Wednesday, February 25, 2015

क्षतिपूर्ति अभियान में लगे भाजपा और संघ —सुनील अमर

दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली शर्मनाक हार के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसके संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होश में आ गए लगते हैं और पिछले नौ महीनों से उनपर छाई लोकसभा जीत की खुमारी जरा उतरती दिख रही है। असल में भाजपा और उसके सह-संगठनों पर लोकसभा चुनाव की जीत का उतना ज्यादा असर शायद न भी होता लेकिन उसके बाद हुए राज्यों के चुनाव में मिली सफलता ने उन्हें उन्मादित कर दिया। कहना चाहिए कि संघ भी उन्माद में आ गया था लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी जैसे एक नवसिखुआ और सिर्फ दिल्ली में सिमटे राजनीतिक दल के हाथों हुई भाजपा की अभूतपूर्व दुर्गति ने संघ को भी होश में ला दिया है और अब वह इस क्षति की भरपाई में लग गया है। संघ ने न सिर्फ अपने मुखपत्रों बल्कि मौखिक रुप से भी भाजपा और सह-संगठनों को चेताया है तथा समझा जाता है कि संघ प्रमुख ने मोदी को भी सुधर जाने की चेतावनी दी है। असल में भाजपा को अभी तक सिर्फ काॅग्रेस से ही लड़ने की आदत थी जो इधर राजनीतिक हालातों से कम लेकिन अपने शीर्ष नेतृत्व की हताशा और निष्क्रियता के कारण ज्यादा संकट में है। आम आदमी पार्टी के रुप में भाजपा को एक नये प्रकार की चुनौती मिली और इस चुनौती को भी उसके नेता और प्रधानमन्त्री मोदी ने वैसे ही बड़बोलेपन, हुल्लड़बाजी और सस्ते शब्दों से फिकरे कस कर जीतने की कोशिश की जैसा कि वे अबतक करते आ रहे थे। दिल्लीवासियों को उन्होने यह कहकर भी अप्रत्यक्ष रुप से चिढ़ाया कि जो सारा देश सोचता है, वही दिल्लीवासी भी सोचते हैं, जबकि अब तक प्रायः यह कहा जाता था कि दिल्ली का सन्देश देश भर में जाता है।
क्षतिपूर्ति की दिशा में पहला काम किया है प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने। बीती 17 फरवरी को दिल्ली में ईसाइयों की एक सभा में उन्होंने घोषणा की कि उनकी सरकार किसी भी धार्मिक समूह को नफरत फैलाने की इजाजत नहीं देगी और किसी भी तरह की धार्मिक हिन्सा के खिलाफ सख्ती से कार्यवाही करेगी। ध्यान रहे कि बीते दिनों पाॅच गिरजाघरों और दिल्ली के एक ईसाई स्कूल पर हमला किया गया था जिस पर विपक्षी दलों और बहुुत से ईसाई समूहों ने केन्द्र सरकार पर आॅंख मॅूदने का आरोप लगाया था। भारत यात्रा पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यात्रा के आखिरी दिन दिल्ली में तथा वापस अमेरिका जाकर वहाॅं की एक सामूहिक प्रार्थना सभा में आरोप लगाया था कि भारत में हाल के दिनों में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है तथा यह देश तभी विकास कर पाएगा जब साम्प्रदायिक सद्भाव बना रहेगा। मामला तब और गर्म हो गया जब एक समय में मोदी के प्रशंसक रहे अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने भी ओबामा जैसी ही सख्त टिप्पणी कर मोदी से उनकी इस मसले पर सतत चुप्पी का कारण पूछा। बराक ओबामा के बयान को मोदी सरकार के कार्यकाल में हो रहे अल्पसंख्यकों पर हमले तथा जबरन धर्म परिवर्तन के मसलों पर सख्त टिप्पणी माना गया था और सरकार ने तिलमिला कर इसका प्रतिरोध भी किया था लेकिन जब ऐसी ही सख्त सलाह भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी दिया तो प्रधानमन्त्री मोदी के लिए किसी उचित मन्च से इसका क्रियान्वयन जरुरी हो गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के बुरी तरह साफ हो जाने से हतप्रभ संघ ने कई सवाल उठाए हैं। यह सभी जानते हैं कि डाॅक्टर हर्षवर्धन जैसे साफ-सुथरे चरित्र वाले नेता की मोदी ने दुर्गति ही कर दी। पहले तो उन्हें केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से ही चलता कर दिया जबकि श्री हर्षवर्धन एक चिकित्सक होने के नाते अपने विभाग में प्रशंसनीय कार्य कर रहे थे तथा उनके पास जनहित की कई शानदार योजनाऐं थीं लेकिन उनका क्रियान्वयन होने से दवा तथा सिगरेट बनाने वाली कम्पनियों को नुकसान होना तय था तो उन्हें हटाकर श्री मोदी ने एक महत्त्वहीन विभाग में कर दिया। दिल्ली में पिछले चुनाव से ही श्री हर्षवर्धन भाजपा की तरफ से मुख्यमन्त्री पद के दावेदार थे लेकिन ऐन मौके पर मोदी-शाह की जोड़ी ने किरण बेदी को पार्टी पर थोप दिया। संघ ने अपने मुखपत्र मंे पूछा है कि क्या भाजपा को अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं था?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा का सफाया हुआ है उससे इस तर्क पर विश्वास करना कठिन है कि श्रीमती बेदी की जगह भाजपा या संघ कैडर का कोई नेता होता तो भाजपा ज्यादा सीटें निकाल ले जाती। हो सकता है कि संघ ने हताश कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए बेदी के चयन को हार का कारण बताया हो लेकिन सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से लगातार मोदी ने दोमुॅहापन का परिचय दिया और मर्यादाओं की धज्जियाॅं उड़ाने वाला ऐसा आचरण किया कि मानों वे एक लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री नहीं बल्कि पाकिस्तान सरीखे किसी देश के तख्तापलट तानाशाह हों। दिल्ली के चुनाव में अगर वे गली-गली भाषण करने को कूद न पड़े होते और वे इसे स्थानीय नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिए होते तो मतदाता शायद भाजपा पर कुछ और भरोसा दिखाते भी लेकिन दो-चार परिस्थितिजन्य चुनावी सफलताओं ने मोदी को ऐसे दर्प और अहंकार से भर दिया था कि वे अपने-आप को हर मर्ज की दवा समझने की भूल कर बैठे थे। मोदी और भाजपा-संघ के कारकुनों की कैसी मनःस्थिति थी इसका एक कार्टून में गज़ब का चित्रण किया गया था जिसमें एक तरफ मोदी सरकारी रेडियो पर ‘मन की बात’ कर रहे हैं तो बगल में खडे़ कुछ त्रिशूल-चिमटाधारी कह रहे हैं कि आप अपने मन की कर रहे हैं तो हमें भी अपने मन की करने दीजिए न! इस प्रवृत्ति का प्रतिकार तो होना ही था। दिल्ली की हार ने भाजपा को संभलने के लिए ठोकर दी है। कल्पना कीजिए कि भाजपा अगर दिल्ली चुनाव में इज्जत बचाने भर को भी सीटें पा जाती तो आज बिहार में क्या हुआ होता? क्या तब भी भाजपा वहाॅं इतने ही धैर्य से बैठी होती? क्या तब भी भाजपा इतने ही नर्म स्वर में जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से सरकार बनाने की बातचीत कर रही होती?
वर्ष 2014 के आम चुनाव में मोदी का अंधाधुन्ध विज्ञापनी प्रयोग काठ की हाॅड़ी सरीखा था जिसे बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता, इसे दिल्ली ने दिखा दिया। तो अब दूसरा रास्ता खोजना ही होगा। यह दूसरा रास्ता भी तभी कारगर होगा जब उस पर चलने को मतदाता भरोसा कर सकें। 2014 में जिस मोदी पर उन्होंने भरोसा किया था वह तो हवा-हवाई निकला। आम लोगों के लिए सिर्फ बातें-बातें-बातें और दुर्दशा तो खास लोगों के लिए देश का पूरा ख़जाना। ऐसे तो लोग दुबारा झाॅंसे में आऐंगें नहीं। तो अब भाजपा और उसके आइकन मोदी को धोने-पोंछने की तैयारी है। जिस नौलखे सूट को ओबामा के आने पर उन्होंने बड़े दर्प से पहना था, उसे नीलाम कर देना पड़ा है ताकि उस पैसे से थोड़ा भरोसा खरीदा जा सके। बहरहाल यह जाॅंच का विषय होना चाहिए कि किसके कहने पर ऐसा सूट मोदी ने बनवाया और किसके कहने पर उसे नीलाम कर दिया! अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जरा रोक दिया गया है, घर वापसी भाजपा को ही रिवर्स गियर में लेकर चली गयी है, स्त्रियों से दस बच्चे पैदा कर उन्हें विहिप व संघ को सौंप देने के आहवान का जो विकट विरोध स्त्री समाज द्वारा हुआ उससे आतंकित संघ प्रमुख ने खुद ही अब इस पर सख्ती कर दी है। यह तो भयभीत समूहों की शुरुआत है। इन्तजार तो अगले कदमों का है। (http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=1694)

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