Tuesday, February 26, 2013

स्त्री-पुरुष समानता की कीमत क्या होगी ? --- सुनील अमर

 दो घटनाओं से बात शुरु करना चाहूँगा। दोनों 40 साल से ज्यादा ही पुरानी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में कहीं-कहीं एक बेहद गरीब जाति निवास करती है,जिसे वहॉ की स्थानीय बोली में वनराजा या वनमंशा कहा जाता है। ये कद-काठी, चाल-ढ़ाल, रहन-सहन तथा बोली आदि में आदिवासी सरीखे होते हैं,आबादी से काफी दूर बाग या इसी तरह के स्थान पर झोपड़ी डालकर रहते हैं,दोना-पत्तल बनाना इनका पुश्तैनी काम है। इसी वनराजा समुदाय की एक 35-40 वर्षीया स्त्री अपने पति के साथ एक दिन गॉव के एक संभ्रांत व्यक्ति के यहॉ आई और कहा कि ''बाबू, हम दोनों की 'खपड़कुच्ची' करवा दो।'' बाबू भी खपड़कुच्ची का मतलब नहीं जानते थे, सो उसी से पूछा कि यह क्या होता है?इस पर उस औरत ने कहा अब हमारी अपने मर्द के साथ और नहीं पट रही है, इसलिए हम 'बियाह' तोड़ना चाहते हैं। उसने आगे बताया कि खपरैल वाली छत में लगने वाला 'खपड़ा' जमीन पर रखकर पति-पत्नी दोनों अपने पैर से मार-मारकर तोड़ देंगें तो रिश्ता टूटा मान लिया जाएगा यानी कि तलाक हो जाएगा और यह काम समाज के किसी बडे अादमी के सामने होना चाहिए।

              इस पर बाबू ने जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई है? तब उस औरत ने कहा कि दिन भर काम हम करें, खाना हम बनायें, घर हम संभालें, सोते समय इसका पैर भी हम दबाऐं और यह दिन भर महुआ की शराब उतारे और उसे पीकर हमारी पिटाई करे। अब हम इसके साथ किसी भी सूरत में नहीं रहेंगे। हालांकि उसके पति ने उससे सुलह करने की काफी कोशिश की लेकिन उस औरत ने उसी वक्त 'खपड़कुच्ची' कर ली! कुछ समय पश्चात वह एक दूसरा पति ले आई और उसी गॉव में अलग छप्पर डाल कर रहने लगी!
              दूसरा वाक्या इससे जरा हट कर है। उप्र में एक महिला शिक्षाधिकारी हुआ करती थीं। पढ़ाई-लिखाई और फिर नौकरी की कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि उम्र के 35-40साल निकल गये और वे शादी नहीं कर पाईं। बाद में उन्हें अपने पद और अपनी उम्र के माफिक कोई जॅचा ही नही। लेकिन शरीर की भी एक भूख होती है। पद और सामाजिक मर्यादा यहॉ भी इतना ज्यादा आड़े आती है कि इस भूख को आम आदमी की तरह मिटाना संभव नहीं दिखता। सो धीरे-धीरे उन्होंने अपने चपरासी, जो कि उनके घरेलू नौकर की भी तरह काम करता था, से ही इस भूख को शांत करना शुरु किया और एक दिन उन्हें उससे एक बच्चा भी हुआ। शिक्षाधिकारी ने तय किया कि वे उससे बाकायदा शादी कर लेंगी। इस कार्य में उस व्यक्ति का चपरासी का पद आड़े आ रहा था, सो उन्होंने उसकी नौकरी छुड़वा कर उसे कोई व्यवसाय शुरु करा दिया।
                इन दोनों घटनाओं का ज़िक्र यहाँ विवाह नामक संस्था के प्रसंग में है। ये घटनाऐं लगभग र्आशती पुरानी और समाज के दो सर्वथा विपरीत वर्ग से हैं। दोनों में सम्बनित स्त्रियों ने अपनी खुदमुख्तारी दिखाई, अपने पुरुषों का अपने हिसाब से इस्तेमाल किया और अपने जीवन की दिशा तय की। आज टूटते वैवाहिक सम्बन, अदालतों में बढ़ते तलाक के मामले और इन सबसे  निजात पाने के लिए प्रचलन में आ रहा 'लिव इन रिलेशन', इन सब के पीछे वजह या यो कहें कि डर, सिर्फ यह है कि साथ रह रहे स्त्री-पुरुष में से 'पत्नी' कौन बने? यह तो निश्चित है कि दोनों में से किसी एक के पत्नी बने बगैर तो विवाह नामक संस्था की गाड़ी दूर तक चलनी नहीं है। अब समानता के मुद्दे को लें। समाज के अर्थ-केन्द्रित होते जाने और वैश्वीकरण की परिघटना ने जिन सामाजिक संस्थाओं को सर्वाधिक क्षति पहॅुंचाई, उनमें सर्व प्रमुख हैं- परिवार और विवाह। इन दोनों पर इन दिनों मॅडराते खतरे को देखकर अब इनके बचे रहने पर ही संशय हो रहा है! समाज में धन के निर्णायक तत्त्व हो जाने के कारण सभी गुण और आदर्श अब गौण हो गये हैं। इस क्रम में ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की होड़ ने पुरुषों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे अपनी स्त्रियों को भी धन कमाने के लिए मैदान में उतारें। धन कमाने के लिए योग्यता जरुरी थी और योग्यता के लिए पढ़ाई। पढ़ाई ने सिर्फ योग्यता ही नहीं दी, बुद्धि, विवेक और जागरुकता भी दी, और यही तीनों चीजें हैं जिनसे पुरुष हमेशा ही स्त्री को सप्रयास दूर रखता आया था।  यहॉ देखने वाली बात यह है कि जिस भी समाज में स्त्री अपने पुरुष के मुकाबले आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर हुई, वहॉ प्राय: दो ही बातें हुईं-या तो उसका पुरुष उसके साथ पत्नी बनकर रहा या फिर छुटकारा! कई जगह तो इसका ऐसा दिलचस्प नजारा देखने को मिल रहा है कि वहॉ पुरुष अपनी स्त्री की पत्नी बना हुआ है! मसलन, जिन्हें खुद नौकरी नहीं मिली लेकिन जिनकी पत्नियों को नौकरी मिल गई, वे घर सँभालने लगे, पत्नियों को सायकिल या मोटरसायकिल पर बैठा कर उनके कार्यस्थल तक रोज लाने-ले जाने लगे और बच्चे भी संभाले। लेकिन जहॉ यह नहीं हुआ, चाहे पुरुष के भी कमाऊ होने के कारण या उसके अन्दर एक मर्द का दंभ होने के कारण, वहॉ टकराव हुआ। तो क्या यह माना जाय कि परिवार और विवाह नामक संस्थाऐं निष्प्रयोज्य हो रही हैं? और क्या इन संस्थाओं को बचा कर रखने के लिए वह कीमत चुकानी जरुरी है जो ये मॉगती हैं? स्त्री का मानसिक अनुकूलन करने के लिए हमारे प्राचीन ग्रंथों ने यह पारिभाषित किया कि परिवार रुपी गाड़ी के लिए पति और पत्नी दो पहिए के समान हैं लेकिन साथ में सारा जोर इस बात पर भी लगाया कि पति ही परमेश्वर है! फिर वो पहिया कैसे हुआ? लिव इन रिलेशनशिप का तो मूलभाव ही अस्थायित्व है, फिर इसमें परिवार की गुंजाइश कहॉ बचती है? और अगर बच्चे पैदा हुए, तो अलगाव के बाद उनकी परवरिश कौन करे?
                   तो क्या स्त्री-पुरुष समानता की कीमत हम परिवार को खत्म करके चुकायेंगे? कैरियर और रिलेशन, इन दो तत्त्वों ने आज के युवा को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। कहना न होगा वह अब समाज के प्रति अपने दायित्वों को ही नकारने लगा है। संतान को जन्म दिये बगैर स्त्री-पुरुष का सम्बन बनाकर रखना क्या समाज और प्रकृति के प्रति अपराध नहीं है? समूची सृष्टि में ऐसा उदाहरण क्या और किसी जीव या वनस्पति में मिल सकता है? बहरहाल आज जहाँ हम आ चुके हैं, वहॉ से पीछे हटना तो मुमकिन नहीं। इसी के साथ यह भी मुमकिन नहीं कि स्त्री को माँ का लबादा ओढ़ाकर उसे ही बच्चे की समस्त जिम्मेदारियों का नैसर्गिक वाहक माना जाय। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसे युगलों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कैसे किया जाय?स्पष्ट है कि राष्ट्र को ही आगे आकर यह जिम्मेदारी लेनी होगी। जो युगल बच्चे पैदा करने के बाद भी उनका पालन-पोषण न करना चाहें,उन्हें राष्ट्र पाले। अपने देश में अभी ऐसे युगलों की यह प्रवृत्ति खतरनाक चेतावनी के स्तर पर नहीं पहुँची है लेकिन शुरुआत हो चुकी है। स्त्री-पुरुष समानता आवश्यक है और साथ ही साथ परिवार भी लेकिन यह तभी मुमकिन है जब पैदा हुए बच्चे की जिम्मेदारी के मामले में माँ भी उतनी ही स्वतंत्र हो जितना कि पिता। देश की भावी माताओं को यह गारंटी राष्ट्र से मिलनी ही चाहिए।

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