Wednesday, October 17, 2012

समाचारों के प्रस्तुतिकरण पर प्रश्नचिह्न -- सुनील अमर

माचारों के संकलन और उनके प्रसारण में कितनी आजादी होनी चाहिए, यह विषय दुनिया भर में शुरु से ही अनिर्णीत रहा है। समाचार माध्यमों के जन्म के बाद से ऐसे अनेक अवसर दुनिया भर में आये हैं जब यह महसूस किया गया कि इन माध्यमों ने अपनी हदें लाँघी हैं और उसी के साथ-साथ ऐसी आवाजें भी उठीं कि इन्हें नियंत्रित किया जाना चाहिए। विश्व में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद प्रेस को नियंत्रित किया गया है। अपने देश में भी आपातकाल के अलावा कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं लेकिन अंतत: यही उचित माना गया कि यह अति महत्त्वपूर्ण माध्यम स्व-नियंत्रित रहे और अपनी हदें भी खुद ही निर्धारित करे। यह सब आरोप और मान्यताऐं लम्बे समय से ऐसे ही खुसर-पुसर तरीके से चल रही थीं लेकिन नब्बे के दशक के बाद के सूचना विस्फोट ने तो जैसे सारी सीमा ही तोड़ दी। इस विस्फोट ने जिस इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को जन्म दिया उसने तो 'खुल जा सिम-सिम' के मंत्र को ही जैसे साकार कर दिया! यह सच है कि आज समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता को काबू में करने की जितनी भी मॉगें की जा रही हैं वो तीन चौथाई इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को लेकर ही है। इस माध्यम ने नैतिकता और मर्यादा की सामाजिक मान्यताओं का कुछ ऐसा उल्लंघन किया कि इसकी देखा-देखी प्रिंट मीडिया भी बहक उठा। मुम्बई में ताजमहल होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद एक बार बड़ी शिद्दत से मीडिया की रिपोर्टिंग और उसकी लक्ष्मण रेखा पर चर्चा शुरु हुई। इस प्रकरण पर ताजा दखल दिल्ली उच्च न्यायालय का है।
               बच्चों से जुड़ी मीडिया रिपोर्टिंग के एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने बीते पखवारे न सिर्फ एक दिशा निर्देश जारी किया बल्कि साफ-साफ कहा कि मीडिया को संयम और संतुलन बरतते हुए न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए। मामला यह था कि इसी साल की शुरुआत में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दो साल की एक बालिका भर्ती करायी गई जिसे एम्स के अधिकारियों ने फलक नाम दिया क्योंकि भर्ती के समय बालिका अनाथ थी। उसे गंभीर चोटें आई थीं और बावजूद सारे संभव उपचार के वह तीन महीने बाद हृदयाघात के कारण चल बसी। आशंका थी कि बच्ची की निर्ममता पूर्वक पिटाई की गई थी। लम्बे अरसे तक यह प्रकरण मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा और इसने कई तरह की सामाजिक बहसों को भी जन्म दिया। इस दौरान मीडिया ने फलक के वास्तविक माता-पिता की खोज कर यह भी पता लगाया था कि कैसे वह देह मंडी की उत्पाद बनकर इस गति को पहुँची थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक वकील ने इस सम्बन्ध में वहाँ के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि जिस प्रकार से समाचार माध्यम दो साल की बच्ची फलक के बारे में उसके फोटो और तमाम निजी जानकारियाँ प्रचारित कर रहे हैं, उससे उसकी निजता तथा 'किशोर वय न्याय कानून' यानी जे.जे.एक्ट का उल्लंघन है। न्यायालय ने इसी पत्र पर संज्ञान लेते हुए न सिर्फ मामले की सुनवाई की बल्कि एक कमेटी का गठन भी किया जिसमें बाल न्यायालय बोर्ड के पीठासीन अधिकारी, राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) केन्द्र व दिल्ली सरकार के सम्बन्धित अधिकारी, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और भारतीय प्रेस परिषद के एक-एक सदस्य को शामिल किया गया था। इस कमेटी ने बीती फरवरी में ही अपनी अनुशंषा न्यायालय को सौंप दी थी जिसमें सिफारिश की गई है कि बच्चों से सम्बन्धित मामलों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की मीडिया की आदत पर रोक लगायी जानी चाहिए तथा बच्चों की पहचान व उनकी निजता से सम्बन्धित बातों को भी प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए ताकि उनके मानसिक व शारीरिक विकास पर कोई विपरीत असर न पड़े। सुनवाई कर रही पीठ ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग, भारतीय प्रेस परिषद, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती व अन्य सम्बन्धित विभागों को निर्देश दिया है कि वे कमेटी की सिफारिशों का प्रचार-प्रसार कर बाल हितों की रक्षा करें। हालाँकि न्यायालय ने यह सदाशा भी प्रकट की है कि मीडिया स्वयं ही संयम से रिपोर्टिंग कर जे.जे.एक्ट का पालन करेगा।
              अन्यान्य कारणों से मीडिया आज अतिरंजित होकर रिपोर्टिंग करता है। इसके पीछे प्राय: वैचारिक व व्यावसायिक कारण ही होते हैं लेकिन एक तीसरा कारण भी होता है और वह है नासमझी का। बहुधा ऐसा होता है कि बच्चों या फिर वयस्कों के मामलों में भी रिपोर्टिंग करते समय संवाददाता यह भूल जाता है कि उस व्यक्ति की कोई निजी जिन्दगी भी है और कैमरे के सामने या अखबार में छप जाने के बाद उसे अपने परिवेश में लोगों से दो-चार होना पड़ेगा। बच्चों के उत्पीड़न या महिलाओं के दैहिक शोषण की परिचय सहित खबरें उनका शेष जीवन भी नारकीय बना देती है। हाल के दशकों में मीडिया की अतिरंजना का जबरदस्त उदाहरण अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमले के समय मिला था जब एक खास विचारधारा वाले समाचार पत्रों ने पुलिस गोलीबारी से मरने वालों की संख्या के बारे में बताया था कि मृतकों को ट्रकों में भरकर सरयू नदी में फेंका गया था! हालॉकि उन्हीं अखबारों ने एक-दो दिन के बाद मृतकों की संख्या को काफी कम करके अपनी ही पूर्ववर्ती खबर को गलत साबित किया था और इस काम के लिए बाद में भारतीय प्रेस परिषद ने ऐसे अखबारों की भर्त्सना भी की थी। वर्ष 2008 में मुम्बई में हुए ताज हमले के समय भी मीडिया के अति उत्साह को लेकर तमाम सवाल उठाये गये थे और प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी थी लेकिन अंतिम निष्कर्ष यही निकला था कि मीडिया आत्मानुशासित रहे तभी उचित होगा। इसी क्रम में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने स्वयं ही एक कमेटी बनाकर आत्मानुशासन के मानदंड तय किये थे। हालॉकि यह कहना मुहाल है कि उसमें से कितनों का पालन किया जा रहा है! यही कारण तो है कि भारतीय प्रेस परिषद जैसी स्वायत्तशाषी व विधायी संस्था ने भी दंड देने का अधिकार नहीं लिया है। वह गलत कृत्यों के लिए समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की महज भर्त्सना ही करती है क्योंकि यदि वह दंड देने का अधिकार लेगी तो उसके दंड के विरुध्द अपील भी होगी और इस प्रकार उसकी सर्वोच्चता जाती रहेगी।
               समाचार संकलन व प्रस्तुतिकरण में संतुलन का निरंतर अभाव होता जा रहा है। खबरों के साथ विचारों का घालमेल कर देना अब आम बात हो गई है। समाचार लेखन में गलत शब्दों का प्रयोग कर अर्थ का अनर्थ (जैसे आरोपित की जगह आरोपी तथा मुखालफ़त की जगह खिलाफ़त जैसे बहु प्रयुक्त शब्द) तो किया ही जा रहा है, इससे भी ज्यादा खतरनाक काम तो तमाम समाचारों को अदालती फैसले की तरह लिखने में किया जा रहा है। मसलन,पुलिस कहती है कि उसने चार बदमाश पकड़े तो संवाददाता भी लिख देता है कि चार बदमाश पकड़े गये!जबकि प्राय:90 प्रतिशत मामलों में इन कथित बदमाशों को अदालत बाइज्जत बरी कर देती है क्योंकि पुलिस का पक्ष बेहद लचर होता है। यही रवैया सेक्स रैकेट के मामले में होता है जब अखबार छापता है कि चार काल-गर्ल पकड़ी गई!वो तो भुक्तभोगियों के पास संसाधन या जानकारी का अभाव ही इन अखबारों की बचत बन जाता है अन्यथा ऐसे 'बदमाश' या 'कालगर्ल' अगर न्यायालय चले जॉय तो ये अखबार सजा के पात्र हो सकते हैं। हैरत तो यह देखकर होती है कि जिस समय में अप्रशिक्षित लेकिन स्वत:स्फूर्त लोग इस क्षेत्र में आते थे तब इसकी मर्यादा कहीं ज्यादा बनी रहती थी जबकि आज अगर मीडिया ने उद्योग का रुप ले लिया है तो इसके लिए प्रशिक्षित कामगार तैयार करने की फैक्टरियाँ भी खूब खुल गई हैं फिर भी अधकचरापन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा संभवत: सम्पादक नामक संस्था में हुए ह्रास के कारण ही हो रहा है। सम्पादक कभी स्वयं में एक पाठशाला हुआ करता था। 0 0

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