Wednesday, February 25, 2015

किसानों को मदद चाहिए, मधुर बोल नहीं ---सुनील अमर

बीते साल अक्तूबर में महाराष्ट्र के विदर्भ में एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने कहा था कि एक किसान सरकार से सिर्फ पानी माॅगता है और बदले में वह मिट्टी से सोना पैदा करने की क्षमता रखता है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो किसान पूरे देश को सन्तरे का जूस मुहैया करा रहा है वह खुद जहर पीने को विवश है! केन्द्र की भाजपा सरकार के अपने आॅंकड़े बताते हैं कि पहले 100 दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त 4600 किसान आत्महत्या कर चुके थे। यह सही है कि देश में किसान बीते कई वर्षों से आत्महत्या की राह पकड़े हुए हैं लेकिन सवाल यह है कि क्रिकेट मैच के दौरान 16 बार ट्वीट करने वाले प्रधानमन्त्री मोदी इस राष्ट्रीय त्रासदी पर क्या एक बार भी ट्वीट नहीं कर सकते थे?
विदर्भ के बारे में वरिष्ठ कृषि पत्रकार पी. साईंनाथ जो कहते हैं कि यह जगह किसानों के लिए ठीक नहीं है। वास्तव मंे उनका यही कथन पूरे देश के किसानों पर लागू हो रहा है। खेती वैसे भी प्रकृति के सहारे होने वाला कार्य है और इस लिहाज से बेहद अनिश्चित हालत रहती है। ऐसे में इसे पूर्णरुप से सरकारी संरक्षण मिलना ही चाहिए। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से आज तक सभी सरकारों ने किसानों की बदहाली और खाद्यान्न की कमी का रोना तो रोया लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसान अपनी बदहाली से उबर सकें। इस प्रकरण में सबसे कडुवा मजाक तो प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमन्त्री ने किया है। प्रधानमन्त्री ने उक्त बयान दिया तो हरियाणा के हालिया विधानसभा चुनाव की एक रैली में केन्द्रीय गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि देश के किसानों को प्रति कुन्तल पैदावार पर रु. 150 का मुनाफा जरुर मिले। हम सभी जानते हैं कि आज भी देश के प्रत्येक हिस्से में कर्ज से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और अपनी उपज बिचैलियों को बेचने को विवश हैं। इस स्थिति में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ है और अब महाराष्ट्र से भाजपा के एक विधायक कह रहे हैं कि किसान मर रहे हैं तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि अब खेती वही किसान करेंगें जो खेती करने के लायक हैं। उनका इशारा साफ है कि छोटे और आर्थिक रुप से कमजोर किसान खेती छोड़कर मजदूरी करें और उनकी खेती बड़ी कम्पनियों को लीज पर दे दी जाय। सम्प्रग सरकार के समय से ही इस दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
सरकार की तरफ से किसानों को दी जाने वाली सहायता में उर्वरक सब्सिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग 73,000 करोड़ रुपये थी लेकिन इसमें दो बातों को प्रमुख रुप से समझ लेना चाहिए कि बाजार में मुक्त रुप से बिकने वाली अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है, उसका किसान होना जरुरी नहीं और दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तन्त्र का बहुत बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरुरत के समय किसानों को यही उर्वरक कालाबाजार में खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार को खरीदने की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान ही उठा पाते हैं। संप्रग सरकार द्वारा 65,000 करोड़ रुपये का जो कृषि ऋण माफ किया गया था उससे किसानों का ही नहीं बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ था। इसलिए जरुरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए। यह साफ है कि किसानों के नाम पर दी जा रही छूट कहीं और पहुॅंच रही है और उनकी दयनीय स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।
किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा सा जवाब है कि उसे उसके उत्पादन की लाभदायक कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम तरह की राहत के अलावा निर्यात सब्सिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात के मद मंे सरकार ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान मिलों को दिया था। अभी बीते सप्ताह केन्द्रीय खाद्य और आपूर्ति मन्त्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को 14 लाख टन चीनी पर निर्यात सब्सिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसकी सोच और प्राथमिकता को दर्शाते हैं। सरकार सब्सिडी की खाद और बीज क्यों देती है? क्योंकि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मन्त्री और आज के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के विभागों ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने पर बाजार में मॅहगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगें ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें! क्या इस दृष्टिकोण को बदले बिना किसानों का भला किया जा सकता है? उर्वरक सब्सिडी पर खर्च किए जा रहे अन्धाधुन्ध रकम को संयोजित करके किसानों की उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं दिया जा सकता। सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का प्रलोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फॅंस जाता है क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबन्धन करना आता ही नहीं। दुःखद तो यह है कि किसानों को खेती के अलावा कुछ और करने को सिखाया, बताया और कराया ही नहीं जाता। पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने एक महत्त्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाऐं की कल्पना की थी। यह योजना अगर ठीक से लागू की जाय तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले बल्कि वे अपने खाली समय में कुटीर-धन्धों से सम्बन्धित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। इसे आधी-अधूरी संप्रग सरकार ने कुछ जिलों में लागू भी किया था लेकिन असल में यह कोमा में ही पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या फसल बीमा को अनिवार्य रुप से लागू नहीं किया जा सकता? खासकर फसली ऋण के मामलों में? क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का प्रत्येक लघु और सीमान्त किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमा से आच्छादित हो? आखिर इसी देश में लाॅंच किए जाने वाले उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं। 
Link -- 
http://www.jansandeshtimes.in/index.php…    ( 23 Feb 2015)

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