Thursday, March 17, 2011

पं. बृजनारायण चकबस्त (अल्लामा इकबाल के दोस्त शायर )  कृष्ण प्रताप सिंह

उर्दू में आधुनिक कवितास्कूल के संस्थापकों में से एक पं. बृजनारायण चकबस्त अल्लामा इकबाल के दोस्त तो थे ही, चकबस्त की रचनाओं के संग्रह ‘सुबह-ए-वतन’ के सम्पादक शशिनारायण ‘स्वाधीन’ की मानें तो ‘इकबाल से कम बड़े शायर भी नहीं थे।’स्वाधीन लिखते हैं, ‘यह अलग बात है कि जिन्दगी उनके लिए छोटी पड़ गयी और उन जैसे शायर की नोटिस जिस तरह से ली जानी चाहिए थी, नहीं ली गयी...... अब तक उनके बारे में बहुत कम लिखा गया है। वे उर्दू शायरी के भविष्य थे। उनमें गजब की सांस्कृतिक निष्ठा थी और उर्दू फारसी पर उन्हें समान अधिकार था।’
इकबाल और चकबस्त में एक और चीज कामन थी: दोनों का सम्बन्ध कश्मीर की जमीन से था। चकबस्त के कश्मीरी मूल के सारस्वत ब्राह्मण पुरखे पन्द्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में आ बसे थे। उनके पिता पं.उदितनारायण, जो स्वयं भी कविताएं करते थे, फैजाबाद(उ.प्र.) में डिप्टी कलेक्टर थे। अंग्रेजी राज में डिप्टी कलेक्टर वह सर्वोच्च पद था जो किसी भारतीय को मिल सकता था। फैजाबाद में ही 19 जनवरी, 1882 को चकबस्त का जन्म हुआ लेकिन पांच साल बीतते-बीतते 1887 में पिता के देहान्त ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि उनके परिवार को दर-बदर होकर लखनऊ चले जाना पड़ा। वहीं कश्मीरी मुहल्ले में रहते हुए चकबस्त ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कैनिंग कालेज से कानून की पढ़ाई पूरी की। 1905 में विवाह, 1906 में पत्नी की मृत्यु और 1907 में पुनर्विवाह उनके जीवन की इससे पहले की घटनाएं हैं।
जल्दी ही वे लखनऊ के सफल वकीलों में गिने जाने लगे। साहित्य के एक बहुचर्चित मामले में उन्होंने प्रसिद्ध कवि दयाशंकर कौल ‘नसीम’ का बचाव किया था। नसीम पर आरोप था कि वे झूठ-मूठ ही खुद को ‘गुलबकावली’ का रचयिता बताते हैं। वकालत करते हुए चकबस्त ने कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में खुलकर भागीदारी की। इनमें स्वराज का आंदोलन भी शामिल था। समाज सुधार के आंदोलनों में उनकी दिलचस्पी इस तथ्य से समझी जा सकती है कि कश्मीरी ब्राह्मणों के समुदाय में पहली बार आगरा में एक विधवा विवाह हुआ तो उन्होंने उसकी प्रशंसा में अपनी ‘बर्के-इस्लाह’ शीर्षक रचना में कहा - गम नहीं दिल को यहां दीन की बरबादी का। बुत सलामत रहे इंसाफ की आजादी का। और देश की आजादी क्या है? उन्हीं से सुनिए: तलब फिजूल है कांटों का फूल के बदले। न लें बहिश्त, मिले होम रुल के बदले।
इस संकल्प के चलते वकालत की सफलता उनको बांध कर नहीं रख सकी। वे स्वतंत्रता संघर्ष और उर्दू साहित्य के विशद अध्ययन में सक्रिय हो गये। खासकर मिर्जा गालिब, मीर अनीस और आतिश की कविताओं से वे बहुत प्रभावित थे। इकबाल तो खैर उनके दोस्त ही थे और इस दोस्ती की हद यह थी कि इकबाल मुम्बई में मालाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रेटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो चकबस्त को साथ ले जाते थे। वहीं धनराज महल में शाम की महफिलें जमतीं तो चकबस्त झूमझूम कर अपने कलाम सुनाते। तब मशहूर वकील तेजबहादुर ‘सप्रू’ अफसोस जताते कि सर मोहम्मद इकबाल और चकबस्त जैसे महानुभावों को अपना समय कानून व कविता के बीच बांटना पड़ता है।
जिन्दगी और मौत को परिभाषित करने वाला चकबस्त का एक शेर आज भी बहुत लोकप्रिय है - जिन्दगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब। मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशाँ होना। अवध में किसी को अपने ख्यालों की आजादी पर जोर देना होता है तो वह भी ‘चकबस्त’ को ही उद्घृत करता है-जुबां को बन्द करें या मुझे असीर करें मेरे ख्याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते। इसी सिलसिले में ‘चकबस्त’ आगे कहते हैं- चिराग कौम का रोशन है अर्श पर दिल के। इसे हवा के फरिश्ते बुझा नहीं सकते। और सच पूछिए तो उनकी काव्य प्रतिभा का उत्स उनकी राष्ट्रीयता की इस भावना में ही है। वे राष्ट्रीय चेतना से भर देने वाले ऐसे कवि हैं जो ‘तहजीब के दरख्तों के तवील सायों को’ अपनी कविताओं की शक्ल में हमारे लिए छोड़ गया है। उनके समकालीनों ने उन्हें इसके लिए बहुत सराहा है कि अपने लखनवी होने पर गर्व करने वाले चकबस्त के निकट मुल्क की बरबादी ही अफसोस का सबसे बड़ा वायस थी - गुरूरो जहल ने हिन्दोस्तां को लूट लिया। बजुज निफाक के अब खाक भी वतन में नहीं। देश प्रेम की धुन में उन्होंने पारम्परिक उर्दू कविता के मानकों को दरकिनार कर अपने पाठकों को भावप्रधान कविता का सर्वश्रेष्ठ रूप दिया। उनकी धूम भी मची।
चकबस्त ने मुख्य रूप से नज्में रची हैं, हालांकि गजलों के मश्क को वे मजहबे शायराना कहते थे और मसनवी रचने के साथ उनकी लेखनी से पचास गजलें भी निकलीं। उर्दू के गद्य में भी उन्होंने अपने हाथ आजमाए। उनकी कई रचनाएं अनीस के मर्सिये की याद दिलाती है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ट्रांसवाल में शासकों से दुखी भारतीयों की दशा सुधारने के प्रयत्नों में लगे हुए थे तो चकबस्त ने ‘फरियादे कौम’ की रचना की। यह रचना छोटी पुस्तिका के रूप में छपी जिस पर गांधी जी का नाम इस प्रकार दिया गया था - महात्मा मोहनदास करम चंद गांधी की सेवा में/निसार है दिले शायर तेरे करीने पर/किया है नाम तेरा नक्श इस नगीने पर।
इससे पहले पं.विशन नारायण दर की याद में लिखी उनकी नज्म ‘नजराना-ए-रूह’ प्रसिद्ध हो चुकी थी। लखनऊ में कश्मीर के नवयुवकों की सभा के आठवें अधिवेशन में उन्होंने अपनी नज्म ‘दर्दे दिल’ पढ़ी तो कहते हैं कि सारे नवयुवकों का दर्द उनकी आंखों में छलक आया था। 3 सितम्बर, 1911 को महामना मदन मोहन मालवीय और उनके समर्थक हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए चंदा मांगने लखनऊ आए और इस अवसर पर एक बड़ा अधिवेशन हुआ तो चकबस्त की नज्म ‘कौमी मुसद्दस’ ने समां बांध दिया था: जो अपने वास्ते मांगे ये वो फकीर नहीं। तमअ में दौलते दुनिया की ये असीर नहीं। तमाम दौलतें जाती लुटा के बैठे हैं। तुम्हारे वास्ते धूनी रमा के बैठे हैं। सवाल इनका है तालीम का बने मंदिर। कलश हो जिसका हिमाला से औज में बरतर। यहां से जायं तो जायें ये झोलियां भरकर। लुटायें इल्म की दौलत तुम्हारे बच्चों पर।
कई पुराने नेता कांग्रेस से अलग हुए तो चकबस्त ने एक शीर्षकहीन नज्म रची - आंसुओं से अपने जो सींचा किये बागे वतन, बेवफाई के उन्हें खिलअत अता होने को है । मादरे नाशाद रोती है कोई सुनता नहीं, दिल जिगर से भाई से भाई जुदा होने को हैं। कौम की लड़कियों से खिताब करते हुए तो वे अपनी भावनाओं को यह कहने से भी नहीं रोक पाये - हम तुम्हें भूल गये उसकी सजा पाते हैं। तुम जरा अपने तईं भूल न जाना हरगिज।
खाके हिन्द, गुलजार ए नसीम, रामायण का एक सीन (मुसद्दस), नाल ए दर्द, नाल ऐ यास और कमला (नाटक) चकबस्त की अन्य प्रमुख रचनाएं हैं। 1983 में उनकी जन्मशंती के अवसर पर उनका गद्य पद्य का समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। उम्र ने चकबस्त के साथ बड़ी नाइंसाफी की। 12 फरवरी, 1926 को वे रायबरेली रेलवे स्टेशन के निकट अचानक गिर पड़े तो फिर कभी नहीं उठे। कुछ ही घंटों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली। तब वे सिर्फ 44 वर्ष के थे। उनकी जन्मस्थली फैजाबाद में स्थित उनके घर के आधे हिस्से में एक स्कूल संचालित है और आधे हिस्से में उनसे नजदीकी का दावा करने वाले कुछ लोग रहते हैं। न स्कूल और न ही इन लोगों को चकबस्त की स्मृतियों और विरासत के संरक्षण से कोई लेना देना है। उनकी स्मृतियों को संजोने का सिर्फ एक उपक्रम है, वह लाइब्रेरी जिस पर मीर अनीस के साथ चकबस्त का नाम भी चस्पा है।
संपर्क- 5/18/35, बछड़ा सुलतानपुर, फैजाबाद-224001 मो.09838950948

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