Tuesday, March 08, 2011

विखंडित होते समाज के खतरे -- सुनील अमर

खबर है कि ताइवान के एक युवा दम्पत्ति को इंटरनेट पर जुआ खेलने की ऐसी लत लग गई कि वे अपने नवजात की देखभाल ही भूल गये और पालने में पड़ी वो एक साल की बच्ची समय पर दूध न पाने की वजह से धीरे-धीरे सूखती हुई मर गयी। पड़ोसियों की शिकायत पर जब पुलिस वहाँ पहुची तो पाया कि मरी हुई बच्ची की बगल में ही उसके माँ-बाप कम्प्यूटर पर जुआ खेलने में खोये हुए थे! बच्ची की ऑखें गड्ढ़े में धँसी लग रही थी और वो सूख कर कंकाल सी हो गयी थी।

इसी के साथ कुछ ताजा देशी खबरें भी हैं - पंजाब पुलिस के एक बर्खास्त डी.एस.पी. ने अपने ही बेटों के साथ मिलकर 40 लड़कियों की अश्लील फिल्म बना डाली! दूसरी तरफ मथुरा के एक कथावाचक ने बीते महीने अपनी ही धर्मपत्नी के साथ अपनी ब्लू-फिल्म बना कर उसकी सीडी तैयार कर ली। पैसे की हवस का आलम यह है कि पंजाब के गुरदास जिले में अपने एन.आर.आई. पति की हत्या के लिये पत्नी ने ढ़ाई लाख रुपये की सुपारी बदमाशों को दे दी जो कि करतूत को अंजाम देने के पहले ही पुलिस के हत्थे चढ़ गये, और बुध्दिजीवियों के अभेद गढ़ कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के एक छात्र ने अपनी दोस्त छात्रा को धोखा देकर छात्रावास में ही उसके साथ अपने शारीरिक संबन्धों की फिल्म बनवा ली!

दैनिक जीवन के विनिमय आसान करने के लिये जिस मुद्रा का आविष्कार किया गया था, वो अब जीवन से भी बढ़कर हो गयी है, ऐसा लगने लगा है। कई बार यह सोचकर हताषा सी होती है कि क्या यह वही समाज है, जिसका निर्माण हम सबका अभीश्ट था? विकास के क्रम में यह अवधारणा मन में थी कि जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान का प्रसार होगा, हम और ज्यादा सभ्य और संवेदनशील होते जायेंगें और तदनुरुप हमारा समाज भी। ज्ञान-विज्ञान के विकास की स्थिति यह है कि आज अपनी ही आविष्कृत तमाम चीजों को हम स्वयं ही ऑख फाड़कर देखते रहते हैं। लेकिन कमोबेश यही हालत हमने अपने समाज की भी बना ड़ाली है। अब तो नित्य ऐसी खबरें आती रहती हैं कि उन पर सहज ही विश्वास नहीं होता। ताइवान में तो जिस बेपरवाही से माँ-बाप ने अपनी बच्ची की जान ली, वैसा तो पागल भी नहीं करते। पागलों को भी अपने बच्चों से प्यार करते देखा जाता ही है। दूसरी तरफ माँ-बाप ही अपने बच्चों की निर्मम हत्या कर डाल रहे हैं, ऐसी घटनायें भी देखने में आ ही रही हैं।

मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि लगभग पूरा समाज ही असामान्य मानसिक स्थिति में जी रहा है। भारतीय ग्रन्थों में तो कहा गया है कि 'महाजनो येन गत: स पंथ:' यानी बड़े लोग जिस राह चलें, वही सही राह है, लेकिन समाज के महाजन यानी संत-महात्मा, विचारक, अध्यापक, डाक्टर, वकील, न्यायाधीश, राजनेता और व्यापारी यही सब आज अधिकांश रुप मे जिस तरह का आचरण उपस्थित कर रहे हैं, वह चिन्तनीय है और उसी तरह की दिशा भी समाज को मिल रही है। समाज निर्माण की प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार और विद्यालयों को माना जाता रहा है क्योंकि वहीं से बच्चों को संस्कार व शिक्षा प्राप्त होती है, जिसे आगे चलकर वे अपने जीवन में व्यवहृत करते हैं। यह प्राथमिक चरण ही आज पूरी दुनिया में व्यवसाय की भेंट चढ़ चुका है। आज स्कूल जाने वाला नन्हा बच्चा भी जानता है कि पैसा क्या चीज है! स्कूल कारखानों में तब्दील हो गये हैं और उनसे निकलने वाले बच्चें एक प्रोडक्ट! पैसे के दम पर तैयार होने वाले अगर आगे चलकर सब कुछ पैसे से ही तौलें तो आश्चर्य कैसा?

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने पूरी दुनिया को एक गॉव सरीखा बना दिया है। इसमें अच्छाइयों का विकिरण तो कम हुआ लेकिन बुराइयाँ तेजी से फैलीं। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि समाज का जो वर्ग कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ है और जिसके बिगड़ने का खतरा ज्यादा समझा जाता रहा, उसकी बजाय हमने देखा कि हर प्रकार से वे लोग ज्यादा बिगड़ गये जो पढ़े-लिखे और सभ्य कहे जाते रहे। क्या यह हैरत की बात नहीं लगती कि डी.एस.पी. स्तर का एक अधिकारी, सैकड़ों लोगो को रोज धर्म-कर्म और संयम का उपदेश देने वाला मथुरा का कथावाचक और जे.एन.यू. जैसी संस्था का एक पोस्टग्रेजुएट छात्र! ये सब पैसा कमाने के लिये उक्त प्रकार के घृणित कार्य करें!

वास्तव में दिन-प्रतिदिन हो रहे आविष्कारों ने जहॉ एक तरफ दैनिक जीवन में सुविधाऐं व सहूलियतें उपलब्ध करायी वहीं उसे हर हाल में प्राप्त करने के लिये लोगो को उकसाया भी। आधुनिक जीवन की आपाधापी और एक-दूसरे से आगे निकल जाने की भावना ने आज तमाम लोगो के मन से उचित-अनुचित का भेद ही मिटा दिया है। विवेक प्राप्त करने के लिये बुध्दि को पहली सीढ़ी माना जाता है लेकिन एक डी.एस.पी., एक स्नातकोत्तर छात्र और एक कथावाचक को बुध्दिहीन तो नहीं कहा जा सकता? फिर इनमें विवेक क्यों नहीं आया?

समाजशास्त्री कहते हैं कि हाल के दो-तीन दशकों में भारतीय समाज में बहुत तेज बदलाव आया है, और इसने खासकर मध्यम वर्ग को तो आमूल-चूल बदल दिया है। इसमें भोगवादी प्रवृत्ति बढ़ी है और तमाम सामाजिक वर्जनाओं को इसने नकार दिया है। जिस सामाजिक दबाव के कारण व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करने से डरता था, वह दबाव ही अब प्राय: खत्म हो गया है। संचार क्रांति के कारण अब यह हवा सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक जा पहुँची है, और वहाँ भी अब नये और पुराने समाज में जबर्दस्त द्वन्द शुरु हो गया है। बहुत से मामलों में तो यह सरे-आम हत्याओं तक का रुप ले रहा है। समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे अपराध के मुकदमों के त्वरित गति से निस्तारित न होने या अभियोजन की कमी से सजा से बच जाने के कारण भी अन्य लोगों के मन में गलत रास्तों को शार्ट-कट की तरह इस्तेमाल करने ललक बनती है। अब तो यह भी देखने में आ रहा है कि अपराध करने वाले व्यक्तियों की भी स्वीकार्यता समाज में बन रही है। ऐसे लोग न सिर्फ चुनाव जीतकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सिरमौर बन रहे है बल्कि एक तरह से शरीफ और 'लॉ एबाउन्ड सिटिजन्स'' को इनके नेतृत्व में रहने को विवष होना पड़ रहा है।

आज के आधुनिक समाज में अपने पडोसी से भी कोई मतलब न रखने की प्रवृत्ति ही उपर उध्दृत की गयी घटनाओं को जन्म देने में मदद कर रही है। अत्यधिक सुविधाभोगी सोच ने हालत ये कर दी है एक ही छत के नीचे रहने वाले परिवार के सदस्य भी एक दूसरे की खबर रखना जरुरी नहीं समझ रहे हैं। आज सामाजिक जवाबदेही ही समाप्त होती जा रही है। इसे फिर से स्थापित करना ही होगा। सुनने में अटपटा भले लगे, लेकिन यह कार्य समाज के वरिष्ठ नागरिकों द्वारा ही बेहतर ढ़ॅंग से शुरु किया जा सकता है, विशेष रुप से सेवानिवृत्त लोगों द्वारा। जब एक आदमी समाज से कुछ लेता है तो उसे समाज को कुछ देना भी पड़ेगा, लेकिन इसके लिये जो बाध्यकारी सामाजिक दबाव था, अफसोस है कि वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा हैं। हम एक तरह से सामाजिक अराजकता की राह पर चल पड़े हैं। इस दिशा में कुछ करने के लिये आज भी देश की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था प्रेरणादायी हो सकती है। यह सुखद है कि वहाँ सार्थक सामाजिक हस्तक्षेप आज भी काफी हद तक सक्रिय है। (Published in Hum Samvet Features on 07 March 2011)

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