एक ऐसे समय में जब कृषि योग्य जमीन लगातार घट रही हो और उस पर निर्भर होने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो, यह जरुरी हो जाता है कि कृषि की ढाचागत व्यवस्था को नये सिरे से पारिभाषित किया जाय। देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हमें कृषि क्षेत्र में 5 प्रतिशत से अधिक विकास दर की आवश्यकता है, जबकि अभी हम इसके आधो से भी पीछे हैं। ताजा ऑंकलन बताते हैं कि चालू वेर्ष में यह स्थिति बेहतर हो सकती है। कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले 15 वर्षों में खाद्यान्न संकट और बढ़ सकता है तथा उसका मुकाबला करने के लिये कृषि क्षेत्र को सिर्फ पारम्परिक खेती के भरोसे ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें समावेषी कृषि तथा दुग्ध, फल और मांस जैसे कृषि आधारित कुटीर उद्योगों को शामिल किया जाना आवश्यक हो गया है। चालू बजट से पूर्व आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कृषि के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश करते हुए बताया गया है कि दो दशक के भीतर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी आ चुकी है। देश की आबादी के बड़े हिस्से की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए यह तथ्य चिंताजनक हैं।
भारतीय कृषि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ विविधीकरण संभव है। यहाँ अगर छह प्रकार की ऋतुऐं हैं तो दर्जनों प्रकार की मिट्टी भी है, जो प्राय: हर प्रकार की फसल का उत्पादन यहाँ सुगम बनाती हैं। भारतीय उप महाद्वीप को छोड़कर विश्व में अन्यत्र यह संभव नहीं। बावजूद इसके भारतीय कृषि अभी बहुत कुछ पारम्परिक तौर-तरीकों पर ही निर्भर है। हालाँकि पारम्परिक तरीकों ने कृषि को चिंतामुक्त और टिकाऊ बना रखा था लेकिन छोटी होती जा रही जोत, आबादी की विस्मयकारी वृध्दि से उत्पन्न आवश्यकताऐं तथा समाज में बढ़ते धन के महत्त्व के कारण किसान भी अब पारम्परिक खेती के भरोसे नहीं रह सकता। इसी क्रम में यह कहा जा सकता है कि कृषि का आधुनिकीकरण भी पूर्णत: सरकार पर ही निर्भर करता है। कृषि में हो रहे क्षरण और आने वाले दिनों की दिक्कतों का आभास तो बजट पूर्व आर्थिक समीक्षा में कराया गया है लेकिन उससे निपटने के उपायों के बारे में नहीं बताया गया है।
18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थॉमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणतीय तरीके से। मैल्थस के उक्त अनुमान की चाहे जितने तरीके से व्याख्या की जाय लेकिन दुनिया भर में इन दिनों जिस तरह खाद्यान्न संकट दिख रहा है, और जिस तरह इस संकट के हौव्वे की आड़ में मंहगाई बे-रोकटोक बढ़ती जा रही है, उससे निपटने का आधारभूत तरीका कृषि व कृषि आधारित सह-उत्पाद बढ़ाना ही हो सकता है। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विषेशज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त बीमारियों की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चौंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियॉ निर्धारित करनी वाली कुर्सियों पर कृषि विषेशज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए है! ऑल इन्डिया फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर एसोसियेशन के एक प्रवक्ता का दावा है कि देश में ऐसे एक हजार पदों पर नौकरशह काबिज हैं।
अभी पिछले पखवारे रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने एक बयान में कहा कि खाद्य वस्तुओं में आ रही मंहगाई को रोकने के लिये कृषि उत्पादों को बढ़ाना पड़ेगा और इसके लिये तत्काल कदम उठाये जाने की जरुरत है। इसके साथ उन्होंने एक और हरित क्रांति की वकालत करते हुए कहा कि कृषि में औसत उत्पादकता बढ़ाने की आवशयकता है। उन्होंने पंजाब का हवाला देते हुए कहा कि यदि देश के आधो राज्य भी पंजाब की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता को प्राप्त कर लें तो खाद्य वस्तुओं की किल्लत से प्रभावी ढ़ंग से निपटा जा सकता है। यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि जहाँ कृषि उत्पादकता का राष्ट्रीय औसत 1909 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है, वहीं पंजाब का खाद्यान्न उत्पादन 4231 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है! स्वाभाविक ही है कि यदि इतने बड़े अंतर को हम प्राप्त कर लें तो यह राष्ट्रीय कृषि क्रांति नहीं बल्कि विश्व कृषि क्रांति हो सकती है।
अब मूल प्रश्न यही है कि क्या राष्ट्रीय औसत को पंजाब के औसत तक पहुचाया जा सकता है? असल में कृषि उत्पादन और औद्योगीकरण बढ़ाने के जिस तरह के प्रयास पंजाब में आजादी के तुरन्त बाद से ही किये गये, देश के अन्य हिस्सों में उस तरह नहीं हो सका। दूसरे पंजाब में कृषि जोतों का आकार काफी बड़ा है, वहॉ के निवासियों की अन्यान्य स्रोतों से भी पर्याप्त आय है जिसका निवेश वे कृषि में करते हैं और खेती वहॉ उद्योग सरीखे की जाती है। इन तमाम कारणों में कृषि जोतों का बड़ा होना ही सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। पंजाब में खेती का पर्याप्त मशीनीकरण हो चुका है और आय अधिक होने के कारण वहाँ मानव श्रम पर भी देश के अन्य हिस्से के मुकाबले ज्यादा खर्च किया जाता है। इसके बजाय देश के अन्य हिस्से में स्थिति यह है कि तीन चौथाई से अधिक किसान लघु और सीमान्त कृषक की श्रेणी में आते हैं। इनके लिये खेती बमुश्किल अपने खाने के लिये धान व गेहूं पैदा कर लेना ही है। ऐसी खेती करने वाले अधिकांश किसान अपने खाली समय में मजदूरी भी करते हैं और गणना होते समय वे किसान और मजदूर या श्रमिक दोनो श्रेणियों में गिने जाते हैं! अभी बीते दिसम्बर माह में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने एक रपट जारी कर कहा कि अब आधे से भी कम लोग यानी सिर्फ साढ़े 45 प्रतिशत लोग ही कृषि पर निर्भर रह गये हैं। यह हालत कृषि के खोखलेपन को बताती है।
सह कृषि के रुप में बागवानी, मत्स्य पालन, पशुपालन, कुक्कुट पालन, मधुमक्खी पालन तथा फूड प्रोसेसिंग आदि अनेक कार्य शामिल हैं जिनसे न सिर्फ पारम्परिक कृषि पर बोझ कम होता है बल्कि वे उत्पादों में भिन्नता लाते हैं और कृषि का विकल्प भी बनते हैं। अफसोस है कि इनमें से अधिकांश पदों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्हें खेती-बारी का कोई ज्ञान ही नहीं है। कृषि आज भी देश की प्राथमिक आवश्यकता है और संसद में पेश ताजा ऑंकड़ों के अनुसार देश के कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिकों में लगभग 57 प्रतिशत लोग कृषि में ही समायोजित हैं ! स्थिति यह है कि देश में इस वक्त कोई किसान आयोग ही नहीं है। कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाँधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। भारतीय कृषि सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन योजना भर नहीं बल्कि एक समृध्द परम्परा रही है। इसे सामूहिक खेती के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता। राष्ट्र की सामाजिक समरसता इससे बनती है। आज भी देश के गाँवों में जाकर इस संस्कृति को देखा जा सकता है। ( Published in Humsamvet Features on 14 March 2011, humsamvet.org.in )
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment