Tuesday, February 26, 2013

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

बैंकों की उपेक्षा के शिकार छोटे किसान

                  देश के छोटे किसानों की आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है, ऐसा एक ताजा सरकारी रपट में बताया गया है। सरकार द्वारा इस सिलसिले में किये जा रहे प्रयत्नों को राष्ट्रीयकृत बैंकों की वजह से वांछित सफलता नहीं मिल रही है और छोटे किसान मजबूरी में साहूकारों और सूदखोरों के चंगुल में फॅंस रहे हैं। यही वजह है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का दु:खद सिलसिला थम नहीं रहा है। देश में सबसे खराब स्थिति महाराष्ट्र की है जहॉ गत माह विधानमंडल में सरकार ने स्वीकार किया कि औसत चार किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं। कहने की जरुरत नहीं कि ये सब छोटे किसान ही होते हैं। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की ताजा रपट बताती है कि देश में महज छह प्रतिशत छोटे किसान ही बैंकों से ऋण पा रहे हैं बाकी 94 प्रतिशत अपनी कृषि सम्बन्धी जरुरतों के लिए सूदखोरों के रहमो-करम पर हैं। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में सूदखोरी और साहूकारी का धंधा इधर काफी तेजी से बढ़ रहा है।
                  कृषि योग्य जमीन के लगातार बॅटवारे तथा अन्यान्य सरकारी जरुरतों के लिए किये जा रहे भूमि अधिग्रहण के चलते लघु व सीमांत किसानों की संख्या बढ़ रही है। यह दोहरे ढॅंग़ से इसलिए खतरनाक है कि जोत घटने के साथ इस पर पारिवारिक निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने ताजा रपट में बताया है कि देश में 80 प्रतिशत लघु व सीमांत किसान हैं और नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रपट बताती है कि इस 80 प्रतिशत में से महज 06 प्रतिशत को ही बैंकों से कृषि ऋण मिल पा रहा है। यह एक भयावह सच्चाई है। इस सच्चाई को यह तथ्य और संगीन बना देता है कि केन्द्र सरकार द्वारा जो भारी भरकम राशि किसान ऋण माफी के लिए दी जाती है उसका वास्तविक हश्र क्या होता होगा। वह किन तथाकथित किसानों के पास पहॅुच जाती होगी!
                केन्द्र सरकार व भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देश हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंक अपनी सकल ऋण राशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्यो के लिए दें। असल में ऐसी निगरानी करने की व्यवस्था है ही नही कि बैंक इस 18 प्रतिशत राशि में से लघु व सीमांत किसानों को कितना देते हैं। हो यह रहा है कि इसमें से अधिकांश धानराशि बड़े किसान, कृषि फार्म वाले, बीज उत्पादन में लगी बड़ी कम्पनियॉ, कृषि यंत्र बनाने वाले उद्यमी तथा चाय बागान और फलों के बगीचे वाले असरदार लोग ले जाते हैं। बैंक सिर्फ यह दिखा देते हैं कि उन्होंने सकल ऋणराशि का 18 प्रतिशत कृषि कार्य हेतु वितरित कर दिया है। अगर यह जॉच ही कर ली जाय कि क्षेत्रवार उन्होंने कितना कृषि ऋण वितरित किया तो भी साफ हो जाय कि बैंक क्या खेल कर रहे हैं। गत वर्ष सूचना के अधिकार के तहत मॉगी गयी एक जानकारी में देश के एक बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक ने बताया था कि उसने 75 प्रतिशत से अधिक कृषि ऋण सिर्फ मुम्बई की शाखाओं से ही बॉट दिया था! कारण साफ है कि मुम्बई में ही तमाम बड़ी-बड़ी बीज उत्पादक कम्पनियों व कृषि उपकरण निर्माताओं के कार्यालय हैं। कृषि उपकरणों का गोरखधंधा भी काफी बड़ा है। कृषि के नाम पर बनने वाले तमाम यंत्र और उपकरण का प्रयोग अन्यान्य कार्यो व उद्यमों में होता है, वैसे ही जैसे कृषि के लिए दी जा रही भारी छूट वाली उर्वरक और डीजल का लाभ ज्यादातर दूसरे लोग ही उठा रहे हैं। बीते पॉच वर्षों में केन्द्र सरकार ने कृषि ऋण पर दी जाने वाली धनराशि को ढ़ाई गुना से भी अधिक बढ़ा दिया है लेकिन हालात बताते हैं कि देश के किसानों की हालात में वांछित सुधार नहीं आ पा रहा है। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र और उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका इसका उदाहरण है।
                ध्यान रहे कि सरकार किसान क्रेडिट कार्ड की मार्फत दिए जाने वाले ऋण पर सिर्फ सात प्रतिशत ब्याज लेती है तथा समय से ऋण चुकाने वाले किसानों को एक से दो प्रतिशत व्याज दर की छूट भी देती है, जबकि अन्य कृषि ऋण 11 से 16 प्रतिशत की ब्याज दर पर हैं। दूसरे, कृषि ऋणों की वसूली में ज्यादा सख्ती न किये जाने की हिदायत भी सरकारें देती रहती हैं। यही कारण है कि बड़े किसान और तथाकथित उद्यमी इस सरकारी रियायत को झटक लेते हैं। छोटे किसानों को अपनी जरुरतों के लिए मजबूरी में सूदखोरों के पास जाना पड़ता है जो अंतत: या तो उनकी जमीन हड़प लेते हैं या पैसा वसूलने के लिए उन्हें तमाम तरह से उत्पीड़ित करते हैं। ऐसे साहूकारों या सूदखोरों को वित्तीय तकनीकी भाषा में 'शैडो बैंकिंग' कहा जाता है। यानी छद्म बैंकिंग। स्विटजरलैंड स्थिति अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था 'फायनेन्सियल स्टैब्लिटी बोर्ड की ताजा रपट बताती है कि भारत में ऐसी शैडो बैंकिंग बहुत तेजी से फैल रही है और सरकार को इस पर रोक लगानी चाहिए। संस्था का ऑकलन है कि यह 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है और देश में इसका कारोबार 37 लाख करोड़ से ज्यादा का हो गया है। संस्था का सुझाव है कि नियम कानूनों के अभाव ने शैडो बैंकिग को देश की अर्थव्यस्था के लिये खतरनाक बना दिया है अन्यथा यह बैंकिंग का विकल्प हो सकती है। स्व. अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट ने जो बताया था कि देश में 84 करोड़ 60 लाख लोगों की औसत दैनिक आय रु. 09 से लेकर 19 के बीच में हैं, यह वर्ग अपनी जरुरतों के लिए इन्हीं साहूकारों व सूदखोरों के चंगुल में फॅंसता है।
               लघु व सीमांत किसान खेती में लगे रहें इसका सिर्फ एक उपाय उन्हें सरकारी प्रोत्साहन देना ही है। दुनिया के विकसित देशों में भी खेती सरकारी सहयता पर ही निर्भर है। अमेरिका जैसे देशों में तो किसानों को भारी मदद दी जाती है। भारत का सामाजिक और भौगोलिक ताना-बाना ऐसा है कि यहॉ खेती को सिर्फ बड़े किसानों या सामूहिक खेती के भरोसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। ऐसे में किसानों को प्रोत्साहन और संरक्षण आवश्यक है। अफसोस ये है कि देश में बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्र अभी बैंकों से जुड़े नहीं हैं। 5000 से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने के लिए सरकार के दबाव के बावजूद बैंक इसलिए तैयार नहीं हैं कि इस पर खर्च बहुत आएगा और वहॉ व्यवसाय न के बराबर होगा। श्री प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्रीत्व में बैंकों ने इस पर साफ कह दिया था कि अगर सरकार धन दे तभी बैंक अपनी शाखा खोल सकते हैं। सरकारी दबाव के दबाव के बाद हालात यह है कि बैंकों ने गॉवों में शाखा खोलने के बजाय वहॉ अपने कमीशन एजेंट रख दिये हैं जो प्रकारान्तर से अनपढ़ गॉव वालों का शोषण करने में लगे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है। लघु और सीमान्त किसान अपने उत्पाद के लिए सरकार या बाजार के अच्छे मूल्य समर्थन के बावजूद खुशहाल नहीं हो सकते क्योंकि उनके पास बेचने को ज्यादा कुछ होता ही नहीं। वे खेती में लगे रहें इसके लिए उन्हें सरकारी सहायता चाहिए ही। ऐसे लोगों का खेती से विमुख होना सरकार के खाद्य संरक्षण कार्यक्रम को भारी चुनौती देगा।

No comments:

Post a Comment