विकास और जन कल्याणकारी योजनाओं के बेहतर और तेज क्रियान्वयन के लिए गत वर्ष केन्द्र सरकार ने यह तय किया था कि देश के ऐसे गांवों को जिनकी आबादी दो हजार से अधिक हो, वहाँ बैंकिंग सेवायें उपलब्ध करायी जांय। लगभग 60,000 ऐसे गांवों को चिन्हित कर सरकार ने बैंकों को हिदायत दी थी कि वे वित्तीय वर्ष 2011-12 की समाप्ति तक ऐसा कर लें। ताजा खबर यह है कि एक साल बीतने के बावजूद बैंकों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है। इसके विपरीत अभी गत माह केन्द्रीय वित्त मंत्री के साथ हुई बैठक में बैंकों ने यह कहते हुए हाथ उठा दिया कि इसमें भारी पूंजीनिवेश की दरकार है और यह कि अगर सरकार ऐसा कराना चाहती है तो पहले इसके संसाधन हेतु पर्याप्त धन उपलब्ध कराये।
मौजूदा समय में किसी भी प्रकार की योजना का क्रियान्वयन बैंकों के सहयोग बगैर संभव नहीं है। इसी के साथ यह भी सच है कि सरकार की मर्जी के बगैर किसी प्रकार की बैंकिंग भी देश के भीतर संभव नहीं है। जहाँ तक राष्ट्रीयकृत बैंकों की बात है, वे सरकार के ही उपक्रम हैं और सरकारी पूँजी से ही संचालित होते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस प्रसंग में किसकी मंशा खराब है? बैंक, विशेषकर सरकारी बैंक, अब सिर्फ पैसा जमा करने-निकालने या कर्ज देने के ही माध्यम नहीं रह गये हैं, बल्कि जनकल्याण की तमाम योजनाऐं जो केन्द्र या प्रदेश सरकारों द्वारा चलायी जा रही हैं, उनका क्रियान्वयन भी इन्हीं बैंकों द्वारा ही हो रहा है। बात अगर ग्रामीण और कृषि क्षेत्र की करें तो सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने जब 23 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो उसके बाद ही तमाम कृषि योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों की मार्फत हुआ और हरित क्रांति संभव हुई। ‘अधिक अन्न उपजाओ’ उस दौर का बहुत चर्चित सरकारी नारा था।
बीते एक दशक में न सिर्फ बैंकिंग के स्वरुप में आमूल-चूल परिवर्तन आया है, बल्कि सरकारी बैंकों को निजी और भारी भरकम विदेशी बैंकों से तगड़ी चुनौती भी मिली है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकारी बैकों ने भी अपने तौर-तरीकों में निजी क्षेत्र की तरह ही परिवर्तन किये हैं। ये परिवर्तन व्यावसायिक प्रवृत्ति के हैं और इनसे सरकारी मंशाओं को दिक्कत पहुँचती है। सरकारी योजनाऐं, प्रायः ही राजनीतिक लाभ से प्रेरित रहती हैं, इसलिये बैंक प्रबंधन और सरकार के बीच अपने हितों को लेकर अक्सर ही खींच-तान चलती रहती है। ताजा प्रसंग भी इसी नफे-नुकसान पर टिका हुआ है। असल में इधर के दो दशक में कृषि, स्व-रोजगार, लधु-उद्यम और जनकल्याण को लेकर दर्जनों सरकारी योजनाऐं शुरु की गयीं जिनका क्रियान्वयन सरकारी बैंकों की ही मार्फत हो रहा है।
हाल के वर्षों में ग्राम पंचायतों के बैंक खाते, मनरेगा में लाभार्थियों के बैंक खाते, छात्रों के वजीफे, शून्य धनराशि पर सबके खाते खोलने की सरकारी हिदायतें, विधवा और वृद्धावस्था पेंशन, गन्ना किसानों का भुगतान, तथा सरकारी कर्मचारियांे को वेतन और पेंशन आदि के कारण निःसन्देह बैकों की ग्रामीण शाखाओं पर कार्य भार बढ़ा है। इसके विपरीत शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण के बहाने शीर्ष प्रबन्धन ने स्टाफ काफी कम कर दिया है। जाहिर है कि इन सबका असर बैंकों के कामकाज पर पड़ रहा है और इधर बैंकों में निष्प्रयोज्य खाते, बिना लेन-देन वाले ऋण खाते (एनपीए- नान परफार्मिंग एकाउन्ट) तथा भारी संख्या में न्यूनतम धनराशि वाले खातों की संख्या में खासी वृद्धि हुई है। इससे बैंकों का काम तो बढ़ा लेकिन लाभ बढ़ने के बजाय घट गया, क्योंकि ऐसे ज्यादातर खातों में पैसा आते ही पूरा का पूरा निकाल लिया जाता है। ऐसे में जब सरकार उनसे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखा खोलने या गांवों को बैंकों से जोड़ने की बात करती है, तो जाहिर है कि यह घूम-फिर कर सरकार पर ही आयद होता है कि वह इन बैंकों से किस तरह काम लेना चाहती है!
यही हाल बीमा कम्पनियों का भी है। बीते एक दशक से कृषि, स्वास्थ्य, पेंशन और जीवन बीमा को लेकर तमाम सरकारी योजनायें चलायी गयी हैं। इस प्रकार बीमा कम्पनियांे की भी स्थिति बैंकों सरीखी ही हो गयी है। आगामी बजट की तैयारियों के सिलसिले में बीते माह केन्द्रीय वित्त मंत्री के साथ बैंक व बीमा कम्पनियों के शीर्ष अधिकारियों की बैठक में उक्त मसले उठाये गये और मांग की गयी कि आगामी बजट में इसके लिये सरकार प्रावधान करे, जिस पर वित्त मंत्री ने सधा हुआ जबाब दिया कि कुछ किया जाएगा। अब देखना यह है कि यह प्रावधान कृषि के लिए निर्धारित बजट से कटौती करके किया जाएगा या इसके लिये अलग से व्यवस्था की जायेगी। पिछले बजट में कृषि ऋण के लिये महज 3.7 लाख करोड़ की धनराशि का प्रावधान था। इस बार इसमें कुछ खास बढोत्तरी की उम्मीद नहीं है। अब अगर इसी में से सरकार बैंकों और बीमा कम्पनियों को गांवों में उतरने के लिये भी व्यवस्था करेगी तो निश्चित ही दोनों कार्य प्रभावित होंगें। कृषि के लिये बजट में निर्धारित की जाने वाली धनराशि का हाल भी असल में बेहाल ही होता है। इसका ‘किंग साइज’ हमेशा ही वे उद्योंगपति ले जाते है, जो कृषि व्यापार में लगे होते हैं, और जो कृषि में लगे हैं, उन्हें सिर्फ जूठन मिलती है।
बैंकों का तर्कं अपनी जगह सही हो सकता है कि नयी संस्थापनाओं पर खर्च तो आयेगा ही। देश में छह लाख के करीब गाँव हैं। सबको सर्विस उपलब्ध कराना एक बड़ा काम है और निश्चित ही यह सरकारी दखल के बगैर संभव नहीं हो सकता। बैंकों ने फिलहाल एक बीच का रास्ता निकाला है और वे गांवों में शाखा खोलने के बजाय कमीशन एजेन्ट के तौर पर ‘बिजनेस कारेस्पान्डेन्ट’ रख रहे हैं जो ग्रामीण ग्राहकों और बैंकों के बीच माध्यम का काम करेगा। जाहिर है कि अनपढ़ या बैंकिंग न जानने वाले ग्रामीणों के लिये यह शोषण का औजार ही बन जाएगा। इस एजेन्ट पद्धति से सरकारी मंशा फलने-फूलने से रही।
बैंकों की चूडियाँ कसने के बजाय सरकार वही काम डाकखानों से भी ले सकती है। वास्तव में डाकखानों का काम इधर के वर्षों में काफी कम हो गया है। इसका बड़ा कारण निजी कूरियर कम्पनिया और मोबाइल फोन हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में डाकखाने अभी भी मनीआर्डर पहुँचाने का काम बखूबी कर रहे थे, लेकिन मनीआर्डर का बेतहाशा शुल्क और बैंकों की सी.बी.एस. शाखाओं ने उनका यह काम भी हल्का कर दिया है। इधर ग्रामीण क्षेत्रों के डाकखाने भी कम्प्यूटर और डीजल जेनरेटर से लैस हो गये हैं। उनमें विश्वसनीयता है तथा उन्हें थोड़ा सा और ठीक करके सरकार गांवों के मतलब की बैंकिंग उनसे करा सकती है। आज भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में डाकखाने ही बैंक हैं और अल्प बचत योजनाओं का सबसे बढ़िया क्रियान्वयन कर रहे हैं। अभी बैंक जिस बिजनेस कारेस्पान्डेन्ट को रखने की योजना बना रहे हैं, वे दशकों से डाकखानों में काम कर रहे हैं। डाकखानों के घटते व्यवसाय से चिन्तित उसके हुक्मरानों ने एक अर्से से पोस्टमैनों की मार्फत मोबाइल सिम व टाप अप, गंगाजल, सोने-चाँदी के सिक्के और न जाने क्या-क्या धंधा करने का ऐलान कर रखा है लेकिन उनकी कोई भी योजना न तो जमीन से जुड़ी है और न परवान ही चढ़ रही है। डाकखाने घाटे में हैं। ऐसे में अगर उन्हें सरकार की ग्रामीण विकास व कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन से जोड़ा जा सके तो उचित ही होगा। ( राष्ट्रीय सहारा सम्पादकीय पृष्ठ -- 10 मार्च 2011 )
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