Wednesday, July 04, 2012

कई सवाल खड़े करती है माही की मौत -- सुनील अमर




                  दुनिया की दुश्वारियों से नावाकिफ चार साल की मासूम बच्ची माही हरियाणा के मानेसर में उस अंधे कुऐं में गिरकर मर गयी जो किसी और का गुनाह था। उसे बचाने में सेना के जवानों ने हमेशा की तरह प्रशंसनीय कार्य किया लेकिन वह नन्हीं सी जान कुॅऐ में गिरने के बाद ज्यादा देर तक जीवित ही नहीं रही थी जबकि पथरीली जमीन को काटते हुए 80 फुट नीचे उस तक पहॅुचने में सेना के जवानों को 87 घंटे लग गये थे। बोरवेल के ये हादसे नये नहीं हैं और बीते पॉच वर्षों में लगभग डेढ़ दर्जन ऐसे हादसे देश भर में हो चुके हैं। सबसे चर्चित हादसा हरियाणा का ही प्रिंस नामक बच्चे का था। वह भी माही की तरह ऐन अपने जन्म दिन 23 जुलाई 2006 को बोरवेल में गिर पड़ा था लेकिन उसे सेना के जवानों ने 40घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जीवित निकालने में सफलता पाई थी। बाकी मामलों में शायद चार-पाँच बच्चे ही जीवित निकाले जा सके। इसी के साथ यह भी सच है कि इतने हादसों के बावजूद न तो अवैधा बोरवेल (जमीन की खुदाई करके बनाये गए कुँओं) पर लगायी गयी सरकारी रोक प्रभावी हो सकी है और न ही वैध कुँओं को ढ़ॅंक कर रखने के आदेश। इतने बच्चों के काल कवलित हो जाने और इन्हें बचाने में सेना के सैकड़ों जवानों के प्रशंसनीय श्रम व सरकारी धान की बरबादी के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि अब आगे ऐसे हादसे नहीं होंगें क्योंकि पिछले छह वर्षों से ऐसे कुओं की खुदाई पर रोक होने के बाद भी आखिर कुॅए खोदे ही जा रहे हैं! ताजा खबर है कि पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में भी बीते 25 जून को एक बोरवेल में गिरे रोशन अली मंडल नामक किशोर की मौत हो गई है और उसके शव को भी कुॅए से निकाला गया है।
               माही की मौत ने कई सवाल उठाये हैं। सवाल सिर्फ बोरवेल का ही नहीं है। देश में ऐसे तमाम कार्यों पर रोक है जिनसे आम जनता को दिक्कत होती है या वे जन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, लेकिन वे सभी काम उनसे सम्बन्धित अधिकारियों की ऑंखों के सामने सरे-आम हो रहे हैं। केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण ने देश भर में ऐसे 84 स्थानों को चिन्हित व प्रतिबन्धित किया हुआ है जहाँ कुऑं खोदने, बोरिंग करने व जल निकासी के लिए अधिकारियों की अनुमति आवश्यक है। इनमें से 12स्थान सिर्फ हरियाणा में ही हैं। ऐसे स्थानों पर उस मंडल के उपायुक्त की अनुमति के बगैर कुऑ की खुदाई या बोरिंग नहीं की जा सकती। माही की मौत जहाँ हुई है,वह भी ऐसे ही क्षेत्र में आता है लेकिन घटना गवाह है कि किस तरह कानून का मखौल उड़ाकर निरीह बच्चों को काल का ग्रास बनाया जा रहा है। यद्यपि हरियाणा सरकार सिर्फ बीते एक साल में ही 500से अधिक ऐसे अवैध बोरवेल को बंद करा चुकी है तथा आगे की निगरानी और जॉच के लिए 27 निरीक्षण टीमों को तैनात कर रखा है, बावजूद इस सबके हादसे हो ही रहे हैं। वजह साफ है- ऐसे कृत्यों पर गंभीर दंड़ की व्यवस्था अभी तक की ही नहीं गयी है।
              देश में ऐसे बहुत से कानून और न्यायालयों के आदेश हैं जिनका क्रियान्वयन ही नहीं किया जाता क्योंकि हमारी सरकारी मशीनरी या तो काम नहीं करना चाहती या फिर किंही कारणों से वह सम्बन्धित मामलों से ऑखें बंद किये रहती है। बोरवेल के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने 11फरवरी 2010को एक आदेश जारी कर सभी राज्य सरकारों से कहा था कि बोरवेल खोदने वाले को सम्बन्धित अधिकारियों से 15दिन पूर्व ही अनुमति लेनी आवश्यक होगी। कुछ दिन बाद अगस्त 2010 को अदालत ने इसमें संशोधन करते हुए प्राविधान किया था कि अगर बोरवेल का कोई हादसा होता है तो सम्बन्धित जिला मैजिस्ट्रैट को इसके लिए उत्तरदायी माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अब तक घटी ऐसी 19 घटनाओं में एक भी जिला मैजिस्ट्रैट को दंडित नहीं किया गया है। मानेसर में र्हुई ताजा घटना में भी भू-स्वामी की तलाश की जा रही है। यह कितने अचरज की बात है कि हमारा प्रशासन ऐसे कुॅओं को ढॅक़वा तक नहीं सकता! देश में वैसे तो असंख्य कुऐं सूखे या खुले पड़े हैं लेकिन वे उतने खतरनाक नहीं हैं जितने बोरवेल क्योंकि साधारण कुॅऐ काफी चौड़े और बहुत कम गहरे होते हैं और उनमें गिरे व्यक्ति या जानवर को निकालना चंद मिनटों का काम होता है जबकि बोरवेल प्राय: बहुत ही सॅकरे, 2-3 फुट और 100 फुट के करीब गहरे होते हैं। बोरवेल प्राय: वहीं बनाये जाते हैं जहॉ जमीन पथरीली होने के कारण पानी बहुत नीचे होता है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसे हादसे उन्हीं बोरवेल में होते हैं जहॉ बहुत गहरी बोरिंग करने के बावजूद पानी का स्रोत नहीं मिलता और फिर ऐसे बोरवेल को लावारिस छोड़ दिया जाता है! जिन बोरवेल में पानी मिल जाता है, वे खुले नहीं रहते। उनमें टयूब वेल लग जाती है।
                असल में ऐसे कारनामों के लिए सारा दोष प्रशासनिक भ्रष्टाचार का है। पहले तो रिश्वत लेकर बोरवेल खुदने दिया जाता है, बाद में बोरवेल मालिक को ही फॅसाकर अधिकारी अपना गला बचा लेते हैं। देश में, खासकर उत्तर भारत में, एक बहुत खतरनाक शौक प्रचलित है, शादी-विवाह में या अन्य खुशी के मौकों पर बंदूक या पिस्टल से फायरिंग करने का। यह खुशी से ज्यादा ताकत का प्रदर्शन होता है। हर साल सैकड़ों बेगुनाह लोग ऐसी अंधाधुध फायरिंग में अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। सम्पत्ति का नुकसान अलग से होता है। इसे रोकने के लिए राज्य सरकारें तमाम तरह के प्रतिबंध की घोषणा करती हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं होता। बीती एक मई 2012 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक आपराधिक मामले में लाइसेंसी असलाह के दुरुपयोग की सुनवाई करते समय राज्य सरकार को एक महत्तवपूर्ण आदेश दिया कि शादी-विवाह या अन्य खुशी के मौके पर फायरिंग पर तत्काल रोक लगाकर ऐसा करने वालों के विरुध्द आपराधिक मामला दर्ज किया जाय। निचली अदालतें भी इस प्रकार का आदेश पहले दे चुकी हैं लेकिन नतीजा वही है- प्रशासन कुछ करना ही नहीं चाहता।
                 बोरवेल जैसी ही एक और वारदात अक्सर होती है जिसमें हमेशा गरीब लोग मारे जाते हैं और वह है सीवर की सफाई। सभी जानते हैं कि सीवरों में अत्यन्त खतरनाक गैंसें पाई जाती हैं जिनके सम्पर्क में आते ही मनुष्य मर सकता है। पश्चिमी देशों में यह काम मशीनों से होता है। अपने यहॉ भी'' मैनुअल स्कवैन्जर्स एंड काँस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरीन एक्ट 1993'' द्वारा मनुष्य से सीवर साफ कराना अपराध माना गया है लेकिन यह काम जारी है और अभी बीते सप्ताह दिल्ली में सीवर साफ करते एक पिता-पुत्र की एक साथ ही मौत हो गयी है! कानून पता नहीं किस गोदाम में पड़ा हुआ है। यही हाल ध्वनि प्रदूषण का है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट नियम हैं कि दिन और रात के बीच कब से कब तक कितनी तीव्रता का शोर किया जा सकता है और खास आयोजन के लिए सम्बन्धित अधिकारियों से आयोजन की अनुमति लेनी आवश्यक है लेकिन हम सभी रोज देखते हैं कि शादी-विवाह या धार्मिक आयोजनों में सारी-सारी रात थर्रा देने वाली तीव्रता के साथ बैंड बजते रहते हैं और ऐसी जगहों पर रहने वाले हृदय व अवसाद के मरीजों की जान पर बन आती है। ऐसे आपराधिक कृत्यों के जारी रहने की एक वजह हमारे भीतर 'सिविक सेंस' यानी नागरिक चेतना का अभाव भी है। हम बर्दाश्त कर लेते हैं लेकिन एकजुट होकर विरोध या शिकायत नहीं करते।

No comments:

Post a Comment