेचा जाता है, वहाँ नौकरी कर लेंगे लेकिन अपने मुल्क में एक इसाई को अछूत बनाकर रखेंगे।
दूसरों की इबादतगाहों को नेस्तनाबूद करने को इस दौर में भी एक बहादुरी के कारनामे की तरह शाबाशी के साथ दरसी किताबों में दर्ज करेंगे, लेकिन अगर इनकी इबादतगाह ख़त्म कर दी जाए तो ये उसे लोकतंत्र की हत्या और अक़लियत के अधिकारों का हनन बताएंगे। इन्हें ये नहीं समझ में आता कि भाई जो अपनी विजयगाथाऐं तुम मदरसों में पढ़ा रहे हो, वह दूसरे द्वारा इबादतगाह शहीद करने की ज़रा पुरानी कहानी है, और बाबरी मस्जिद वाली ज़रा नई। अगर पुरानी वाली को ग़लत नहीं कहोगे तो नई वाली को कैसे ग़लत कह सकते हो?
ये इतने भोले हैं कि ख़ुद तो यूरोप, अमरीका, दक्षिणपूर्व एशिया, अफ्रीक़ा में तबलीग़ के जत्थे के जत्थे लेकर जायेंगे और वहाँ के इसाइयों को बताएंगे कि ईसा मसीह आख़िरी पैगम्बर नहीं, मुहम्मद साहब आख़िरी हैं, लेकिन अगर इनके मुल्क में कोई मसीही अपने विश्वास को सर्वोच्च माने तो उसके ऊपर तहाफुज़-ए-नामूस-ए-रिसालत कानून ठोंककर उसे मौत के घाट उतार देंगें। इन लोगों की कैसी तार्किकता है जो यह नहीं समझ पाती कि भाई एक इसाई तो ईसा मसीह को ही सर्वोच्च मानेगा, न कि वह भी मुहम्मद साहब की तारीफ़ करेगा? वह तो अपने दीन और दीनी शख़स्यात को ही आला तरीन समझेगा न? इसके लिए उसे जेल, जुर्माना सज़ा-ए-मौत का मतलब तो यही हुआ कि जहाँ आप हुकूमत में हैं वहाँ ग़ैर-मुस्लिम को मज़हबी आज़ादी नहीं?
इनके अपने टाइप के इस्लाम (अल्लाह बेहतर जाने वो कौन-सा है?) के अलावा शिया, आग़ाख़ानी, बोहरा, अहले हदीस, देवबंदी, वहाबी, सलफ़ी सब आपस में सिर-फुटव्वल करेंगे लेकिन कानून बनाएंगे कि दूसरे मज़हब वालों को कुछ-कुछ ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। इसके पीछे का तर्क है कि हम सोसायटी में अमन चाहते हैं, इसलिए ‘एक मज़हब’ होगा और उसके अलावा कोई आएगा या होगा तो उसके लिए कुछ शर्तें होंगी। मतलब यह कि क़ादयानी, बहाई, हिंदू, सिक्ख, इसाई, पारसी क़ौमों को क़ानूनी हदबंदी मे रखा जाएगा और ये लोग अपनी इबादतगाहों, मज़हबी अरकान वगैरह को छुपा कर करें। वरना ब्लासफेमी क़ानून इन्हें ठिकाने लगा देगा। लेकिन सबसे मज़े की बात यह है कि यह अक़्ल के अंधे पाकिस्तान में ही मज़हबी-दीनी आज़ादी होने का दावा करते हैं। हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक मुसलमान-इसाई-हिंदू-सिक्ख सभी अपने-अपने दीन की तब्लीग़ कर सकते हैं, और इसे कहते हैं मज़हबी-दीनी-आज़ादी। लेकिन ईरान में बहाई-पारसी किस हाल में हैं या पाकिस्तान में शिया-क़ादयानी, बहाई, पारसी किस हाल में हैं, यह किसी से छुपा नहीं। इसमें एक मज़े की बात यह है की अगर आप हिन्दुस्तानी शिया कट्टरवादी से बात करें तो वह पाकिस्तान में चल रहे शिया-मुख़ालिफ़ हरकतों पर तो आंसू बहाएगा, लेकिन इरान में पारसियों, ईसाईयों, क़द्यानियों के प्रति जो असहिष्णुता है उस के पक्ष में तर्क देने लगेगा. यह अजीब समझ है इंसाफ़ और बराबरी की.?
पाकिस्तान का ब्लासफ़ेमी या कुफ्ऱ क़ानून में नामूस-ए-रिसालत का क़ानून इतना गै़र मुकम्मल है कि उसमें कोई भी ग़ैर मुस्लिम महज़ अपना अक़ीदा मानने के लिए कभी भी फंसाया जा सकता है। इसमें ‘तौहीन-ए-रिसालत’ टर्म (अभिव्यक्ति) की कोई परिभाषा या तारीफ़ नहीं बताई गई है। यानी कि हर केस में हर बार नई बहस और नए तर्कों से जुर्म साबित किया जाएगा। एक और बात यह कि आरोपी के कहे गए शब्द कभी दोहराए नहीं जाते इसलिए कोई नहीं जानता कि असल में कहा क्या गया है, जिससे सही फ़ैसला मुमकिन नहीं, तिस पर यह कि इस क़ानून में फंसने-फंसाए जाने वाले को अगर अदालत बरी भी कर दे तो समाजी तौर पर शिद्दतपसंद उसे जीने नहीं देते। वह या तो जेल में मार दिया जाता है, या अदालत के ठीक बाहर, या फिर रास्ता चलते। एक बार इस क़ानून में फंसने के बाद मुल्ज़िम की ज़िन्दिगी बहरहाल तबाह हो जाती है क्योंकि वह समाज से ख़ारिज कर दिया जाता है।
अगर वह ‘ग़ैर-मुस्लिम’ है तो उसके पूरे मुहल्ले-बस्ती पर ये आगज़नी, लूट, क़त्लेआम करते हैं। ख़ुद पाकिस्तान मानवाधिकार कमिशन की रिपोर्ट बताती है कि गोजरा (2010) में तो मस्जिद से एलान हुआ कि इसाइयों का ‘क़ीमा बना दो।’ और यह सब हुआ एक सरासर झूठे आरोप में, जब अख़बार के पन्नों को क़ुरान के पन्ने बताकर क़त्ल-ग़ारत शुरु की गई। ऐसे हालात में जब पूरी कौम एक मज़हब है और मुट्ठी भर लोग ग़ैर-मज़हबी, वहाँ क्या बहुसंख्यको को ही अपने दीन की हिफ़ाज़त के क़ानून चाहिए? ये कैसे तर्क हैं जो ज़ालिम को हिफ़ाज़त देते हैं और मज़लूम को बेबस छोड़ देते हैं?
इसमें एक तथ्य यह भी है कि 1986 में जब से कठमुल्ले राष्ट्रपति ज़ियाउलहक़ ने ये क़ानून बनाये तब से ही अचानक कुफ्ऱ के मुजरिम कैसे बढ़ गए? क्या सख़्त क़ानून बन जाने से कोई जुर्म बढ़ जाता है या घटता है?
सीधी सी बात है कि इस क़ानून का इस्तेमाल - जायदाद, पड़ोसी, कारोबारी रंजिशों का बदला लेने के लिए हो रहा है, लेकिन कठमुल्लों, तालिबानों, सिपाह-ए-सहाबा और अनगिनत इस्लामी जमातों की गिरफ़्त के अंधेरे कुंए में गिरता पाकिस्तान इस वक़्त लाचारी की मिसाल बन चुका है जहाँ सही-ग़लत का शऊर ही नहीं बचा। मक़्तूल गवर्नर सलमान तासीर ने क़त्ल से कुछ वक़्त पहले ही अपने 24 दिसम्बर, 2010 के ट्वीट में लिखा था कि ‘‘एक इंसान और मुल्क को इस बिना पर इंसाफ़-पसंद समझा जाएगा कि वह अपने से कमज़ोर के साथ कैसा था, न कि ताक़तवर के साथ।’’ इसी तरह के दूसरे मामलों के मद्देनज़र मौजूदा सरकार तो इस लचर और अन्यायी क़ानून में बदलाव चाहती है पर कूढ़मग़ज़ कठमुल्लों, जो अब वहां बहुसंख्या में हैं, के आगे वह नतमस्तक है।
इसलिए पाकिस्तान की मौजूदा सूरतेहाल का मामला क़ौमी न होकर सारी दुनिया के मुसलमानों को असरअंदाज़ करता है, ख़ासकर उन मुसलमानों को जो इस्लामी मुल्कों में नहीं रहते। और दूसरी कौमें, दीन, अक़ीदे उनकी इबादत में, रहन-सहन मे रोड़े नहीं अटकाते। लेहाज़ा हिंदुस्तानी मुसलमानों, ख़ासकर आलिमों का यह फ़र्ज़ बनता है कि कठमुल्लों द्वारा कुफ्ऱ के नाम पर जो गै़र इस्लामी हरकतें ताक़त के ज़ोर पर की जा रही हैं, उन पर खुलकर अपनी राय दें, उनकी इसलाह करें और इसे साबित करें कि कैसे यह ग़ैर मुकम्मल क़ानून इस्लाम को शर्मिंदा कर रहा है।
इन मसलों पर चुप रहना या बोलना अब अपनी सुविधा का मामला नहीं रह गया है। यह हर उस मुसलमान का फ़र्ज़ है, जो दूसरे मुल्कों में हर तरह की आज़ादी का फ़ायदा उठा रहा है। हिंदुस्तानी मुसलमान/उलेमा/इदारे/तन्ज़ीमें अगर इस पर ख़ामोश रहे तो उन्हें बाबरी मस्जिद, सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र आयोग, और आज़ादी, हक़, इंसाफ़ पर भी ख़ामोश हो जाना चाहिए।
हिंदुस्तानी मौलानाओं को यह समझना पड़ेगा कि पाकिस्तान में असहिष्णुता के इस दौर में उन्हें सीधे-सीधे हस्तक्षेप कर उस सहिष्णु इस्लाम को स्थापित करवाने में रोल अदा करना है जिसका हवाला वे भारत में सरकार, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मीडिया और सिविल सोसायटी को देते रहते हैं क्योंकि सेक्यूलरिज़्म यह नहीं होता कि आप जहां अल्पसंख्यक हैं वहां दूसरे मज़हबों के प्रति सहिष्णु हैं बल्कि सेक्यूलरिज़्म वह होता है जहां आप बहुसंख्यक हैं वहां दूसरे मज़हबों को कितनी जगह और इज़्ज़त देते हैं। आपके लिए यही समय है ख़ुद को, अपने मज़हब को सहिष्णु और इंसाफ़पसंद साबित करने का।
आसिया बीबी का मामला
आसिया बीबी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की एक इसाई मज़दूर महिला है, जो इस वक़्त कुफ्ऱ-क़ानून के तहत सज़ा-ए-मौत की ज़द में है। पंजाब की अदालत ने सज़ा-ए-मौत देकर उसके बेक़ुसूर होने की हर शक ओ शुब्हा की गुंजाइश ख़त्म कर दी।
आसिया बीबी का मामला यह है कि उसने एक आम कुएं से पानी लेकर उस प्याले में पिया जो वहां बहरहाल सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए रखा रहता था। उसके पानी पीने पर वहां मौजूद दूसरी औरतों ने सख़्त एतराज़ किया कि वह ग़ैर मज़हब है और काफ़िर है। इस बात का विरोध करते हुए आसिया ने प्रतिवाद में इस्लामी मान्यताओं का ज़िक्र किया। उन औरतों का आरोप है कि आसिया बीबी ने मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताख़ी की।
जबकि आसिया ने अपने दर्ज बयान में इसका खण्डन किया है और यह भी कहा कि उसको इस कानून में उसके इसाई होने की वजह से फंसाया जा रहा है।
ख़ैर, मामला दर्ज हुआ और मुकदमा चला। अदालत में उसे कुफ्ऱ का दोषी मानकर सज़ा-ए-मौत सुना दी गई। इस बीच ख़ुद पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने इस फ़ैसले के खि़लाफ़ तेज़ आवाज़ उठाई है।
लेकिन गवर्नर सलमान तासीर की जुर्रतमन्दाना हत्या की वजह से सेक्यूलर हलक़े दहशत में हैं। दूसरी तरफ़ कठमुल्लों के हौसले बुलंद हैं। मीडिया, इंटरनेट आदि पर इसके द्वारा बाक़ायदा अपील जारी की जा रही है कि पाकिस्तानी सरकार सेक्युलर जमातों और अल्पसंख्यकों के दबाव में आकर कहीं सज़ा-ए-मौत को कम न कर दे।
अल्पसंख्यकों और सेक्युलर जमातों की दलील है कि -
- आसिया बीबी और उस पर इल्ज़ाम लगाने वाले, दोनों ही ग़रीब, जाहिल और मज़दूर तबक़े से हैं इसलिए इनमें ब्लासफ़ेमी-ला की बारीकियों की बेदारी बहुत ज़्यादा नहीं रही होगी।
- दूसरे यह कि आसिया बीबी एक ग़रीब इसाई ख़ातून है, उसे अपने हालात का बेहतर अहसास है, भला वह कैसे बहुसंख्यक ग्रुप के सामने इतनी सीनाजोरी कर सकती है, जबकि वह ऐसा करने से इंकार भी कर रही है।
-तीसरी बात यह कि ख़ुद ब्लासफ़ेीम-ला अरसे से सवालों के घेरे में है क्योंकि वह न सिर्फ़ मज़हबी अल्पसंख्यकों बल्कि ख़ुद कमज़ोर सुन्नी मुसलमानों को भी क़ानूनी शिकंजे में फंसाने के लिए कई बार इस्तेमाल किया गया है।
यही नहीं, जायदाद हड़पने, ज़ाति-रंजिश और सियासी पटखनी देने के लिए भी इस क़ानून का बे-जा इस्तेमाल होता रहा है। आसिया बीबी की गुर्बत, माइनारिटी स्टेटस और महिला होने के नाते साफ़ ज़ाहिर है कि वह एक संगीन आरोप और हालात का सामना कर रही है।
इंसानियत-पसंद समाज को चाहिए कि वह न सिर्फ़ उसे सज़ा-ए-मौत से बचाने के इंतज़ाम करे बल्कि उसे जेल या बाहर जो भी ख़तरा है उसे देखते हुए, उसे, उसकी दो बेटियों व पति को किसी दूसरे सेक्युलर मुल्क में शरण लेने का भी बंदोबस्त करे, जिससे आसिया बीबी और उसके परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
गोजरा मामला
31 जुलाई 2009 को पंजाब के गोजरा इलाके़ में एक शादी में शराब पीकर हंगामा कर रहे युवक को रोकने से पैदा हुए बवाल को कुरान की बेहुर्मती का मामला बताकर ईसाई बस्ती के 50 से अधिक घर जला दिए गए, 9 ईसाइयों को मौत के घाट दिया गया। सरकार ने प्रभावशाली क़दम उठाते हुए 61 दंगाइयों को गिरफ़्तार किया और पीड़ितों को मुआवज़ा दिया।
हैदराबाद मामला
दिसंबर 2010, हैदराबाद के जाने-माने डॉक्टर नौशाद अली वलीयानी के पास मुहम्मद फ़ैज़ान नाम का मेडिकल रिप्रेज़ेनटेटिव अपने विज़िटिंग कार्ड पेश करता है। डाक्टर वलियानी उसे कूड़े के डिब्बे में डाल देते हैं। अगले दिन फ़ैज़ान और उस के साथी डॉक्टर के दफ़्तर पर ही उसे बुरी तरह पीटते हैं और फिर पुलिस के हवाले कर देते हैं कि इसने पैग़म्बर इस्लाम के नाम को कूड़े में डाला। लेकिन शहरी तन्ज़ीमों के दबाव के चलते उस पर ब्लासफ़ेमी के आरोप हटाने पड़े।
ब्लासफ़ेमी क़ानून से सम्बंधित आंकड़े-
1986 - 2005 तक के आंकड़े
धर्म..................आरोपी..............................मामले..................संदेहास्पद................कुल.................प्रतिशत
मुसलमान..........286................................170 ........................90.........................376.................... 50
अहमदी .............259 ................................79..........................04.........................263.....................35
इसाई................80..................................70............................09.........................89......................12
हिंदू..................12..................................07..........................................................12.......................2
अतिरिक्त..........04..................................04............................02...........................06......................1
इस क़ानून के बनने से पहले 1947 से 1985 तक महज़ 7 मामले ही आए थे, जिनमें तौहीन-ए-रिसालत का मामला उठा था।
-- प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका 'हंस' फ़रवरी 2011 से साभार.
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