Friday, January 16, 2015

कर्जमाफी से ही नहीं सुधरेंगे हालात -- सुनील अमर

केंद्र सरकार की हालिया किसान ऋणमाफी घोषणा के बीच भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ऐसी योजनाओं पर गंभीर सवाल उठाते हुए इसे निष्प्रभावी करार देते हुए कहा है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गहराई से अध्ययन की जरूरत है। बीते दिनों उदयपुर में आयोजित भारतीय आर्थिक संघ के सम्मेलन में उन्होंने कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि किसानों के कर्ज बोझ की स्थिति से कैसे निपटा जा सकता है और इसके लिए ऋणमाफी के अलावा और कौन-कौन से विकल्प हो सकते हैं। ध्यान रहे कि केन्द्र सरकार ने कहा था कि ऋणग्रस्त किसानों के लिए कर्जमाफी की योजनाएं बनायी जा रही हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि केन्द्रीय महालेखा परीक्षक की जांच रिपोर्ट में ऐसे तथ्य आए हैं कि ऋणमाफी योजना में बहुत से अपात्र किसानों को लाभ दिया गया जबकि जरूरतमन्द इससे वंचित रह गए। संप्रग-1 सरकार की किसान ऋणमाफी योजना नि:सन्देह जनहितकारी थी और इसने बहुत से किसानों को आत्महत्या के दबाव से मुक्त किया था। इस तथ्य को महज वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर महसूस नहीं किया जा सकता। इसके लिए किसानों के बीच जाकर उनकी आर्थिक, पारिवारिक व सामाजिक स्थितियों को समझना जरूरी है। यह और बात है कि देश में लागू होने वाली प्रत्येक योजना की तरह इसमें भी बाबूशाही और कमीशनखोरी जैसे भ्रष्टाचार व्याप्त हुए और रिजर्व बैंक के गवर्नर को इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाने का मौका मिला। 65,000 करोड़ रुपये की इस योजना को देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी के उद्धार के लिए लागू किया गया था। इसका लाभ लेने वाला तबका गरीब और दबा-कुचला था इसलिए भ्रष्टाचारियों द्वारा उसका बड़े पैमाने पर शोषण किया गया। देश में कल-कारखानों से लेकर हवाईजहाज कंपनी चलाने वाले उद्योगपतियों तक को कर्जमुक्त करने के लिए अरबों करोड़ रुपये की राहत और छूट दी जाती रही है लेकिन इस पर रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर ने न उंगली उठायी और न उसे अप्रासंगिक बताया। सब जानते हैं कि देश की सार्वजनिक वितरण पण्राली आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। जाहिर है, इसे रघुराम राजन भी जानते होंगे लेकिन क्या तंत्र के कमजोर होने से ऐसी जनहितकारी योजनाओं को बंद किया जा सकता है? आवश्यकता तंत्र के सुधार की है। किसान ऋण माफी में जिन खामियों की तरफ इशारा किया है, उसका सर्वाधिक दारोमदार उन बैंकों पर है जो रिजर्व बैंक के अधीन चलते हैं। उन्हें पहले बैंकों के परिमार्जन का उपाय करना चाहिए। यह बात सही है कि कर्जमाफी को स्थायी उपाय या किसानों की हालत सुधारने की योजना नहीं कहा जा सकता। सही उपाय यही हो सकता है कि ऐसे हालत बनाए जाएं कि कर्जदार व्यक्ति अपनी कमाई से कर्ज की वापसी कर सके। कर्ज की वापसी तभी संभव होती है जब कर्जदार को कामधंधे में इतना लाभ हो कि उसकी पारिवारिक जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसा न होने पर कर्जदार कर्ज के पैसे को अपनी जरूरतों पर खर्च कर डालता है। यही नहीं, कभी-कभी योजनाबद्ध तरीके से किया गया उद्यम भी प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाता है जैसा प्राय: किसानों के साथ होता है। व्यापार में तो ऐसे मामलों को बीमा कराकर संरक्षित किया जाता है लेकिन अफसोस, देश में फसल बीमा योजना दशकों से लागू होने के बाद भी जमीन पर नहीं उतर सकी है। बैंक किसानों को कर्ज देते समय जानवरों आदि के मामलों में पशुधन बीमा जरूर कराते हैं लेकिन इस योजना में जटिलता के कारण अपढ़ और सामथ्र्यहीन किसान इसका भी लाभ नहीं ले पाते। मूल प्रश्न है कि कृषि को आपदाओं से संरक्षित और लाभदायक कैसे बनाया जाए ताकि किसान बैंकों से लिए गए ऋण को वापस कर सकें। ऐसा करने के लिए दो बातें परम आवश्यक हैं- एक कृषि उपज के लिए देश में मौजूद महंगाई के समानान्तर लाभकारी विक्रय मूल्य तय हों- दूसरे, उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए व्यापक बीमा सुविधाएं दी जाएं। यह विडम्बना ही है कि किसान को अपनी उपज का विक्रय मूल्य स्वयं तय करने का भी अधिकार नहीं है। यह काम सरकारें करती हैं। किसान अपनी उपज को मनचाही जगह भी ले जाकर नहीं बेच सकता है। केन्द्र और राज्य सरकारें प्राय: रबी व खरीफ की फसल बोने से पहले उसका समर्थन मूल्य घोषित करती हैं। इसमें कभी भी दोतीन प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं की जाती बल्कि कई बार पिछले साल के मूल्य पर ही खरीद करती है जबकि इस दौरान देश में महंगाई कई गुना बढ़ चुकी होती है। उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों के साथ यही हो रहा है। वहां सरकार ने इस साल गन्ना क्रय मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की। किसानों ने महंगाई के कारण कृषि लागत बढ़ने का हवाला दिया लेकिन सरकार चीनी मिल मालिकों के दबाव के आगे झुक गई। इस प्रश्न पर रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी विचार करना चाहिए कि सरकार अपने कर्मचारियों को तो हर साल महंगाई भत्ता बढ़ाकर देती है जिससे वे बाजार में हुई कीमत वृद्धि को झेल लेते हैं लेकिन यही रवैया वह किसानों के लिए समर्थन मूल्य घोषित करने में क्यों नहीं अपनाती? रिजर्व बैंक को इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि देश के किसानों से जो अनाज सरकार एक हजार रुपये प्रति कुंतल में भी नहीं खरीदना चाहती उसी को विदेशों से ढाई हजार रुपये प्रति कुंतल के हिसाब से कैसे खरीद लेती है? सरकारें किसानों को समर्थन मूल्य और कर्जमाफी की बैसाखी लगा अपाहिज बनाए रखना चाहती हैं। कृषि आज भी देश का सबसे बड़ा क्षेत्र है और सबसे ज्यादा लोग इसी पर निर्भर हैं, इसके बावजूद इसे न उद्योग घोषित किया गया है और न उद्योगों जैसी सरकारी संरक्षा दी गई है। इसका एकमात्र कारण जान-बूझकर इसकी उपेक्षा करना है। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि देश का सहकारी क्षेत्र का उर्वरक कारखाना इफको की सहकारी समितियों से उर्वरक खरीदने पर सदस्य किसान को बीमा की संरक्षा अपने आप प्राप्त हो जाती है। उर्वरक खरीद कर घर जा रहे किसान की यदि रास्ते में दुर्घटनावश मौत हो जाती है तो उसके आश्रितों को बीमा राशि मिल जाती है। यह योजना सफलतापूर्वक चल रही है। सवाल है कि ऐसे ही प्राकृतिक आपदा या अचानक बाजारभाव गिरने से नुकसान पर किसानों को बीमित फसल का लाभ क्यों नहीं मिलता है? केन्द्र की सत्ता में आने से पहले चुनावी सभाओं में तथा सत्ता में आने के बाद भी भाजपा नेताओं ने किसानों को उनकी उपज को ड्योढ़े दाम पर बिकवाने की बात की थी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी यही बात की थी। सरकार अगर इतना भी कर दे तो किसान राहत की सांस ले सकेंगें लेकिन अभी कुछ होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में गवर्नर रामन को जानना चाहिए कि या तो बीमार को बालानशीं बनाइए या फिर उसे बैसाखी लगाइए। अफसोस कि देश में वोट की राजनीति के चलते सरकारें बैसाखी लगा वोट खरीदना ही फायदेमंद समझती रही हैं। 0 0  ( Rashtriya Sahara 16 January 2015)जनवरी 16, 2015,शुक्रवार

Rashtaya Sahara      ज नवरी 16, 2015,शुक्रवार




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